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Tuesday, January 20, 2009

बॉलीवुड पर बाजार हावी

आज अगर बॉलीवुड और वहां बनने वाली फिल्मों पर नजर डालें इसपर बाजारवाद पूरी तरह से हावी नजर आ रहा है । बाजार और मार्केटिंग के खेल ने ग्लैमर से भरी इस दुनिया की राह ही बदल दी है । बाजार पैसा चाहता है और उसके लिए वो अपने रास्ते में आनेवाली तमाम बाधाओं को इस तरह से दरकिनार कर डालता है । भारतीय फिल्म उद्योग के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ । ग्लैमर के इस धंधे से होनेवाली बड़ी आमदनी को ध्यान में रखकर पहले मुंबई के अंडरवर्ल्ड डॉन अपना काला पैसा इस यहां लगाया करते थे । हाजी मस्तान से लेकर वरदाराजन मुदलयार, करीम लाला से लेकर दाऊद इब्राहिम और उसके गुर्गों के पैसे लेने की बात गाहे-बगाहे सामने आती रहती है । यहां किसी भी फिल्म निर्माता या कलाकार का नाम लेना उचित नहीं होगा लेकिन साठ और सत्तर के दशक में दर्शकों के दिलों पर राज करनेवाले शोमैन की हाजी मस्तान के सामने मत्था टेकती तस्वीर अब भी लोगों के जेहन में है । अनुपमा चोपड़ा ने कुछ दिन पहले शाहरुख खान पर लिखी अपनी किताब में किंग खान को अंडरवर्ल्ड के गुर्गे की धमकी का विस्तार से जिक्र है । इन सबसे ये साबित होता है कि अंडरवर्ल्ड और बॉलीवुड में पैसे को लेकर गहरे रिश्ते रहे हैं और ये सिर्फ तत्काल लाभ कमाने के उद्देश्य से किया गया निवेश था । लेकिन अंडरवर्ल्ड से गठजोड़ में फिल्म निर्माताओं पर एक खतरा तो बना ही रहता था । इस गठजोड़ पर रोक लगाने के लिए सरकार ने सन् उन्नीस सौ पतहत्तर में राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम की स्थापना की और फिर उन्नीस सौ अस्सी में इंडियन मोशन पिक्चर एक्सपोर्ट कॉरपोरेशन और फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन को इसमें समाहित कर दिया । इस संस्था का उद्देश्य बेहतर फिल्मों के लिए धन मुहैया करना भी था । ये संस्था कहां है और क्या कर रही है, किन फिल्मकारों को ये मदद दे रही है ये किसी को नहीं पता । अन्य सरकारी संस्ताओं की तरह ये भी लालफीताशाही का शिकार हो गई और बड़े नौकरशाहों का ऐशगाह बनकर रह गई है ।
लेकिन नब्बे के दशक में जब आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की तो उसका असर फिल्म उद्योग पर भी दिखने लगा ।
आर्थिक उदारीकरण के दूसरे दौर में या यों कहें कि बीसबीं शताब्दी के आखिरी सालों में बॉलीवुड पर पूंजी की बरसात होने लगी । फिल्मों पर बड़ी अंतराष्ट्रीय कंपनियों ने दांव और पैसा लगाना शुरु कर दिया । अनिल अंबानी की ऐडलैब्स से लेकर सोनी इंटरनेशनल और इरोज इंटरनेशनल ने भारतीय फिल्मों पर एक सोची समझी रणनीति के तहत पैसा लगाना शुरु कर दिया और मोटी कमाई की । पिछले दिनों संजय लीला भंसाली की फिल्म कंपनी एसएलबी में सोनी इंटरटेनमेंट ने तीस से चालीस करोड़ रुपये लगाए और लगभग इससे दुगनी रकम की कमाई की । ये पहली भारतीय फिल्म थी जिसमें बॉलीवुड की कंपनी का पूरा पैसा लगा । खबर तो ये भी है कि सोनी ने इसके अलावा तीन और फिल्मों के लिए संजय लीला भंसाली की कंपनी के साथ कारार किया है । शाहरुख खान की कंपनी रेड चिली की फिल्म ओम शांति ओम पर भी लगभग तीस-चालीस करोड़ रुपये लगे, इस फिल्म का वितरण भी विदेशी कंपनी इरोज इंटरनेशनल के साथ मिलकर किया और कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले । भारतीय फिल्म बाजार की अपार संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए कई अन्य विदेशी कंपनियों की नजर भी भारतीय फिल्म बाजार पर है और अगर बॉलीवुड के जानकारों की मानें तो आनेवाले दिनों में और भी कई करार देखने को मिल सकते हैं । विदेशी कंपनियों के पैसे पर बनने वाली फिल्मों में मार्केटिंग के लिए एक बड़ा बजट होता है और उस पैसे से एक ऐसी व्यूह रचना की जाती है जिसमें दर्शकों को फांसने का सारा खेल किया जाता है । हाल में आई कुछ फिल्में मार्केटिंग के बूते हिट रही हैं । बाजार का पहला शिकार कला और संस्कृति ही बनती है और भारत में भी ऐसा ही होता नजर आ रहा है । अभी कुछ दिनों पहले अमेरिका के पूर्व अटार्नी भारत के दौरे पर थे । उन्होंने कोलकाता में एक साक्षात्कार में कहा कि उपभोक्तावाद और बाजारवाद, साम्राज्यवाद से ज्यादा खतरनाक है ।
भारतीय फिल्मों के इस कॉर्रपोरेटाइजेशन का सबसे बड़ा नुकसान सार्थक सिनेमा को हुआ । अब सामाजिक विषयों पर फिल्में बननी लगभग बंद हो गई । मंडी, अर्थ, पार, सारांश, मिर्च मसाला, अंकुश, तमस जैसी फिल्मों का दौर खत्म होता सा लग रहा है । इस बीच कम बजट की कुछ अच्छी फिल्में- हैदराबाद ब्लूज से लेकर भेजा फ्राई, वेलकम टू सज्जनपुर - बनी, लेकिन ये फिल्में भी एक खास दर्शकवर्ग को ध्यान में रखकर बनाई गई और उन दर्शकों ने इन फिल्मों को पसंद भी किया । ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या भारत से सार्थक सिनेमा का दौर खत्म हो गया है या यों कहें कि सामाजिक विषयों को ध्यान में रखकर बनाई जाने वाली फिल्मों को बाजार ने लील लिया है । क्या मार्केटिंग की वजह से घटिया फिल्में हिट होती रहेंगी और जो फिल्में कम बजट की होने के कारण अपनी मार्केटिंग नहीं कर पा रही हैं वो बेहतर होने के बावजूद पिटती रहेंगी । ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब फिल्म उद्योग से जुडें लोगों को शिद्दत से ढूढना ही होगा ।

1 comment:

Udan Tashtari said...

बाजारवाद तो हमेशा से ही हावी है.