कुछ दिनों पहले केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा के साथ अभिनेत्री दीपिका पादुकोण की एक तस्वीर सार्वजनिक हुई। अवसर था दीपिका पादुकोण को केंद्र सरकार के मेंटल हेल्थ एंबेसडर नियुक्त करने का। इस तस्वीर को देखते हुए दीपिका की ही एक और तस्वीर याद आई। वो तस्वीर आज से करीब पांच वर्ष पूर्व की थी। उसमें दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों के मध्य उनको समर्थन देने पहुंची थी। वो आंदोलन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्लाय में लेफ्ट समर्थित छात्र संगठनों का था। आंदोलनकारी मोदी सरकार के विरोध में थे। इस तस्वीर की याद आते ही मन में प्रश्न उठा कि सिर्फ पांच वर्षों में ये बदलाव कैसे। जो दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों का समर्थन करने पहुंची थी उसको भारत सरकार ने मेंटल हेल्थ का अंबेसडर क्यों बना दिया। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े अपने साथियों से बात कर ये जानने का प्रयास किया कि क्या दीपिका पादुकोण के विचार बदल गए हैं, क्योंकि कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने एक साक्षात्कार में राहुल गांधी की भी प्रशंसा की थी। क्या केंद्र सरकार अधिक समावेशी हो गई है। हिंदी फिल्मों से जुड़े लोगों से बात करने पर पता चला कि ये सब पब्लिक रिलेशन यानि पीआर का खेल है।
आज हिंदी फिल्मों के छोटे-बड़े सितारे सभी पीआर कंपनियों के भरोसे चल रहे हैं। उन्हें कहां जाना है, कितना बोलना है से लेकर सार्वजनिक जगहों पर कैसे कपड़े पहनने हैं आदि सभी कुछ पीआर कंपनियां या उनके नुमांइदें ही तय करते हैं। यह अनायास नहीं है कि सभी अभिनेता-अभिनेत्रियों के एयरपोर्ट के वीडियो इंटरनेट मीडिया पर आ जाते हैं। बताया गया कि कोई भी अभिनेता या अभिनेत्री कहीं आते जाते हैं तो उसकी पूर्व सूचना पैपराजियों को या इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय पीआर हैंडल्स को दे दी जाती है। सितारों के गाड़ी से उतरने से लेकर एयरपोर्ट के अंदर जाने तक का वीडियो चंद मिनटों में वायरल करवाने का प्रयास किया जाता है। इसके पीछे एक पूरा तंत्र काम करता है। इसकी एक आर्थिकी भी है। अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि सितारों को कितना बोलना है ये भी पीआर कंपनी के लोग ही बताते हैं। आज से कुछ वर्षों पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपनी मन की बात मीडिया से साझा करते थे। इससे उनकी एक छवि बनती थी। अब तो सबकुछ पहले से तय होने लगा है। किसी सितारे के इंटरव्यू को लेकर जिस तरह की खबरें आती हैं वो भी चिंताजनक हैं। भगवान जाने इसमें कितनी सचाई है लेकिन बताया जाता है कि पीआर कंपनी वाले मीडिया के लोगों को पहले से बताते हैं कि क्या प्रश्न करना है और कितने प्रश्न पूछने हैं। जब इंटरव्यू हो रहा होता है तो पीआर कंपनी वाले वहां मौजूद रहते हैं। अगर साक्षात्कारकर्ता तय प्रश्नों से अलग जाने का प्रयास करता है तो पीआर वाले रोकने की कोशिश करते हैं। ऐश्वर्य़ राय की एक फिल्म आई थी ऐ दिल है मुश्किल। उस समय इस तरह की चर्चा हुई थी कि जब साक्षात्कारकर्ताओं ने ऐश्वर्य से उनके और रणबीर की आनस्क्रीन केमेस्ट्री के बारे में प्रश्न किया था तो पीआरवालों ने रोक दिया था। कुछ लोग तो बिना इंटरव्यू किए निकल भी गए थे। पहले अभिनेता-अभिनेत्री अपने दिमाग से प्रश्नों के उत्तर देते हैं अब वो बताई गई बातें ही बोलते हैं। याद करिए शाह रुख खान के कितने स्मार्ट इंटरव्यूज हुआ करते थे। अब वो बहुत नाप-तौल कर बोलते हैं। सिर्फ शाह रुख ही क्यों रणवीर सिंह के पुराने साक्षात्कार देखिए और अभी के देखिए। आपको जमीन आसमान का अंतर नजर आएगा।
सितारों के छवि निर्माण की कला होती है। उसका प्रबंधन भी किया जाता रहा है लेकिन हिंदी फिल्मों के सितारों को जिस तरह से पीआर कंपनियों ने घेर लिया है उससे उनकी मौलिकता बाधित हो रही है। सितारों की सार्वजनिक छवि बनाने के काम में अधिकतर 25 से 30 वर्ष के युवक युवतियां लगे हुए हैं। विशेषकर अगर बड़े सितारों के इर्द-गिर्द नजर डालेंगे तो ये सब आपको स्पष्ट दिखाई देगा। अब चालीस पचास वर्ष के अभिनेताओं को ये लड़के-लड़ियां बताती हैं कि क्या बोलना है। इनमें से ज्यादातर लोग वैसे हैं जिनकी दुनिया ही इंटरनेट मीडिया है। वो रील्स, लाइक और रीपोस्ट के आधार पर सबकुछ तय करते हैं। कुछ दिनों पूर्व हिंदी फिल्मों के सुपरस्टार्स के ताम-झाम पर आने वाले खर्चे को लेकर निर्माता-निर्देशक करण जौहर ने सवाल उठाए थे। उनका कहना था कि अभिनेता-अभिनेत्रियों के साथ चलनेवाले लोगों और शूटिंग के दौरान उनकी सुविधाओं पर निर्माताओं को बड़ी राशि खर्च करनी पड़ती है। इससे फिल्म की लागत कई गुणा बढ़ जाती है। कई निर्माताओं ने करण की इस बात का समर्थन किया। अब जरा देख लेते हैं कि ताम-झाम क्या होता है। सुपरस्टार्स के साथ गाड़ियों का काफिला होगा। वैनिटी वैन होगी। स्टार की गाड़ी अलग होगी, उनके साथ आवश्यक व्यक्तियों के साथ पीआर की लंबी चौड़ी टीम होगी। वो जहां भी जाएंगें या जाएंगी पीआर के लोग उनके साथ इस कारण रहते हैं कि उनको आवश्कता से अधिक सुविधाएं, बहुधा निरर्थक, की मांग रखी जा सके।
ओमएमजी- 2 के निर्देशक अमित राय ने एक बार बातचीत के दौरान बताया था कि चाय से अधिक गरम केतली होती है। तात्पर्य ये था कि हीरो या हिरोइन से अधिक उनकी पीआर टीम उनको लेकर, उनके एपियरेंस को लेकर, अगर वो कहीं बाहर हैं तो वो किस होटल में रहेंगे, किस तरह का कमरा होगा, उनके सहयोगी कैसे कमरे में रहेंगे, कैसी गाड़ी होगी, कितने लोग होंगे सबकी सूची बनाते रहते हैं। उन्होंने बताया कि एक दिन रविवार को अक्षय कुमार के साथ किसी रेलवे स्टेशन पर शूट करना था लेकिन उनकी टीम ने अमित को बताया कि सर (अक्षय) रविवार को शूट नहीं करते हैं। सारी तैयारी हो चुकी थी। रेलवे से अनुमति मिल गई थी। ऐसे में अमित राय ने सीधे अक्षय को फोन किया। वो शूटिंग के लिए तैयार हो गए। मतलब चाय का तापमान ठीक था लेकिन केतली गर्म थी। इसी तरह वाराणसी में जागरण फिल्म फेस्टिवल के दौरान बातचीत में अभिनेता सिद्धांत चतुर्वेदी ने भी हिंदी फिल्मों की दुनिया में पीआर कल्चर पर टिप्पणी की थी। जब बड़े सितारे ऐसा करते हैं तो अपेक्षाकृत कम लोकप्रिय सितारे भी ये समझने लगे हैं कि इसी तरह से स्टारडम हासिल किया जा सकता है। आपकी स्टार वैल्यू तभी बढ़ेगी जब विलासितापूर्ण जीवन जीते दिखेंगे। आज अगर दर्शक फिल्मों से दूर हो रहे हैं तो उसके अन्यान्य कारणों में से एक कारण पीआर कल्चर भी है। ये संस्कृति परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से छवि निर्माण के नाम पर सितारों को उनके प्रशंसकों से दूर कर रहे हैं। उनके सोच को जनता तक नहीं आने दे रहे हैं। फिल्म दर्शकों से मीडिया के माध्यम से उनका जो एक संवाद बनता था वो सही तरीके बन नहीं पा रहा है। रील्स या इंस्टा पर विलासिता का भोंडा प्रदर्शन दर्शकों को पसंद नहीं आता है। अभिनेता के काम से दर्शक उनको पसंद करते हैं पीआर के चक्रव्यूह से नहीं। हिंदी फिल्म जगत को इस बारे में सोचना होगा।
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