हाल ही में मुंबई के इंडिया गेट के पास फेरी हादसा हुआ। ये दुखद घटना थी। इस घटना के साथ ही स्मरण हो आया कुछ समय पहले की मुंबई से फेरी से एलिफेंटा की यात्रा। मुंबई के अपोलो बंदर, जो अब गेटवे आफ इंडिया के नाम से ज्यादा जाना जाता है, से अरब सागर स्थित एलिफेंटा द्वीप तक की यात्रा। जहां लोग फेरी से आते-जाते हैं। मुंबई के गेटवे आफ इंडिया से एलिफेंटा तक जाने में करीब घंटे भर का समय लगता है। अरब सागर की लहरों पर हिचकोले खाती फेरियों में सावधानी से बैठे रहना पड़ता है। जब फेरी एलिफेंटा तक पहुंचती है तो ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है। पुर्तगालियों ने इस द्वीप का नाम एलिफेंटा दिया। इस द्वीप पर हाथी की एक विशालकाय प्रतिमा थी जो अब मुंबई के माता जीजाबाई उद्यान में रखी गई है। एलिफेंटा द्वीप पर पहुंचने पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का एक बोर्ड दिखता है जिसपर लिखा है कि एलिफेंटा द्वीप मूलत घारापुरी के नाम से जाना जाता है। एलिफेंटा का नाम यहां से प्राप्त शैलकृत एक विशाल हाथी के कारण रखा गया है। इस बोर्ड से ही ये ज्ञात हुआ कि आर्कियोलाजी सर्वे आफ इंडिया (एएसआई)द्वारा इन गुफाओं को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक अधिसूचना क्रमांक -2704-अ-दिनांक 26.5.1909 द्वारा घोषित किया गया है। तत्पश्चात यूनेस्को द्वारा विश्वदाय स्मारकों की सूची में एलिफेंटा गुफाओं को 1987 में शामिल किया गया है। ये गुफाएं औरर यहां मौजूद मूर्तियां इतनी महत्वपूर्ण है कि इसको वर्ल्ड हैरिटेज साइट माना गया।
अब जरा इस द्वीप की ऐतिहासिकता और यहां प्रदर्शित कला के बारे में जान लेते हैं। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है कि 1579 में इस द्वीप पर जे एच वान नाम का एक यूरोपियन आया था जिसने अपनी पुस्तक डिस्कोर्स आफ वायजेज में इस द्वीप का उल्लेक पोरी के तौर पर किया गया है। इसके आधार पर भारतीय इतिहासकार ये मानते हैं कि सोलहवीं शती में इस द्वीप को पुरी के नाम से जाना जाता होगा। इस द्वीप के नाम को लेकर इतिहासकारों में कई तरह की राय है। एलिफेंटा में पुरातात्विक खोज के दौरान एक ताम्र घट मिला था। उस घट पर जोगेश्वरी देवी के श्रीपुरी में बना, ऐसा उत्कीर्ण है। इसके आधार पर कुछ लोगों का मत है कि इस द्वीप को श्रीपुरी के नाम से जाना जाता होगा। जोगेश्वरी मुंबई महानगर में एक स्थान है। स्थानीय लोग इसको घारापुरी कहते हैं और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के बोर्ड पर भी ऐसा ही लिखा है। घारा को कुछ लोग शैव मंदिरों के पुजारी से भी जोड़ते हैं। क्योंकि शिव मंदिर के पुजारियों को घारी कहा जाता था। इस द्वीप की गुफाओं में शिव के कई स्वरूप की मूर्तियां हैं।संभव है कि वहां पुजारियों की संख्या काफी रही होगी जिसके आधार पर घारापुरी नाम से जाना जाता होगा।
घारापुरी की गुफाओं में स्थित जिस एक मूर्ति के बारे में चर्चा करना आवश्यक लगता है उसको त्रिमूर्ति कहते हैं। यह अद्भुत मूर्ति है। इसमें शिव के तीन दिशाओं में तीन सर और चेहरा हैं। इस मूर्ति में जटा का विन्यास इस तरह से किया गया है कि वो भव्य मुकुट का आभास देता है। सामने शिव का जो चेहरा है वो बेहद गंभीर मुद्रा में है और उसके होठ बहुत मोटे और लटके हुए हैं। आमतौर पर इस तरह के होठ वाली मूर्तियां कम मिलती हैं। इतिहासकार राधाकमल मुखर्जी के अनुसार इस मूर्ति के बीच का मुख निरपेक्ष और पारलौकिक तत्पुरुष सदाशिव का है। दायां चेहरा उग्र, भृकुटि ताने हुए और विनाश व वैराग्य की भावना वाले अघोरभैरव का है और बांयी ओर पार्वती का चेहरा है। मुखर्जी ने अपने लेख प्रतीक और प्रतिमान में लिखा है कि यह त्रिमूर्ति-स्वरूप एक समय भारत तथा गांधार, तुर्किस्तान और कंबोडिया में सुपरिचित था। चीन की युन-थाल गुफा में इसको पाया गया है तथा जापान की दाई इतोक यही है। यह शिव त्रिमूर्ति भारतीय संस्कृति की विशिष्ट विषय वस्तु का अद्वितीय और व्याक प्रतीक है। कुछ लोग इस त्रिमूर्ति को ब्रह्मा, विष्णु और शिव की तरह देखते हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। अधिकतर लोग मुखर्जी से सहमत हैं। जहां शिव की ये त्रिमूर्ति स्थित है उस कक्ष के बाहर दो द्वारपाल की मूर्तियां भी हैं। इस त्रिमूर्ति के अलावा घारापुरी में कई अन्य मूर्तियां भी हैं जो भारतीय कला की श्रेष्ठता को सिद्ध करती हैं। इन मूर्तियों में अर्धनारीश्वर शिव की भी एक मूर्ति है। मंडप के सम्मुख गर्भगृह में पूर्वी द्वार की ओर एक बड़ा सा शिवलिंग है। इन मूर्तियों की खास बात है कि इनको पहाड़ियों को काटकर बनाया गया है। एक शिवलिंग को छोड़कर सभी मूर्तियां पहाड़ी को काटकर बनाई गई है। शिवलिंग का पत्थर अलग प्रतीत होता है । ऐसा लगता है कि इसको कहीं बाहर से लाकर वहां प्रतिष्टइत किया गया होगा।
इतने विस्तार में घारापुरी स्थित मूर्तियों का विवरण इस कारण से दिया ताकि इस बात का अनुमान हो सके कि देश के विभिन्न हिस्सों में कितनी ऐसी चीजें हैं जो ना केवल ऐतिहासिक हैं बल्कि भारतीय कला का उत्कृष्ट उदाहरण भी हैं। जो लोग भारतीय कला को नेपथ्य में रखकर फ्रांसीसी, पुर्तगाली और मुगलकालीन कला पर लहालोट होते रहते हैं उनको घारापुरी की कलाकृतियों को देखकर उसपर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए। एक और बात जिस ओर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है वो इन विरासत का संरक्षण। यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल घारापुरी की इन गुफाओं की उचित देखभाल नहीं हो रही है। यहां पहुंचने वाले पर्यटक आसानी से इन प्रतिमाओं तक पहुंच जाते हैं। ना केवल वहां खड़े होकर फोटो खींचते हैं बल्कि चाक आदि से दीवारों पर कुछ लिख भी देते हैं। नागरिकों को अपने कर्तव्य समझने चाहिए । विरासत को संरक्षित करने रखने में सहयोग करना चाहिए। दूसरी तरफ एएसआई को भी ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि पर्यटक इन कलाकृतियों को दूर से देखें। कुछ मूर्तियों को घेरा गया है लेकिन वो नाकाफी है। इसके अलावा परिसर का रखरखाव भी एएसआई की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह खड़े करता है। वहां उपस्थितत कर्मचारी या गार्ड इन कलाकृतियों को लेकर संवेदनहीन दिखे। उनको इस बात का एहसास ही नहीं था कि उनपर वैश्विक धरोहर के रखरखाव का दायित्व है। कलाकृतियां भी रखरखाव की बाट जोहती प्रतीत हो रही थीं। पहले भी इस स्तंभ में कोणार्क मंदिर और त्रिपुरा के उनकोटि परिसर के रखरखाव में लापरवाही को लेकर लिखा जा चुका है। हमारे ये धरोहर उपेक्षा का शिकार होकर नष्ट होने की ओर बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी निरंतर अपनी विरासत के संरक्षण की बातों पर जोर दे रहे हैं लेकिन संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाली संस्था एएसआई अन्यान्य कारणों से संरक्षण में पिछड़ जा रही है। देश में एक ऐसी संस्कृति नीति की आवश्यकता है जिसमें धरोहरों के संरक्षण को प्रमुखता दी जाए। अधिकारियों का एक अखिल भारतीय काडर बने जो कला संस्कृति और धरोहरों को लेकर विशेष रूप से प्रशिक्षित हों। औपनिवेशक काल की व्यवस्था से बाहर निकलना होगा। आज संस्कृति मंत्रालय का दायित्व वन से लेकर डाक सेवा के अधिकारियों पर है। वन, डाक, रेल और राजस्व की तरह ही कला संस्कृति को नहीं चलाया जा सकता है।
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