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Thursday, May 7, 2009

एक खामोश मौत

भोजपुरी फिल्मों के शेक्सपियर कहे जानेवाले मोती ने गुमनामी में दम तोड़ दिया । मीडिया में कम ही लोग इस नाम से परिचित हैं । मोती बीए की खामोश मौत पर इकबाल रिजवी ने हाहाकार के लिए खासतौर पर ये लेख लिखा है ।

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आज़ादी से पहले उन्होंने एमए कर लिया था लेकिन कविता के मंच पर अपनी क्रांतिकारी रचनाओं की वजह से वे तब देश भर में चर्चित हो गए जब उन्होंने बीए किया था और तभी से उनके नाम के आगे बीए ऐसा जुड़ा कि वे हमेशा मोती बीए के नाम से ही जाने गए। वे मोती बीए ही थे जिन्होंने हिंदी सिनेमा में भोजपूरी की सर्वप्रथम जय जयकार करायी। हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी और भोजपुरी पर समान अधिकार रखने वाला और भोजपुरी के शेक्सपियर के नाम से याद किया जाने वाला वह गीतकार लंबी गुमनामी के बाद चुपके से सबको छोड़ कर चला गया।  

        मोती लाल बीए का पूरा नाम मोती लाल उपाध्याय था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया ज़िले के बरेजी नाम के गांव में 1 अगस्त 1919 को हुआ। बचपन से ही कविता में उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। वे मनपसंद कविताओं को ज़बानी याद कर लेते थे। फिर उन्होंने खुद कविताएं लिखनी शुरू कर दीं। उनकी पढ़ाई वाराणसी में हुई। 16 साल की उम्र में पहली बार उनकी कविता दैनिक आज में प्रकाशित हुई। जिसके बोल थे " बिखरा दो ना अनमोल - अरि सखि घूंघट के पट खोल "  जब उन्होंने बीए करा तब तक वे कवि सम्मेलनो में एक गीतकार के रूप में पहचान बना चुके थे। उन्होंने अपने नाम के आगे बीए लगाना शुरू कर दिया। उस समय आज़ादी की जंग जोरो पर थी। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ पूरे देश में माहौल बहुत गर्म था। मोती जी भोजपुरी भाषा में क्रांतिकारी गीत लिख लिख कर लोगों को सुनाया करते थे। उसी दौर का उनका एक गीत था

"भोजपुरियन के हे भइया का समझेला

खुलि के आवा अखाड़ा लड़ा दिहे सा

तोहरी चरखा पढ़वले में का धईल बा

तोहके सगरी पहाड़ा पढ़ा दिये सा "

      धीरे धीरे मोती की सक्रियता कलम के सहारे क्रांतिकारी विचारों को गति देने में बढ़ने लगी। सन् 1939 से 1943 तक "अग्रगामी संसार" तथा "आर्यावर्त" जैसे प्रमुख समाचार पत्रों में कार्य के दौरान राष्ट्रीय विचारों एवं उससे जुडे़ लेखन के चलते कई बार जेल भी जाना पड़ा। 1943 में वे दो महीने की सज़ा काट कर जेल से रिहा किये गए फिर उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग कालेज वाराणसी में दाखिला ले लिया। इसी दौरान जनवरी 1944 में वाराणसी में हुए एक कवि सम्मेलन में पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था के निर्देशक रवि दवे ने उन्हें सुना। मोती का गीत "रूप भार से लदी तू चली" उन्हें बहुत पसंद आए और उन्होंने मोती को फ़िल्मों में गीत लिखने के लिये निमंत्रण दिया। लेकिन मोती जी अचानक मिले इस निमंत्रण को फ़ौरन स्वीकार नहीं पाए और साहित्य रचना में ही जुटे रहे। 945 में वे फिर गिरफ़्तार कर लिये गए। उन्हें वाराणसी सेंट्रल जेल में भारत रक्षा क़ानून के तहत नज़र बंद कर दिया गया लेकिन पहले की ही तरह कुछ हफ़्तों बाद उन्हें रिहा कर दिया गया।

      मोती जी पत्रकारिता ओर साहित्य से ही जुड़े रहना चाहते थे। फ़िल्मों में जाना उनकी प्राथमिकता कभी नहीं रही फिर भी जेल से रिहाई के बाद रोज़गार के अवसर की तलाश में उन्हें रवि दवे का फ़िल्मों में गीत लिखने का निमंत्रण फिर याद आया। मोती जी ने लाहौर का रूख किया जहां पंचोली आर्ट पिक्चर संस्था थी। उनकी मुलाक़ात संस्ता के मालिक दलसुख पंचोली से हुई और पंचोली ने उन्हें 300 रूपए महीना वेतन पर गीतकार के रूप में रख  लिया। मोती को गीत लिखने के लिये पहली फ़िल्म मिली "कैसे कहूं"। इसके संगीतकार थे पंडित अमरनाथ। इस फ़िल्म में मोती ने पांच गीत लिखे शेष गीत डी एन मधोक ने लिखे। इसके बाद आयी किशोर साहू निर्देशित और दिलीप कुमार अभीनीत फ़िल्म " नदिया के पार(1948)" जिसमें सात गीत मोती बीए ने लिखे। इस फ़िल्म के गीतों की सारे देश में धूम मच गयी। खास कर इसका एक गीत "मोरे राजा हो ले चल नदिया के पार " मोती बीए  की पहचान बन गया। पहली बार किसी गीतकार ने हिंदी फ़िल्मों में भोजपुरी को प्रमुखता से स्थान दिया था।

      नदिया के पार के बाद मोती जी की व्यस्तताएं बढ़ गयीं उन्होंने कई फ़िल्मों में गीत लिखे। उनकी चर्चित फ़िल्में रहीं "सुभद्रा (1946)", भक्त ध्रुव (1947)", "सुरेखा हरण(1947)", "सिंदूर(1947)",  "साजन(1947)", "रामबान(1948)","राम विवाह(1949)", और "ममता(1952)",। साजन में लिखा उनका एक गीत "हमको तुम्हारा है आसरा तुम हमारे हो न हो" अपने समय में काफ़ी लोकप्रिय रहा।  

      मोती बीए को फ़िल्मों में काम की कमी नहीं थी। उनके लिखे गीतों को शांता आप्टे, शमशाद बेगम, गीता दत्त, लता मंगेशक, मोहम्मद रफ़ी, मन्ना डे, और ललिता देवलकर जैसे गायकों ने स्वर दिये। लेकिन उन्हें एहसास होने लगा था कि  मुम्बई की फ़िल्मी दुनिया में सम्मान की रक्षा के साथ वहां अधिक समय तक टिक पाना संभव नहीं होगा। और एक दिन अचानक उन्होंने फ़ैसला किया वे अपने घर लौट जाएंगे। फिर यही हुआ। 1952 में मुम्बई से लौटकर वे देवरिया के श्रीकृष्ण इंटरमीडियेट कालेज में इतिहास के प्रवक्ता के रूप में पढ़ाने लगे। मुम्बई में रहने के दौरान उनकी अंतिम फ़िल्म ममता थी। कुछ सालों बाद जब चरित्र अभिनेता नज़ीर हुसैन, सुजीत कुमार और कुछ दूसरे कलाकारों ने भोजपूरी फ़िल्मों के निर्माण की गति को तेज़ किया तो मोती बीए फिर याद किये गए। मोती जी ने कई भोजपूरी फ़िल्मों "ई हमार जनाना" (1968), ठकुराइन (1984), गजब भइले रामा (1984),  चंपा चमेली (1985), ममता आदि में गीत लिखे।  1984 में प्रदर्शित गजब भइले रामा में उन्होंने अभिनय भी किया। यह आखरी फ़िल्म थी जिससे मोती जी किसी रूप में जुड़े।

      देवरिया में अध्यापन के दौरान मोती जी साहित्य सृजन में लगे रहे। उन्होंने शेक्सपियर के सानेट्स का हिंदी में सानेट्स की शैली में ही अनुवाद किया। कालीदास के संस्कृत में लिखे मेघदूत का भोजपूरी में अनिवाद किया इसेक अलावा हिंदी में 20 पुस्तकें और उर्दू में शायरी के तीन संग्रह "रश्के गुहर", "दर्दे गुहर" और "एक शायर" की रचना की। उन्होंने भोजपूरी में भी काव्य रचना की और पांच संग्रह सृजित किये। उनकी करीब चार कृतियां अभी अप्रकाशित हैं। अध्यापन से सेवा निवृत्त होने के बाद मोती बीए जैसा गीतकार गुमनामी के अंधेरों में खोता चला गया। मोती बीए को कई सम्मान मिले लेकिन भोजपूरी के विद्वान के रूप में उनका मूल्यांकन कभी नहीं हुआ। उनके पुत्र भाल चंद्र उपाध्याय उनकी कृतियों को सहेज कर रखने का काम तो करते रहे लेकिन वे अपने पिता को स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा दिलाने में नाकाम रहे। 

      शोहरत, सम्मान और अपनी शर्तों पर काम, सब कुछ मोती बीए को मिला लेकिन नौकरशाही ने अंत तक उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा नहीं दिया। हांलाकि इस बात का उल्लेख अनेक संवतंत्रता सेनानी और साहित्यकार समय समय पर करते रहे कि मोती बीए को उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से कई बार अंग्रेज़ी शासन ने गिरफ़्तार कर जेल भेजा फिर भी उन्हें जेल भेजे जाने का रिकार्ड आज़ाद हिंदुस्तान की नौकरशाही को नहीं मिल पाया।

      पिछले कुछ सालों से मोती जी की बोलने की ताकत खत्म हो गयी थी। उन्होंने 23 जनवरी 2009 को दुनिया से विदा लेली। उत्तर प्रदेश के एक दैनिक को छोड़ उनकी मौत किसी के लिये ख़बर तक नहीं बन सकी।

4 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

यही तो विडम्बना है.

Alok Nandan said...

भोजपुरियन के हे भइया का समझेला

खुलि के आवा अखाड़ा लड़ा दिहे सा

तोहरी चरखा पढ़वले में का धईल बा

तोहके सगरी पहाड़ा पढ़ा दिये सा "

Lagata hai Charkha ke khilaph Khare the BA ji....yanhi tak parake thithak gaya...pahali bar unhe jan raha hun, aapaki kalam se...acha laga unaka paricha...Behata,adbhut, shandar...Amazing!!! I love the stuff...

Alok Nandan said...

भोजपुरियन के हे भइया का समझेला

खुलि के आवा अखाड़ा लड़ा दिहे सा

तोहरी चरखा पढ़वले में का धईल बा

तोहके सगरी पहाड़ा पढ़ा दिये सा "

Lagata hai Charkha ke khilaph Khare the BA ji....yanhi tak parake thithak gaya...pahali bar unhe jan raha hun, aapaki kalam se...acha laga unaka paricha...Behata,adbhut, shandar...Amazing!!! I love the stuff...

Udan Tashtari said...

दुखद एवं अफसोसजनक.