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Thursday, December 19, 2013

अब बिलंब केहि कारण कीजै

गोस्वामी तुलसी दास जी रामचरित मानस में एक जगह कहते हैं साखामृग कै बड़ी मनुसाई, साखा ते साखा पर जाई । मतलब कि बंदर का बस यही पुरुषार्थ है कि वो एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है । संदर्भ लंका दहन के बाद हनुमान और राम का संवाद है । लेकिन इस वक्त हमारे देश में कानून की हालत साखामृग जैसी हो गई है । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज और पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस ए के गांगुली पर लगे यौन शोषण के आरोपों में कानून और उसका पालन करवाने वाले भी साखामृग की तरह एक डाल से दूसरी डाल पर कूदने में ही अपना पुरुषार्थ समझ रहा है । पीड़ित इंटर्न, अब वकील, का हलफनामा सामने आने के बाद मामले की गंभीरता और बढ़ जाती है । अपने उपर लगे आरोपों के बाद जस्टिस गांगुली ने सफाई दी थी कि पीड़िता उनकी बच्ची की तरह है । उनकी सफाई और इंटर्न के हलफनामे में दर्ज उसकी आपबीती को मिला दें तो जस्टिस गांगुली का अपराध और बढ़ जाता है । शराब पीने की जिद करना, अपने कमरे में रात गुजारने की गुजारिश करना, शराब पिलाकर गले में हाथ डालना और हाथों पर चुंबन करना- क्या यह सब कोई अपने बच्चे के साथ करता है । इतना सब कुछ होने के बावजूद जस्टिस गांगुली पर अबतक केस दर्ज कर कार्रवाई नहीं करना उससे भी बड़ा अपराध है । दरअसल इस पूरे मामले अंग्रेजी का कहावत - यू शो मी द फेस, आई विल शो यू द लॉ सही प्रतीत हो रहा है । बड़े और ताकतवर लोगों के लिए कानून की परिभाषा और उसके निहितार्थ बदल कर उसकी व्याख्या की जा रही है । कानून अपनी तरह से काम करेगा के जुमले सुनने में आ रहे हैं लेकिन कानून का तरीका अलहदा है । पुलिस भी इस मामले में कार्रवाई करने में हिचकती नजर आ रही है । इस केस की जांच और कार्रवाई शुरू से ही धीमी गति से चल रही है । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ए के गांगुली का नाम लिए बगैर जब एक लड़की ने अपने साथ हुए वाकए को एक ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक किया तो पूरे देश में हडकंप मच गया । इस तरह के केस में आगे बढ़कर पीड़ि्तों को न्याय दिलाने के लिए जोर शोर से मुद्दे को उठाने वाली मीडिया भी शुरुआत में सहमी नजर आई । संभवत सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के आरोपी होने की वजह से मीडिया सावधानी से आगे बढ़ना चाह रहा था । धीरे ही सही लेकिन मीडिया ने इस मुद्दे को उठाए रखा । यह वही वक्त था जब तरुण तेजपाल का अपने ही एक सहयोगी से यौन शोषण का मामला सुर्खियों में था । दबी जुबान में ही सही सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पर यौन शोषण का आरोप भी सुर्खियों में आने लगा । मामले के चर्चित होते ही सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले की जांच के लिए तीन जजों की कमेटी बना दी । अब सवाल यह उठता है कि इन तीन जजों की कमेटी किस कानून और किस आधार पर बनाई गई । सुप्रीम कोर्ट को यह बात सार्वजनिक करनी चाहिए कि उसने किस कानून के तहत तीन जजों की जांच कमेटी बनाई । भारत के पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल विकास सिंह ने तो एक टेलिविजन कार्यक्रम में यौन शोषण के आरोप की जांच के लिए बनाई गई सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की समिति को गैरकानूनी करार दिया । अपराध की जांच का काम पुलिस का होता है । किसी मामले की न्यायिक जांच की आवश्कता होती है तो कार्यपालिका इस बारे फैसला लेती है । कार्यपालिका के अनुरोध पर न्यायपालिका का मुखिया न्यायिक जांच के लिए न्यायाधीश तय करते हैं । लेकिन इस केस में तो कोर्ट ने स्वत: ये फैसला ले लिया की जांच तीन जजों की कमेटी करेगी । सवाल यही है कि किस कानून के तहत ।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की समिति जब इंटर्न यौन शोषण मामले की जांच करने लगी तो पुलिस को इसकी आड़ मिल गई और उसने जांच शुरू नहीं की । तर्क ये दिया गया कि जब सुप्रीम कोर्ट के तीन जज इस मामले को देख रहे हैं तो पुलिस को इंतजार करना चाहिए । लिहाजा कोई मुकदमा भी दर्ज नहीं हुआ । जबकि तरुण तेजपाल के केस में पुलिस ने दो ईमेल के आधार पर मुकदमा दर्ज कर तफ्तीश शुरू कर दी थी । कालांतर में तरुण की गिरफ्तारी भी हुई । इंटर्न यौन शोषण मामले में भी पीड़िता ने लिखकर अपने साथ हुए पूरे वाकए का विवरण दिया था । बाद में सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के सामने हलफनामा भी दिया जो अब सबते सामने हैं । सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की समिति ने पीड़िता के बयान भी दर्ज किए । इस सारी कार्यवाही के बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सताशिवम ने एक बयान जारी किया । उस बयान में माना गया कि रिटायर्ड जस्टिस ए के गांगुली पर प्रथम दृष्टया गलत यौन व्यवहार का मामला लगता है । उसी बयान में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये मामला जिस वक्त है उस वक्त ना तो जस्टिस ए के गांगुली सुप्रीम कोर्ट में थे और ना ही वो इंटर्न सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही थी । लिहाजा कोर्ट इस इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है । सवाल यह उठता है कि कोर्ट अगर कार्रवाई नहीं कर सकता है तो भी अगर प्रथम दृष्टया केस बनता है तो रजिस्ट्रार जनरल को केस दर्ज करवाने का आदेश तो दियाजा सकता था । या फिर पुलिस को जांच हुक्म दियया जाता है । इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी साफ आदेश नहीं दिया ना ही जस्टिस गांगुली के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी दी । इस पूरे मामले में पूरा देश सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की ओर बड़ी अपेक्षा से देख रहा था । अपेक्षा ऐतिहासिक फैसले की थी । ऐसा नहीं होने से देश निराश हुआ ।

इसी बयान के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चौतरफा सवाल खड़े होने लगे । कानून मंत्री कपिल सिब्बल और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता है । लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट खामोश है । आदर्श स्थिति तो यह होती कि उच्चतम न्यायालय की समिति को जब जस्टिस गांगुली के यौन व्यवहार में गलती दिखाई दी थी तो उनको उचित एजेंसी को यह निर्देश देना चाहिए था कि वो कानून सम्मत तरीके से काम करे । सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा भी नहीं किया । सुप्रीम कोर्ट से किसी तरह की कार्रवाई का आदेश या कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं आने से जस्टिस ए के गांगुली के हौसले को बल मिला और उन्होंने पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया । चौतरफा दबाव के बावजूद जस्टिस गांगुली पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के सदस्य बने हुए हैं । मामला संसद में उठ चुका है । गृह मंत्रालय कानून मंत्रालय की राय ले रहा है । सबसे बड़ी चुनौती जांच एजेंसियों यानि पुलिस की है । सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षित आदेश नहीं मिलने के बाद पीड़िता के साथ साथ महिला अधिकारों की वकालत और संघर्ष करनेवालों का भरोसा भी अब पुलिस पर ही है । इस मामले में प्रधानमंत्री को फौरन दखल देकर राष्ट्रपति से जस्टिस गांगुली को बरखास्त करने की सिफारिश करनी चाहिए और पुलिस को केस दर्ज कर जस्टिस गांगुली से पूछताछ करनी चाहिए जरूरत पड़ने पर गिरफ्तारी भी । क्योंकि पीड़िता के हलफनामे के सार्वजनिक होने के बाद बिलंब की कोई वजह बच नहीं जाती है । अगर ऐसा होता है तो इससे कानून में लोगों की आस्था प्रगाढ़ होगी  नहीं तो फिर चेहरा देखकर कानून की बात और व्याख्या का मुहावरा सही साबित होगा । 

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