सन् 2002 में जब चर्चित उपन्यासकार मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का पहला खंड छपा था तो उसके शुरू में लेखिका की टिप्पणी थी - इसे उपन्यास कहूं या आपबीती......? तब इस बात को लेकर खासा विवाद हुआ था कि ये आत्मकथा है उपन्यास । लेकिन ये विवादज करने वालों ने शायद ये ध्यान नहीं दिया इस तरह का प्रयोग कोई नई बात नहीं थी ।
हिंदी में इस तरह का पहला प्रयोग भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1876 में पहली बार - एक कहानी, कुछ आपबीती, कुछ जगबीती में किया था । लेकिन जब छह साल बाद जब मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा खंड- गुडिया भीतर गुडिया- प्रकाशित हुआ तो लेखिका ने इस बात से किनारा कर लिया और पाठकों के सामने पूरी तौर पर इसे आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत किया, और एक अनावश्यक विवाद से मुक्ति पा ली।
पहले खंड - कस्तूरी कुंडल बसै- में लेखिका ने मैं के परतों को पूरी तरह खोल दिया लेकिन दूसरे खंड में मैं को खोलने में थोड़ी सावधानी बरती गई है, ऐसा लगता है। पहले खंड में मैत्रेयी और उनेक मां के संघर्षों की कहानी है और दूसरे में सिर्फ मैत्रेयी का संघर्ष है या कुछ हद तक उनके पति डॉक्टर शर्मा का द्वंद । पहला खंड इस वाक्य पर खत्म होता है - घर का कारागार टूट रहा है।
उससे ही दूसरे खंड का क्यू लिया जा सकता है और जब दूसरा खंड आया तो न केवल कारागार टूटा बल्कि घर का कैदी पूर्ण रूप से आजाद होकर सारा आकाश में विचरण करने लगा । 'गुडिया भीतर गुडिया' में शुरुआत में तो उत्तर प्रदेश के एक कस्बाई शहर से महानगर दिल्ली पहुंचने और वहां घर बसाने की जद्दोजहद है, साथ ही एक इशारा है पति के साथी डॉक्टर से प्रेम का का भी।
लेकिन दिलचस्प कहानी शुरू होती है दिल्ली से निकलनेवाले साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सह संपादक की रंगीन मिजाजी के किस्सों से। किस तरह से एक सह संपादक नवोदित लेखिका को फांसने के लिए चालें चलता है, इसका बेहद ही दिलचस्प वर्णन है । साथ ही इस दौर में लेखिका की मित्र इल्माना का चरित्र चित्रण भी फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड के तौर पर हुआ है, कहना ना होगा कि इल्माना के भी अपने गम हैं और इसी के चलते दोनों करीब आती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के बारे में इतना ज्यादा लिखा गया कि मैत्रेयी की आत्मकथा की उत्सुकता से प्रतीक्षा करनेवाले पाठकों की रुचि ये जानने में भी थी कि मैत्रेयी, राजेन्द्र यादव के साथ अपने संबंधों को वो कितना खोलती हैं । लेकिन मैत्रेयी पुष्पा और राजेन्द्र यादव के संबंधों में सिमोन और सार्त्र जैसे संबंध की खुलासे की उम्मीद लगाए बैठे आलोचकों और पाठकों को निराशा हाथ लगेगी।
हद तो तब हो जाती है जब राजेन्द्र यादव राखी बंधवाने मैत्रेयी जी के घर पहुंच जाते हैं, हलांकि मैत्रेयी राखी बांधने से इंकार कर देती हैं। राजेन्द्र यादव को लेकर मैत्रेयी को अपने पति डॉक्टर शर्मा की नाराजगी और फिर जबरदस्त गुस्से का शिकार भी होना पड़ता है।
लेकिन शरीफ डॉक्टर गुस्से और नापसंदगी के बावजूद राजेन्द्र यादव की मदद के लिए हमेसा तत्पर दिखाई देते हैं, संभवत: अपनी पत्नी की इच्छाओं के सम्मान की वजह से। लेखिका ने अपने इस संबंध पर कितनी ईमानदारी बरती है, ये कह पाना तो मुश्किल है,लेकिन मैं सिर्फ टी एस इलियट के एक वाक्य के साथ इसे खत्म करूंगा- भोगनेवाले प्राणी और सृजनकरनेवाले कलाकार में सदा एक अंतर रहता है और जितना बड़ा वो कलाकार होता है वो अंतर उतना ही बड़ा होता है।
अगर मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा- गुडिया भीतर गुड़िया- को पहले खंड- कस्तूरी कुंडल बसै -के बरक्श रखकर एक रचना के रूप में विचार करें तो दूसरा खंड पहले की तुलना में कुछ कमजोर है। लेकिन इसमें भी मैत्रेयी जब-जब गांव और अपनी जमीन की ओर लौटती हैं तो उनकी भाषा, उनका कथ्य एकदम से चमक उठता है।
अंत में इतना कहा जा सकता है कि गुड़िया भीतर गुड़िया यशराज फिल्मस की उस मूवी की तरह है, जिसमें संवेदना है, संघर्ष है , जबरदस्त किस्सागोई है. दिल को छूने वाला रोमांस है , भव्य माहौल है और अंत में नायिका की जीत भी - जब राजेन्द्र यादव अस्पताल के बिस्तर पर पड़े हैं और मैत्रेय़ी को फोन करते हैं तो डॉक्टर शर्मा की प्रतिक्रिया - क्या बुड्ढा अस्पताल में भी तुम्हें बुला रहा है?
लेकिन वही डॉ. शर्मा कुछ देर बाद यादव जी के आपरेशन के कंसेंट फॉर्म पर दस्तखत कर रहे होते हैं । इस आत्मकथा में एक और बात जो रेखांकित करने योग्य है वो ये कि मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी आपबीती के बहाने दिल्ली के संपादकों और लेखक समुदाय के स्वार्थों बेनकाब किया है ।
--------------------------------------
समीक्ष्य पुस्तक- गुड़िया भीतर गुड़िया
लेखक- मैत्रेयी पुष्पा
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- 395 रुपये
Translate
Sunday, December 14, 2008
Thursday, December 4, 2008
बुड्डों ने किया बेड़ागर्क- अनुपम श्रीवास्तव
सचिन जब भी फ्लॉप होते हैं तो यही आवाज़ एडिटोरियल मीटिंगों में गूंजती है कि 'बाहर करो बूढ़ों को' मगर सचिन कभी न कभी मौका देखकर अपने खेल से सभी को चुप कर देते हैं। मैं उन पत्रकारों की बात नहीं कर रहा हूं जो सिर्फ़ इसको भगवान जाग उठा या भगवान सो गया से ज्यादा नहीं समझते। चूंकि सारे संपादकों की रुचि क्रिकेट में है तो क्रिकेट का गुरु बनने की हर कोई कोशिश करता है या फिर दिखने की।
जब मैंने पत्रकारिता का ये प्रोफेशन ज्वाइन ही किया था तब किसी ने कहा था कि सीख जाओगे वक्त के साथ और ये भी जोड़ दिया की तुम अभी बच्चे हो। 'अच्छे-अच्छे गधे घोड़े बन गए इस प्रोफेशन में।' चाहे वो नेता, क्षेत्र या अपने बाप के दम पर आए हों।
कुम्बले और गांगुली रिटायर हो गए और बाकी सभी बूढ़ों का यही हाल होना है मगर जाने क्यों सचिन की बात अलग है। ये खिलाड़ी सारी दुनिया से टक्कर लेता है। शायद भारत का राइस ग्राफ भी ऐसा है जैसा सचिन का रहा। पिछले 19 सालों में जैसा कि लोग अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन की भूमिका में देखते थे। तब शायद भारत का भी लुकआउट वैसा ही था जैसा अमिताभ बच्चन की भूमिका रहती थी एंग्री यंग मैन में, जो शायद समाज से दुखी रहता था और उसका फ्रस्ट्रेशन परदे पर दिखता था।
मैंने सचिन के साथ जिया है क्योंकि जब से मैंने होश संभाला सचिन ही देखा। मुझे हमेशा से लगता है कि सचिन हम लोगों के मोटिवेटर हैं और 'सिंबल ऑफ़ होप' हमेशा रहे हैं। कहीं न कहीं मुझे मेरे पूरे स्ट्रगल पीरियड में जाने क्यों सचिन हमेशा याद रहते हैं।
चलो ये तो रहा हाल खेल का। देश-विदेश में जो घटनाएं हो रही हैं उससे हम पत्रकारों पर भारी संकट है। चुनाव का वक्त करीब है... तो आप किस आइडियोलॉजी से जुड़े पत्रकार हैं ये प्रश्न हमेशा आपसे जाने अंजाने पूछा जाता है मगर क्या जवाब है आपके पास। क्या आप संघी हैं या फिर वामपंथी या फिर बताएं कि leftist, rightist, centrist, capitalist हैं। हैं क्या आप। पत्रकार क्या कहे, साहब मैं तो पेट भरने आया हूं प्रोफेशनल हूं। मेरा इंटरेस्ट था इसलिए आया। 'आई एम हेयर बाई चॉइस नोट बाइ डीफॉल्ट ओर बाई चांस'... चल डॉयलाग मत मार। मुझे तो वही याद आता है जो मेरे रिश्तेदारों ने कहा था - जो कुछ नहीं कर पाता जिन्दगी में वही पत्रकार बनता है।
अब जमाना चाहे जो हो गया हो लाखों रुपये में मॉस कम्युनिकेशन की डिग्री मिलती हो या लाखों रुपये की नौकरी है और फिर वही मानसिक डाउनमार्केट सॉरी खांटी पत्रकारों के बीच की जिंदगी। मेरे पास नौकरी मांगने आए एक इन्टर्न ने कहा- सर मेरे पापा ने लाखों रुपये खर्चे कर ये कोर्स कराया है बस मुझे नौकरी दे दीजिए बाकी मैं कर लूंगा, नौकरी बची रहने का भी जुगाड़ देख लूंगा। बाकी मैं सीख लूंगा। मुझे बॉस, नौकरी दे दीजिये।
मैं जब मुंबई में था तो कई नए पत्रकार कहते थे कि जर्नलिस्ट "Is always ahead of times "। "master of all traits"- शायद वो अंग्रेजी के पत्रकार थे इसलिए कहते थे। मीडिया समाज का आईना होता है या फिर में पूछता हूं ' मीडिया में बीते लोग समाज का'... सही कहा बीड़ू
मैं भी कहां फंस गया, ज्ञान की बातों में, ज्ञान कि बातों से ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। खैर, आजकल दफ्तरों में भी खेल होने लगा है। कंट्रोल में रहेगा। आजकल जैसा सारे न्यूज चैनलों में माहौल है थोड़ा चिल्लाइये, डोज दीजिये फिर जानिये आपकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलेगा। सब डर कर काम करेंगे। खौफ का माहौल होगा, आपकी सब जी हुजूरी करेंगे बस खलीफा बन जाएंगे फिर क्या आप ही आप हैं।
शायद हम हिन्दुस्तानियों को डंडे के बिना काम करने की आदत ही नहीं है। तभी दिमागी शोरगुल में भी हमारी जिंदगी कटती है। नेचुरल इंस्टिंक्ट, टेलेंट क्या होता है। फ्लेयर इसलिये नहीं है क्योंकि सभी नौकरी या खानापूर्ति करने आए हैं। किसको दोष दें आप। अगर सब कुछ ठीक होता तो जो हाल हिन्दी न्यूज़ चैनलों का दिवालियापन है क्या दिवालियापान..अरे... भाई अगर ख़बर नहीं होगी तो हम क्या दिखायेंगे।
राखी सावंत का हैप्पी बर्थडे ही तो दिखायेंगे भले ही वो ऐश्वर्या, माधुरी या तब्बू, कैटरीना, दीपिका नहीं। अगर वो मीडिया को यूज, सॉरी..समय देना चाहें तो क्या बुराई है। ड्रामा हर रोज मिलता नहीं है। देश में हार्ड न्यूज़ देखता कौन है। हांलाकि चुनाव चल रहे हैं मगर फिर भी रेटिंग का सवाल है।
वो तो भला हो मुंबई ब्लास्ट का कि कुछ जर्नलिज्म करने को मिला। हम सब ने वो ही किया जो कभी भी किसी ने नहीं किया था। जाहिर तौर पर खबर ही ऐसी थी। मगर कहीं न कहीं हर पैमाने पर होड़ लगी हुई थी। आखिर बुराई क्या है इसमें। .......थैंक्स मुंबई ब्लास्ट....180 फीसदी का इजाफा हुआ व्यूअरशिप में। मगर अब तो ये खबर भी ख़त्म हो रही है। पब्लिक मेमोरी इज शॉर्ट ..अब फिर से नया कुछ खोजना पड़ेगा।
चुनाव है न मगर क्या जो जनता का गुस्सा है नेताओं के प्रति इससे चैनल संख्या या पोलिंग करने वालो की संख्या में इजाफा होगा। इस रिसेसन के दौर में भी हमारी निकल पड़ी..सही है बिड़ू। बाकवास बंद कर और नौकरी कर।
छोड़िए, नौकरी कीजिए..नौकरी...नहीं सर नहीं आपको सचिन बनना ही होगा... सचिन बनिए...सचिन बनिए...सचिन।
जब मैंने पत्रकारिता का ये प्रोफेशन ज्वाइन ही किया था तब किसी ने कहा था कि सीख जाओगे वक्त के साथ और ये भी जोड़ दिया की तुम अभी बच्चे हो। 'अच्छे-अच्छे गधे घोड़े बन गए इस प्रोफेशन में।' चाहे वो नेता, क्षेत्र या अपने बाप के दम पर आए हों।
कुम्बले और गांगुली रिटायर हो गए और बाकी सभी बूढ़ों का यही हाल होना है मगर जाने क्यों सचिन की बात अलग है। ये खिलाड़ी सारी दुनिया से टक्कर लेता है। शायद भारत का राइस ग्राफ भी ऐसा है जैसा सचिन का रहा। पिछले 19 सालों में जैसा कि लोग अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन की भूमिका में देखते थे। तब शायद भारत का भी लुकआउट वैसा ही था जैसा अमिताभ बच्चन की भूमिका रहती थी एंग्री यंग मैन में, जो शायद समाज से दुखी रहता था और उसका फ्रस्ट्रेशन परदे पर दिखता था।
मैंने सचिन के साथ जिया है क्योंकि जब से मैंने होश संभाला सचिन ही देखा। मुझे हमेशा से लगता है कि सचिन हम लोगों के मोटिवेटर हैं और 'सिंबल ऑफ़ होप' हमेशा रहे हैं। कहीं न कहीं मुझे मेरे पूरे स्ट्रगल पीरियड में जाने क्यों सचिन हमेशा याद रहते हैं।
चलो ये तो रहा हाल खेल का। देश-विदेश में जो घटनाएं हो रही हैं उससे हम पत्रकारों पर भारी संकट है। चुनाव का वक्त करीब है... तो आप किस आइडियोलॉजी से जुड़े पत्रकार हैं ये प्रश्न हमेशा आपसे जाने अंजाने पूछा जाता है मगर क्या जवाब है आपके पास। क्या आप संघी हैं या फिर वामपंथी या फिर बताएं कि leftist, rightist, centrist, capitalist हैं। हैं क्या आप। पत्रकार क्या कहे, साहब मैं तो पेट भरने आया हूं प्रोफेशनल हूं। मेरा इंटरेस्ट था इसलिए आया। 'आई एम हेयर बाई चॉइस नोट बाइ डीफॉल्ट ओर बाई चांस'... चल डॉयलाग मत मार। मुझे तो वही याद आता है जो मेरे रिश्तेदारों ने कहा था - जो कुछ नहीं कर पाता जिन्दगी में वही पत्रकार बनता है।
अब जमाना चाहे जो हो गया हो लाखों रुपये में मॉस कम्युनिकेशन की डिग्री मिलती हो या लाखों रुपये की नौकरी है और फिर वही मानसिक डाउनमार्केट सॉरी खांटी पत्रकारों के बीच की जिंदगी। मेरे पास नौकरी मांगने आए एक इन्टर्न ने कहा- सर मेरे पापा ने लाखों रुपये खर्चे कर ये कोर्स कराया है बस मुझे नौकरी दे दीजिए बाकी मैं कर लूंगा, नौकरी बची रहने का भी जुगाड़ देख लूंगा। बाकी मैं सीख लूंगा। मुझे बॉस, नौकरी दे दीजिये।
मैं जब मुंबई में था तो कई नए पत्रकार कहते थे कि जर्नलिस्ट "Is always ahead of times "। "master of all traits"- शायद वो अंग्रेजी के पत्रकार थे इसलिए कहते थे। मीडिया समाज का आईना होता है या फिर में पूछता हूं ' मीडिया में बीते लोग समाज का'... सही कहा बीड़ू
मैं भी कहां फंस गया, ज्ञान की बातों में, ज्ञान कि बातों से ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। खैर, आजकल दफ्तरों में भी खेल होने लगा है। कंट्रोल में रहेगा। आजकल जैसा सारे न्यूज चैनलों में माहौल है थोड़ा चिल्लाइये, डोज दीजिये फिर जानिये आपकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलेगा। सब डर कर काम करेंगे। खौफ का माहौल होगा, आपकी सब जी हुजूरी करेंगे बस खलीफा बन जाएंगे फिर क्या आप ही आप हैं।
शायद हम हिन्दुस्तानियों को डंडे के बिना काम करने की आदत ही नहीं है। तभी दिमागी शोरगुल में भी हमारी जिंदगी कटती है। नेचुरल इंस्टिंक्ट, टेलेंट क्या होता है। फ्लेयर इसलिये नहीं है क्योंकि सभी नौकरी या खानापूर्ति करने आए हैं। किसको दोष दें आप। अगर सब कुछ ठीक होता तो जो हाल हिन्दी न्यूज़ चैनलों का दिवालियापन है क्या दिवालियापान..अरे... भाई अगर ख़बर नहीं होगी तो हम क्या दिखायेंगे।
राखी सावंत का हैप्पी बर्थडे ही तो दिखायेंगे भले ही वो ऐश्वर्या, माधुरी या तब्बू, कैटरीना, दीपिका नहीं। अगर वो मीडिया को यूज, सॉरी..समय देना चाहें तो क्या बुराई है। ड्रामा हर रोज मिलता नहीं है। देश में हार्ड न्यूज़ देखता कौन है। हांलाकि चुनाव चल रहे हैं मगर फिर भी रेटिंग का सवाल है।
वो तो भला हो मुंबई ब्लास्ट का कि कुछ जर्नलिज्म करने को मिला। हम सब ने वो ही किया जो कभी भी किसी ने नहीं किया था। जाहिर तौर पर खबर ही ऐसी थी। मगर कहीं न कहीं हर पैमाने पर होड़ लगी हुई थी। आखिर बुराई क्या है इसमें। .......थैंक्स मुंबई ब्लास्ट....180 फीसदी का इजाफा हुआ व्यूअरशिप में। मगर अब तो ये खबर भी ख़त्म हो रही है। पब्लिक मेमोरी इज शॉर्ट ..अब फिर से नया कुछ खोजना पड़ेगा।
चुनाव है न मगर क्या जो जनता का गुस्सा है नेताओं के प्रति इससे चैनल संख्या या पोलिंग करने वालो की संख्या में इजाफा होगा। इस रिसेसन के दौर में भी हमारी निकल पड़ी..सही है बिड़ू। बाकवास बंद कर और नौकरी कर।
छोड़िए, नौकरी कीजिए..नौकरी...नहीं सर नहीं आपको सचिन बनना ही होगा... सचिन बनिए...सचिन बनिए...सचिन।
Tuesday, November 25, 2008
अंग्रेजी अखबारों का उपेक्षा भाव
भारतीय भाषाओं के लिए दिया जानेवाला पुरस्कार ज्ञानपीठ इस बार हिंदी के वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण को देने का ऐलान किया गया है । ये पुरस्कार कुंवर जी को वर्ष दो हजार पांच के लिए दिया गया है । कुंवर जी को ये पुरस्कार देकर ज्ञानपीठ का ही सम्मान बढ़ा है । लेकिन में ये इस पुरस्कार की सूचना देने के लिए नहीं लिख रहा हूं बल्कि बेहद क्षुब्ध होकर आप सबों के सामने एक बात रख रहा हूं । कुंवर जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार का ऐलान हआ लेकिन अंग्रेजी के अखबारों की उदासीनता तकलीफनाक रही । किसी भी अंग्रेजी दैनिक ने इस खबर को छापने लायक भी नहीं समझा । जहां छपा भी वो इतना छोटा छपा कि किसी भी पाठक का ध्यान आकर्षित नहीं कर सका । ये बात मेरे लिए हैरान करनेवाली नहीं थी क्योंकि अंग्रेजी मीडिया का हिंदी साहित्या को लेकर एक उपेक्षा का भाव रहा है जो नियमित तौर पर समाने आता रहा है । अंग्रेजी अखबारों में काम करनेवाले पत्रकार हिंदी के लेखकों को हीम समझते हैं और जब भी मौका मिलता है उसे प्रदर्शित भी करते हैं । कुंवर जी का उदाहरण आपके सामने है, जबकि कुंवर जी की कविताएं जिन्होंने पढ़ी हैं उनको ये मानने में कोई गुरेज नहीं होगा कि वो समकालीन हिंदी कविता के सबसे अहम कवि हैं । सवाल ये उठता है कि अंग्रेजी दैनिकों की हिंदी लेखकों को लेकर इस उदासीनता का कारण क्या उनकी ये उदासीनता है या फिर वो औपनिवेशिक मान्यता कि हिंदी वाले बेहतर काम कर ही नहीं सकते और अंग्रेजी तो हमेशा से श्रेष्ठ रही है । मैं आप सबों के सामने ये सवाल छोड़ता हूं कि कि इस उपेक्षा की वजह पर अपनी राय दें ताकि इस बहस को आगे बढाया जा सके
Monday, November 24, 2008
फुर्सत के रात दिन......ऋचा अनिरुद्ध
अपने एयर कंडीशन्ड ऑफिस की कांच की बंद खिड़की से आज झांक कर बाहर देखा..तो अचानक दिल बैठ सा गया। एक पल के लिए अपना सारा बचपन आंखो के सामने घूम गया। खिड़की से देखा आज सर्दी की नर्म धूप खिली हुई है जिसे देख तो पा रही हूं...महसूस नहीं कर सकती।
इस धूप ने सालों पहले के रिश्तो की गर्माहट याद दिला दी। एक छोटा सा शहर झांसी...झांसी में एक छोटी सी कॉलोनी में एक छोटा सा घर था हमारा। क़ॉलोनी में एक छत थी जो किसी एक की नहीं, सबकी थी।
सर्दी की दोपहर, खाना छत पर ही खाया जाता था। हर तरफ चटाई बिछी हुई, मां और पड़ोस की आंटिया। कोई संतरे छील कर हमें खिला रहा है तो कोई अमरूद। हम बच्चे अपनी मस्ती मे डूबे हुए। कभी गुट्टे खेलते थे तो कभी मां के हाथ से छीन कर, स्वेटर की एक आधा सिलाई बुन लेते थे। धूप में बैठे-बैठे ही मां के पल्ले में मूंह छुपा कर एक झपकी भी ले ली जाती थी। कॉलोनी की मांओं का क्या कहना। एक के संतरे खत्म हुए नहीं कि दूसरी मूंगफलियां ले आईं।
कभी-कभी हमसे कहा जाता। बहुत मस्ती कर ली तुम लोगों ने..चलो अब बैठ कर ये मटर छीलो। मुझे ये काम बहुत पसंद था, क्योंकि छीलते छीलते चोरी छिपे मैं सबकी टोकरी में से कच्ची मटर खा जाती थी। उसके बाद बारी आती थी अदरक वाली चाय और गजक की। किसी भी एक घर से गर्मा-गर्म अदरक वाली चाय आती थी जग में भर कर और दुनिया जहां की गप्पो के बीच पी जाती थी। आंटियां एक दूसरे का मज़ाक उडा़ने का कोई भी मौका चूकती नहीं थीं। कॉलोनी की काम वालियों की बुराइयां करने का भी ये अच्छा मौका था, अंकलों की भी और सास ससुर की भी। हर घर की पंचायतो की गवाह थी वो हमारी छत।
कॉलोनी में एक दादी थीं जो थीं तो हर बच्चे की दादी, पर उनकी सबसे ला़ड़ली मैं ही थी। बोर्ड के इम्तिहान से पहले वाली सर्दी मे जब मैं दूसरे बच्चो से अलग बैठ कर धूप में पढ़ती थी, तो वो सबसे छुपा कर मेरे लिए, संतरे, अमरूद, गन्ना,मूंगफलियां लाती थीं और मुझे अपने हाथ से खिलाती थीं।
दादी इस दुनिया से चली गईं और शायद उन्ही के साथ मेरा बचपन भी जो कभी कभार सर्दी की ऐसी दोपहर में ही याद आता है। इसके अलावा वक्त ही कहां हैं कुछ याद करने का।
इस बड़े शहर ने सब कुछ दिया, नौकरी, पैसा,बड़ा घर, गाड़ी, नाम, पहचान....मेरा हर सपना यहां पूरा हुआ पर एक चीज़ जो ये शहर मुझे कभी नहीं दे पाएगा। मेरे बचपन की वो कच्ची और गुनगुनी धूप।
मुझे यकीन है कि सर्दी की ऐसी दोपहर में मुझ जैसे सभी लोग, जो एक छोटे शहर में पले बढ़े और बड़े-बड़े सपने पूरे करने एक बड़े शहर में आए। उन्हें मेरी ही तरह ये गाना ज़रूर याद आता होगा। दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन.........
इस धूप ने सालों पहले के रिश्तो की गर्माहट याद दिला दी। एक छोटा सा शहर झांसी...झांसी में एक छोटी सी कॉलोनी में एक छोटा सा घर था हमारा। क़ॉलोनी में एक छत थी जो किसी एक की नहीं, सबकी थी।
सर्दी की दोपहर, खाना छत पर ही खाया जाता था। हर तरफ चटाई बिछी हुई, मां और पड़ोस की आंटिया। कोई संतरे छील कर हमें खिला रहा है तो कोई अमरूद। हम बच्चे अपनी मस्ती मे डूबे हुए। कभी गुट्टे खेलते थे तो कभी मां के हाथ से छीन कर, स्वेटर की एक आधा सिलाई बुन लेते थे। धूप में बैठे-बैठे ही मां के पल्ले में मूंह छुपा कर एक झपकी भी ले ली जाती थी। कॉलोनी की मांओं का क्या कहना। एक के संतरे खत्म हुए नहीं कि दूसरी मूंगफलियां ले आईं।
कभी-कभी हमसे कहा जाता। बहुत मस्ती कर ली तुम लोगों ने..चलो अब बैठ कर ये मटर छीलो। मुझे ये काम बहुत पसंद था, क्योंकि छीलते छीलते चोरी छिपे मैं सबकी टोकरी में से कच्ची मटर खा जाती थी। उसके बाद बारी आती थी अदरक वाली चाय और गजक की। किसी भी एक घर से गर्मा-गर्म अदरक वाली चाय आती थी जग में भर कर और दुनिया जहां की गप्पो के बीच पी जाती थी। आंटियां एक दूसरे का मज़ाक उडा़ने का कोई भी मौका चूकती नहीं थीं। कॉलोनी की काम वालियों की बुराइयां करने का भी ये अच्छा मौका था, अंकलों की भी और सास ससुर की भी। हर घर की पंचायतो की गवाह थी वो हमारी छत।
कॉलोनी में एक दादी थीं जो थीं तो हर बच्चे की दादी, पर उनकी सबसे ला़ड़ली मैं ही थी। बोर्ड के इम्तिहान से पहले वाली सर्दी मे जब मैं दूसरे बच्चो से अलग बैठ कर धूप में पढ़ती थी, तो वो सबसे छुपा कर मेरे लिए, संतरे, अमरूद, गन्ना,मूंगफलियां लाती थीं और मुझे अपने हाथ से खिलाती थीं।
दादी इस दुनिया से चली गईं और शायद उन्ही के साथ मेरा बचपन भी जो कभी कभार सर्दी की ऐसी दोपहर में ही याद आता है। इसके अलावा वक्त ही कहां हैं कुछ याद करने का।
इस बड़े शहर ने सब कुछ दिया, नौकरी, पैसा,बड़ा घर, गाड़ी, नाम, पहचान....मेरा हर सपना यहां पूरा हुआ पर एक चीज़ जो ये शहर मुझे कभी नहीं दे पाएगा। मेरे बचपन की वो कच्ची और गुनगुनी धूप।
मुझे यकीन है कि सर्दी की ऐसी दोपहर में मुझ जैसे सभी लोग, जो एक छोटे शहर में पले बढ़े और बड़े-बड़े सपने पूरे करने एक बड़े शहर में आए। उन्हें मेरी ही तरह ये गाना ज़रूर याद आता होगा। दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन.........
Tuesday, November 18, 2008
संस्मरणों में प्रेम
संस्मरण हिन्दी में अपेक्षाकृत नई विधा है जिसका आरंभ द्विवेदी युग से माना जाता है । परंतु इस विधा का असली विकास छायावादी युग में हुआ । इस काल में सरस्वती, सुधा, माधुरी, विशाल भारत आदि पत्रिकाओं में कई उल्लेखनीय संस्मरण प्रकाशित हुए । आगे चलकर छायावादोत्तर काल में तो ये विधा पूरी तरह से एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित हुई । संस्मरण साहित्य की सबसे अनमोल निधि वो पत्र पत्रिकाएं हैं, जिनमें संस्मरणात्मक लेख नियमित रूप से प्रकाशित हुए या होते रहे । न सिर्फ हिंदी के लेखकों ने बेहतरीन संस्मरण लिखकर इस विधा को स्थापित किया, बल्कि कुछ विदेशी विद्वानों ने भी हिंदी में अच्छे संस्मरण लिखे । प्रसिद्ध रूसी विद्वान ये. पे. चेलीशेव का संस्मरण – "निराला : जीवन और संघर्ष के मूर्तिमान" आज भी हिंदी पाठकों की स्मृति में है ।
पिछले कुछ वर्षों में राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित 'हंस' और अखिलेश के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'तद्भव' में कई बेहतरीन संस्मरण छपे । चाहे वो काशीनाथ सिंह के संस्मरण हों या रवीन्द्र कालिया के या फिर कांति कुमार जैन के । तदभव की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण इसके शुरुआती अंकों में छपे संस्मरण ही रहे । सारे के सारे संस्मरण खूब पढ़े और सराहे गए । संस्मरणों पर गाहे बगाहे खूब विवाद भी हुए । पर संस्मरणों में आमतौर पर लेखकीय ईमानदारी की जरूरत होती है जो न केवल लेखक की विश्वसीनयता को बढ़ाती है बल्कि लेख को भी एक उंचाई प्रदान करती है । लेकिन संस्मरण लेखन में हाल के दिनों में जिस स्तरहीनता का परिचय मिलता है वो चिंता का विषय है । हाल के दिनों में हुआ ये है कि संस्मरण लेखन को लेखकों ने व्यक्तिगत झगड़ों को निपटाने का औजार बनाकर इस्तेमाल करना प्रारंभ कर दिया । जिससे फौरी तौर पर तो लेखक चर्चा में आ गया लेकिन चंद महीनों बाद उसका और लेख का कोई नाम लेने वाला भी नहीं रहा ।
लेकिन पिछले दिनों उर्दू के मशहूर नगमानिगार कैफी आजमी साहब की बेगम और अपने जमाने की मशहूर अदाकारा शौकत कैफी ने अपनी आपबीती- यादों के रहगुजर- लिखी जो संस्मरण के अलावा शौकत और कैफी की एक खूबसूरत प्रेम कहानी भी है ।
'यादों की रहगुजर' लगभग डेढ सौ पन्नों में लिखा गया वो अफसाना है जिसे अगर कोई पाठक एक बार पढ़ना शुरु कर देगा तो फिर बीच में नहीं छोड़ सकेगा, ऐसा मेरा मानना है । शौकत कैफी की पैदाइश 1928 की है । वो हैदराबाद के एक ऐसे मुस्लिम परिवार में पैदा हुई जिसका माहौल उस दौर के आम मध्यवर्गीय मुसलमान परिवार जैसा ही था । ये वो दौर भी था जब लड़कों की पैदाइश पर लड्डू बांटे जाते थे तो लड़की की विलादत को अल्लाह की मर्जी मान लिया जाता था । लेकिन शौकत इस मामले में जरा भाग्यशाली थी क्योंकि उसके पिता अपने परिवार के विचारों के उलट बेहद तरक्कीपसंद इंसान थे और लड़कियों के तालीम और उनकी आजादी के हिमायती थे । बावजूद अपने परिवार के सख्त विरोध के उन्होंने अपनी तीनों बेटियों के तालीम का इंतजाम किया । नतीजा ये हुआ कि शौकत का बचपन बेहतर और तरक्की पसंद लोगों की सोहबत में बीता । आजादी के चंद महीनों पहले की बात है जब फरवरी में हैदराबाद में तरक्कीपसंद लोगों का एक सम्मेलन हुआ । जिसमें कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी , सरदार जाफरी आदि ने शिरकत की थी । उसी दिन रात में एक मुशायरे में शौकत खानम और कैफी ने एक दूसरे की आंखों में अपना भविष्य देख लिया । ये भी एक बेहद दिलचस्प वाकया है । जैसे ही मुशायरा खत्म हुआ तो लोगों का हुजूम कैफी, मजरूह और सरदार जाफरी की तरफ लपका । शौकत ने एक उड़ती नजर कैफी पर डाली और सरदार जाफरी से ऑटोग्राफ लेने चली गई । इतनी भीड़ में भी कैफी ने अपनी इस उपेक्षा को भांप लिया और जब शौकत ने कैफी की तरफ ऑटोग्राफ के लिए कॉपी बढाई तो शायर ने अपनी उपेक्षा कॉपी पर उतार दी-
वही अब्रे-जाला चमकनुमा वही,ख़ाके –बुलबुले-सुर्ख़-रू जरा राज बन के महन में आओ
दिले घंटा तुन तो बिजली कड़के धुन तो फबन झपट के लगन में आओ
इस शे’र से नाराज होकर जब शौकत ने कैफी से इसकी वजह जाननी चाही तो कैफी ने मुस्कुराते हुए जबाव दिया कि – "आपने भी तो पहले जाफरी साहब से ऑटोग्राफ लिया ।" इसके बाद तो शौकत खानम, कैफी की पुरकशिश शख्सियत पर सिहरजदा हो गई और मुहब्बत और आशिकी का बेहद रूमानी सिलसिला चल निकला और लंबे-लंबे खतो-किताबत भी शुरु हो गई । कैफी मुंबई में रहते थे तो शौकत अपने पिता के साथ औरंगाबाद में । शौकत के हाल-ए-दिल का पता उनके पिता को चल चुका था और शौकत ने भी कैफी से शादी करने की अपनी मंशा पिता पर जाहिर कर दी थी । पिता ने बेटी को कहा कि मुंबई चलकर देख लेते हैं फिर कोई फैसला लेते हैं । दोनों चल पड़े मुंबई । वहीं घटनाचक्र कुछ इस कदर चला कि कैफी की हालात का पता लगाने गए पिता ने बेटी की मर्जी को देखते हुए दोनों का निकाह करवा दिया । शादी हुई सज्जाद जहीद के घर और उनकी बेगम रजिया ने शौकत की मां की भूमिका निभाई और बाराती बने जोश मलीहाबादी, मजाज, कृष्ण चंदर, साहिर लुधियानवी, इस्मत चुगताई और सरदार जाफरी जैसे तरक्कीपसंद लोग । इसके बाद शौकत और कैफी की नई जिंदगी शुरु होती है कम्यून में । लेकिन यहां एक बात गौर करने लायक है कि उस दौर में भी शौकत के अब्बाजान कितने तरक्कीपसंद और आजाद ख्याल थे कि बेटी के प्यार के लिए पूरे परिवार की नाराजगी मोल लेते हुए निकाह करवा दिया और बेटी को इसके शौहर के पास छोड़ अकेले घर लौट आए ।
जब शादी हुई थी तो उस वक्त कैफी कम्यून में रहते थे और त्रैमासिक 'नया अदब' के संपादक थे । शौकत ने कम्यून के कमरे को घर का रूप देना शुरु किया । ये पूरा किस्सा बेहद दिलचस्प है । कैफी की संगत और कम्यून के माहौल ने शौकत को भी इप्टा में सक्रिय होने के लिए प्रेरित कर दिया । शौकत ने सबसे पहले भीष्म साहनी के ड्रामे में काम किया। इस ड्रामे से शौकत को खूब सराहना मिली । सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था, घर में बेटे के रूप में एक चिराग भी रोशन हो चुका था कि अचानक साल भर का बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गया । इस विपदा से शौकत बुरी तरह से टूट गई । अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जब गमजदा शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । लेकिन जब शौकत की पार्टी ( तबतक शौकत वामपंथी पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी ) को इसका पता लगा तो पार्टी ने गर्भ गिरा देने का फरमान जारी कर दिया । ये वामपंथ का बेहद ही अमानवीय चेहरा है जो इस पार्टी के लोकप्रिय न होने के का एक बड़ा कारण है । लेकिन शौकत जब अड़ गई तो इस मसले पर पार्टी की बैठक बुलाई गई और तमाम बहसों और शौकत के कड़े रुख को भांपते हुए पार्टी को झुकना पड़ा । शौकत को बच्चा पैदा करने की अनुमति मिली । कम्युनिस्ट पार्टी के इस अमानवीय चेहरे पर से गाहे-बगाहे उसके सदस्य ही पर्दा उठाते रहते हैं ।
इस आपबीती के बाद की दास्तान कैफी और शौकत के संघर्ष की कहानी है। कैफी के लगातार हौसला आफजाई के बाद शौकत नाटकों में और सक्रिय हो गई और लगातार सफलता की सीढियां चढती चली गई । एक अदाकारा के रूप में शौकत की और शायर के रूप में कैफी की शोहरत बढ़ने लगी । शौकत को नाटकों के अलावा फिल्मों में काम मिला तो कैफी ने भी कई बेहतरीन नगमे लिखे । शोहरत और उससे आए पैसे को कैफी और शौकत एन्जॉय कर रहे थे कि एक दिन इस हंसते खेलते परिवार को किसी की नजर लग गई और कैफी साहब बुरी तरह बीमार हो गए । फिर शौकत ने अपने बच्चों के साथ मिलकर अचानक आए इस विपदा को भी मित्रों के सहयोग से झेला । इसके अलावा इस आपबीती में कैफी के उत्तर प्रदेश के अपने गांव मिजवां के लिए किए गए कामों का और अपने गांव और इलाके की बेहतरी के लिए कैफी की बेचैनी का भी विस्तार से विवरण है । साथ ही शौकत के पृथ्वी थिएटर के दिनों के भी दिलचस्प और रोचक किस्से हैं । कुल मिलाकर अगर हम इस आपबीती पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि ये एक अद्भुत प्रेम कहानी है । अफसाना है दो दिलों का जो तमाम दिक्कतों और संघर्षों के बवजूद एक दूसरे को दिलो जान से फिदा कर देते हैं ।
संस्मरण की ही तरह हिंदी साहित्य की एक और विधा है – यात्रा वृतांत । हिंदी साहित्य से ये विधा लगभग खत्म होती जा रही है । गाहे बगाहे ही कोई लेखक यात्रा वृतांत लिखता है । हाल के दिनो में मृदुला गर्ग की उनकी यात्रा पर लिखे वृतांत – कुछ अटके कुछ भटके – नाम से पेंग्विन बुक्स, दिल्ली से छपा है । मृदुला गर्ग की छवि हिंदी साहित्य में एक गंभीर कथा लेखिका की है, जिनके उपन्यासों में शहरी आधुनिक नारी की जटिल मानसिकता और द्वंद केंद्रीय विषय होते हैं । मृदुला गर्ग को हिंदी में बोल्ड भाषा का इस्तेमाल करनेवाली लेखिका के रूप में भी जाना जाता है । उनके उपन्यास 'चितकोबरा' और 'कठगुलाब' और उसके हिस्से की धूप जब छपकर आए तो हिंदी साहित्य में इन उपन्यासों की भाषा को लेकर खासी चर्चा हुई ।
'कुछ अटके कुछ भटके' मृदुला गर्ग की दर्जन भर यात्राओं का विवरण है जो पहले भी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपकर पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींच चुके हैं । इन दर्जन भर यात्रा विवरणों में सूरीनाम में वर्ष दो हजार तीन में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान वर्षावन की यात्रा का बेहद रोचक और दिलचस्प वर्णन है । लगभग सत्तर साल में जवानों जैसे जज्बे के साथ सूरीनाम के जंगलों में भटकते हुए प्रकृति का आनंद उठाना बड़ी बात है । लेकिन अपने इस संस्मरण में उन्होंने हिंदी के साहित्यकारों की एक कमजोरी की तरफ जाने अनजाने इशारा कर दिया । वो है कंजूसी और वादाखिलाफी । नाम तो मृदुला गर्ग ने किसी का भी नहीं लिया लेकिन साहित्यकारों को करीब से जानने वाले और साहित्यिक हलचलों पर नजर रखनेवालों को उन्हें पहचानने में दिक्कत नहीं होगी । मृदुला गर्ग ने अपने साथ चलने के लिए पांच लोगों को तैयार कर लिया था लेकिन हामी भरने के बावजूद वो लोग नियत समय और जगह पर नहीं आए । चूंकि मृदुला गर्ग ने सात लोगों की बुकिंग की हुई थी, इसलिए उनको विदेशी मुद्रा में अपने सहयोगियों के वादाखिलाफी का दंड भुगतना पड़ा । अगर हम इस पूरी किताब को ध्यान से पढ़े तो ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं जो "बिटविन द लाइन्स" ही पढ़े और समझे जा सकते हैं । इशारों इशारों में लेखिका कई अहम बातें कह जाती हैं । जैसे जब वो तमाम दिक्कतों के बावजूद असम की यात्रा पर जा सकी और डिब्रूगढ़ में भाषण देने के लिएखड़ी हुई तो वहां मौजूद बागी छात्र नेताओं ने उनसे हिंदी भाषण देने का अनुरोध किया । इस संसमरण में एक वाक्य है जो देश के हुक्मरानों को एक चेतावनी भी है – "देश के इतने बड़े भाग ने हिंदी बोलनी-पढ़नी-लिखनी सीखी तो हमने उसका इस्तेमाल देश के एकीकरण के लिए क्यों नहीं किया ? बार बार असम के युवा छात्रों को ये क्यों कहना पड़ रहा था कि हमारी औकात कम इसलिए आंकी जाती है क्योंकि हम "मेनलैंड" के लोगों की तरह फर्राटे से अंग्रेजी नहीं बोल सकते । मेनलैंड । यानि पूर्वोत्तर को छोड़कर बाकी का हिंदुस्तान , जिसकी राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी है । एक तरफ हम उन्हें दोष देते हैं कि वो देश से जुदा होना चाहते हैं , दूसरी तरफ साथ लेने के इस नायाब औजार का तिरस्कार करके हम लगातार उन्हें हाशिए में धकेलते जाते हैं । (पृ. 120-121) । ये कहकर लेखिका ने असम की समस्या सुलझाने में सरकार की विफलता और जमीनी हकीकत दोनों को एक झटके में सामने ला देती हैं ।
इस किताब को पढ़ते हुए 1980 में छपे मृदुला गर्ग के उपन्यास "अनित्य" की बरबस याद आ जाती है। वो इसलिए कि उक्त उपन्यास में मृदुला गर्ग स्त्री पुरुष संबंधों के अपने प्रिय विषय को छोड़कर राजनीति को अपने उपन्यास का विषय बनाया था, जिसमें तीस के दशक से लेकर आजादी मिलने के बाद तक के कालखंड को उठाया गया था । उस उपन्यास में मृदुला गर्ग कमोबेश हिंसात्मक क्रांति के पक्ष में दिखाई देती हैं, लेकिन कुछ अटके कुछ भटके के अपने असम वाले लेख में भाषा को औजार बनाकर देश को जोड़ने की बात करती हैं । इसे हम लेखिका के विचारों की परिपक्वता या विकास के तौर पर रेखांकित कर सकते हैं ।
इसके अलावा मृदुला गर्ग ने अपने इन यात्रा वृतांतों में शब्दों और बिंबों को जो प्रयोग किया है उससे न केवल उनकी भाषा चमक उठती है बल्कि दिलचस्प और रोचक भी हो जाती है । मसलन – "बारिश के हाथों अचानक पकड़े जाने के रोमांच से हम अब भी अछूते रहे" या "उन्हीं लिपटती चिपटती कांटेदार आइवी और झाड़ियों के आगोश से बच बच कर निकलते हुए" या फिर "अहसास की जमीन पर पहली बार समझ में आया कि सुनसान सांय सांय क्यों करता है" । पहले वाक्य में "बारिश के हाथों पकड़े जाने" या दूसरे में "झाड़ियों के आगोश में" या "सुनसान सांय सांय", ये सब ऐसे प्रतीक है, जिससे भाषा तो चमकती ही है पढ़ते वक्त पाठकों के मन में जहां की बात हो रही होती है वहां का पूरा का पूरा दृश्य भी उपस्थित हो जाता है ।
आकार में भले ही ये किताब छोटी हो लेकिन इसका फलक बहुत ही व्यापक है । असम से लेकर हिरोशिमा, गंगटोक से लेकर पारामारिबो, फिर दिल्ली से लेकर अमेरिका और झुमरी तिलैया तक के व्यक्तिगत अनुभवों को एक व्यापक दृष्टि देते हुए पेश किया गया है । जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि इसके लेखों में 'विटविन द लाइन' बहुत कुछ है । इसके एक लेख "रंग-रंग कांजीरंगा" में हजारीबाग के जंगल में घूमने का और वहां के कड़क फॉरेस्ट अफसर के चित्र के बहाने जंगलों और जंगली पशुओं के गायब होने या कम होने के कारणों की तरफ संकेत किया गया है । मृदुला गर्ग की इस किताब के केंद्र में "मैं" है, जो हर लेख में प्रमुखता से मौजूद है। हो सकता है ये विधागत मजबूरी हो, लेकिन इस पूरी किताब पढ़ने के बाद मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि जितना इसमें लिखा है उससे कहीं ज्यादा संकेतों और इशारों में कही गई बातें हैं । एक तरफ ये किताब अगर अपनी रोचकता और सधी हुई भाषा के कारण पाठकों को आनंद से भर देती है तो दूसरी तरफ विटविन द लाइंस से पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देती है .
---------------------------------------------------------
1. याद की रहगुजर, लेखिका- शौकत कैफी, प्रकाशक -राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली -110002, मूल्य – 150 रुपये
2. कुछ अटके-कुछ भटके , लेखिका- मृदुला गर्ग, प्रकाशक- पेंगुइन बुक्स,11कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली -110017, मूल्य 100 रुपये
पिछले कुछ वर्षों में राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित 'हंस' और अखिलेश के संपादन में निकलने वाली पत्रिका 'तद्भव' में कई बेहतरीन संस्मरण छपे । चाहे वो काशीनाथ सिंह के संस्मरण हों या रवीन्द्र कालिया के या फिर कांति कुमार जैन के । तदभव की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण इसके शुरुआती अंकों में छपे संस्मरण ही रहे । सारे के सारे संस्मरण खूब पढ़े और सराहे गए । संस्मरणों पर गाहे बगाहे खूब विवाद भी हुए । पर संस्मरणों में आमतौर पर लेखकीय ईमानदारी की जरूरत होती है जो न केवल लेखक की विश्वसीनयता को बढ़ाती है बल्कि लेख को भी एक उंचाई प्रदान करती है । लेकिन संस्मरण लेखन में हाल के दिनों में जिस स्तरहीनता का परिचय मिलता है वो चिंता का विषय है । हाल के दिनों में हुआ ये है कि संस्मरण लेखन को लेखकों ने व्यक्तिगत झगड़ों को निपटाने का औजार बनाकर इस्तेमाल करना प्रारंभ कर दिया । जिससे फौरी तौर पर तो लेखक चर्चा में आ गया लेकिन चंद महीनों बाद उसका और लेख का कोई नाम लेने वाला भी नहीं रहा ।
लेकिन पिछले दिनों उर्दू के मशहूर नगमानिगार कैफी आजमी साहब की बेगम और अपने जमाने की मशहूर अदाकारा शौकत कैफी ने अपनी आपबीती- यादों के रहगुजर- लिखी जो संस्मरण के अलावा शौकत और कैफी की एक खूबसूरत प्रेम कहानी भी है ।
'यादों की रहगुजर' लगभग डेढ सौ पन्नों में लिखा गया वो अफसाना है जिसे अगर कोई पाठक एक बार पढ़ना शुरु कर देगा तो फिर बीच में नहीं छोड़ सकेगा, ऐसा मेरा मानना है । शौकत कैफी की पैदाइश 1928 की है । वो हैदराबाद के एक ऐसे मुस्लिम परिवार में पैदा हुई जिसका माहौल उस दौर के आम मध्यवर्गीय मुसलमान परिवार जैसा ही था । ये वो दौर भी था जब लड़कों की पैदाइश पर लड्डू बांटे जाते थे तो लड़की की विलादत को अल्लाह की मर्जी मान लिया जाता था । लेकिन शौकत इस मामले में जरा भाग्यशाली थी क्योंकि उसके पिता अपने परिवार के विचारों के उलट बेहद तरक्कीपसंद इंसान थे और लड़कियों के तालीम और उनकी आजादी के हिमायती थे । बावजूद अपने परिवार के सख्त विरोध के उन्होंने अपनी तीनों बेटियों के तालीम का इंतजाम किया । नतीजा ये हुआ कि शौकत का बचपन बेहतर और तरक्की पसंद लोगों की सोहबत में बीता । आजादी के चंद महीनों पहले की बात है जब फरवरी में हैदराबाद में तरक्कीपसंद लोगों का एक सम्मेलन हुआ । जिसमें कैफी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी , सरदार जाफरी आदि ने शिरकत की थी । उसी दिन रात में एक मुशायरे में शौकत खानम और कैफी ने एक दूसरे की आंखों में अपना भविष्य देख लिया । ये भी एक बेहद दिलचस्प वाकया है । जैसे ही मुशायरा खत्म हुआ तो लोगों का हुजूम कैफी, मजरूह और सरदार जाफरी की तरफ लपका । शौकत ने एक उड़ती नजर कैफी पर डाली और सरदार जाफरी से ऑटोग्राफ लेने चली गई । इतनी भीड़ में भी कैफी ने अपनी इस उपेक्षा को भांप लिया और जब शौकत ने कैफी की तरफ ऑटोग्राफ के लिए कॉपी बढाई तो शायर ने अपनी उपेक्षा कॉपी पर उतार दी-
वही अब्रे-जाला चमकनुमा वही,ख़ाके –बुलबुले-सुर्ख़-रू जरा राज बन के महन में आओ
दिले घंटा तुन तो बिजली कड़के धुन तो फबन झपट के लगन में आओ
इस शे’र से नाराज होकर जब शौकत ने कैफी से इसकी वजह जाननी चाही तो कैफी ने मुस्कुराते हुए जबाव दिया कि – "आपने भी तो पहले जाफरी साहब से ऑटोग्राफ लिया ।" इसके बाद तो शौकत खानम, कैफी की पुरकशिश शख्सियत पर सिहरजदा हो गई और मुहब्बत और आशिकी का बेहद रूमानी सिलसिला चल निकला और लंबे-लंबे खतो-किताबत भी शुरु हो गई । कैफी मुंबई में रहते थे तो शौकत अपने पिता के साथ औरंगाबाद में । शौकत के हाल-ए-दिल का पता उनके पिता को चल चुका था और शौकत ने भी कैफी से शादी करने की अपनी मंशा पिता पर जाहिर कर दी थी । पिता ने बेटी को कहा कि मुंबई चलकर देख लेते हैं फिर कोई फैसला लेते हैं । दोनों चल पड़े मुंबई । वहीं घटनाचक्र कुछ इस कदर चला कि कैफी की हालात का पता लगाने गए पिता ने बेटी की मर्जी को देखते हुए दोनों का निकाह करवा दिया । शादी हुई सज्जाद जहीद के घर और उनकी बेगम रजिया ने शौकत की मां की भूमिका निभाई और बाराती बने जोश मलीहाबादी, मजाज, कृष्ण चंदर, साहिर लुधियानवी, इस्मत चुगताई और सरदार जाफरी जैसे तरक्कीपसंद लोग । इसके बाद शौकत और कैफी की नई जिंदगी शुरु होती है कम्यून में । लेकिन यहां एक बात गौर करने लायक है कि उस दौर में भी शौकत के अब्बाजान कितने तरक्कीपसंद और आजाद ख्याल थे कि बेटी के प्यार के लिए पूरे परिवार की नाराजगी मोल लेते हुए निकाह करवा दिया और बेटी को इसके शौहर के पास छोड़ अकेले घर लौट आए ।
जब शादी हुई थी तो उस वक्त कैफी कम्यून में रहते थे और त्रैमासिक 'नया अदब' के संपादक थे । शौकत ने कम्यून के कमरे को घर का रूप देना शुरु किया । ये पूरा किस्सा बेहद दिलचस्प है । कैफी की संगत और कम्यून के माहौल ने शौकत को भी इप्टा में सक्रिय होने के लिए प्रेरित कर दिया । शौकत ने सबसे पहले भीष्म साहनी के ड्रामे में काम किया। इस ड्रामे से शौकत को खूब सराहना मिली । सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था, घर में बेटे के रूप में एक चिराग भी रोशन हो चुका था कि अचानक साल भर का बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गया । इस विपदा से शौकत बुरी तरह से टूट गई । अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जब गमजदा शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । लेकिन जब शौकत की पार्टी ( तबतक शौकत वामपंथी पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी ) को इसका पता लगा तो पार्टी ने गर्भ गिरा देने का फरमान जारी कर दिया । ये वामपंथ का बेहद ही अमानवीय चेहरा है जो इस पार्टी के लोकप्रिय न होने के का एक बड़ा कारण है । लेकिन शौकत जब अड़ गई तो इस मसले पर पार्टी की बैठक बुलाई गई और तमाम बहसों और शौकत के कड़े रुख को भांपते हुए पार्टी को झुकना पड़ा । शौकत को बच्चा पैदा करने की अनुमति मिली । कम्युनिस्ट पार्टी के इस अमानवीय चेहरे पर से गाहे-बगाहे उसके सदस्य ही पर्दा उठाते रहते हैं ।
इस आपबीती के बाद की दास्तान कैफी और शौकत के संघर्ष की कहानी है। कैफी के लगातार हौसला आफजाई के बाद शौकत नाटकों में और सक्रिय हो गई और लगातार सफलता की सीढियां चढती चली गई । एक अदाकारा के रूप में शौकत की और शायर के रूप में कैफी की शोहरत बढ़ने लगी । शौकत को नाटकों के अलावा फिल्मों में काम मिला तो कैफी ने भी कई बेहतरीन नगमे लिखे । शोहरत और उससे आए पैसे को कैफी और शौकत एन्जॉय कर रहे थे कि एक दिन इस हंसते खेलते परिवार को किसी की नजर लग गई और कैफी साहब बुरी तरह बीमार हो गए । फिर शौकत ने अपने बच्चों के साथ मिलकर अचानक आए इस विपदा को भी मित्रों के सहयोग से झेला । इसके अलावा इस आपबीती में कैफी के उत्तर प्रदेश के अपने गांव मिजवां के लिए किए गए कामों का और अपने गांव और इलाके की बेहतरी के लिए कैफी की बेचैनी का भी विस्तार से विवरण है । साथ ही शौकत के पृथ्वी थिएटर के दिनों के भी दिलचस्प और रोचक किस्से हैं । कुल मिलाकर अगर हम इस आपबीती पर विचार करें तो हम कह सकते हैं कि ये एक अद्भुत प्रेम कहानी है । अफसाना है दो दिलों का जो तमाम दिक्कतों और संघर्षों के बवजूद एक दूसरे को दिलो जान से फिदा कर देते हैं ।
संस्मरण की ही तरह हिंदी साहित्य की एक और विधा है – यात्रा वृतांत । हिंदी साहित्य से ये विधा लगभग खत्म होती जा रही है । गाहे बगाहे ही कोई लेखक यात्रा वृतांत लिखता है । हाल के दिनो में मृदुला गर्ग की उनकी यात्रा पर लिखे वृतांत – कुछ अटके कुछ भटके – नाम से पेंग्विन बुक्स, दिल्ली से छपा है । मृदुला गर्ग की छवि हिंदी साहित्य में एक गंभीर कथा लेखिका की है, जिनके उपन्यासों में शहरी आधुनिक नारी की जटिल मानसिकता और द्वंद केंद्रीय विषय होते हैं । मृदुला गर्ग को हिंदी में बोल्ड भाषा का इस्तेमाल करनेवाली लेखिका के रूप में भी जाना जाता है । उनके उपन्यास 'चितकोबरा' और 'कठगुलाब' और उसके हिस्से की धूप जब छपकर आए तो हिंदी साहित्य में इन उपन्यासों की भाषा को लेकर खासी चर्चा हुई ।
'कुछ अटके कुछ भटके' मृदुला गर्ग की दर्जन भर यात्राओं का विवरण है जो पहले भी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपकर पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींच चुके हैं । इन दर्जन भर यात्रा विवरणों में सूरीनाम में वर्ष दो हजार तीन में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान वर्षावन की यात्रा का बेहद रोचक और दिलचस्प वर्णन है । लगभग सत्तर साल में जवानों जैसे जज्बे के साथ सूरीनाम के जंगलों में भटकते हुए प्रकृति का आनंद उठाना बड़ी बात है । लेकिन अपने इस संस्मरण में उन्होंने हिंदी के साहित्यकारों की एक कमजोरी की तरफ जाने अनजाने इशारा कर दिया । वो है कंजूसी और वादाखिलाफी । नाम तो मृदुला गर्ग ने किसी का भी नहीं लिया लेकिन साहित्यकारों को करीब से जानने वाले और साहित्यिक हलचलों पर नजर रखनेवालों को उन्हें पहचानने में दिक्कत नहीं होगी । मृदुला गर्ग ने अपने साथ चलने के लिए पांच लोगों को तैयार कर लिया था लेकिन हामी भरने के बावजूद वो लोग नियत समय और जगह पर नहीं आए । चूंकि मृदुला गर्ग ने सात लोगों की बुकिंग की हुई थी, इसलिए उनको विदेशी मुद्रा में अपने सहयोगियों के वादाखिलाफी का दंड भुगतना पड़ा । अगर हम इस पूरी किताब को ध्यान से पढ़े तो ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं जो "बिटविन द लाइन्स" ही पढ़े और समझे जा सकते हैं । इशारों इशारों में लेखिका कई अहम बातें कह जाती हैं । जैसे जब वो तमाम दिक्कतों के बावजूद असम की यात्रा पर जा सकी और डिब्रूगढ़ में भाषण देने के लिएखड़ी हुई तो वहां मौजूद बागी छात्र नेताओं ने उनसे हिंदी भाषण देने का अनुरोध किया । इस संसमरण में एक वाक्य है जो देश के हुक्मरानों को एक चेतावनी भी है – "देश के इतने बड़े भाग ने हिंदी बोलनी-पढ़नी-लिखनी सीखी तो हमने उसका इस्तेमाल देश के एकीकरण के लिए क्यों नहीं किया ? बार बार असम के युवा छात्रों को ये क्यों कहना पड़ रहा था कि हमारी औकात कम इसलिए आंकी जाती है क्योंकि हम "मेनलैंड" के लोगों की तरह फर्राटे से अंग्रेजी नहीं बोल सकते । मेनलैंड । यानि पूर्वोत्तर को छोड़कर बाकी का हिंदुस्तान , जिसकी राजभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी है । एक तरफ हम उन्हें दोष देते हैं कि वो देश से जुदा होना चाहते हैं , दूसरी तरफ साथ लेने के इस नायाब औजार का तिरस्कार करके हम लगातार उन्हें हाशिए में धकेलते जाते हैं । (पृ. 120-121) । ये कहकर लेखिका ने असम की समस्या सुलझाने में सरकार की विफलता और जमीनी हकीकत दोनों को एक झटके में सामने ला देती हैं ।
इस किताब को पढ़ते हुए 1980 में छपे मृदुला गर्ग के उपन्यास "अनित्य" की बरबस याद आ जाती है। वो इसलिए कि उक्त उपन्यास में मृदुला गर्ग स्त्री पुरुष संबंधों के अपने प्रिय विषय को छोड़कर राजनीति को अपने उपन्यास का विषय बनाया था, जिसमें तीस के दशक से लेकर आजादी मिलने के बाद तक के कालखंड को उठाया गया था । उस उपन्यास में मृदुला गर्ग कमोबेश हिंसात्मक क्रांति के पक्ष में दिखाई देती हैं, लेकिन कुछ अटके कुछ भटके के अपने असम वाले लेख में भाषा को औजार बनाकर देश को जोड़ने की बात करती हैं । इसे हम लेखिका के विचारों की परिपक्वता या विकास के तौर पर रेखांकित कर सकते हैं ।
इसके अलावा मृदुला गर्ग ने अपने इन यात्रा वृतांतों में शब्दों और बिंबों को जो प्रयोग किया है उससे न केवल उनकी भाषा चमक उठती है बल्कि दिलचस्प और रोचक भी हो जाती है । मसलन – "बारिश के हाथों अचानक पकड़े जाने के रोमांच से हम अब भी अछूते रहे" या "उन्हीं लिपटती चिपटती कांटेदार आइवी और झाड़ियों के आगोश से बच बच कर निकलते हुए" या फिर "अहसास की जमीन पर पहली बार समझ में आया कि सुनसान सांय सांय क्यों करता है" । पहले वाक्य में "बारिश के हाथों पकड़े जाने" या दूसरे में "झाड़ियों के आगोश में" या "सुनसान सांय सांय", ये सब ऐसे प्रतीक है, जिससे भाषा तो चमकती ही है पढ़ते वक्त पाठकों के मन में जहां की बात हो रही होती है वहां का पूरा का पूरा दृश्य भी उपस्थित हो जाता है ।
आकार में भले ही ये किताब छोटी हो लेकिन इसका फलक बहुत ही व्यापक है । असम से लेकर हिरोशिमा, गंगटोक से लेकर पारामारिबो, फिर दिल्ली से लेकर अमेरिका और झुमरी तिलैया तक के व्यक्तिगत अनुभवों को एक व्यापक दृष्टि देते हुए पेश किया गया है । जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि इसके लेखों में 'विटविन द लाइन' बहुत कुछ है । इसके एक लेख "रंग-रंग कांजीरंगा" में हजारीबाग के जंगल में घूमने का और वहां के कड़क फॉरेस्ट अफसर के चित्र के बहाने जंगलों और जंगली पशुओं के गायब होने या कम होने के कारणों की तरफ संकेत किया गया है । मृदुला गर्ग की इस किताब के केंद्र में "मैं" है, जो हर लेख में प्रमुखता से मौजूद है। हो सकता है ये विधागत मजबूरी हो, लेकिन इस पूरी किताब पढ़ने के बाद मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि जितना इसमें लिखा है उससे कहीं ज्यादा संकेतों और इशारों में कही गई बातें हैं । एक तरफ ये किताब अगर अपनी रोचकता और सधी हुई भाषा के कारण पाठकों को आनंद से भर देती है तो दूसरी तरफ विटविन द लाइंस से पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देती है .
---------------------------------------------------------
1. याद की रहगुजर, लेखिका- शौकत कैफी, प्रकाशक -राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली -110002, मूल्य – 150 रुपये
2. कुछ अटके-कुछ भटके , लेखिका- मृदुला गर्ग, प्रकाशक- पेंगुइन बुक्स,11कम्युनिटी सेंटर, पंचशील पार्क, नई दिल्ली -110017, मूल्य 100 रुपये
Monday, November 3, 2008
मीडिया की अधूरी खबर
हाल के दिनों हिंदी के वरिष्ठ पत्रकारों में एक नई प्रवृति उभरकर सामने आई है । वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों ने पूर्व में छपे अपने लेखों को एक जगह इकट्ठा करके आकर्षक शीर्षक और गंभीर भूमिका के साथ पुस्तकाकार छपवाना शुरु कर दिया है । संभवत: ये पत्रकारिता के छात्रों की बढती संख्या को ध्यान में रखकर किया जा रहा है, मीडिया के बढ़ते बाजार में से अपना हिस्सा लेने का प्रयास । इसी कड़ी में पत्रकार अरविंद मोहन की किताब- मीडिया की खबर- छपकर आई है । इस किताब में अरविंद मोहन के पूर्व में छपे सत्रह लेख और मीडिया पर उनके पूर्व में लिखे गए स्तंभ की टिप्पणियां संकलित हैं ।
इस किताब का जो बेहद दिलचस्प लेख है वो है - प्रिंट बनाम टीवी । इस लेख की शुरुआत तो अरविंद ठीक करते हैं लेकिन जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते हैं, प्रिंट के प्रति उनका मोह उजागर होता जाता है । अरविंद मोहन लिखते हैं -"जिस भी घटना, रिपोर्टिंग, लेखन में ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी होगी, उसमें कभी टीवी लीड नहीं लेगा ।" ये एक ऐसा निष्कर्ष है जिसके समर्थन में लेखक ने कोई तर्क नहीं दिया है । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें टीवी ने लीड ली, मसलन जेसिका लाल हत्याकांड, प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड, उपहार सिनेमा अग्निकांड के दोषियों को सजा दिलवाने में न्यूज चैनलों की भूमिका अहम रही और उसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है । या फिर हाल में ऑस्ट्रेलिया सीरीज में हरभजन सिंह-साइमंड्स विवाद में खबरिया चैनलों ने जिस तरह आगे बढ़कर लीड ली उसे अखबारों को फॉलो करने को मजबूर होना पड़ा । दरअसल अगर हम राष्ट्रीय पाठक सर्वे के आंकड़ों पर गौर करें तो पाते हैं कि खबरिया चैनलों के बढने के साथ साथ अखबारों और पत्रिकाओं की प्रसार संख्या में भी अच्छी खासी बढ़ोतरी हुई है । हिंदी भाषी क्षेत्रों के अलावा अन्य भाषाओं में भी यही हाल है । वहां भी टीवी चैनलों के बढ़ने के साथ पाठकों की संख्या भी बढ़ी ।अपने इस लेख में लेखक विरोधाभास का भी शिकार हो गया है । एक जगह वो लिखतेहैं- "जिस दौर में टीवी अपने यहां ताकत बढाता गया, उस दौर में अखबारों, पत्रिकाओं के बंद होने का क्रम भी बढ़ा है( पृ.95) ।" वहीं इसी लेख में दूसरी ओर लिखते हैं -"बहरहाल ये धारणा पूरी तरह गलत साबित हुई कि कि टीवी खासकर न्यूज चैनलों के आने से समाचार पत्रों के दुर्दिन आ जाएंगे, बल्कि इसके उलट हो रहा है । जहां टीवी को देखा जा रहा है, वहीं प्रिंट की पाठक संख्या पिछले दो साल में दस फीसदी बढ़ी है ।" अब पाठक ही तय करें । न्यूज चैनलों को लेकर लेखक का पूर्वग्रह भी इस लेख में सामने आता है जब वो कहते हैं कि अखबार लगभग पौने दो सौ खबरे देता है जबकि चैनलों के एक गंटे के बुलेटिन में बमुश्किल पंद्रह खबरें होती है । ये ठीक है लेकिन चौबीस घंटे के न्यूज चैनल में कितने ऐसे बुलेटिन होते हैं और फिर चैनलों खबरों का फॉलोअप या अपडेट तुरत फुरत दे सकते हैं तो अखबारों को चौबीस घंटे का इंतजार करना पड़ता है । मेरे कहने का ये मतलब नहीं है कि खबरों के मामले में अखबारों से ज्यादा अहम न्यूज चैनल हैं । मेरा ये मानना है कि दोनो की अपनी महत्ता है और किसी को कमतर करके आंकने के लिए हमारे पास मजबूत तर्क होने चाहिए ।
इस पूरी किताब में अरविंद मोहन के विचार और पसंद नापसंद उनके लेखों में प्रमुखता से सामने आए हैं । 'इतवारी अखबारों के बहाने' वाले लेख में भी । दिनमान टाइम्स, चौथी दुनिया, संडे मेल और संडे ऑब्जर्वर के प्रकाशन को लेखक हवा के झोंके की तरह बताते हुए कहते हैं कि रिपोर्ट जुटाने के मामले में इनमें से किसी अखबार ने जोर नहीं दिखाया । क्या अरविंद जी को 'चौथी दुनिया' की मेरठ दंगों की रिपोर्टिंग या फिर किसान आंदोलन की कवरेज याद नहीं है या फिर वो इसे याद करना नहीं चाहते । हाशिमपुरा-मलियाना में हुए अमानवीय हत्याकांड पर वीरेन्द्र सेंगर की रिपोर्ट- ' लाइन में खड़ा किया, गोली मारी, और लाशें बहा दी'- ने उस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर हडकंप मचा दिया था । अरविंद जी जिसे हवा का झोंका कह रहे हैं वो तो आंधी थी । चौथी दुनिया की टीम को अब भी पत्रकारिता के इतिहास में कुछ बेहद अच्छी टीमों में से एक में गिना जाता है । इस किताब में एक लेख- भाजपाई मीडिया मैनेजमेंट- विचारोत्तेजक है । इसमें अरविंद मोहन ने ये साबित करने की कोशिश की है कि कम्युनिस्टों के बाद सुनियोजित और व्यवस्थित ढंग से मीडिया में घुसपैठ का प्रयास संघ या भाजपा की तरफ से ही हुआ। इस लेख में लेखक ने इसे सोदाहरण साबित भी किया है । इसके अलावा इस किताब का एक बेहद महत्वपूर्ण लेख 'संपादक के नाम पत्र' है । अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित छपनेवाले पाठकों के पत्रों की महत्ता और उसके असर को मोहन ने अपने अनुभवों के आधार पर स्थापित किया है । 'साझा इतिहास, साझी विरासत' लेख भी पत्रकारिता के इतिहास को समझने में सहायक हैं लेरकिन प्रूफ की गलतियों से कई नाम गलत छपे हैं ।
'खबरों की खबर' वाले अध्याय में छपी टिप्पणियों के साथ उसका प्रकाशन वर्ष भी छपा है, जिसकी वजह से उस पूरे दौर को समझने में सहूलियत होती है । लेकिन अन्य लेखों में प्रकाशन वर्ष के उल्लेख न होने से भ्रम की स्थिति बन जाती है ।
कुल मिलाकर अगर हम 'मीडिया की खबर' पर विचार करें तो कह सकते हैं कि अरविंद मोहन ने मीडिया को बाजार के बरक्श रखकर देखने की कोशिश की है, जिसमें वो कई जगह सफल भी होते दिखते हैं, लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो ये किताब अखबारी लेखों का ऐसा संग्रह है जिससे कोई साफ तस्वीर नहीं उभरती ।
--------------------------------------
समीक्ष्य पुस्तक- मीडिया की खबर
लेखक- अरविंद मोहन
प्रकाशक- शिल्पायन, 10295, वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा
दिल्ली- 110032
मूल्य - 150 रुपये
इस किताब का जो बेहद दिलचस्प लेख है वो है - प्रिंट बनाम टीवी । इस लेख की शुरुआत तो अरविंद ठीक करते हैं लेकिन जैसे-जैसे वो आगे बढ़ते हैं, प्रिंट के प्रति उनका मोह उजागर होता जाता है । अरविंद मोहन लिखते हैं -"जिस भी घटना, रिपोर्टिंग, लेखन में ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी होगी, उसमें कभी टीवी लीड नहीं लेगा ।" ये एक ऐसा निष्कर्ष है जिसके समर्थन में लेखक ने कोई तर्क नहीं दिया है । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें टीवी ने लीड ली, मसलन जेसिका लाल हत्याकांड, प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड, उपहार सिनेमा अग्निकांड के दोषियों को सजा दिलवाने में न्यूज चैनलों की भूमिका अहम रही और उसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है । या फिर हाल में ऑस्ट्रेलिया सीरीज में हरभजन सिंह-साइमंड्स विवाद में खबरिया चैनलों ने जिस तरह आगे बढ़कर लीड ली उसे अखबारों को फॉलो करने को मजबूर होना पड़ा । दरअसल अगर हम राष्ट्रीय पाठक सर्वे के आंकड़ों पर गौर करें तो पाते हैं कि खबरिया चैनलों के बढने के साथ साथ अखबारों और पत्रिकाओं की प्रसार संख्या में भी अच्छी खासी बढ़ोतरी हुई है । हिंदी भाषी क्षेत्रों के अलावा अन्य भाषाओं में भी यही हाल है । वहां भी टीवी चैनलों के बढ़ने के साथ पाठकों की संख्या भी बढ़ी ।अपने इस लेख में लेखक विरोधाभास का भी शिकार हो गया है । एक जगह वो लिखतेहैं- "जिस दौर में टीवी अपने यहां ताकत बढाता गया, उस दौर में अखबारों, पत्रिकाओं के बंद होने का क्रम भी बढ़ा है( पृ.95) ।" वहीं इसी लेख में दूसरी ओर लिखते हैं -"बहरहाल ये धारणा पूरी तरह गलत साबित हुई कि कि टीवी खासकर न्यूज चैनलों के आने से समाचार पत्रों के दुर्दिन आ जाएंगे, बल्कि इसके उलट हो रहा है । जहां टीवी को देखा जा रहा है, वहीं प्रिंट की पाठक संख्या पिछले दो साल में दस फीसदी बढ़ी है ।" अब पाठक ही तय करें । न्यूज चैनलों को लेकर लेखक का पूर्वग्रह भी इस लेख में सामने आता है जब वो कहते हैं कि अखबार लगभग पौने दो सौ खबरे देता है जबकि चैनलों के एक गंटे के बुलेटिन में बमुश्किल पंद्रह खबरें होती है । ये ठीक है लेकिन चौबीस घंटे के न्यूज चैनल में कितने ऐसे बुलेटिन होते हैं और फिर चैनलों खबरों का फॉलोअप या अपडेट तुरत फुरत दे सकते हैं तो अखबारों को चौबीस घंटे का इंतजार करना पड़ता है । मेरे कहने का ये मतलब नहीं है कि खबरों के मामले में अखबारों से ज्यादा अहम न्यूज चैनल हैं । मेरा ये मानना है कि दोनो की अपनी महत्ता है और किसी को कमतर करके आंकने के लिए हमारे पास मजबूत तर्क होने चाहिए ।
इस पूरी किताब में अरविंद मोहन के विचार और पसंद नापसंद उनके लेखों में प्रमुखता से सामने आए हैं । 'इतवारी अखबारों के बहाने' वाले लेख में भी । दिनमान टाइम्स, चौथी दुनिया, संडे मेल और संडे ऑब्जर्वर के प्रकाशन को लेखक हवा के झोंके की तरह बताते हुए कहते हैं कि रिपोर्ट जुटाने के मामले में इनमें से किसी अखबार ने जोर नहीं दिखाया । क्या अरविंद जी को 'चौथी दुनिया' की मेरठ दंगों की रिपोर्टिंग या फिर किसान आंदोलन की कवरेज याद नहीं है या फिर वो इसे याद करना नहीं चाहते । हाशिमपुरा-मलियाना में हुए अमानवीय हत्याकांड पर वीरेन्द्र सेंगर की रिपोर्ट- ' लाइन में खड़ा किया, गोली मारी, और लाशें बहा दी'- ने उस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर हडकंप मचा दिया था । अरविंद जी जिसे हवा का झोंका कह रहे हैं वो तो आंधी थी । चौथी दुनिया की टीम को अब भी पत्रकारिता के इतिहास में कुछ बेहद अच्छी टीमों में से एक में गिना जाता है । इस किताब में एक लेख- भाजपाई मीडिया मैनेजमेंट- विचारोत्तेजक है । इसमें अरविंद मोहन ने ये साबित करने की कोशिश की है कि कम्युनिस्टों के बाद सुनियोजित और व्यवस्थित ढंग से मीडिया में घुसपैठ का प्रयास संघ या भाजपा की तरफ से ही हुआ। इस लेख में लेखक ने इसे सोदाहरण साबित भी किया है । इसके अलावा इस किताब का एक बेहद महत्वपूर्ण लेख 'संपादक के नाम पत्र' है । अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित छपनेवाले पाठकों के पत्रों की महत्ता और उसके असर को मोहन ने अपने अनुभवों के आधार पर स्थापित किया है । 'साझा इतिहास, साझी विरासत' लेख भी पत्रकारिता के इतिहास को समझने में सहायक हैं लेरकिन प्रूफ की गलतियों से कई नाम गलत छपे हैं ।
'खबरों की खबर' वाले अध्याय में छपी टिप्पणियों के साथ उसका प्रकाशन वर्ष भी छपा है, जिसकी वजह से उस पूरे दौर को समझने में सहूलियत होती है । लेकिन अन्य लेखों में प्रकाशन वर्ष के उल्लेख न होने से भ्रम की स्थिति बन जाती है ।
कुल मिलाकर अगर हम 'मीडिया की खबर' पर विचार करें तो कह सकते हैं कि अरविंद मोहन ने मीडिया को बाजार के बरक्श रखकर देखने की कोशिश की है, जिसमें वो कई जगह सफल भी होते दिखते हैं, लेकिन अगर समग्रता में विचार करें तो ये किताब अखबारी लेखों का ऐसा संग्रह है जिससे कोई साफ तस्वीर नहीं उभरती ।
--------------------------------------
समीक्ष्य पुस्तक- मीडिया की खबर
लेखक- अरविंद मोहन
प्रकाशक- शिल्पायन, 10295, वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा
दिल्ली- 110032
मूल्य - 150 रुपये
Monday, October 20, 2008
झूठा दर्प हिंदी का
अभी कुछ दिनों पहले हिंदी की एक वरिष्ठ उपन्यास लेखिका से बात हो रही थी। बातों-बातों में उन्होंने बताया कि सन् 1999 में प्रकाशित उनके उपन्यास के अबतक पांच संस्करण हो चुके हैं। ये बताते हुए उनके चहरा गर्व से चमकने लगा। चेहरे की इस चमक के पीछे अहंकार की हल्की छाया भी थी। ये हाल सिर्फ उनका ही नहीं बल्कि हिंदी के लगभग तमाम वैसे लेखकों का है जिनकी किसी भी कृति के दो या तीन संस्करण हो चुके हैं। लेकिन अगर हम इसके दूसरे पहलू को देखें तो पता चलता है कि इनदिनों हिंदी में किसी भी कृति का एक संस्करण तीन से लेकर पांच सौ प्रतियों तक का होता है।अगर पांच संस्करण भी छप गए तो कुल जमा पच्चीस सौ प्रतियां ही छपी और बिकी। इतने विशाल हिंदी पाठक वर्ग को ध्यान में रखते हुए ये संख्या ऐसी नहीं कि ये किसी भी लेखक या लेखिका के चेहरे पर दर्प या अंहकार का भाव ला सके।
अगर हम अंग्रेजी में छपने वाली कृतियों की बिक्री से हिंदी कृतियों की बिक्री के आंकड़ों की तुलना करें तो ये संख्या नगण्य सी नजर आएगी। पिछले साल जून में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन की बाजार में आई जीवनी ए वूमन इनचार्ज के पहले संस्करण की साढ़े तीन लाख प्रतियां छापने की घोषणा इसके प्रकाशक ने पहले ही कर दी थी। ये तो अग्रिम छपाई का आंकड़ा था जो कि किताब के बाजार में आने के पहले ही घोषित की जा चुकी थी।
इस जीवनी की बिक्री के आंकड़े पर ये दलील दी जा सकती है कि ये एक सेलिब्रिटी की जीवनी है इसलिए इसकी इतनी ज्यादा प्रतियां छापी गई हैं। अंग्रेजी और फ्रेंच में तो ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां किताबों की बिक्री का आंकड़ा लाखों में होता है। अब आपको एक और अंग्रेजी लेखक की मिसाल देता हूं। दो हजार पांच के जनवरी में अंग्रेजी में प्रकाशित कर्टिस सेटनफिल्ड के उपन्यास प्रेप की लगभग पांच लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। डेढ़ लाख प्रतियां हार्ड बाउंड की और साढ़े तीन लाख से ज्यादा पेपरबैक।
यहां आपको ये भी बता दें कि ये लेखक की पहली कृति है और इसे छपवाने के लिए कर्टिस को खूब पापड़ बेलने पड़े थे। मूलत: इस उपन्यास का शीर्षक था साइफर और लेखक ने इसे दो हजार तीन में लिखकर पूरा कर लिया था । दो बर्षों तक बीसियों प्रकाशकों का दरवाजा खटखटाने के बाद रैंडम हाउस, लंदन इसे छापने को तैयार हुआ और वो भी अपनी शर्तों पर। न केवल उपन्यास का शीर्षक बदल दिया गया बल्कि कुछ अंश संपादित भी कर दिए।
यहां सवाल फिर उठेगा कि हिंदी में पाठक कम हैं। लेकिन हर साल नेशनल रीडरशिप सर्वे ( एनआरएस) में हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री के बढ़ते आंकड़े और पाठकों की बढ़ती संख्या इस बात को झुठलाने का पर्याप्त आधार प्रदान करती है कि हिंदी में पाठकों की संख्या कम है या खरीदकर पढ़नेवाले पाठक कम हैं। सवाल पाठकों की कमी का नहीं है। सवाल ये है कि हिंदी में छपी हुई कृतियों के हिसाब-किताब की कोई वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति नहीं है। जो आंकड़े प्रकाशक दे दे उसपर ही विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि एक ऐसी वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति विकसित की जाए जिससे बिक्री के सही आंकड़े का पता चल सके। इस मामले में लेखकों के संगठन एक सार्थक और सक्रिय भूमिका निभा सकते थे लेकिन इन लेखक संगठनों ने साहित्य की टुच्ची राजनीति में पड़कर न केवल अपनी प्रासंगिकता खो दी है बल्कि सार्थकता भी। लेखक संगठनों ने कभी भी लेखकों की बेहतरी की दिशा में कोई पहल नहीं की।
अभी कुछ अर्सा पहले जब स्व. निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल और हिंदी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशन के बीच निर्मल की कृतियों को लेकर विवाद हुआ तो भी लेखक संगठनों ने भी रहस्यमय चुप्पी साध ली थी। हां, इस विवाद के दौरान निर्मल वर्मा जैसे बड़े लेखक की किताबों की बिक्री के आंकड़े जरूर सामने आए, जो चौंकाने वाले थे।
इसके अलावा साहित्य अकादमी और राज्य की अकादमियां भी इस दिशा में पहल कर सकती हैं लेकिन लेखक संगठनों की तरह ही यहां भी बुरा हाल है और ये संस्थान भी साहित्य की राजनीति का अखाड़ा बन गए हैं। सरकार से मिली स्वायत्तता का ये बेजा फायदा उठा रही हैं।
हिंदी के प्रकाशक तो हमेशा से पाठकों की कमी का रोना तो रोते रहते हैं लेकिन हर साल छोटे से छोटा प्रकाशक भी पचास से सौ किताबें छापता है। अगर पाठकों की कमी है तो इतनी किताबें क्यों और किसके लिए छपती हैं। हमारे यहां यानी हिंदी में जो एक सबसे बड़ी दिक्कत है वो ये है कि प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। उनकी रुचि ज्यादातर सरकारी थोक खरीद में होती है और वो उसी दिशा में प्रयास भी करता है।
मैं कई शहरों के अपने अनुभव के आधार पर ये कह सकता हूं कि किताबों की कोई ऐसी दुकान नहीं मिलेगी जहां आपको आपकी मनचाही किताबें मिल जाए। अगर आप दिल्ली का ही उदाहरण लें तो यहां भी किताबों की एक या दो दुकान हैं जहां हिंदी की किताबें मिल सकती हैं। आज देश रिटेल क्रांति के दौर से गुजर रहा है। बड़ी-बड़ी दुकानें खुल रही है जहां एक ही छत के नीचे आपको जरूरत का सारा सामान मिल जाएगा लेकिन वैसी दुकानों में भी किताबों के लिए कोई कोना नहीं है। न ही हिंदी के प्रकाशक इस दिशा में गंभीरता से कोई प्रयास करते दिख रहे हैं।
तीसरी बात जो इस मसले में महत्वपूर्ण है वो ये है कि हिंदी के प्रकाशकों और लेखकों के बीच कृतियों को लेकर कोई एक स्टैंडर्ड अनुबंध पत्र नहीं है। हिंदी के कई ऐसे लेखक हैं जो बिना किसी अनुंबंध के अपनी कृति प्रकाशकों को सौंप देते हैं और बाद में प्रकाशकों को इस बात के लिए दोषी ठहराते हैं कि वो उनकी किताब के बिक्री का सही आंकडा़ उनको नहीं देता है।
इसमें होता ये है कि अगर कुछ बड़े लेखक को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर लेखक प्रकाशकों के सामने हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि उनकी किताब छाप दे। और प्रकाशक भी इस मुद्रा में होते हैं कि वो किताब छापकर लेखक पर एहसान कर रहे हैं। इसके अलावा हिंदी के प्रकाशक इस बात के लिए दोषी हैं कि वो अपनी किताबों की मार्केटिंग और प्रचार प्रसार के लिए कोई खास प्रयास नहीं करते। न ही किसी प्रकाशक के पास प्रचार-प्रसार के लिए अलग से कोई कर्मचारी रखा जाता है।
इसके विपरीत अगर भारत के ही अंग्रेजी प्रकाशकों पर नजर डालें तो उनकी जो पब्लिसिटी की व्यवस्था है वो एकदम दुरुस्त और आधुनिक। वो किताबों की सूचना ई मेल और एसएसएस के जरिए पाठकों तक नियमित रूप से पहुंचाते हैं।
कुल मिलाकर हिंदी में कृति की बिक्री कम होने या अंग्रेजी की तुलना में नगण्य होने के कई कारण हैं जिसमें से कुछ प्रमुख कारणों की तरफ मैंने इशारा करने की कोशिश की है।
अगर हम अंग्रेजी में छपने वाली कृतियों की बिक्री से हिंदी कृतियों की बिक्री के आंकड़ों की तुलना करें तो ये संख्या नगण्य सी नजर आएगी। पिछले साल जून में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन की बाजार में आई जीवनी ए वूमन इनचार्ज के पहले संस्करण की साढ़े तीन लाख प्रतियां छापने की घोषणा इसके प्रकाशक ने पहले ही कर दी थी। ये तो अग्रिम छपाई का आंकड़ा था जो कि किताब के बाजार में आने के पहले ही घोषित की जा चुकी थी।
इस जीवनी की बिक्री के आंकड़े पर ये दलील दी जा सकती है कि ये एक सेलिब्रिटी की जीवनी है इसलिए इसकी इतनी ज्यादा प्रतियां छापी गई हैं। अंग्रेजी और फ्रेंच में तो ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहां किताबों की बिक्री का आंकड़ा लाखों में होता है। अब आपको एक और अंग्रेजी लेखक की मिसाल देता हूं। दो हजार पांच के जनवरी में अंग्रेजी में प्रकाशित कर्टिस सेटनफिल्ड के उपन्यास प्रेप की लगभग पांच लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। डेढ़ लाख प्रतियां हार्ड बाउंड की और साढ़े तीन लाख से ज्यादा पेपरबैक।
यहां आपको ये भी बता दें कि ये लेखक की पहली कृति है और इसे छपवाने के लिए कर्टिस को खूब पापड़ बेलने पड़े थे। मूलत: इस उपन्यास का शीर्षक था साइफर और लेखक ने इसे दो हजार तीन में लिखकर पूरा कर लिया था । दो बर्षों तक बीसियों प्रकाशकों का दरवाजा खटखटाने के बाद रैंडम हाउस, लंदन इसे छापने को तैयार हुआ और वो भी अपनी शर्तों पर। न केवल उपन्यास का शीर्षक बदल दिया गया बल्कि कुछ अंश संपादित भी कर दिए।
यहां सवाल फिर उठेगा कि हिंदी में पाठक कम हैं। लेकिन हर साल नेशनल रीडरशिप सर्वे ( एनआरएस) में हिंदी के पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री के बढ़ते आंकड़े और पाठकों की बढ़ती संख्या इस बात को झुठलाने का पर्याप्त आधार प्रदान करती है कि हिंदी में पाठकों की संख्या कम है या खरीदकर पढ़नेवाले पाठक कम हैं। सवाल पाठकों की कमी का नहीं है। सवाल ये है कि हिंदी में छपी हुई कृतियों के हिसाब-किताब की कोई वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति नहीं है। जो आंकड़े प्रकाशक दे दे उसपर ही विश्वास करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
जरूरत इस बात की है कि एक ऐसी वैज्ञानिक और प्रमाणिक पद्धति विकसित की जाए जिससे बिक्री के सही आंकड़े का पता चल सके। इस मामले में लेखकों के संगठन एक सार्थक और सक्रिय भूमिका निभा सकते थे लेकिन इन लेखक संगठनों ने साहित्य की टुच्ची राजनीति में पड़कर न केवल अपनी प्रासंगिकता खो दी है बल्कि सार्थकता भी। लेखक संगठनों ने कभी भी लेखकों की बेहतरी की दिशा में कोई पहल नहीं की।
अभी कुछ अर्सा पहले जब स्व. निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल और हिंदी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित राजकमल प्रकाशन के बीच निर्मल की कृतियों को लेकर विवाद हुआ तो भी लेखक संगठनों ने भी रहस्यमय चुप्पी साध ली थी। हां, इस विवाद के दौरान निर्मल वर्मा जैसे बड़े लेखक की किताबों की बिक्री के आंकड़े जरूर सामने आए, जो चौंकाने वाले थे।
इसके अलावा साहित्य अकादमी और राज्य की अकादमियां भी इस दिशा में पहल कर सकती हैं लेकिन लेखक संगठनों की तरह ही यहां भी बुरा हाल है और ये संस्थान भी साहित्य की राजनीति का अखाड़ा बन गए हैं। सरकार से मिली स्वायत्तता का ये बेजा फायदा उठा रही हैं।
हिंदी के प्रकाशक तो हमेशा से पाठकों की कमी का रोना तो रोते रहते हैं लेकिन हर साल छोटे से छोटा प्रकाशक भी पचास से सौ किताबें छापता है। अगर पाठकों की कमी है तो इतनी किताबें क्यों और किसके लिए छपती हैं। हमारे यहां यानी हिंदी में जो एक सबसे बड़ी दिक्कत है वो ये है कि प्रकाशक पाठकों तक पहुंचने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। उनकी रुचि ज्यादातर सरकारी थोक खरीद में होती है और वो उसी दिशा में प्रयास भी करता है।
मैं कई शहरों के अपने अनुभव के आधार पर ये कह सकता हूं कि किताबों की कोई ऐसी दुकान नहीं मिलेगी जहां आपको आपकी मनचाही किताबें मिल जाए। अगर आप दिल्ली का ही उदाहरण लें तो यहां भी किताबों की एक या दो दुकान हैं जहां हिंदी की किताबें मिल सकती हैं। आज देश रिटेल क्रांति के दौर से गुजर रहा है। बड़ी-बड़ी दुकानें खुल रही है जहां एक ही छत के नीचे आपको जरूरत का सारा सामान मिल जाएगा लेकिन वैसी दुकानों में भी किताबों के लिए कोई कोना नहीं है। न ही हिंदी के प्रकाशक इस दिशा में गंभीरता से कोई प्रयास करते दिख रहे हैं।
तीसरी बात जो इस मसले में महत्वपूर्ण है वो ये है कि हिंदी के प्रकाशकों और लेखकों के बीच कृतियों को लेकर कोई एक स्टैंडर्ड अनुबंध पत्र नहीं है। हिंदी के कई ऐसे लेखक हैं जो बिना किसी अनुंबंध के अपनी कृति प्रकाशकों को सौंप देते हैं और बाद में प्रकाशकों को इस बात के लिए दोषी ठहराते हैं कि वो उनकी किताब के बिक्री का सही आंकडा़ उनको नहीं देता है।
इसमें होता ये है कि अगर कुछ बड़े लेखक को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर लेखक प्रकाशकों के सामने हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं कि उनकी किताब छाप दे। और प्रकाशक भी इस मुद्रा में होते हैं कि वो किताब छापकर लेखक पर एहसान कर रहे हैं। इसके अलावा हिंदी के प्रकाशक इस बात के लिए दोषी हैं कि वो अपनी किताबों की मार्केटिंग और प्रचार प्रसार के लिए कोई खास प्रयास नहीं करते। न ही किसी प्रकाशक के पास प्रचार-प्रसार के लिए अलग से कोई कर्मचारी रखा जाता है।
इसके विपरीत अगर भारत के ही अंग्रेजी प्रकाशकों पर नजर डालें तो उनकी जो पब्लिसिटी की व्यवस्था है वो एकदम दुरुस्त और आधुनिक। वो किताबों की सूचना ई मेल और एसएसएस के जरिए पाठकों तक नियमित रूप से पहुंचाते हैं।
कुल मिलाकर हिंदी में कृति की बिक्री कम होने या अंग्रेजी की तुलना में नगण्य होने के कई कारण हैं जिसमें से कुछ प्रमुख कारणों की तरफ मैंने इशारा करने की कोशिश की है।
Monday, October 13, 2008
टीवी के लौंडे-लफाड़े
देशभर के अखबारों में आजकल टेलिविजन चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन पर खूब चर्चा हो रही है। सरकारी चैनल दूरदर्शन ने भी मीडिया के सरोकार के बहाने इसपर एक वृहद चर्चा आयोजित की। कमोबेश इस तरह से स्टिंग ऑपरेशन के बहाने खबरिया चैनलों पर लगाम लगाने के सरकार के इरादे को समर्थन मिल रहा है।
सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि न्यूज चैनलों पर नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाए जा रहे हैं। आलोचकों का ये भी कहना है कि न्यूज चैनलों से खबरें गायब हो गई है, बाकी सबकुछ है। इसके अलावा टीआरपी को लेकर भी खूब शोरगुल मचाया जा रहा है। जिन्हें टीआरपी की एबीसी भी पता नहीं है, वो भी न्यूज चैनलों की इस बात के लिए जमकर आलोचना करने में जुटे हैं कि वो टीआरपी बटोरने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं।
टीआरपी के बारे में आधी अधूरी जानकारी रखनेवाले विद्वान, लेखक और अपने आपको मीडिया के जानकार बतानेवाले टीआरपी के सैंपल साइज पर भी सवाल उठा रहे हैं। कोई कह रहा है कि दो हजार बक्से से ये कैसे तय हो सकता है तो कोई इसकी संख्या पांच हजार बता रहा है। तो कहीं इसकी कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। बात-बात में सीएनएन और बीबीसी के उदाहरण दिए जाते हैं। लेकिन इसपर जो भी चर्चा हो रही है वो बहुत ही सतही और सुनी सुनाई बातों के आधार पर की जा रही है।
टीआरपी और इस व्यवस्था को कोसना आजकल फैशन हो गया है लेकिन न्यूज चैनलों पर लिखनेवाले मित्रों के लेखों को पढ़कर लगता है कि वो बगैर किसी तैयारी के लिख रहे हैं। टीआरपी और इस व्यवस्था की आलोचना करनेवालों को ये पता होना चाहिए कि ये व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है। किसी भी और देश में टीआरपी के इतने बक्से नहीं लगे हैं।
पूरे भारत में अभी टीआरपी के सात हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्तेभर इसपर काम करती है। और अगर टीआरपी को ध्यान में रखकर कंटेंट तय किया जा रहा है तो इसमें बुराई क्या है। क्या अखबार और पत्र-पत्रिकाएं सर्कुलेशन और रीडरशिप को ध्यान में रखकर अपना कंटेंट तय नहीं करते हैं। अगर टीआरपी के सैंपल साइज पर सवाल उटाए जा रहे हैं तो अखबारों के रीडरशिप सर्वे पर कोई सवाल क्यों नहीं उठता। पांच लाख के सर्कुलेशन वाले अखबार की रीडरशिप यानी पाठक संख्या पचास साठ लाख से ज्यादा दिखाई जाती है।
बारह लाख बिकनेवाली चालीस पृष्ठ की पत्रिका की पाठकसंख्या एक करोड़ से ज्यादा बताई जाती है। मतलब ये कि उक्त अखबार और पत्रिका की एक प्रति को लगभग दस लोग लोग पढ़ते हैं। क्या ऐसा संभव है। ये तो सिर्फ किसी बात की तरफ इशारा भर करता है। चलिए मान भी लिया जाए कि ऐसा होता होगा तो फिर सवाल ये उठता है कि नेशनल रीडरशिप सर्वे और इंडियन रीडरशिप सर्वे का सैंपल साइज क्या होता है। क्या इन सर्वे के सैंपल साइज इतना बावेला मचा।
अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन से जुड़े लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इन रीडरशिप सर्वे के आधार पर पत्र-पत्रिकाएं विज्ञापनदाताओं के पास जाकर कितना शोर मचाते हैं।
दूसरी जो सबसे हल्की बात न्यूज चैनलों के बारे में कही जाती है कि वो नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाते रहते हैं। क्या इस तरह का फतवा जारी करने वाले किसी भी व्यक्ति ने सारे न्यूज चैनलों पर चलनेवाले कंटेट का अध्ययन किया है। कतई नहीं। अगर वो गंभीरता से इस पर विचार करते तो इस तरह का स्वीपिंग रिमार्क नहीं आता। एकाध न्यूज चैनल हैं जो इसे दिखाते हैं तो क्या उसके आधार पर सारे न्यूज चैनलों के कंटेट को हल्का करार दिया जा सकता है।
क्या अखबारों में और पत्र-पत्रकिओं में भूत-प्रेत और नाग-नागिन के बारे में खबरें नहीं छपती। दरअसल हर मीडियम, में चाहे वो प्रिंट हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक, हर तरह के कंटेंट मिलते हैं कहीं मसाला ज्यादा होता है और कहीं गंभीरता ज्यादा होती है। दरअसल न्यूज चैनलों की आलोचना से पत्रकारिता का वर्ग-संघर्ष सामने आता है। कुछ लोगों के मन में कुंठा घर कर गई है कि वो पंद्रह बीस साल तक कलम घिसने के बाद एक छोटी सी गाड़ी में ही चल पा रहे हैं जबकि न्यूज चैनलों में चार पांच साल काम करके ही लोग लंबी-लंबी गाड़ियों में चलने लगते हैं।
कई अखबारों के स्थानीय संपादक मेरे मित्र हैं जिन्हें मैंने ये कहते सुना है कि ये टीवी वाले लौंडे-लफाड़े ऐश कर रहे हैं और हम साले जीवन भर कलम ही घिसते रह जाएंगें। इसमें तो इन "लौंडे-लफाड़ों" का दोष नहीं है। बल्कि उन्हें तो अवसर मिला और जिस माध्यम में वो काम कर रहे हैं वहां आय हो रही है, तो पैसे मिल रहे हैं। साथ ही ये भी देखना होगा कि अखबारों में काम का दवाब कितना होता है और टीवी में कितना होता है। अखबार तो एक बार निकाल कर आप चौबीस घंटे के लिए निश्चिंत हो गए लेकिन न्यूज चैनलों में तो हर आधे घंटे में आपको एक अखबार निकालना होता है। काम के दवाब के हिसाब से कंपशेसन मिलता है।
और रही बात स्टिंग आपरेशन की तो क्या एक चैनल की गैरजिम्मेदारी के आधार पर ये कहना उचित है कि स्टिंग पर रोक लगा देनी चाहिए। क्या स्टिंग से देश का भला नहीं हुआ है। क्या स्टिंग से देश में सर्वोच्च स्तर पर चलनेवाले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश नहीं हुआ। अगर एक व्यापक सामाजिक हित में स्टिंग किया जा रहा हो तो उसपर रोक लगाने की कोई वजह नहीं है। लेकिन ये भी आवश्यक है कि स्टिंग को ऑन एयर डालने से पहले उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ये भी सोचना चाहिए कि इस स्टिंग से समाज का भला हो रहा है या नहीं । व्यक्तिगत दुश्मनी या बदला लेने की नीयत से किया जानेवाला स्टिंग सर्वथा निंदनीय है और कोई भी उसका पक्षधर नहीं है। राजनेता और सरकार तो हमेशा से ये चाहते रहे हैं कि मीडिया पर लगाम लगे ताकि वो स्वच्छंदतापूर्वक मनमाफिक काम कर सके।
सवाल ये भी उठाए जा रहे हैं कि न्यूज चैनलों पर नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाए जा रहे हैं। आलोचकों का ये भी कहना है कि न्यूज चैनलों से खबरें गायब हो गई है, बाकी सबकुछ है। इसके अलावा टीआरपी को लेकर भी खूब शोरगुल मचाया जा रहा है। जिन्हें टीआरपी की एबीसी भी पता नहीं है, वो भी न्यूज चैनलों की इस बात के लिए जमकर आलोचना करने में जुटे हैं कि वो टीआरपी बटोरने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं।
टीआरपी के बारे में आधी अधूरी जानकारी रखनेवाले विद्वान, लेखक और अपने आपको मीडिया के जानकार बतानेवाले टीआरपी के सैंपल साइज पर भी सवाल उठा रहे हैं। कोई कह रहा है कि दो हजार बक्से से ये कैसे तय हो सकता है तो कोई इसकी संख्या पांच हजार बता रहा है। तो कहीं इसकी कार्यप्रणाली पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं। बात-बात में सीएनएन और बीबीसी के उदाहरण दिए जाते हैं। लेकिन इसपर जो भी चर्चा हो रही है वो बहुत ही सतही और सुनी सुनाई बातों के आधार पर की जा रही है।
टीआरपी और इस व्यवस्था को कोसना आजकल फैशन हो गया है लेकिन न्यूज चैनलों पर लिखनेवाले मित्रों के लेखों को पढ़कर लगता है कि वो बगैर किसी तैयारी के लिख रहे हैं। टीआरपी और इस व्यवस्था की आलोचना करनेवालों को ये पता होना चाहिए कि ये व्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी व्यवस्था है। किसी भी और देश में टीआरपी के इतने बक्से नहीं लगे हैं।
पूरे भारत में अभी टीआरपी के सात हजार बक्से लगे हैं और रिसर्च करनेवालों की एक पूरी टीम हफ्तेभर इसपर काम करती है। और अगर टीआरपी को ध्यान में रखकर कंटेंट तय किया जा रहा है तो इसमें बुराई क्या है। क्या अखबार और पत्र-पत्रिकाएं सर्कुलेशन और रीडरशिप को ध्यान में रखकर अपना कंटेंट तय नहीं करते हैं। अगर टीआरपी के सैंपल साइज पर सवाल उटाए जा रहे हैं तो अखबारों के रीडरशिप सर्वे पर कोई सवाल क्यों नहीं उठता। पांच लाख के सर्कुलेशन वाले अखबार की रीडरशिप यानी पाठक संख्या पचास साठ लाख से ज्यादा दिखाई जाती है।
बारह लाख बिकनेवाली चालीस पृष्ठ की पत्रिका की पाठकसंख्या एक करोड़ से ज्यादा बताई जाती है। मतलब ये कि उक्त अखबार और पत्रिका की एक प्रति को लगभग दस लोग लोग पढ़ते हैं। क्या ऐसा संभव है। ये तो सिर्फ किसी बात की तरफ इशारा भर करता है। चलिए मान भी लिया जाए कि ऐसा होता होगा तो फिर सवाल ये उठता है कि नेशनल रीडरशिप सर्वे और इंडियन रीडरशिप सर्वे का सैंपल साइज क्या होता है। क्या इन सर्वे के सैंपल साइज इतना बावेला मचा।
अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन से जुड़े लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इन रीडरशिप सर्वे के आधार पर पत्र-पत्रिकाएं विज्ञापनदाताओं के पास जाकर कितना शोर मचाते हैं।
दूसरी जो सबसे हल्की बात न्यूज चैनलों के बारे में कही जाती है कि वो नाग नागिन और भूत प्रेत दिखाते रहते हैं। क्या इस तरह का फतवा जारी करने वाले किसी भी व्यक्ति ने सारे न्यूज चैनलों पर चलनेवाले कंटेट का अध्ययन किया है। कतई नहीं। अगर वो गंभीरता से इस पर विचार करते तो इस तरह का स्वीपिंग रिमार्क नहीं आता। एकाध न्यूज चैनल हैं जो इसे दिखाते हैं तो क्या उसके आधार पर सारे न्यूज चैनलों के कंटेट को हल्का करार दिया जा सकता है।
क्या अखबारों में और पत्र-पत्रकिओं में भूत-प्रेत और नाग-नागिन के बारे में खबरें नहीं छपती। दरअसल हर मीडियम, में चाहे वो प्रिंट हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक, हर तरह के कंटेंट मिलते हैं कहीं मसाला ज्यादा होता है और कहीं गंभीरता ज्यादा होती है। दरअसल न्यूज चैनलों की आलोचना से पत्रकारिता का वर्ग-संघर्ष सामने आता है। कुछ लोगों के मन में कुंठा घर कर गई है कि वो पंद्रह बीस साल तक कलम घिसने के बाद एक छोटी सी गाड़ी में ही चल पा रहे हैं जबकि न्यूज चैनलों में चार पांच साल काम करके ही लोग लंबी-लंबी गाड़ियों में चलने लगते हैं।
कई अखबारों के स्थानीय संपादक मेरे मित्र हैं जिन्हें मैंने ये कहते सुना है कि ये टीवी वाले लौंडे-लफाड़े ऐश कर रहे हैं और हम साले जीवन भर कलम ही घिसते रह जाएंगें। इसमें तो इन "लौंडे-लफाड़ों" का दोष नहीं है। बल्कि उन्हें तो अवसर मिला और जिस माध्यम में वो काम कर रहे हैं वहां आय हो रही है, तो पैसे मिल रहे हैं। साथ ही ये भी देखना होगा कि अखबारों में काम का दवाब कितना होता है और टीवी में कितना होता है। अखबार तो एक बार निकाल कर आप चौबीस घंटे के लिए निश्चिंत हो गए लेकिन न्यूज चैनलों में तो हर आधे घंटे में आपको एक अखबार निकालना होता है। काम के दवाब के हिसाब से कंपशेसन मिलता है।
और रही बात स्टिंग आपरेशन की तो क्या एक चैनल की गैरजिम्मेदारी के आधार पर ये कहना उचित है कि स्टिंग पर रोक लगा देनी चाहिए। क्या स्टिंग से देश का भला नहीं हुआ है। क्या स्टिंग से देश में सर्वोच्च स्तर पर चलनेवाले भ्रष्टाचार का पर्दाफाश नहीं हुआ। अगर एक व्यापक सामाजिक हित में स्टिंग किया जा रहा हो तो उसपर रोक लगाने की कोई वजह नहीं है। लेकिन ये भी आवश्यक है कि स्टिंग को ऑन एयर डालने से पहले उसके हर पहलू पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ये भी सोचना चाहिए कि इस स्टिंग से समाज का भला हो रहा है या नहीं । व्यक्तिगत दुश्मनी या बदला लेने की नीयत से किया जानेवाला स्टिंग सर्वथा निंदनीय है और कोई भी उसका पक्षधर नहीं है। राजनेता और सरकार तो हमेशा से ये चाहते रहे हैं कि मीडिया पर लगाम लगे ताकि वो स्वच्छंदतापूर्वक मनमाफिक काम कर सके।
Sunday, September 28, 2008
जादुई यथार्थवादी पत्रकार की परेशानी
आजकल एक खास फैशन चलन में है । फैशन के बारे में आपको थोड़ी देर में बताता हूं उससे पहले ये बता दूं कि इस इस फैशन का जादू किनके सर चढकर बोल रहा है । ये इसी दुनिया के जीव हैं, यकीन मानिए एलियन तो नहीं ही हैं, न ही ये यू ट्यूब से निकाले गए हैं, न ही ये डेस्क पर क्रिएट किए गए हैं । ये हमारे आपके बीच के हैं । इनका वास्ता भी उन्हीं चीजों से पड़ता है जिनसे आपका और हमारा पड़ता है । ये भी हर रोज सुबह साढे नौ बजे और तीन बजे परेशान भी होते हैं,इनको भी खबर चाहिए होती है । लेकिन इनकी परेशानी जरा हट के होती है । ये इस बात से परेशान होते हैं कि अब इस देश में प्रधानमंत्री को भाव नहीं दिया जा रहा है,केंद्रीय मंत्री की कोई नहीं सुन रहा, मुख्यमंत्री अगर कोई बयान देते हैं तो उसे खबर नहीं माना जाता, सर्वहारा की सुनने वाला कोई नहीं है, कोई नेता अगर कुछ बोल देता है तो उसे खबर क्यों नहीं बनाया जाता है । ये इसको पत्रकारिता का पतन या पतित काल मानते हैं और अपने साथियों को इस पतित काल पर प्रवचन देते रहते हैं । तरह तरह के तर्कों से ये साबित करने में लगे रहते हैं कि आज पत्रकारिता के नाम पर जो हो रहा है वो इस पवित्र पेशे को धंधा बना रहा है । पवित्रता पर बाजार के आक्रमण को जी भर कर गरियाते हैं । इन्हें इस तरह के बौद्धिक मैथुन में एक खास किस्म के आनंद की प्राप्ति होती है । ये काम ये कभी भी कहीं भी करते हुए पाए जाते हैं । इन्हें तो बस अवसर की तलाश रहती है । इन्हें लगता है कि इस क्रिया के बाद उनका रसूख कुछ और बढ़ गया है, साथियों पर बौद्धिक होने का आतंक भी कायम हो गया है । चलिए अब आपको ज्यादा इंतजार नहीं करवाते हैं और बता देते हैं - ये हैं कुछ अखबारों और टीवी के वो पत्रकार जिन्हें लगता है कि पत्रकारिता का पतित काल आ गया है। खबर की जगह चैनलों में भांडगीरी हो रही है । अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर ऐसी खबरें छप रही हैं जो खबर नहीं है । अखबारों में पिछले पन्ने की खबरें पहले पन्ने पर आ गई है । सबकुछ ऐसे लोगों के हाथ में चला गया है जिनको न तो पत्रकारिता की समझ है और न ही पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास और परंपरा की समझ । ये खबरों के साथ होने वाले सलूक का रंडी रोना रोज रोते हैं । उन्हें लगता है कि अब पत्रकारिता के नाम पर धर्म कर्म, जादू टोना, मारपीट, सेक्स और लुगदी साहित्य की भरमार हो गई है ।
इनकी परेशानी राखी, राम और राजू यानि की तीन आऱ को लेकर भी है , वो इस बात पर खासे खफा हैं कि इन तीन आर को खबरिया चैनल इतना भाव क्यों दिया जा रहा है । राजू श्रीवास्तव जैसे मसखरे को टीवी चैनल वाले इतना क्यों दिखाते हैं । राखी सावंत अगर कुछ भी करती है, जो वो अमूमन हर दिन कर ही डालती हैं, तो उसे इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है । राम के बारे में अबतक देश की अदालत कुछ तय नहीं कर पाई है लेकिन खबरिया चैनल हैं कि राम के परिवार उनके जन्म स्थान से लेकर इनका पुष्पक विमान तक सबकुछ तलाश ले रहे हैं । न सिर्फ तलाश ले रहे हैं बल्कि सबकुछ बता देने के लिए घंटो तक तमाम तरह के दंद फंद के साथ टीवी स्क्रीन पर मौजूद भी रहते हैं । इन बातों से ये जादुई यथार्थवादी पत्रकार बेहद परेशान हो जाते हैं । परेशानी के आलम में करवटें बदलते बदलते अचानक रिमोट से एसी ऑ कर देते हैं । चिंता में कब आंख लग जाती है पता ही नहीं चलता । चिंता करते करते परेशानी में सोए हैं, जाहिर है ख्वाबों में भी यही सब आ रहा है । सपने में सबसे पहले आते हैं भगवान राम, लेकिन उन जैसा ही एक साथी भी अचानक सपने में आता है और कहता है कि राम को भुनाकर बीजेपी सत्ता में आ गई, ये बात तो समझ में आती है, लेकिन अब न्यूज चैनल राम को इतना दिखाकर क्या हासिल करना चाहते हैं, क्या ये निरी भक्ति है या फिर कुछ और । जबाव नहीं मिलता है और सपने का दृष्य बदल जाता है और राम की जगह राजू श्रीवास्तव लतीफा सुनाते हुए आते हैं लेकिन इस जादुई यथार्थवादी पत्रकार को जोरदार हंसी आती है और वो ठहाका लगाकर हंसने लग जाते हैं, फिर अचानक से उनका वही साथी दिखाई देता है और पूछ लेता है कि अरे तुम तो राजू के लतीफो पर हंस रहे हो, अचानक पत्रकार महोदय का चेहरा धीर गंभीर हो जाता है और गंभीरता के आवरण से कछुए की तरह मुंह निकाल कर अपने साथी को लगभग डांटते हुए कहते हैं कि राजू को सुनकर हंसी नहीं आ रही बल्कि ये सोचकर हंसी आ रही कि खबरिया चैनल में काम करनेवाले मित्रगण इसको इतना बाव क्यों देते हैं । क्यों कर इनको एयर टाइम देते हैं । किसी तरह समझा बुझाकर अपने दोस्त को विदा करते हैं और फिर करवट बदल कर राजू और राम की सोच से मुक्त होने की कोशिश में जुट जाते हैं । लेकिन राम और राजू को निबटाकर जैसे ही चैन की नींद लेते हैं कि अचानक से बलखाती इठलाती राखी सपने में आ जाती है । इठलाती हुई आइटम गर्ल राखी को सपने में देखकर यथार्थ और ख्बाब का जबरदस्त संघर्ष होता है । आखिरकार यथार्थ पर ख्बाव बारी पड़ता है और भाई साहब राखी के ख्बाबों में डूब जाते हैं । लेकिन फिर वही दुष्ट मित्र सपने में आता है और सवाल कर डालता है कि खबरिया चैनलों में राखी को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है । ख्बाब में खलल से परेशान भाई साहब की चिंता इतनी बढ जाती है कि बौद्धिक स्खलन होते होते बचता है और नींद खुल जाती है । जैसे ही नींद खुलती है तो अपने खाकी निकर में बाथरूम की ओर भागते हैं , दोपहर की एडिट मीटिंग में जाने की तैयारी करनी जो करनी थी। लेकिन जब घर से निकलते हैं तो यथार्थ का लाल चोला पहनकर दफ्तर जाने के लिए निकलते हैं, क्योंकि भाइयो चाहे जो भी हो अगर आपके विचार लाल नहीं तो आप बौद्धिक नहीं ।
इनकी परेशानी राखी, राम और राजू यानि की तीन आऱ को लेकर भी है , वो इस बात पर खासे खफा हैं कि इन तीन आर को खबरिया चैनल इतना भाव क्यों दिया जा रहा है । राजू श्रीवास्तव जैसे मसखरे को टीवी चैनल वाले इतना क्यों दिखाते हैं । राखी सावंत अगर कुछ भी करती है, जो वो अमूमन हर दिन कर ही डालती हैं, तो उसे इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है । राम के बारे में अबतक देश की अदालत कुछ तय नहीं कर पाई है लेकिन खबरिया चैनल हैं कि राम के परिवार उनके जन्म स्थान से लेकर इनका पुष्पक विमान तक सबकुछ तलाश ले रहे हैं । न सिर्फ तलाश ले रहे हैं बल्कि सबकुछ बता देने के लिए घंटो तक तमाम तरह के दंद फंद के साथ टीवी स्क्रीन पर मौजूद भी रहते हैं । इन बातों से ये जादुई यथार्थवादी पत्रकार बेहद परेशान हो जाते हैं । परेशानी के आलम में करवटें बदलते बदलते अचानक रिमोट से एसी ऑ कर देते हैं । चिंता में कब आंख लग जाती है पता ही नहीं चलता । चिंता करते करते परेशानी में सोए हैं, जाहिर है ख्वाबों में भी यही सब आ रहा है । सपने में सबसे पहले आते हैं भगवान राम, लेकिन उन जैसा ही एक साथी भी अचानक सपने में आता है और कहता है कि राम को भुनाकर बीजेपी सत्ता में आ गई, ये बात तो समझ में आती है, लेकिन अब न्यूज चैनल राम को इतना दिखाकर क्या हासिल करना चाहते हैं, क्या ये निरी भक्ति है या फिर कुछ और । जबाव नहीं मिलता है और सपने का दृष्य बदल जाता है और राम की जगह राजू श्रीवास्तव लतीफा सुनाते हुए आते हैं लेकिन इस जादुई यथार्थवादी पत्रकार को जोरदार हंसी आती है और वो ठहाका लगाकर हंसने लग जाते हैं, फिर अचानक से उनका वही साथी दिखाई देता है और पूछ लेता है कि अरे तुम तो राजू के लतीफो पर हंस रहे हो, अचानक पत्रकार महोदय का चेहरा धीर गंभीर हो जाता है और गंभीरता के आवरण से कछुए की तरह मुंह निकाल कर अपने साथी को लगभग डांटते हुए कहते हैं कि राजू को सुनकर हंसी नहीं आ रही बल्कि ये सोचकर हंसी आ रही कि खबरिया चैनल में काम करनेवाले मित्रगण इसको इतना बाव क्यों देते हैं । क्यों कर इनको एयर टाइम देते हैं । किसी तरह समझा बुझाकर अपने दोस्त को विदा करते हैं और फिर करवट बदल कर राजू और राम की सोच से मुक्त होने की कोशिश में जुट जाते हैं । लेकिन राम और राजू को निबटाकर जैसे ही चैन की नींद लेते हैं कि अचानक से बलखाती इठलाती राखी सपने में आ जाती है । इठलाती हुई आइटम गर्ल राखी को सपने में देखकर यथार्थ और ख्बाब का जबरदस्त संघर्ष होता है । आखिरकार यथार्थ पर ख्बाव बारी पड़ता है और भाई साहब राखी के ख्बाबों में डूब जाते हैं । लेकिन फिर वही दुष्ट मित्र सपने में आता है और सवाल कर डालता है कि खबरिया चैनलों में राखी को इतनी तवज्जो क्यों दी जाती है । ख्बाब में खलल से परेशान भाई साहब की चिंता इतनी बढ जाती है कि बौद्धिक स्खलन होते होते बचता है और नींद खुल जाती है । जैसे ही नींद खुलती है तो अपने खाकी निकर में बाथरूम की ओर भागते हैं , दोपहर की एडिट मीटिंग में जाने की तैयारी करनी जो करनी थी। लेकिन जब घर से निकलते हैं तो यथार्थ का लाल चोला पहनकर दफ्तर जाने के लिए निकलते हैं, क्योंकि भाइयो चाहे जो भी हो अगर आपके विचार लाल नहीं तो आप बौद्धिक नहीं ।
Subscribe to:
Posts (Atom)