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Saturday, January 30, 2010

विश्व पुस्तक मेला- सरकारी लापरवाही का नमूना

पंद्रहवीं शताब्दी में जब पुस्तक मेले की शुरुआत हुई थी तो उसके पीछे अवधारणा यह थी कि विश्व के देशों के प्रकाशकों को एक मंच मिले जहां वो किताबों के प्रकाशन अधिकार का सौदा कर सकें । प्रारंभिक अवधारणा में समय के साथ बदलाव आया और कालांतर में इस तरह का मेला पुस्तक प्रेमियों के लिए उत्सव सरीखा बन गया जिस्का वो शिद्दत से इंतजार करने लगे । पश्चिम की यह अवधारणा जब हिंदुस्तान आई तो पुस्तक मेले की जो तस्वीर उभरी उसके केंद्र में सिर्फ पाठक ही थे । किताबों के प्रकाशन अधिकार के कारोबार को ना तो मंच मिला और ना ही प्रकाशकों के स्तर पर इसके के लिए कोई गंभीर कोशिश की गई । भारत में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन नेशनल बुक ट्रस्ट के जिम्मे है और हर दो साल पर दिल्ली के प्रगति मैदान में एनबीटी इसे आयोजित करती है । इस वर्ष भी शनिवार से फरवरी के पहले हफ्ते तक चलनेवाले विश्व पुस्तक मेले की सउरुआत हो चुकी है । भारत में बदले हुए चरित्र के साथ आयोजित होनेवाले विश्व पुस्तक मेले को लेकर पहले प्रकाशकों और पाठकों में खासा उत्साह रहता था । लेकिन समय के साथ लगातार इस उत्साह में कमी आती गई । दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले को मैं लगभग बीस वर्षों से देख रहा हूं । हर बार इसमें पाठकों और प्रकाशकों के उत्साह में ह्रास ही होता दिख रहा है । पुस्तक मेले का आयोजन करनेवाली संस्था पर यह जिम्मेदारी होती है कि वो पाठकों या पुस्तक प्रेमियों के बीच पुस्तक मेले को लेकर जागरुकता या फिर एक उत्साह पैदा करे लेकिन दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले को लेकर एनबीटी ना तो कोई माहौल बना पाई और ना ही लोगों तक इसकी जानकारी पहुंच पाई । कुछ इलाकों में छोटे होर्डिंग लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली । हद तो तब हो गई जब शनिवार से शुरू होनेवाले मेले में दिल्ली के प्रकाशकों को स्टाल आवंटन की जानकारी भी बुधवार को दी गई । दिल्ली के बाहर के प्रकाशकों के हाल का अंदाजा भर लगाया जा सकता है । नेशनल बुक ट्रस्ट ने खुद तो विश्व पुस्तक मेला के प्रचार प्रसार के लिए कुछ किया नहीं प्रकाशकों को भी इतना वक्त नहीं दिया कि वो अपने स्तर पर इसकी जानकारी पाठकों और पुस्तक प्रेमियों तक पहुंचा सकें । पिछले पुस्तक मेले में रूस को अतिथि देश का दर्जा दिया गया था लेकिन उस वक्त एनबीटी की बेहद भद पिटी थी जब रूस के प्रकाशकों ने मेला खत्म होने के पहले ही अपना बोरिया बिस्तर समेट लिया था । एनबीटी के इस रवैये से भारत की खूब भद पिटी थी ।
लेकिन भारत के प्रकाशकों में अब भी विश्व पुस्तक मेले को लेकर उत्साह बचा है और वो हर बार कुछ नया करने की जिद पाले बैठे हैं । कुछ ऐसे प्रकाशक भी हैं जिन्होंने बजाप्ता योजना बनाकर किताबों की तैयारी करवाई। प्रकाशकों के अलावा लेखकों ने भी योजनाबद्ध तरीके से काम किया ताकि उनकी किताबें मेले में रिलीज हो सके । नामवर सिंह हमारे वक्त के हिंदी के सबसे बड़े लेखक हैं । लेकिन उनपर लगातार यह आरोप लगता रहा है कि पिछले सत्ताइस साल से उन्होंने कुछ नहीं लिखा । उनकी आखिरी किताब- दूसरी परंपरा की खोज- सन उन्नीस सौ बयासी में छपी थी । उसके बाद से नामवर सिंह ने अपने आप को वाचिक परंपरा में सिद्ध कर लिया और लेखन से विरक्त हो गए । लेकिन हिंदी में उनके आलोचकों के साथ-साथ इनके प्रशंसकों को भी इस बात का इंतजार रहा कि नामवर शायद लेखन की ओर लौटें । विश्व पुस्तक मेले के अवसर पर उनका यह इंतजार खत्म होगा । राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से नामवर सिंह की एक साथ छह किताबें प्रकाशित हैं । हिंदी और हिंदीवालों को इसपर सहसा विश्वास नहीं होगा । लोग सोच रहे हैं कि नामवर सिंह के भाषणों का संकलन है । यह आंशिक रूप से सही भी है कि इन छह किताबों में से दो उनके भाषणों का संकलन है लेकिन बाकी चार उनके खुद की लिखी किताबें हैं । विश्व पुस्तक मेले की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है जब पाठकों को एक साथ नामवर सिंह की छह किताबें उपलब्ध है । नामवर सिंह के अलावा एक और आलोचक नंदकिशोर नवल की कविता की किताब प्रकाशित है जिन्होंने सियाराम तिवारी के साथ संयुक्त रूप से प्रकाशन संस्थान ने द्वाभा के नाम से छापा है । नंदकिशोर नवल की आलोचनात्मक दृष्टि और उनका काम उल्लेखनीय है लेकिन मन के कोने अंतरे में कवि होने की लालसा उन्हें बार-बार कविता संग्रह छपवाने की ओर प्रेरित करती है । विश्व पुस्तक मेले के मौके पर जो एक बेहद विस्फोटक किताब प्रकाशित हुई है वह है इंदौर की लेखिका कृष्णा अग्निहोत्री की । सामयिक प्रकाशन, दिल्ली से कृष्णा अग्निहोत्री की आत्मकथा दो खंडो में प्रकाशित हुई है - लगता नहीं है दिल मेरा तथा और...और...औरत । कृष्णा अग्निहोत्री अपने जमाने की बेहद खूबसूरत और बिंदास लेखिका थी । अपनी इस आत्मकथा में उन्होंने दिल्ली के साहित्यकारों-संपादकों के साथ अपने हर तरह के रिश्तों पर बेहद बेबाकी और साहसपूर्वक लिखा है । कृष्णा जी जिस तरह स्वभाव से विंदास थी वही बिंदासपना इस आत्मकथा में भी रेखांकित की जा सकती है । इसमें स्त्री लेखिका और पुरुष लेखक के संबंधों का जो द्वंद या फिर छल-छद्म है उससे एक बारगी साहित्य जगत में हड़कंप मचना तय है । हिंदी में लेखक-लेखिका संबंधों पर कलम की जगह तलवार लेकर लिखनेवाली कुछ लेखिकाओं को इस किताब से एक नई जीवनी शक्ति मिलेगी और वो फिर से पुरुषों को कठघरे में खड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगी । इन किताबों के अलावा कई प्रकाशकों ने साहित्य से इतर हटकर बेहद उल्लेखनीय किताबें प्रकाशित की है । वाणी प्रकाशन ने अमेरिकी अर्थशास्त्री पॉल कुर्गमैन की किताब का पत्रकार अरविंद मोहन से अनुवाद करवाया है । मंदी के दौर में यह एक अहम किताब साबित होगी । लेकिन किताबों के अलावा जो सबसे बड़ा और अहम सवाल है वो यह कि क्या इस पुस्तक मेले को पाठक तवज्जो देंगे । क्या एनबीटी पाठकों के बीच बाकी बचे दिनों में उत्साह पैदा करने में कामयाब हो पाएगी । अगर ऐसा होता है तो प्रकाशक लेखक के लिए संतोष की बात होगी लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो विश्व पुस्तक मेले के औचित्य के साथ-साथ एनबीटी के कर्ता-धर्ताओं पर भी बड़ा प्रश्न चिन्ह लगेगा ।

3 comments:

राजीव तनेजा said...

विस्तृत जानकारी के लिए आभार

अविनाश वाचस्पति said...

यह मेला है ही प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने
लगवाने के लिये
शनिवार को मेले के प्रथम दिन
मंत्रियों की आमद के कारण
प्रकाशकों की पुस्‍तकें
नहीं पहुंच पाई हैं मेले में।

उन्‍हें कहा जा रहा है कि
बेगाड़ी अंदर ले आओ
क्‍या पॉसीबल है
पुस्‍तकों को बिल्‍कुल बाहर से उठाकर
स्‍टाल तक लाना।

उन्‍हें संभवत: आज अंदर
आने दिया गया होगा।
वे तो हाहाकार
भी नहीं कर सकते।

कर भी रहे होंगे
करेंगे भी तो
सुनेगा कौन ?

अनुनाद सिंह said...

सूचनाप्रद रपट। साधुवाद।