इस वर्ष मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड की जूरी में श्याम बेनेगल, व्ही शांताराम के सुपुत्र किरण शांताराम, वरिष्ठ पत्रकार और डाक्यूमेंट्री निर्माता संजीत नार्वेकर, निर्देशक मधुर भंडारकर के साथ मैं भी था। इस बात को लेकर मैं बेहद उत्साहित था कि श्याम बेनेगल जैसे कद्दावर फिल्म निर्देशक के साथ बैठने बतियाने का अवसर मिलेगा। मेरे मन में कई प्रश्न थे जो मैं श्याम बाबू से पूछना चाहता था। नियत तिथि पर मुंबई पहुंचा। जूरी की बैठक के लिए जब पहुंचा तो बताया गया कि श्याम बाबू बीमार हैं। वो नहीं आ पाएंगे और आनलाइन जुड़ेंगे। मगर डायलिसिस में देर हो जाने के कारण वो उस दिन बैठक में आनलाइन भी नहीं जुड़ पाए। बैठक के दौरान ही उनका एक ईमेल मेरे पास आया कि आप जो तय कर देंगे मेरी उस नाम पर सहमति होगी। मैं चौंका क्योंकि इसके पहले कभी श्याम बाबू से भेंट नहीं हुई थी, उनसे परिचय भी नहीं था। जूरी की बैठक हो गई। नाम तय हो गया। फेस्टिवल के आयोजकों को सम्मानित किए जानेवाले फिल्मकार का नाम दे दिया गया। हमें बताया गया कि श्याम बाबू ने मीटिंग की मिनट्स मगंवाई है। बात आई-गई हो गई। शाम को मैं वापस दिल्ली लौट आया। अगले दिन सुबह फोन की घंटी बजी, मैंने उठाया तो उधर से आवाज आई कि श्याम बेनेगल बोल रहा हूं, क्या आप अनंत विजय हैं। मैंने सोचा कि कोई प्रैंक कर रहा है और फोन काट दिया। फिर उसी नंबर से फोन आया तो मैंने उठाकर कहा कि क्यों मजाक कर रहे हो भाई। श्याम बेनेगल साहब के पास न तो मेरा नंबर है और ना ही वो मुझे जानते हैं। इसपर फोन करनेवाले व्यक्ति ने कहा कि वो बेनेगल ही बोल रहे हैं और उनको मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड के बारे में बात करनी है। तब मुझे लगा कि ये श्याम बाबू ही हैं। मैंने प्रणाम किया और फोन काटने के अपराध के लिए क्षमा मांगने लगा तो बोले कि आपकी प्रतिक्रिया उचित थी। खैर... अवार्ड के चयन पर उन्होंने बात की और धन्यवाद कहा। मैंने उनके फोन रखने के पहले पूछा कि श्याम बाबू मैं आपसे समांतर सिनेमा के बारे में कुछ बात करना चाहता हूं। लेकिन थोड़ी लंबी बात होगी तो समय दे दीजिए। उन्होंने अगले दिन सुबह 11 बजे फोन करने को कहा।
अगले दिन सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा करते हुए कुछ प्रश्न तैयार करना आरंभ किया। तैयार कर भी लिया। अगे दिन 11 बजते ही फोन मिला दिया। श्याम बाबू ने फोन उठाकर कहा कि आप समय के पाबंद हैं यह जानकर खुशी हुई। अब उनको मैं क्या कहता कि मैं तो सुबह 11 बजने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। हाल-चाल पूछकर बोले कि बताइए क्या पूछना है। मैंने श्याम बाबू से कहा कि आप समांतर सिनेमा के आरंभिक निर्देशकों में माने जाते हैं तो क्या आप लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से एक विशेष तरह की फिल्में बनानी शुरू कीं। आपलोगों ने जिस तरह से हिंदी फिल्मों में आम लोगों का प्रवेश करवाया क्या उसके पीछे कम्युनिस्ट विचारधारा थी। आगे कुछ बोलता इसके पहले वो बोले कि आपको जानकर आश्चर्य होगा कि समांतर सिनेमा को पहचान एक बहुत ही दिलचस्प कारण से मिली। आपको एक प्रसंग बताता हूं। मैंने जब अंकुर फिल्म बनाई थी तो सत्यजित राय को दिखाई थी। फिल्म देखने के बाद राय साहब ने जानना चाहा था कि अंकुर से मेरी क्या अपेक्षा है। तब मैंने उनको बताया था कि मेरी अपेक्षा बस इतनी है कि ये फिल्म मुंबई के इरोस सिनेमा हाल में सप्ताह भर चल जाए। तो उन्होंने कहा था कि एक नहीं कई हफ्तों तक चलेगी ये फिल्म। उस समय मुझे लगा था कि सत्यजित राय साहब ने मेरे उत्साहवर्धन के लिए ऐसा कहा था। उनका आशीर्वाद फलीभूत हुआ। मेरी फिल्म इरोस में पहली बार दिखाई गई। संभवत: वो पहली हिंदी फिल्म भी थी जो इरोस में दिखाई गई। इसमें ना तो मेरा कोई योगदान था और ना ही सिनेमाघऱ के मालिक की उदारता।
हुआ ये था कि उन दिनों इरोस समेत दक्षिण मुंबई के सिनेमाघरों में अमेरिकी फिल्में चला करती थीं। उन सिनेमाघरों में हिंदी की फिल्में नहीं दिखाई जाती थीं। 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों की बात थी। भारत सरकार ने हालीवुड की फिल्मों के आयात पर आंशिक पाबंदी लगा थी। सरकार ने एक संख्या तय कर दी थी कि इतनी ही अमेरिकी फिल्में आयात होकर भारत के सिनेमाघरों में दिखाई जा सकती है। सरकार में बैठे लोगों का सोच था कि इससे भारतीय फिल्मों को बढ़ावा मिलेगा। विदेशी मुद्रा विनिमयन की भी सीमा तय कर दी गई थी। परिणाम ये हुआ कि दक्षिण मुंबई के अलावा अन्य महानगरों के सिनेमाघरों में दिखाने के लिए हालीवुड की फिल्में कम हो गईं। सिनेमाघरों के स्क्रीन खाली होने लगे। ये वही समय था जब मेरी और मेरे जैसी फिल्म बनाने वाले निर्देशकों की फिल्में आने लगीं। हमें इन महानगरों के सिनेमाघरों में एक संभावना नजर आई। हमने उनसे संपर्क कर अपनी फिल्में वहां दिखानी आरंभ की। हमें स्क्रीन मिलने लगे और सिनेमाघर मालिकों को फिल्में। जो दर्शक अंग्रजी फिल्में देखने इन सिनेमाघरों में आते थे वही दर्शक हमारी फिल्मों को मिलने लगे। समाज में हमारी फिल्मों की चर्चा होने लगी। अंग्रजीदां लोगों को हमारी फिल्में अच्छी लगने लगीं और फिर समांतर सिनेमा, वैकल्पिक सिनेमा या नया सिनेमा जैसी संज्ञा हमारी फिल्मों को मिले। जब महानगरों में ये फिल्में दिखाई जाने लगीं तो अंग्रेजी मीडिया ने भी हमारी फिल्मों पर लिखना आरंभ कर दिया। इस तरह से समांतर सिनेमा को एक पहचान मिली। ये पहचान बाद में देशव्यापी हुई। श्याम बाबू इसके बाद हंसे और बोले कि कुछ अन्य कारण भी थे जिसके कारण हमारी फिल्में मुख्यधारा की फिल्मों से अलग दिखती थीं। दरअसल उस समय मुख्यधारा की जो फिल्में बन रही थीं उनमें कहानियां और ट्रीटमेंट कमोबेश एक जैसे होते थे जिससे दर्शक उबने लगे थे। आपको याद रखना चाहिए था कि ये वही दौर था जब अमिताभ बच्चन का भी उदय हो रहा था। कहानियां और कहानी कहने का अलग अंदाज भी एक कारण थे जिसको ना केवल समांतर सिनेमा ने अपानाया बल्कि मुख्यधारा की फिल्मों में भी वो बदलाव दिखा। लंबी बात हो गई थी। मेरे पास कई प्रश्न शेष थे लेकिन श्याम बाबू ने कहा कि अगली बार जब मुंबई आएं तो मिलें। बैठकर बातें करेंगे। अफसोस कि श्याम बाबू से बातें अधूरी रह गईं। मुंबई जाना होगा लेकिन अब उनसे मिलना नहीं पाएगा। उनके निधन ने मुझसे ये अवसर छीन लिया।
श्याम बेनेगल जी से बात करने के बाद समांतर सिनेमा को देखने का मेरा नजरिया बदला। ये भी लगा कि किस तरह से वामपंथी विचारधारा के लोग किसी भी चीज को लेबल कर देते हैं । इसमें उनका पूरा ईरोसिस्टम कार्य करता है। श्याम बाबू की बातों को सुनने के बाद राज कपूर का एक इंटरव्यू याद आ गया जिसमें उन्होंने कहा था कि वो मैसेज देने या समाज को बदलने आदि के लिए कोई फिल्म नहीं बनाते हैं। उनको जो कहानी अच्छी लगती है उसका फिल्मांकन करते हैं। फिल्मों को श्रेणीबद्ध तो फिल्म समीक्षक करते हैं।
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