इन दिनों न्यायपालिका उन वजहों से चर्चा में है जिसने उसकी साख पर बट्टा लगाया। पहले गाजियाबाद के करोड़ों के पीएफ घोटाले में माननीय न्यायाधीशों पर सवाल खड़े हुए, उसके बाद कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र मोहन पर आरोप लगे और उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई। अब राज्यसभा के सभापति ने कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी डी दिनाकरन के खिलाफ पचहत्तर सांसदों की उस याचिका को मंजूरी दी है जिसमें उनके खिलाफ महाभियोग की मांग की गई। न्यायिक इतिहास में यह तीसरा मौका है जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसके पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली थी, लेकिन कांग्रेसी सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद ये प्रस्ताव गिर गया था। माननीय न्यायाधीशों पर इस तरह के इल्जाम से देश की जनता न्याय के मंदिर से विश्वास दरकने लगा है। भारत के लोगों की अपने देश की न्यायपालिका की ईमानदारी और साख पर जबरदस्त आस्था है । यही आस्था भारतीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है । लेकिन इस तरह के आरोपों से इस आस्था को ठेस लगती है । इसलिए यह बेहद जरूरी है कि न्यायाधीशों पर किसी भी तरह के आरोप लगाने से पहले ठोंक बजाकर तथ्यों को पुख्ता कर लिया जाए।
अगर हम कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस दिनाकरन पर लगे आरोपों की बात करें तो इस विवाद की शुरूआत तब हुई जब उनको सुप्रीम कोर्ट के जज बनाए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई । उनके खिलाफ जो महाभियोग की अर्जी राज्यसभा के सभापति को सौंपी गई है, उसमें बारह आरोपों की एक लंबी फेहरिस्त संलग्न है । इन आरोपों के मुताबिक जस्टिस दिनाकरन पर आय के ज्ञात स्त्रोत से ज्यादा संपत्ति अर्जित करने के अलावा पांच हाउसिंग बोर्ड के प्लॉट आवंटित करवाने के साथ-साथ अपने और अपने रिश्तेदारों के नाम से अकूत संपत्ति अर्जित करने का आरोप है। दिनाकरन पर एक गंभीर आरोप यह है कि थिरुवल्लूर के कावेरीराजपुरम और वेल्लोर के अनाइपक्कम, मुलवॉय और पुवलई में उनके पास पांच सौ पचास एकड़ जमीन है । इस जमीन का मालिकाना हक खुद उनके, उनकी पत्नी और दो अन्य के नाम है । पांच सौ पचास एकड़ के अलावा जस्टिस दिनाकरन के पास थिरुव्ललूर जिले के तिरुतानी तालुका में और चार सौ चालीस एकड़ जमीन है, जिसमें से तीन सौ दस दशमलव तेरह एकड़ जमीन पट्टे पर ली गई है और बाकी के एकतालीस दशमलव सत्ताइस एकड़ सरकारी गैरमजरुआ ( पोरोमबोक) जमीन है । उनपर यह इल्जाम भी है कि तिरासी दशमलव तैंतीस एकड़ वैसी सरकारी जमीन पर कब्जा किया गया है, जिसे सरकार ने भूमिहीन गरीबों के बीच बांटे जाने के लिए चिन्हित किया था । खबरों के मुताबिक इलाके के जिलाधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को जो रिपोर्ट सौंपी उनमें इन तथ्यों की पुष्टि हुई है । माना यह जाता है कि इस रिपोर्ट के बाद ही कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट में उनके प्रमोशन को ठंडे बस्ते में डालने का फैसला लिया ।
लेकिन जहां तक तमिलनाडु में सरकारी गैरमजरुआ ( पोरोमबोक) जमीन पर कब्जे के आरोप का सवाल है, उसे वहां अपराध नहीं माना जाता । यह एक सिविल मैटर है । दरअसल अंग्रेजों के जमाने में ब्रिटिश राज ने मद्रास प्रेसिडेंसी में लैंड सेटलमेंट स्कीम लागू की थी क्योंकि उस वक्त सरकारी जमीनों पर अतिक्रमण बेहद आम था। उस वक्त सरकारी जमीन पर कब्जे से निबटने के लिए द वेरिटेबल बोर्ड स्टैंडिंग ऑर्डर था जो अब रेवेन्यू स्टैंडिंग ऑर्डर कहलाता है । ब्रिटिश राज में अंग्रेजों ने जब अपना पांव जमाना शुरू किया तो राजे रजवाड़ों की जमीनों को सरकारी जमीन घोषित करने लगे । बाद में लैंड सेटलमैंट स्कीम लागू कर जमीन पर रहनेवाली जनता या फिर मालिकाना हक वाली जमीन को पट्टा भूमि के अंदर वर्गीकरण कर दिया गया । इसके अलावा दो और श्रेणियों में जमीन का वर्गीकरण हुआ- सरकारी गैरमजरुआ और बंजर या ऊसर भूमि । गैरमजरुआ जमीन वो थी जो आम जनता के काम आती थी जिसमें सामाजिक कार्य करने की छूट होती थी लेकिन अगर कोई व्यक्ति उसपर कब्जा करता था तो गांव में मौजूद तहसीलदार उसे बी मेमो जारी कर जबाव तलब करता था । लेकिन उस वक्त भी इस बात का ध्यान रखा जाता था कि वो जमीन आम जनता के काम आती थी या फिर बेकार पड़ी थी । अगर उसका कोई इस्तेमाल नहीं था तो मसला सिर्फ रेवेन्यू का होता था और इस गैरमजरूआ जमीन पर कर लगाकर उसके इस्तेमाल की इजाजत अतिक्रमण करनेवाले को दे दी जाती थी । लेकिन अगर उसका सार्वजनिक या सामाजिक कार्य के लिए उपयोग होता था तो उसपर से अतिक्रमण हटाने के लिए कानूनी प्रक्रिया तत्काल शुरू की जाती थी ।
जस्टिस दिनाकरन के केस में ये जानना जरूरी है कि जिस गैरमजरुआ जमीन को कब्जाने का आरोप उनपर लगा है उसमें जिला प्रशासन ने मेमो जारी किया है या नहीं । अगर मेमो जारी किया है तो उस पर फाइन लगाकर उसे नियमित किया जा सकता है । लेकिन अगर उस जमीन का सार्वजनिक उपयोग होता था तो तो उसे खाली कराने के लिए जिला प्रशासन ने कोई कदम क्यो नहीं उठाया । आरोप लगानेवालों का तर्क यह है कि जस्टिस दिनाकरन ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इस प्रक्रिया को रुकवाया हुआ है। दरअसल तमिलनाडु के तिरुवल्लूर जिले में गैरमजरुआ सरकारी जमीन पर कब्जा करना आम है । लेकिन एक सूबे के हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस आम अतिक्रमणकारी नागरिक की तरह व्यवहार नहीं कर सकता । एक न्यायाधीश से उसके आचरण और व्यवहार में ईमानदारी के साथ संविधान और कानून के प्रति निष्ठा का सार्वजिन प्रदर्शन अपेक्षित है ।
जस्टिस दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग की अर्जी में और भी कई संगीन इल्जाम हैं । इन आरोपों में से एक है - ऊटी और नीलगिरी जिले में दिनाकरन की अस्सी साल की सास एम जी परिपूर्णम के नाम से बेहद महंगे प्लॉट खरीदे गए जो उनकी आय के ज्ञात स्त्रोत से कहीं ज्यादा की है । इसके अलावा दिनाकरन पर अपने घरों की साज सज्जा पर भी बेशुमार खर्च करने का आरोप लगाया गया है । आरोपों की इस लंबी फेहरिश्त की जांच तो अब राज्यसभा के सभापति द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति करेगी जिसमें सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, किसी हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस और मशहूर न्यायविद शामिल होंगे । लेकिन कांग्रेस पार्टी की उदासीनता की वजह से यह लगता नहीं है कि दिनाकरन पर महाभियोग साबित हो पाएगा और उन्हें पद छोड़ना पड़ेगा ।
जस्टिस दिनाकरन के पीछे लग रहे इन आरोपों का एक दूसरा पहलू भी सामने आ रहा है । खबरों के मुताबिक मद्रास हाईकोर्ट के कुछ वकीलों ने जस्टिस कन्नादासन के खिलाफ मुहिम चलाकर राज्य उपभोक्ता फोरम में उनकी नियुक्ति रुकवा दी थी। न्यायपालिका पर नजर रखनेवालों का कहना है कि वकीलों की उसी जमात ने दिनाकरन के खिलाफ भी मोर्चा खोला था । दूसरी बात ये कि मद्रास हाईकोर्ट में जिन लोगों ने दिनाकरन पर जमीन कब्जाने का केस किया है उसके याचिकार्ताओं के वकीलों ने भी दिनाकरन के खिलाफ मुहिम को जोरदार समर्थन दिया है। इन बातों में आंशिक सच्चाई भी है तो इसकी पूरी तफ्तीश की जानी चाहिए । क्योंकि अगर ऐसा हो रहा है तो यह भारतीय न्यायिक प्रक्रिया को दबाब में लेने की कोशिश है जिसपर तत्काल रोक लगाने के लिए सरकार को आवश्यक कदम उठाना चाहिए। जस्टिस दिनाकरन पर लगे इल्जाम संगीन है, उसकी गंभीरता से जांच होनी ही चाहिए और होगी भी । लेकिन अगर इस केस में किसी खास समूह का कोई मोटिव नजर आता है तो उसकी जांच भी उतनी ही गंभीरता से होनी चाहिए ताकि देश की न्यायपालिका बगैर किसी दबाव के संविधान और कानून की रक्षा कर सके, ताकि देश की सवा करोड़ जनता की जो आस्था देश की न्यायिक प्रणाली में है वो अक्षुण्ण रह सके ।
Translate
Thursday, December 31, 2009
Tuesday, December 22, 2009
कैलाश वाजपेयी को मिला साहित्य अकादमी पुरस्कार
आखिरकार इस वर्ष का साहित्य अकादमी पुरस्कार कैलाश वाजपेयी को मिल ही गया । हमने ये जानकारी ऐलान होने के पहले ही दे दी थी । इस बार के निर्णायक मंडल में हिंदी के वरिष्ठ कथाकार और नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया, वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह और गुजरात के रघुबीर चौधरी थे । बैठक की शुरुआत में रघुबीर चौधरी ने रामदरश मिश्र, अनामिका और उदय प्रकाश का नाम प्रस्तावित किया । लेकिन इन नामों पर सहमति नहीं बन पाई । इसके बाद कैलाश वाजपेयी के नाम का प्रस्ताव आया जिसपर केदार नाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया ने अपनी सहमति जता दी । रघुबीर चौधरी तो जैसे तैयार ही बैठे थे और सर्वसम्मति से कैलाश वाजपेयी के नाम पर सहमति बन गई ।
दरअसल जैसे कि मैं पहले ही लिख चुका था- अकादमी पुरस्कार के लिए जो खेल होता है उसके लिए निर्णायक मंडल के चयन में अपने लोगों को रखने का खेल सबसे बड़ा होता है । रघुबीर चौधरी का नाम ही इसलिए डाला गया था कि हिंदी के संयोजक की मर्जी चल सके । और हुआ भी वही । कैलाश वाजपेयी को पुरस्कार देने की भूमिका या यों कहें कि डील पहले ही हो चुकी थी । जब गोपीचंद नारंग पद से हटे थे और सुनील गंगोपाध्याय ने अकादमी अध्यक्ष पद की कुर्सी संभाली थी तो कैलाश वाजपेयी ने हिंदी भाषा के संयोजक के लिए अपनी दावेदारी पेश की थी । लेकिन उस वक्त उनको समझाय़ा गया था कि अगर वो संयोजक हो जाएंगे तो पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । कैलाश जोशी ने पुरस्कार के आश्वासन के बाद अपना नाम वापस ले लिया था और गोरखपुर के विश्वनाथ तिवारी हिंदी के संयोजक बने थे । उस वक्त हुई डील अब पूरी हो पाई है और कैलाश वाजपेयी को अकादमी पुरस्कार देने का फैसला हो गया है ।
दरअसल जैसे कि मैं पहले ही लिख चुका था- अकादमी पुरस्कार के लिए जो खेल होता है उसके लिए निर्णायक मंडल के चयन में अपने लोगों को रखने का खेल सबसे बड़ा होता है । रघुबीर चौधरी का नाम ही इसलिए डाला गया था कि हिंदी के संयोजक की मर्जी चल सके । और हुआ भी वही । कैलाश वाजपेयी को पुरस्कार देने की भूमिका या यों कहें कि डील पहले ही हो चुकी थी । जब गोपीचंद नारंग पद से हटे थे और सुनील गंगोपाध्याय ने अकादमी अध्यक्ष पद की कुर्सी संभाली थी तो कैलाश वाजपेयी ने हिंदी भाषा के संयोजक के लिए अपनी दावेदारी पेश की थी । लेकिन उस वक्त उनको समझाय़ा गया था कि अगर वो संयोजक हो जाएंगे तो पुरस्कार नहीं मिल पाएगा । कैलाश जोशी ने पुरस्कार के आश्वासन के बाद अपना नाम वापस ले लिया था और गोरखपुर के विश्वनाथ तिवारी हिंदी के संयोजक बने थे । उस वक्त हुई डील अब पूरी हो पाई है और कैलाश वाजपेयी को अकादमी पुरस्कार देने का फैसला हो गया है ।
Monday, December 21, 2009
साहित्य अकादमी पुरस्कारों का खेल खुला
रामदरश मिश्र को मिलेगा अकादमी पुरस्कार !
साल के आखिरी दिनों में साहित्यिक हलके में अकादमी पुरस्कारों को लेकर सरगर्मियां तेज हो जाती हैं । राजधानी दिल्ली में तो अटकलों का बाजार इस कदर गर्म हो जाता है कि तथाकथित साहित्यिक ठेकेदारों की जेब में पुरस्कृत होनेवाले लेखकों की सूची रहती है । जहां भी तीन चार लेखक जुटते हैं कयासबाजी का दौर शुरू हो जाता है और गिनती चालू हो जाती है कि किस लेखक की पुस्तक पिछले तीन वर्षों में आई और किसका जुगाड़ इस बार फिट बैठ रहा है । किसने अपनी गोटी सेट कर ली है । साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि इस बार हिंदी लेखक को मिलनेवाले पुरस्कार में हिंदी के भाषा संयोजक विश्वनाथ तिवारी की चलेगी । पिछले अध्यक्ष गोपीचंद नारंग के कार्यकाल में उनकी चलती थी और उन्होंने हिंदी के संयोजक और वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर को पुरस्कारों के मामले में पैदल कर दिया था । गिरिराज किशोर को जब ये इलहाम हुआ था तो उन्होंने विरोध का झंडा तो उठाया था पर कुछ कर नहीं सके थे और गोपीचंद नारंग ने जिसे चाहा उसे पुरस्कार दे दिया ।
अगर अकादमी के अंदर के सूत्रों की मानें तो इस बार साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की दौड़ में हिंदी के वरिष्ठ कवि कैलाश वाजपेयी और रामदरश मिश्र रेस में सबसे आगे चल रहे हैं । माना जा रहा है कि कैलाश वाजपेयी को उनके कविता संग्रह हवा में हस्ताक्षर पर इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल सकता है । दूसरे मजबूत दावेदार रामदरश मिश्र हैं । उनकी उम्र और वरिष्ठता को देखते हुए जूरी उनपर भी मेहरबान हो सकती है । साहित्य अकादमी की परंपरा के मुताबिक इस बार कविता का नंबर है, क्योंकि पिछले साल गोविन्द मिश्र को उनके उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था । संयोग यह था कि गोविन्द मिश्र और हिंदी के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी दोनों गोऱखपुर इलाके के हैं । हलांकि इस बार परंपरा के मुताबिक कविता संग्रह को अकादमी पुरस्कार मिलना चाहिए लेकिन भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत भी एक प्रमुख दावेदार है । पिछले दिनों जब रेत को लेकर विवाद हुआ और मामला अदालत तक जा पहुंचा तो तो इस बात की भी जोर शोर से चर्चा हुई कि साहित्य अकादमी ने अबतक किसी दलित लेखक को हिंदी के लिए पुरस्कार नहीं दिया । अगर साहित्य अकादमी अपने उपर लगे इस कलंक को धोना चाहती है तो भगवानदास नोरवाल को इस बार अकादमी अवार्ड मिल सकता है । लेकिन इस किताब पर अदालत में चल रहा मामला मोरवाल को इस रेस में पीछे धकेल सकता है ।
दरअसल साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का खेल काफी पहले से शुरू हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है और हिंदी भाषा की जो सलाहकार समिति या एडवायजरी बोर्ड होती है उसके सदस्यों से उसमें से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध करती है । एडवायजरी बोर्ड के सदस्य को तीन से ज्यादा कृतियों की सिफारिश करने की भी छूट होती है । जब इन सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है उसके बाद हर विधा अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय मिलने के बाद हर विधा की तीन तीन किताबों को पुरस्कार के लिए चुना जाता है । इन तीन किताबों में से तीन सदस्यीय जूरी एक कृति का चुनाव करती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है । लेकिन किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में जो़ड-तोड़ और तिकड़मों का ऐसा खेल खेला जाता है कि सियासत भी शरमा जाती है । अपनी या अपने गैंग के लेखकों की किताब को आधार सूची में डलवाने इस खेल की शुरुआत होती है । उसके बाद की सारी मशक्कत एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपने नाम की सिफारिश भिजवाने की होती है । पुरस्कार की चाह में लेखक इसके लिए दिन रात एक कर देते हैं । इस किले की घेरेबंदी के बाद शुरु होती है कि किसे फाइनल जूरी का सदस्य बनवाया जाए । इस कमिटी के सदस्यों का चुनाव अध्यक्ष की मर्जी से होता है, लेकिन अगर अध्यक्ष की रुचि हिंदी भाषा में ना हो या फिर वो इसको लेकर तटस्थ रहे तो फिर हिंदी भाषा के संयोजक का काम आसान हो जाता है और वो अपनी मर्जी के लोगों को जूरी में नामित करवा लेता है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत करते हैं । हलांकि जब नामवर सिंह हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तो ये स्थिति नहीं थी । तब नामवर जी की ही मर्जी चला करती थी । एक बार फिर से गोपीचंद नारंग के अध्यक्ष पद से हटने और विश्वनाथ तिवारी के हिंदी के संयोजक बनने के बाद स्थिति लगभग वैसी ही हो गई है । नामवर जी जैसी दबंगई से तो तिवारी जी काम नहीं करते हैं लेकिन लेकिन अंदरखाने चलती तो उनकी ही है। जब से विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा के संयोजक बने हैं तब से हिंदी में तो उनकी ही मर्जी चल रही है । अपने पसंदीदा लेखक गोविंद मिश्र को उनकी कमजोर कृति पर पुरस्कार दिलवा कर उन्होंने पिछले वर्ष इसे साबित भी किया । जब जूरी के सदस्य फैसला ले लेते हैं उसके बाद उस फैसले को एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं,जोसिर्फ एक प्रक्रिया का हिस्सा भर है ।
साल के आखिरी दिनों में साहित्यिक हलके में अकादमी पुरस्कारों को लेकर सरगर्मियां तेज हो जाती हैं । राजधानी दिल्ली में तो अटकलों का बाजार इस कदर गर्म हो जाता है कि तथाकथित साहित्यिक ठेकेदारों की जेब में पुरस्कृत होनेवाले लेखकों की सूची रहती है । जहां भी तीन चार लेखक जुटते हैं कयासबाजी का दौर शुरू हो जाता है और गिनती चालू हो जाती है कि किस लेखक की पुस्तक पिछले तीन वर्षों में आई और किसका जुगाड़ इस बार फिट बैठ रहा है । किसने अपनी गोटी सेट कर ली है । साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि इस बार हिंदी लेखक को मिलनेवाले पुरस्कार में हिंदी के भाषा संयोजक विश्वनाथ तिवारी की चलेगी । पिछले अध्यक्ष गोपीचंद नारंग के कार्यकाल में उनकी चलती थी और उन्होंने हिंदी के संयोजक और वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर को पुरस्कारों के मामले में पैदल कर दिया था । गिरिराज किशोर को जब ये इलहाम हुआ था तो उन्होंने विरोध का झंडा तो उठाया था पर कुछ कर नहीं सके थे और गोपीचंद नारंग ने जिसे चाहा उसे पुरस्कार दे दिया ।
अगर अकादमी के अंदर के सूत्रों की मानें तो इस बार साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की दौड़ में हिंदी के वरिष्ठ कवि कैलाश वाजपेयी और रामदरश मिश्र रेस में सबसे आगे चल रहे हैं । माना जा रहा है कि कैलाश वाजपेयी को उनके कविता संग्रह हवा में हस्ताक्षर पर इस बार का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल सकता है । दूसरे मजबूत दावेदार रामदरश मिश्र हैं । उनकी उम्र और वरिष्ठता को देखते हुए जूरी उनपर भी मेहरबान हो सकती है । साहित्य अकादमी की परंपरा के मुताबिक इस बार कविता का नंबर है, क्योंकि पिछले साल गोविन्द मिश्र को उनके उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था । संयोग यह था कि गोविन्द मिश्र और हिंदी के संयोजक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी दोनों गोऱखपुर इलाके के हैं । हलांकि इस बार परंपरा के मुताबिक कविता संग्रह को अकादमी पुरस्कार मिलना चाहिए लेकिन भगवानदास मोरवाल का उपन्यास रेत भी एक प्रमुख दावेदार है । पिछले दिनों जब रेत को लेकर विवाद हुआ और मामला अदालत तक जा पहुंचा तो तो इस बात की भी जोर शोर से चर्चा हुई कि साहित्य अकादमी ने अबतक किसी दलित लेखक को हिंदी के लिए पुरस्कार नहीं दिया । अगर साहित्य अकादमी अपने उपर लगे इस कलंक को धोना चाहती है तो भगवानदास नोरवाल को इस बार अकादमी अवार्ड मिल सकता है । लेकिन इस किताब पर अदालत में चल रहा मामला मोरवाल को इस रेस में पीछे धकेल सकता है ।
दरअसल साहित्य अकादमी के पुरस्कारों का खेल काफी पहले से शुरू हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी पिछले तीन वर्षों में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है और हिंदी भाषा की जो सलाहकार समिति या एडवायजरी बोर्ड होती है उसके सदस्यों से उसमें से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध करती है । एडवायजरी बोर्ड के सदस्य को तीन से ज्यादा कृतियों की सिफारिश करने की भी छूट होती है । जब इन सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है उसके बाद हर विधा अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय मिलने के बाद हर विधा की तीन तीन किताबों को पुरस्कार के लिए चुना जाता है । इन तीन किताबों में से तीन सदस्यीय जूरी एक कृति का चुनाव करती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है । लेकिन किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में जो़ड-तोड़ और तिकड़मों का ऐसा खेल खेला जाता है कि सियासत भी शरमा जाती है । अपनी या अपने गैंग के लेखकों की किताब को आधार सूची में डलवाने इस खेल की शुरुआत होती है । उसके बाद की सारी मशक्कत एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपने नाम की सिफारिश भिजवाने की होती है । पुरस्कार की चाह में लेखक इसके लिए दिन रात एक कर देते हैं । इस किले की घेरेबंदी के बाद शुरु होती है कि किसे फाइनल जूरी का सदस्य बनवाया जाए । इस कमिटी के सदस्यों का चुनाव अध्यक्ष की मर्जी से होता है, लेकिन अगर अध्यक्ष की रुचि हिंदी भाषा में ना हो या फिर वो इसको लेकर तटस्थ रहे तो फिर हिंदी भाषा के संयोजक का काम आसान हो जाता है और वो अपनी मर्जी के लोगों को जूरी में नामित करवा लेता है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत करते हैं । हलांकि जब नामवर सिंह हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तो ये स्थिति नहीं थी । तब नामवर जी की ही मर्जी चला करती थी । एक बार फिर से गोपीचंद नारंग के अध्यक्ष पद से हटने और विश्वनाथ तिवारी के हिंदी के संयोजक बनने के बाद स्थिति लगभग वैसी ही हो गई है । नामवर जी जैसी दबंगई से तो तिवारी जी काम नहीं करते हैं लेकिन लेकिन अंदरखाने चलती तो उनकी ही है। जब से विश्वनाथ तिवारी हिंदी भाषा के संयोजक बने हैं तब से हिंदी में तो उनकी ही मर्जी चल रही है । अपने पसंदीदा लेखक गोविंद मिश्र को उनकी कमजोर कृति पर पुरस्कार दिलवा कर उन्होंने पिछले वर्ष इसे साबित भी किया । जब जूरी के सदस्य फैसला ले लेते हैं उसके बाद उस फैसले को एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं,जोसिर्फ एक प्रक्रिया का हिस्सा भर है ।
Sunday, December 20, 2009
दर्द को भुनाने की कोशिश
इंदिरा गांधी की हत्या के पच्चीस साल पूरे हुए । साथ ही दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में सिखों के कत्लेआम के भी पच्चीस साल पूरे हुए । 31 अक्तूबर 1984 की सुबह दिल्ली में सफदरजंग रोड के पीएम निवास पर इंदिरा गांधी की सुरक्षा में लगे दो लोगों ने इंदिरा गांधी को गोलियों से छलनी कर दिया था । लेकिन उसके बाद दिल्ली में सिखों को योजनाबद्ध तरीके से कत्ल किया गया । पच्चीस सालों से कई कमीशन और आयोग ने इसकी जांच की लेकिन अबतक इंसाफ हुआ हो ऐसा लगता नहीं है । सिखों के नरसंहार के पच्चीस साल पूरे होने के मौके पर पत्रकार जरनैल सिंह की किताब- कब कटेगी चौरासी , सिख कत्लआम का सच प्रकाशित हुई है । पेंग्विन प्रकाशन से आई ये किताब एक साथ तीन भाषाओं में छपी है, अंग्रेजी, हिंदी के अलावा इसका प्रकाशन पंजाबी में भी हुआ है । जरनैल सिंह वही पत्रकार हैं जिन्होंने इस वर्ष हुए आम चुनाव के पहले देश के गृहमंत्री पी चिदंबरम पर जूता फेंका था । बाद में जरनैल ने अपने इस कृत्य पर अफसोस तो नहीं जताया था लेकिन उन्होंने ये जरूर कहा था कि उसे इस कृत्य पर गर्व नहीं है ।
1984 के सिख कत्लेआम के पीडितों को समर्पित जरनैल की इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखी है । खुशवंत सिंह ने लिखा है कि- कब कटेगी चौरासी ...एक चौंका देनेवाली किताब है, जिसे पढ़ने के बाद हर भारतीय को शर्मसार हो जाना चाहिए । यह दस्तावेज है दिल्ली और उत्तरी भारत के कई भागों में सिखों पर हुए नृशंस कत्लेआम का, जो श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद हुआ । खुशवंत सिंह ने अपनी छोटी सी प्रस्तावना में इस किताब को उन लोगों के लिए एक बड़ा अभियोग करार दिया है जिन्होंने इस कत्लेआम की साजिश रची और अपने कारिंदों के मार्फत इसे अंजाम दिया ।
इस किताब की भूमिका में लेखक ने अपने पत्रकार बनने की कथा विस्तार से लिखी है । जब जरनैल पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला के लिए इंटरव्यू देने पहुंचे दो यू एन आई के पत्रकार बी बी नागपाल ने उनसे पंजाब में उग्रवाद के बारे में सवाल पूछे । जरनैल के जबाव से नागपाल संतुष्ट हुए और उसे दाखिला मिल गया लेकिन जरनैल के मन में ये सावल मुंह बाए खड़ा था कि क्या किसी दूसरे प्रत्याशी से भी यह सवाल पूछा गया होगा । जरनैल के मन में ये सवाल उठना जायज है लेकिन सवाल तो इस किताब की खुशवंत सिंह से भूमिका लिखवाने पर मेरे मन में भी उठ रहे हैं । क्या जरनैल को खुशवंत सिंह से इतर कोई व्यक्ति नजर नहीं आया । यह एक मानसिकता है जिसका कोई इलाज नहीं है । हम हर मुस्लिम सहयोगी को भाई लगाकर ही संबोधित करते हैं । इसमें सांप्रदायिकता ढूंढना गलत है ।
जरनैल सिंह का कहना है कि ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस वक्त मीडिया ने सही तरीके से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। इस कत्लेआम को जितनी कवरेज मिलनी चाहिए थी उतनी मिली नहीं और पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से सामने नहीं आ पाया । जरनैल ने इस मामले में दूरदर्शन के संदिग्ध रवैये पर भी सवाल खड़ा किया है । जरनैल ने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में जुटा था । पूरे समय इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को टेलिकास्ट किया जा रहा था । अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे। हो सकता है उनकी आपत्ति जायज हो लेकिन उस वक्त जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में आलोक तोमर और अश्विन सरीन जैसे पत्रकारों ने जान की बाजी लगाकर रिपोर्टिंग की थी । फोटोग्राफर संदीप शंकर की दंगाईयों ने जमकर पिटाई की थी । जरनैल को मीडिया पर सवाल करने के पहले उस दौर के रविवार के अंक भी देखने चाहिए । उन दिनों दिल्ली से उदयन शर्मा और उत्तर प्रदेश से संतोष भारतीय की रिपोर्ट ने देश को हिलाकार रख दिया था । चंद लोगों के लिखे पर पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देने से जरनैल की हड़बड़ी दिखाई देती है ।
इस किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों के दर्द का है जिन्हें इस कत्ले आम के 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। बेटे का सामने पिता को, पत्नी के सामने पति को, बहन के सामने भाई को कत्ल कर दिया गया । किस तरह से एक शहर से एक पूरी कौम को खत्म करने की कोशिश की गई । किताब के पहले हिस्से में इस दर्द को जगह मिली है । दूसरे हिस्से में न्याय कर्ता और अन्यायकर्ता की चर्चा की गई है । इस हिस्से में जरनैल ने एच के एल भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर की भूमिका पर लिखा है है साथ ही उस दौर में पूर्नी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके के एसएचओ त्यागी के कारनामों को भी बयान किया है । जरनैल ने मौन साधे रहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और गृहमंत्री नरसिम्हा राव पर भी उंगली उठाई है । लेकिन जरनैल की इस किताब में नया कुछ भी नहीं है । सिर्फ आयोग की फाइलों से केस स्टडीज को निकालकर सामने रखा गया है । दरअसल इस कत्लेआम पर इतनी हृदय विदारक घटनाएं और परिस्थितियां हैं कि पाठक उसे पढ़ते वक्त भाषा और शैली को बिल्कुल ही भूल जाता है । लेकिन अगर चंद पलों के लिए हम एक किताब के तौर पर इसपर विचार करें को जिस तरह से जल्दबाजी में लोगों के दर्द को बयां किया गया है वो यह महसूस कराता है कि इसमें पर्याप्त शोध की जरूरत थी । इस विषय पर ही दो हजार सात के अक्तूबर में रोली बुक्स से वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा और वकील एच एस फुल्का की किताब -व्हेन ए ट्री शुक डेल्ही- आई थी । जो कि इस विषय पर लिखी गई एक बेहतीन किताब है । मनोज मिट्टा की किताब का फलक बहुत बडा़ है और उसमें जो दर्द है, उसमें जो घटनाएं और परिस्थियां बयान की गई हैं वो सचमुच दिल दहला देनी हैं । शाहदरा स्टेशन पर एक नवविवाहिता के पति को मार देनेवाली घटना दो साल पहले पढ़ी थी लेकिन अब भी मेरे जेहन में बरकरार है । मिट्टा और फुल्का की उक्त किताब में ना केवल कत्लेआम के शिकार हुए परिवार के दुखों की दास्तां है बल्कि उसमें न्याय के लिए उनका संघर्ष भी प्रमुखता से सामने रखकर पूरी व्यवस्था पर चोट की गई है । मुझे नहीं मालूम कि जरनैल ने वह किताब देखी थी या वहीं लेकिन इतना जरूर तय है कि जरनैल ने बेहद हड़बड़ी में यह किताब लिखी है और जल्दबाजी पूरी किताब में हर जगह दिखाई देती है । हो सकता है कत्लेआम के पच्चीस साल पूरे होने पर किताब के बाजार में लाने की जल्दबाजी हो या फिर कोई और वजह जिसपर से पर्दा तो सिर्फ लेखक ही उठा सकता है ।
1984 के सिख कत्लेआम के पीडितों को समर्पित जरनैल की इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ पत्रकार खुशवंत सिंह ने लिखी है । खुशवंत सिंह ने लिखा है कि- कब कटेगी चौरासी ...एक चौंका देनेवाली किताब है, जिसे पढ़ने के बाद हर भारतीय को शर्मसार हो जाना चाहिए । यह दस्तावेज है दिल्ली और उत्तरी भारत के कई भागों में सिखों पर हुए नृशंस कत्लेआम का, जो श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद हुआ । खुशवंत सिंह ने अपनी छोटी सी प्रस्तावना में इस किताब को उन लोगों के लिए एक बड़ा अभियोग करार दिया है जिन्होंने इस कत्लेआम की साजिश रची और अपने कारिंदों के मार्फत इसे अंजाम दिया ।
इस किताब की भूमिका में लेखक ने अपने पत्रकार बनने की कथा विस्तार से लिखी है । जब जरनैल पत्रकारिता के कोर्स में दाखिला के लिए इंटरव्यू देने पहुंचे दो यू एन आई के पत्रकार बी बी नागपाल ने उनसे पंजाब में उग्रवाद के बारे में सवाल पूछे । जरनैल के जबाव से नागपाल संतुष्ट हुए और उसे दाखिला मिल गया लेकिन जरनैल के मन में ये सावल मुंह बाए खड़ा था कि क्या किसी दूसरे प्रत्याशी से भी यह सवाल पूछा गया होगा । जरनैल के मन में ये सवाल उठना जायज है लेकिन सवाल तो इस किताब की खुशवंत सिंह से भूमिका लिखवाने पर मेरे मन में भी उठ रहे हैं । क्या जरनैल को खुशवंत सिंह से इतर कोई व्यक्ति नजर नहीं आया । यह एक मानसिकता है जिसका कोई इलाज नहीं है । हम हर मुस्लिम सहयोगी को भाई लगाकर ही संबोधित करते हैं । इसमें सांप्रदायिकता ढूंढना गलत है ।
जरनैल सिंह का कहना है कि ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस वक्त मीडिया ने सही तरीके से अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। इस कत्लेआम को जितनी कवरेज मिलनी चाहिए थी उतनी मिली नहीं और पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से सामने नहीं आ पाया । जरनैल ने इस मामले में दूरदर्शन के संदिग्ध रवैये पर भी सवाल खड़ा किया है । जरनैल ने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में जुटा था । पूरे समय इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को टेलिकास्ट किया जा रहा था । अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे। हो सकता है उनकी आपत्ति जायज हो लेकिन उस वक्त जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस में आलोक तोमर और अश्विन सरीन जैसे पत्रकारों ने जान की बाजी लगाकर रिपोर्टिंग की थी । फोटोग्राफर संदीप शंकर की दंगाईयों ने जमकर पिटाई की थी । जरनैल को मीडिया पर सवाल करने के पहले उस दौर के रविवार के अंक भी देखने चाहिए । उन दिनों दिल्ली से उदयन शर्मा और उत्तर प्रदेश से संतोष भारतीय की रिपोर्ट ने देश को हिलाकार रख दिया था । चंद लोगों के लिखे पर पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर देने से जरनैल की हड़बड़ी दिखाई देती है ।
इस किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों के दर्द का है जिन्हें इस कत्ले आम के 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। बेटे का सामने पिता को, पत्नी के सामने पति को, बहन के सामने भाई को कत्ल कर दिया गया । किस तरह से एक शहर से एक पूरी कौम को खत्म करने की कोशिश की गई । किताब के पहले हिस्से में इस दर्द को जगह मिली है । दूसरे हिस्से में न्याय कर्ता और अन्यायकर्ता की चर्चा की गई है । इस हिस्से में जरनैल ने एच के एल भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर की भूमिका पर लिखा है है साथ ही उस दौर में पूर्नी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके के एसएचओ त्यागी के कारनामों को भी बयान किया है । जरनैल ने मौन साधे रहने पर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और गृहमंत्री नरसिम्हा राव पर भी उंगली उठाई है । लेकिन जरनैल की इस किताब में नया कुछ भी नहीं है । सिर्फ आयोग की फाइलों से केस स्टडीज को निकालकर सामने रखा गया है । दरअसल इस कत्लेआम पर इतनी हृदय विदारक घटनाएं और परिस्थितियां हैं कि पाठक उसे पढ़ते वक्त भाषा और शैली को बिल्कुल ही भूल जाता है । लेकिन अगर चंद पलों के लिए हम एक किताब के तौर पर इसपर विचार करें को जिस तरह से जल्दबाजी में लोगों के दर्द को बयां किया गया है वो यह महसूस कराता है कि इसमें पर्याप्त शोध की जरूरत थी । इस विषय पर ही दो हजार सात के अक्तूबर में रोली बुक्स से वरिष्ठ पत्रकार मनोज मिट्टा और वकील एच एस फुल्का की किताब -व्हेन ए ट्री शुक डेल्ही- आई थी । जो कि इस विषय पर लिखी गई एक बेहतीन किताब है । मनोज मिट्टा की किताब का फलक बहुत बडा़ है और उसमें जो दर्द है, उसमें जो घटनाएं और परिस्थियां बयान की गई हैं वो सचमुच दिल दहला देनी हैं । शाहदरा स्टेशन पर एक नवविवाहिता के पति को मार देनेवाली घटना दो साल पहले पढ़ी थी लेकिन अब भी मेरे जेहन में बरकरार है । मिट्टा और फुल्का की उक्त किताब में ना केवल कत्लेआम के शिकार हुए परिवार के दुखों की दास्तां है बल्कि उसमें न्याय के लिए उनका संघर्ष भी प्रमुखता से सामने रखकर पूरी व्यवस्था पर चोट की गई है । मुझे नहीं मालूम कि जरनैल ने वह किताब देखी थी या वहीं लेकिन इतना जरूर तय है कि जरनैल ने बेहद हड़बड़ी में यह किताब लिखी है और जल्दबाजी पूरी किताब में हर जगह दिखाई देती है । हो सकता है कत्लेआम के पच्चीस साल पूरे होने पर किताब के बाजार में लाने की जल्दबाजी हो या फिर कोई और वजह जिसपर से पर्दा तो सिर्फ लेखक ही उठा सकता है ।
Wednesday, December 16, 2009
निर्मल वर्मा का मेडल चोरी
मशहूर साहित्यकार स्वर्गीय निर्मल वर्मा के दिल्ली के पटपड़गंज स्थित घर से उनका पद्मभूषण मेडल चोरी हो गया है । चोरों ने पटपड़गंज के सहविकास सोसाइटी के उनके घर से लाखों के गहने के साथ उनके मेडल भी चुरा लिए । निर्मल वर्मा की पत्नी कवयित्री गगन गिल ने दिल्ली में इस बाबत एफ आईआर दर्ज करवा दिया है । गगन गिल ने आज दिनभर पुलिस थानों के चक्कर लगाए लेकिन पुलिस को अबतक कोई सुराग नहीं मिल पाया है । रविन्द्र नाठ टैगोर के नोबेल मैडल के बाद यह दूसरी बड़ी वारदात है जिसमें चोरों ने एक मशहूर साहित्यकार के मेडल पर हाथ साफ किया है । इस वारदात के बाद साहित्य जगत सकते में है ।
Tuesday, December 15, 2009
कांग्रेस का महिला (अ)प्रेम
देश की प्रथम नागरिक यानि राष्ट्रपति महिला, लोकसभा की अध्यक्ष महिला, देश की सत्तरूढ पार्टी की अध्यक्ष महिला ...कांग्रेस पार्टी हर वक्त इस बात का दंभ भरती है कि उसने महिलाओं को आगे बढ़ाने और उसको अवसर देने के लिए पर्याप्त कदम उठाए हैं । यह ठीक है कि राष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के पद पर महिलाओं को चुनवाकर कांग्रेस ने एक प्रतीकात्मक काम किया लेकिन अगर हम इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो कांग्रेस के महिला सशक्तिकरण का दावा खोखला नजर आता है, और ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस की रुचि कुछ खास महिलाओं को आगे बढाने में है जिससे उसे इस बात का दावा करने में सहूलियत होती रहे कि पार्टी महिलाओं के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध है ।
नौकरी के दौरान महिलाओं के सेक्सुअल हेरसमेंट के खिलाफ लंबे समय से बहस चल रही है । लगभग बारह साल पहले यानि उन्नीस सौ सनतानवे में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं के सेक्सुअल हेरासमेंट को लेकर एक गाइडलाइन जारी किया था और हर कंपनी, विश्वविद्यालय और कॉलेजों के लिए यह अनिवार्य कर दिया था कि वहां इन शिकायतों पर गौर करने के लिए एक कमिटी बनाई जाए । इस कमेटी में आधी हिस्सेदारी महिलाओं की हो और इसमें एक वकील की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए । सर्वोच्च न्यायलय के मुताबिक इस कमिटी की प्रमुख का महिला का होना अनिवार्य है । इस गाइडलाइन के जारी होने के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग ने संबंद्ध पक्षों से बातचीत शुरू की और लगभग नौ साल बाद प्रस्तावित कानून के लिए एक ड्राफ्ट तैयार हो पाया ।
बिल के ड्राफ्ट को तैयार हुए भी तीन साल हो गए लेकिन अब तक इसे संसद में पेश नहीं किया जा सका । पिछले दिनों प्रधानमंत्री से जब एक प्रतिनिधिमंडल ने मुलाकात की तो मनमोहन सिंह ने जल्द ही इस विषय में कुछ करने का आश्वासन देकर इससे पल्ला झाड़ लिया । दरअसल द प्रीवेंशन ऑफ द सेक्सुअल हेरासमेंट एट द वर्कप्लेस बिल दो मंत्रालयों के बीच झूल रहा है और शास्त्री भवन के कमरों में धूल चाट रहा है । बाल और महिला क्लयाण मंत्री कृष्णा तीरथ का दावा है कि इस बिल को जल्द से जल्द कानूनी जामा पहना दिया जाएगा । कृष्णा तीरथ का दावा है कि बिल तैयार है और उसपर कानून मंत्रालय की सलाह ली जा रही है । लेकिन देश के कानून मंत्री से जब पूछा जता है तो उनका कहना है कि अभी प्रस्तवित बिल को देखा जाना बाकी है । संकेत साफ है कि सरकार अभी इस बिल को लेकर गंभीर नहीं है। इस तरह के बयानों से इस प्रस्तावित बिल को सरकार का उपेक्षा भाव साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । कानून के जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइंस से काम की जगह पर यौन शोषण से निबटना आसान नहीं है । इस गाइडलाइंस में यौन शोषण को परिभाषित करना मुश्किल है और दंड का कोई प्रावधान नहीं है, सिर्फ सिफारिश की जा सकती है , कार्रवाई तो अभी के कानून के मुताबिक ही संभव है । इस गाइडला के मुताबिक बनी जांच कमिटी में शिकायतकर्ता को भी बुलाकर पूछताछ की जाती है और उसके आरोपों के बहाने ऐसे तेजाब बुझे शब्दों के प्रयोग किया जाता है कि शिकतायत करनेवाली महिला के होश उड़ जाते हैं । जिस महिला ने यौन शोषण की शिकायत की हो उससे फिर से पूरी घटना को बयान करने को कहना कितना बड़ा मानसिक उत्पीड़न है ।
प्रस्तावित बिल में जिसके बारे में शिकायत की गई है उसको यह साबित करना होगा कि वो निर्दोष है । य़ह एक बड़ी राहत है क्योंकि अभी हो यह रहा है कि जिसने शिकायत की उसे ही दोष साबित करना पड़ता है । और शिकायतकर्ता को अपने साथियों के तानों का भी शिकार होना पड़ता है । प्रस्तवित बिल में इससे भी बचाव का प्रावधान है ।
आईपीसी में बलात्कार और महिलाओं से छेड़छाड़ के लिए सजा का प्रावधान है लेकिन अगर किसी महिला को उसका बॉस हर दो मिनट पर अपने केबिन में बुलाता है या फिर बड़े ही शातिराना अंदाज में उसके कंधे पर हाथ रखकर उसको तंग करता है तो इसके लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीड्यूर या आईपीसी की किसी धारा में ना तो शिकायत का प्रावधान है और ना ही सजा का । ऐसी किसी शिकायत को लेकर कोई भी लड़की या महिला पुलिस थाने जाती भी है तो पुलिसवाले ही उसका मजाक उड़ाकर बात को हवा में उड़ा देते हैं । लेकिन प्रस्तावित कानून में इस तरह की ज्यादतियों को भी ध्यान में ऱखकर धाराएं और सजा निर्धारित की गई हैं ।
अगर सरकार कामकाजी महिलाओं के अधिकारों को लेकर सचमुच गंभीर है तो इस प्रस्तावित बिल को तत्काल संसद के चालू सत्र में पेश कर इसपर बहस करवाई जाए । सरकार की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि इस बिल को संसद से पास करवाकर कानून बनवाए ताकि महिलाओं को कार्य स्थल पर सुरक्षा का माहौल मिल सके । नहीं तो यूपीए सरकार और उसकी चेयरपर्सन सोनिया गांधी पर भी सवाल खड़े होंगे क्योंकि महिला आरक्षण बिल पर भी कांग्रेस कोई टोस कदम अबतक उठा नहीं पाई है ।
नौकरी के दौरान महिलाओं के सेक्सुअल हेरसमेंट के खिलाफ लंबे समय से बहस चल रही है । लगभग बारह साल पहले यानि उन्नीस सौ सनतानवे में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर महिलाओं के सेक्सुअल हेरासमेंट को लेकर एक गाइडलाइन जारी किया था और हर कंपनी, विश्वविद्यालय और कॉलेजों के लिए यह अनिवार्य कर दिया था कि वहां इन शिकायतों पर गौर करने के लिए एक कमिटी बनाई जाए । इस कमेटी में आधी हिस्सेदारी महिलाओं की हो और इसमें एक वकील की भागीदारी भी सुनिश्चित की जाए । सर्वोच्च न्यायलय के मुताबिक इस कमिटी की प्रमुख का महिला का होना अनिवार्य है । इस गाइडलाइन के जारी होने के बाद राष्ट्रीय महिला आयोग ने संबंद्ध पक्षों से बातचीत शुरू की और लगभग नौ साल बाद प्रस्तावित कानून के लिए एक ड्राफ्ट तैयार हो पाया ।
बिल के ड्राफ्ट को तैयार हुए भी तीन साल हो गए लेकिन अब तक इसे संसद में पेश नहीं किया जा सका । पिछले दिनों प्रधानमंत्री से जब एक प्रतिनिधिमंडल ने मुलाकात की तो मनमोहन सिंह ने जल्द ही इस विषय में कुछ करने का आश्वासन देकर इससे पल्ला झाड़ लिया । दरअसल द प्रीवेंशन ऑफ द सेक्सुअल हेरासमेंट एट द वर्कप्लेस बिल दो मंत्रालयों के बीच झूल रहा है और शास्त्री भवन के कमरों में धूल चाट रहा है । बाल और महिला क्लयाण मंत्री कृष्णा तीरथ का दावा है कि इस बिल को जल्द से जल्द कानूनी जामा पहना दिया जाएगा । कृष्णा तीरथ का दावा है कि बिल तैयार है और उसपर कानून मंत्रालय की सलाह ली जा रही है । लेकिन देश के कानून मंत्री से जब पूछा जता है तो उनका कहना है कि अभी प्रस्तवित बिल को देखा जाना बाकी है । संकेत साफ है कि सरकार अभी इस बिल को लेकर गंभीर नहीं है। इस तरह के बयानों से इस प्रस्तावित बिल को सरकार का उपेक्षा भाव साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । कानून के जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइंस से काम की जगह पर यौन शोषण से निबटना आसान नहीं है । इस गाइडलाइंस में यौन शोषण को परिभाषित करना मुश्किल है और दंड का कोई प्रावधान नहीं है, सिर्फ सिफारिश की जा सकती है , कार्रवाई तो अभी के कानून के मुताबिक ही संभव है । इस गाइडला के मुताबिक बनी जांच कमिटी में शिकायतकर्ता को भी बुलाकर पूछताछ की जाती है और उसके आरोपों के बहाने ऐसे तेजाब बुझे शब्दों के प्रयोग किया जाता है कि शिकतायत करनेवाली महिला के होश उड़ जाते हैं । जिस महिला ने यौन शोषण की शिकायत की हो उससे फिर से पूरी घटना को बयान करने को कहना कितना बड़ा मानसिक उत्पीड़न है ।
प्रस्तावित बिल में जिसके बारे में शिकायत की गई है उसको यह साबित करना होगा कि वो निर्दोष है । य़ह एक बड़ी राहत है क्योंकि अभी हो यह रहा है कि जिसने शिकायत की उसे ही दोष साबित करना पड़ता है । और शिकायतकर्ता को अपने साथियों के तानों का भी शिकार होना पड़ता है । प्रस्तवित बिल में इससे भी बचाव का प्रावधान है ।
आईपीसी में बलात्कार और महिलाओं से छेड़छाड़ के लिए सजा का प्रावधान है लेकिन अगर किसी महिला को उसका बॉस हर दो मिनट पर अपने केबिन में बुलाता है या फिर बड़े ही शातिराना अंदाज में उसके कंधे पर हाथ रखकर उसको तंग करता है तो इसके लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीड्यूर या आईपीसी की किसी धारा में ना तो शिकायत का प्रावधान है और ना ही सजा का । ऐसी किसी शिकायत को लेकर कोई भी लड़की या महिला पुलिस थाने जाती भी है तो पुलिसवाले ही उसका मजाक उड़ाकर बात को हवा में उड़ा देते हैं । लेकिन प्रस्तावित कानून में इस तरह की ज्यादतियों को भी ध्यान में ऱखकर धाराएं और सजा निर्धारित की गई हैं ।
अगर सरकार कामकाजी महिलाओं के अधिकारों को लेकर सचमुच गंभीर है तो इस प्रस्तावित बिल को तत्काल संसद के चालू सत्र में पेश कर इसपर बहस करवाई जाए । सरकार की यह भी जिम्मेदारी बनती है कि इस बिल को संसद से पास करवाकर कानून बनवाए ताकि महिलाओं को कार्य स्थल पर सुरक्षा का माहौल मिल सके । नहीं तो यूपीए सरकार और उसकी चेयरपर्सन सोनिया गांधी पर भी सवाल खड़े होंगे क्योंकि महिला आरक्षण बिल पर भी कांग्रेस कोई टोस कदम अबतक उठा नहीं पाई है ।
Sunday, December 13, 2009
स्त्री आकांक्षा की नई उड़ान
हमेशा संपूर्ण भारतीय परिधान में रहनेवाली महामहिम राष्ट्रपति को जब अचानक वायुसेना की खास वर्दी में पुणे के लोहेगांव एयरबेस पर लड़ाकू विमान सुखोई की ओर बढ़ते देखा तो सहसा यकीन नहीं हुआ कि एक भारतीय नारी इस सुपरसोनिक विमान में यात्रा कर सकती है । वायुसेना की वर्दी में जब प्रतिभा पाटिल सुखोई की सीढियां चढ़ रही थी तो वो एक नए इतिहास की ओर कदम बढ़ा रही थी । शांत, सौम्य चेहरे में प्रतिभा पाटिल जब सुखोई में बैठकर हाथ हिला रही थी वह दृश्य बुलंद होते भारत की एक ऐसी तस्वीर थी जिसपर हर भारतवासी गर्व कर सकता था । कहते हैं जब कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है । और हुआ भी वही- उम्र के चौहत्तर साल पूरे कर चुकी महामहिम प्रतिभा पाटिल ने आसमान में आठ हजार फीट की उंचाई पर आधे घंटे तक उड़ानभर कर इतिहास रच दिया । वो भारतीय गणतंत्र की पहली महिला राष्ट्रपति बन गई जिन्होंने सुपरसोनिक लडाकू विमान में इतनी ऊंचाई पर उडी । इस उड़ान के लिए महामहिम ने दो महीने तक जबरदस्त तैयारी की। उन्हें विमान में उड़ने के तौर तरीकों को बताया गया था । आपातस्थति से तैयार रहने के हर नुस्खे की बारिकियों को बताया गया। जोखिमों से निबटने की हर ट्रेनिंग लेने के बाद प्रतिभा पाटिल ने पुणे के लोहेगांव एयरबेस से उडान भरी । लगभग आधे घंटे तक आठ हजार फीट की उंचाई पर उड़ान भरने के बाद प्रतिभा पाटिल ने माना कि योग और नियमित व्याययाम से उन्हें इस कठिन उड़ान में मदद मिली । तो एक बार फिर साबित हुआ कि कड़ी मेहनत और हौसले के आगे कोई भी लक्ष्य बौना है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
इस उड़ान का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व नहीं है बल्कि इसके गंभीर निहितार्थ हैं । प्रतिभा पाटिल ने सुखोई में यात्रा कर भारतीय महिलाओं की आकांक्षाओं को भी एक नई उड़ान दे दी है । एक ऐसे देश में जहां आज भी महिलाओं के साथ लगातार और हर रोज नाइंसाफी होती है, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा जाता हो, वहां एक उस देश की प्रथम नागरिक ने अपने देश की आधी आबादी को यह संकेत दे दिया कि अगर कड़ी मेहनत का जज्बा हो और हौसले बुलंद हो तो कुछ भी किया जा सकता है । प्रतिभा पाटिल ने यह भी माना कि इस देश की महिलाओं की योग्यता में उन्हें पूरा यकीन है । तकनीकी और अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर अगर महिलाओं को मौका मिले तो वो हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ सकती हैं । राष्ट्रपति जब यह कह रही थी देश की महिलाओं को एक ऐसा आत्मबल मिल रहा था जो उनके उत्थान के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है । इस प्रतीकात्मक उड़ान के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं, जो देश में महिलाओं को नए -नए क्षेत्र में हाथ आजमाने के लिए प्ररित कर सकते हैं । और जब भी इस देश में किसी महिला ने किसी भी काम के लिए कमर कसी तो उसे सफलता ही मिली, राष्ट्रपति का यह विश्वास गलत भी नहीं है ।
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से पहले आठ जून दो हजार छह को उस वक्त के राष्ट्रपति ए पी जे अबुल कलाम ने सुखोई में य़ात्रा की थी । चालीस मिनट की य़ात्रा के बाद उस वक्त के राष्ट्रपति कलाम ने भी यही कहा था कि उन्हें यकीन हो गया है कि देश सुरक्षित हाथों में है । अब कलाम के बाद प्रतिभा पाटिल ने भी सुपरोसिनक विमान में यात्रा कर भारतीय सेना को ये संदेश दे दिया है कि राष्ट्रपति सिर्फ नाम मात्र के लिए तीनों सेना का सुप्रीम कमांडर नहीं है बल्कि वो हर कदम पर अपनी सेना के साथ है । चौहत्तर साल में इस अदम्य साहस के लिए देश के राष्ट्रपति की जितनी प्रशंसा की जाए वो कम है ।
Friday, December 4, 2009
होश में आओ हिंदीवालो
महाराष्ट्र विधानसभा में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों की गुंडागर्दी और हिंदी के नाम पर थप्पड़ कांड के बाद हिंदी को लेकर अच्छी खासी बहस चल पड़ी है । हिंदी के पक्ष और विपक्ष के समर्थकों के बीच तलवारें खिंच गई हैं । लेकिन अगर हम ठंढे दिमाग से विचार करें को हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे हिंदी के लोग ही जिम्मेदार हैं । हिंदी के लोगों का दिल बेहद छोटा है और वो अपनी जरा भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं । कुछ दिनों पहले मैंने एक लेखक के उपन्यास पर लिखा और तर्कों के आधार पर यह साबित किया कि उनका उपन्यास पांच छह साल पहले आए एक हिट फिल्म की तर्ज पर लिखा गया है और पाठकों को उसको सीरियसली लेने की जरूरत नहीं है। मेरा वह लेख एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित हुआ । समीक्षा प्रकाशित होने के पहले यह अफसर लेखक मुझे गाहे-बगाहे फोन कर लेते थे और अपनी रचनाओं पर लंबी चर्चा भी करते थे । लेकिन मेरी समीक्षा छपने के बाद उनका फोन आना बंद हो गया और वो मुझे जानी दुश्मन समझने लगे और अपने मित्रों के बीच मेरी क्रडिबिलिटी पर ही सवाल खड़े करने लगे । इस बीच कई ख्यातिप्राप्त समीक्षकों ने उस उपन्यास की जमकर तारीफ कर दी । इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बाद में वो मेरी समझ पर सार्वजनिक रूप से उलजलूल बोलने लगे । लेकिन उनकी इन बातों से मुझे जरा भी दुख नहीं हुआ क्योंकि जब आप लिखना शुरू करते हैं तो इस तरह के खतरे के लिए खुद को तैयार रखते हैं । और हर लेखक का सोचने समझने का नजरिया अलग-अलग होता है । अब एक दूसरा उदाहरण देता हूं - अंगेजी के एक युवा उपन्यासकार ने फिल्मी दुनिया के ग्लैमर के स्याह पक्ष को सामने रखते हुए एक उपन्यास लिखा । उस उपन्यास का प्लॉट दिल्ली के जेसिका लाल हत्याकांड से मिलता जुलता था । मैंने उसपर लिखते हुए इन उपन्यास की कई खामियों की ओर इशारा किया, और तर्कों के आधार पर उसे एक कमजोर कृति करार दे दिया । लेकिन अचानक एक दिन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ जब उक्त लेखक ने फेसबुक पर मुझे ढूंढकर पहले मुझे अपना मित्र बनाया फिर मेरा नंबर लेकर मुझसे बात की । और अब हमारी नियमित बात होती है और वो अपने नए लेखन पर हमेशा मेरी राय चाहते हैं । मेरे लिखे पर अपनी बेबाक राय देते भी हैं ।
ये दो उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि इससे हिंदी और अंग्रेजी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सके । हिंदी के कमोबेश कई लेखकों की यही मनोदशा है । जब तक आप उनके लेखन की प्रशंसा करते रहें. उनकी कृतियों को महान कारर देते रहें और जब भी जहां भी मौका मिले उसकी प्रशंसा करें तबतक वो आपको सर आंखों पर बिठाए रखेंगे लेकिन ज्योंही आपने उनके लेखन पर उंगुली उठाई तो आप दुश्मन हो जाएंगे, आपकी समझ सावलों के घेरे में हो जाएगी । लेकिन अंग्रेजी में हालात इससे उलट हालात है । अंग्रेजी में लोग अपनी आलोचना को बेहद स्वस्थ और गंभीर तरीके से लेते हैं और समीक्षक ,आलोचक को कभी दुश्मन नहीं समझते हैं । अंग्रेजी के लोग कबीर की - नंदक नियरे राखिए को आत्मसात कर चुके हैं जबकि हिंदी के लोग ही अबतक कबीर को ना तो समझ पाए हैं और ना ही अपना सके हैं ।
हुंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के बीच हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे एक वजह इसका राजभाषा होना भी है । सरकारी बाबुओं और अफसरों की सरकारी भाषा हिंदी इतनी कठिन और दुरूह होती है कि अगर कोई सरकारी ऑर्डर आपके हाथ लग जाए को उसे समझने के लिए आपको उसका अंग्रेजी में अनुवाद करवाना होगा । जरूरत इस बात की है कि हिंदी को राजभाषा के चंगुल से मुक्त कर जनभाषा बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए । जनभाषा के लिए जरूरी है कि इसे लोगों से जोडा जाए और सरकारी चंगुल से मुक्त किया जाए । लेकिन हिंदी के शुद्धतावादियों को इसपर आपत्ति होगी । उन्हें लगने लगेगा कि यह तो हिंदी के खिलाफ एक साजिश है और इससे भाषा का चरित्र और उसका स्वरूप बदल जाएगा । हिंदी में अंग्रेजी और अन्य बारतीय भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल भी हिंदी के तथाकथित ठेकेदारों को नागवार गुजरती है । उन्हें लगता है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो जाएगी, वो हिंदी को इतना कमजोर समझते हैं कि उसे अपने पंखों के नीचे उसी तरह रखना चाहते हैं जैसे कि कोई पक्षी अपने अंडे को सेती है । लेकिन हिंदी के इन तथाकथित ठेकेदारों और शुद्धतावादियों को यह समझना होगा कि किसी अन्य भाषा का अगर हिंदी में इस्तेमाल होता है तो इससे भाषा भ्रष्ट नहीं होती बल्कि समृद्ध होती है । उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि हिंदी कोई इतनी कमजोर भाषा नहीं है कि अगर दूसरी भाषा के चंद लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल होगा तो हिंदी का नाश नहीं हो जाएगा । यहां भी हमें अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए । अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के नए संस्करण में हर साल विश्व की कई भाषाओं के लोकप्रिय शब्दों को शामिल किया जाता है, और गर्व से अंग्रेजीवाले इसका ऐलान भी करते हैं । आज अंग्रेजीवाले धड़ल्ले से बंदोबस्त और जंगल शब्द का इसेतामल करते हैं और कहीं किसी तरफ से कोई विरोध की आवाज नहीं उठती । यही वजह है कि अंगेजी की विश्व भाषा के रूप में स्वीकार्यता है और हिंदी जो तकरीबन 50 करोड़ लोगों की भाषा है उसका विरोध उस देश में होता है, जहां की वो मूल भाषा है ।
इस मसले पर हम हिंदीवालों को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ज्यादा उदार होना पड़ेगा ।
हमे यह भी सोचना पड़ेगा कि दक्षिण भारत के राज्यों में जहां हिंदी का विरोध सबसे ज्यादा है और कई आंदोलन भी हो चुके हैं । लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन राज्यों में भी हिंदी फिल्मों का बेहद बड़ा बाजार है । क्या वजह है कि लोग हिंदी फिल्मों पर तो अपनी जान न्योछावर कर देते हैं लेकिन जब भाषा का सवाल आता है तो वो जान लेने और देने पर उतारू हो जाते हैं । हिंदी को व्यापक स्वीकार्यता दिलाने के लिए जरूरी है कि हिंदी को खुले दिल से अन्य भारतीय भाषाओं और अंगेजी के उन शब्दों को अपनाना होगा जो कि लोगों की जुबान पर चढे हुए हैं । इसका लाभ यह होगा कि दूसरी भाषा के लोगों को यह भरोसा होगा कि हिंदी भी उनकी अपनी ही भाषा है और उनके शब्द इस भाषा के लिए अछूत नहीं है । इसी भरोसे से जो विश्वास पैदा होगा वो हिंदी के व्यापक हित में होगा ।
ये दो उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि इससे हिंदी और अंग्रेजी लेखकों की मानसिकता को समझा जा सके । हिंदी के कमोबेश कई लेखकों की यही मनोदशा है । जब तक आप उनके लेखन की प्रशंसा करते रहें. उनकी कृतियों को महान कारर देते रहें और जब भी जहां भी मौका मिले उसकी प्रशंसा करें तबतक वो आपको सर आंखों पर बिठाए रखेंगे लेकिन ज्योंही आपने उनके लेखन पर उंगुली उठाई तो आप दुश्मन हो जाएंगे, आपकी समझ सावलों के घेरे में हो जाएगी । लेकिन अंग्रेजी में हालात इससे उलट हालात है । अंग्रेजी में लोग अपनी आलोचना को बेहद स्वस्थ और गंभीर तरीके से लेते हैं और समीक्षक ,आलोचक को कभी दुश्मन नहीं समझते हैं । अंग्रेजी के लोग कबीर की - नंदक नियरे राखिए को आत्मसात कर चुके हैं जबकि हिंदी के लोग ही अबतक कबीर को ना तो समझ पाए हैं और ना ही अपना सके हैं ।
हुंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के बीच हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता नहीं होने के पीछे एक वजह इसका राजभाषा होना भी है । सरकारी बाबुओं और अफसरों की सरकारी भाषा हिंदी इतनी कठिन और दुरूह होती है कि अगर कोई सरकारी ऑर्डर आपके हाथ लग जाए को उसे समझने के लिए आपको उसका अंग्रेजी में अनुवाद करवाना होगा । जरूरत इस बात की है कि हिंदी को राजभाषा के चंगुल से मुक्त कर जनभाषा बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए । जनभाषा के लिए जरूरी है कि इसे लोगों से जोडा जाए और सरकारी चंगुल से मुक्त किया जाए । लेकिन हिंदी के शुद्धतावादियों को इसपर आपत्ति होगी । उन्हें लगने लगेगा कि यह तो हिंदी के खिलाफ एक साजिश है और इससे भाषा का चरित्र और उसका स्वरूप बदल जाएगा । हिंदी में अंग्रेजी और अन्य बारतीय भाषाओं के शब्दों का इस्तेमाल भी हिंदी के तथाकथित ठेकेदारों को नागवार गुजरती है । उन्हें लगता है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो जाएगी, वो हिंदी को इतना कमजोर समझते हैं कि उसे अपने पंखों के नीचे उसी तरह रखना चाहते हैं जैसे कि कोई पक्षी अपने अंडे को सेती है । लेकिन हिंदी के इन तथाकथित ठेकेदारों और शुद्धतावादियों को यह समझना होगा कि किसी अन्य भाषा का अगर हिंदी में इस्तेमाल होता है तो इससे भाषा भ्रष्ट नहीं होती बल्कि समृद्ध होती है । उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि हिंदी कोई इतनी कमजोर भाषा नहीं है कि अगर दूसरी भाषा के चंद लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल होगा तो हिंदी का नाश नहीं हो जाएगा । यहां भी हमें अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए । अंग्रेजी के ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के नए संस्करण में हर साल विश्व की कई भाषाओं के लोकप्रिय शब्दों को शामिल किया जाता है, और गर्व से अंग्रेजीवाले इसका ऐलान भी करते हैं । आज अंग्रेजीवाले धड़ल्ले से बंदोबस्त और जंगल शब्द का इसेतामल करते हैं और कहीं किसी तरफ से कोई विरोध की आवाज नहीं उठती । यही वजह है कि अंगेजी की विश्व भाषा के रूप में स्वीकार्यता है और हिंदी जो तकरीबन 50 करोड़ लोगों की भाषा है उसका विरोध उस देश में होता है, जहां की वो मूल भाषा है ।
इस मसले पर हम हिंदीवालों को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और संकीर्ण मानसिकता से उपर उठकर उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ज्यादा उदार होना पड़ेगा ।
हमे यह भी सोचना पड़ेगा कि दक्षिण भारत के राज्यों में जहां हिंदी का विरोध सबसे ज्यादा है और कई आंदोलन भी हो चुके हैं । लेकिन आश्चर्य की बात है कि इन राज्यों में भी हिंदी फिल्मों का बेहद बड़ा बाजार है । क्या वजह है कि लोग हिंदी फिल्मों पर तो अपनी जान न्योछावर कर देते हैं लेकिन जब भाषा का सवाल आता है तो वो जान लेने और देने पर उतारू हो जाते हैं । हिंदी को व्यापक स्वीकार्यता दिलाने के लिए जरूरी है कि हिंदी को खुले दिल से अन्य भारतीय भाषाओं और अंगेजी के उन शब्दों को अपनाना होगा जो कि लोगों की जुबान पर चढे हुए हैं । इसका लाभ यह होगा कि दूसरी भाषा के लोगों को यह भरोसा होगा कि हिंदी भी उनकी अपनी ही भाषा है और उनके शब्द इस भाषा के लिए अछूत नहीं है । इसी भरोसे से जो विश्वास पैदा होगा वो हिंदी के व्यापक हित में होगा ।
Subscribe to:
Posts (Atom)