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Friday, December 13, 2013

क्या मिलेगा न्याय

अंग्रेजी में एक कहावत है यू शो मी द फेस, आई विल शो यू द लॉ । इस मुहावरे का प्रयोग बड़े और सक्षम लोगों के लिए किया जाता है जिनके लिए कानून की परिभाषा और उसके निहितार्थ बदल कर उसकी व्याख्या की जाती है । यह कहावत सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ए के गांगुली के केस में सही होता हुआ प्रतीत हो रहा है । कानून की अलग अलग तरह से व्याख्या हो रही है । कानून अपनी तरह से काम करेगा के जुमले सुनने में आ रहे हैं लेकिन कानून का जो अपना तरीका है वो अलहदा है । पुलिस भी इस मामले में कार्रवाई करने में हिचकती नजर आ रही है । इस केस की जांच और कार्रवाई शुरू से ही धीमी गति से चल रही है । सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ए के गांगुली का नाम लिए बगैर जब एक लड़की ने अपने साथ हुए वाकए को एक ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक किया तो पूरे देश में हडकंप मच गया । इस तरह के केस में आगे बढ़कर पीड़ि्तों को न्याय दिलाने के लिए जोर शोर से मुद्दे को उठाने वाली मीडिया भी शुरुआत में सहमी नजर आई । संभवत सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज के आरोपी होने की वजह से मीडिया सावधानी से आगे बढ़ना चाह रहा था । धीरे ही सही लेकिन मीडिया ने इस मुद्दे को उठाए रखा । यह वही वक्त था जब तरुण तेजपाल का अपने ही एक सहयोगी से यौन शोषण का मामला सुर्खियों में था । दबी जुबान में ही सही सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज पर यौन शोषण का आरोप भी सुर्खियों में आने लगा । मामले के चर्चित होते ही सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मामले की जांच के लिए तीन जजों की कमेटी बना दी । अब सवाल यह उठता है कि इन तीन जजों की कमेटी किस कानून और किस आधार पर बनाई गई । सुप्रीम कोर्ट को यह बात सार्वजनिक करनी चाहिए कि उसने किस कानून के तहत तीन जजों की जांच कमेटी बनाई । इस बात के साफ होने से सुप्रीम कोर्ट पर उठ रहे सवालों पर भी विराम लग जाएगा । भारत के पूर्व एडिशनल सॉलिसीटर जनरल विकास सिंह ने तो एक टेलिविजन कार्यक्रम में यौन शोषण का जांच करने के लिए बनाई गई सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की समिति को ही गैरकानूनी करार दे दिया था । किसी भी अपराध की जांच का काम पुलिस का होता है । अगर किसी भी मामले की न्यायिक जांच की आवश्कता होती है तो कार्यपालिका इस बारे फैसला लेती है । कार्यपालिका के अनुरोध पर न्यायपालिका का मुखिया न्यायिक जांच के लिए न्यायाधीश तय करते हैं । लेकिन इस केस में तो कोर्ट ने स्वत: ये फैसला ले लिया की जांच तीन जजों की कमेटी करेगी । सवाल यही है कि किस कानून के तहत ।
सुप्रीम कोर्ट के जजों की समिति जब इंटर्न यौन शोषण मामले की जांच करने लगी तो पुलिस को इसकी आड़ मिल गई और उसने जांच शुरू नहीं की । तर्क ये दिया गया कि जब सुप्रीम कोर्ट के तीन जज इस मामले को देख रहे हैं तो पुलिस को इंतजार करना चाहिए । लिहाजा कोई मुकदमा भी दर्ज नहीं हुआ । जबकि तरुण तेजपाल के केस में पुलिस ने दो ईमेल के आधार पर मुकदमा दर्ज कर तफ्तीश शुरू कर दी थी । कालांतर में तरुण की गिरफ्तारी भी हुई । लेकिन इंटर्न यौन शोषण मामले की जांच शुरू नहीं हुई । यहां भी पीड़िता ने लिखकर अपने साथ हुए पूरे वाकए का विवरण दिया था । मेरा मकसद इस केस की तुलना तरुण तेजपाल के केस से करने की नहीं है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की समिति की वैधता पर तो सवाल खड़े होते ही हैं । सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की समिति ने पूर्व जस्टिस ए के गांगुली, पीड़िता आदि के बयान दर्ज किए । उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सताशिवम के हस्ताक्षऱ से एक बयान जारी हुआ । उसमें माना गया कि रिटायर्ड जस्टिस ए के गांगुली पर प्रथम दृष्टया गलत यौन व्यवहार का मामला लगता है । उसी बयान में यह भी कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि ये मामला जिस वक्त है उस वक्त ना तो जस्टिस ए के गांगुली सुप्रीम कोर्ट में थे और ना ही वो इंटर्न सुप्रीम कोर्ट में काम कर रही थी । लिहाजा कोर्ट इस इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं कर सकता है । सवाल यह उठता है कि कोर्ट अगर कार्रवाई नहीं कर सकता है तो भी अगर प्रथम दृष्टया केस बनता है तो जांच का आदेश तो दिया ही जा सकता है । इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई भी साफ आदेश देने से इंकार कर दिया । प्रथम दृष्टया गलती पाने के बाद भी जस्टिस गांगुली के खिलाफ कोई प्रतिकूल टिप्पणी भी नहीं दी गई । जस्टिस गांगुली के व्यवहार को लेकर भी कुछ नहीं कहा गया । इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की तरफ पूरा देश एक बड़ी अपेक्षा के साथ देख रहा था कि वहां से कोई ऐतिहासिक फैसला या कोई ऐतिहासिक निर्णय आएगा । लेकिन ऐसा नहीं होने से देश के लोगों में निराशा हुई ।

इसी बयान के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर चौतरफा सवाल खड़े होने लगे । कानून मंत्री कपिल सिब्बल और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने कहा कि इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता है । लेकिन अबतक इस पूरे मामले पर सुप्रीम कोर्ट खामोश है । आदर्श स्थिति तो यह होती कि उच्चतम न्यायालय की समिति को जब जस्टिस गांगुली के यौन व्यवहार में गलती दिखाई दी थी तो उनको उचित एजेंसी को यह निर्देश देना चाहिए था कि वो कानून सम्मत तरीके से काम करे । सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा भी नहीं किया । सुप्रीम कोर्ट से किसी तरह की कार्रवाई का आदेश या कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं आने से जस्टिस ए के गांगुली के हौसले को बल मिला और उन्होंने पश्चिम बंगाल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया । अब सबसे बड़ा सवाल है कि पीड़िता एक भरोसे के तहत जस्टिस गांगुली से मिलने गई थी । उसके मुताबिक वहां उसके साथ बदसलूकी हुई । अब सबसे बड़ी चुनौती जांच एजेंसियों यानि पुलिस की है । सुप्रीम कोर्ट से अपेक्षित आदेश नहीं मिलने के बाद पीड़िता के साथ साथ महिला अधिकारों की वकालत और संघर्ष करनेवालों का भरोसा भी अब पुलिस पर ही है । नहीं तो फिर चेहरा देखकर कानून की बात और व्याख्या का मुहावरा सही साबित होगा ।   

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