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Tuesday, March 30, 2010

विरासत पर घमासान

विरासत पर संग्राम
तमिलनाडु की राजनीति में आजकल भूचाल आया हुआ है और ये भूचाल विरोधी दलों की वजह से नहीं बल्कि सत्ता पक्ष की तरफ से ही है । तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बड़े बेटे और केंद्रीय रसायन मंत्री अझागिरी के एक तमिल साप्ताहिक को दिए गए साक्षात्कार से द्रविड़ मुनेत्र कड़गम में तूफान उठ खड़ा हुआ है । अझागिरी ने साफ तौर पर यह कह दिया है कि वो अपने पिता और सूबे के मुख्यमंत्री के बाद किसी को अपना नेता स्वीकार नहीं करेंगे । अझागिरी ने कहा- जब तक करुणानिधि जीवित हैं तबतक किसी और के डीएमके के नेता होने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है । किसी और व्यक्ति का ना तो इतना बड़ा कद है और ना ही उसमें वो नेतृत्व क्षमता है जो करुणानिधि की जगह ले सके । लेकिन उनके बाद मैं किसी को भी अपना नेता नहीं मानूंगा । दरअसल अझागिरी के निशाने पर हैं उनके छोटे भाई और तमिलनाडू के उपमुख्यमंत्री एम के स्तालिन ।

लेकिन इस पूरे झगड़े को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा । जब दूसरी बार यूपीए की सरकार बनी तो मंत्रिमंडल गठन के वक्त करुणानिधि की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने खासा पच्चर फंसाया था । मालदार मंत्रालय के लिए कांग्रेस के सहयोगी दलों में होड़ लगी थी । उस वक्त करुणानिधि ने लोकसभा के सदस्यों के संख्या बल के आधार पर जमकर सौदेबाजी की थी । अपने खास सांसदों के अलावा अपने बड़े बेटे अझागिरी को केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनवा दिया था । अझागिरी के केंद्र में मंत्री बनने के अगले ही दिन उन्होंने अपने छोटे बेटे एम के स्तालिन को तमिलनाडु का उपमुख्यमंत्री मनोनीत कर कई संकेत एक साथ दे दिए थे । करुणानिधि ने स्तालिन को ना केवल उपमुख्यमंत्री बनाया बल्कि सरकार और पार्टी में भी उनको प्रयत्नपूर्वक स्थापित करने लगे ताकि दो हजार ग्यारह में होनेवाले विधानसभा चुनाव के पहले स्तालिन को राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप सकें । इस योजना के तहत सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था । लेकिन अचानक करुणानिधि के एक बयान से सारा मामला बदल गया । करुणानिधि ने जोर देकर कहा कि वो जून में होनेवाले विश्व तमिल सम्मेलन के बाद अपने दायित्व से मुक्त होकर लोगों के बीच रहना चाहते हैं ।
इस बयान और स्तालिन के पार्टी और सरकार में बढ़ते रसूख से साफ था कि करुणानिधि तमिलनाडु को लेकर अपने छोटे बेटे पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं । इन साफ संकेतों को समझते हुए अझागिरी ने अपना विरोध तेज कर दिया और पिता पर दवाब भी बढ़ाया । अझागिरी केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनकर खुश तो हैं लेकिन वो चाहते हैं कि पार्टी में भी उन्हें अहम ओहदा मिले ताकि वो अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार दक्षिण तमिललाडु से आगे जाकर कर सकें । दक्षिण तमिलनाडु में अझागिरी का दबदबा है और पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने इस बात को साबित भी किया । इस इलाके की सभी दस लोकसभा सीटों पर डीएमके को जीत दिलाकर अपनी धमक भी दिखाई ।
पारिवार के बढ़ते दबाव और घर में मचे कलह को देखते हुए करुणानिधि ने एक शातिर राजनेता की तरह एक बार फिर से बयान बदला । करुणा ने कहा कि हलांकि पीठ में तकलीफ की वजह से वो व्हील चेयर पर हैं लेकिन दिमागी तौर पर पूरी तरह से स्वस्थ हैं और निकट भविष्य में रिटायर होने की उनकी कोई योजना नहीं है और ना ही वो मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करनेवाले हैं । हलांकि एक बार फिर से करुणानिधि ने ये कहकर कि स्तालिन उनके लिए प्राणवायु हैं ये संकेत दे दिया है कि सूबे की कमान वो अपने छोटे बेटे को ही सौंपनेवाले हैं ।
राज्य में मुख्यमंत्री पद को लेकर जिस तरह से परिवार में घमासान मचा है उससे ये प्रतीत होता है कि तमिलनाडु करुणानिधि की पारिवारिक जागीर है जिसकी विरासत को लेकर दोनों पुत्रों में जंग छिड़ा है । राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद का ये एक विद्रूप चेहरा है जो लोकतंत्र के मुंह पर एक बदनुमा दाग है । मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार प्रत्यक्ष रूप से तो चुने हुए विधायको के पास होता है लेकिन परोक्ष रूप से तो सूबे की जनता ही यह तय करती है कि उनका सीएम कौन होगा ।
उन्नीस सौ सत्तावन में पहली बार विधायक बने और सड़सठ में मंत्री बने करुणानिधि ने संघर्ष के बूते अपनी पहचान बनाई थी । अपने संघर्ष और सांगठनिक क्षमता की बदौलत करुणानिधि ने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री अन्नादुरै के मन पर गहरी छाप छोड़ी थी । अन्ना इनसे बेहद प्रभावित थे और बेइतहां भरोसा भी । समय के साथ उन्होंने अघोषित तौर पर करुणानिधि को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर प्रोजेक्ट भी करने शुरू कर दिया था । नतीजा यह हुआ कि जूनियर होते हुए भी करुणानिधि को उनके मंत्रिमंडल में अहम जगह मिली । जब उन्नीस सौ उनहत्तर में अन्नादुरै की मौत हुई तो करुणानिधि ने सूबे के मुख्यमंत्री का पद संभाला ।
अपने संघर्ष और द्रविड़ राजनीति की बदौलत पार्टी में अपनी जगह बनाने वाले करुणानिधि अब अपनी ही पार्टी के समर्पित और संघर्षशील कार्यकर्ताओं को भुलाकर अपने संतान मोह में डूब से गए लगते हैं । सत्ता सुख और पुत्र मोह में जिस तरह से धृतराष्ट्र को कुछ नहीं दिखाई देता था उसी तरह करुणानिधि को भी तमिलनाडु और देश की राजनीति में बेटे-बेटियों के अलावा कोई और दिखाई नहीं देता । यह एक ऐसे महान राजनेता का पतन है जिसने द्रविड़ आंदोलन में ना केवल जमकर हिस्सा लिया बल्कि उसे अपनी नेतृत्व क्षमता से एक दिशा भी दी । लेकिन सत्ता सुख और पुत्र मोह ऐसी चीज है जो बड़े से बड़े क्रांतिकारी को भी डिगा देती है । डिगे तो करुणानिधि भी थे जब उनपर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगे और सरकारिया कमीशन ने उनको इन तमाम भ्रष्टाचार के लिए दोषी भी पाया था । उन आरोपों में घिरे करुणानिधि की सरकार को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बरखास्त भी किया था । सत्ता नेता को भ्रष्ट और कमजोर बनाती है और शायद यही वजह रही कि गांधी जी और जयप्रकाश नारायण ने पूरे जीवन में कोई सरकारी पद नहीं लिया, किसी सरकार में शामिल नहीं हुए । जिसकी वजह से इनकी विश्वसनीयता बरकरार रह सकी और लोग इनकी एक आवाज पर जान लेने और देने दोनों के लिए तैयार रहते थे ।
अझागिरी तमिल पत्रिका को दिए इंटरव्यू के बाद जब बवाल बढ़ा तो अझागिरी ने तमाम अटकलों को खारिज करते हुए सफाई दी कि वो और स्तालिन एक दुनाली बंदूक की तरह हैं जो एक साथ अपने दुश्मनों पर वार करते हैं । लेकिन तमिलनाडु की राजनीति और करुणानिधि के परिवार को लंबे अरसे से नजदीक से देखनेवालों का मानना है कि दोनों दुनाली बंदूक नहीं बल्कि एक दूसरे की तरफ तनी हुई बंदूक हैं । झगड़ा का तीसरा कोण करुणानिधि की बेटी कनीमोझी का भी है । अपनी तीसरी पत्नी के दबाव में करुणानिधि ने कनीमोझी को राज्यसभा का सदस्य तो बनवा दिया लेकिन कनिमोझी और उसकी मां इतने से संतुष्ट नहीं हैं । कनीमोझी की भी राजनैतिक महात्वाकांक्षा हिलोरे ले रही हैं, वो भी मंत्री पद और पार्टी में अहम ओहदा चाहती है । उनका तर्क है कि राजनीतिक विरासत में औलाद को बराबर हक मिलना चाहिए और हो भी क्यों ना क्योंकि करुणानिधि ने तो पूरी डीएमको अपनी जागीर बना रखी है जहां मलाई तो सिर्फ परिवार में ही बंटती है आम कार्यकर्ता के हिस्से तो आता है आंदोलन और संघर्ष । तमिलनाडु की राजनीति पर अगर हम बारीकी से नजर डालें तो ये बात साफ तौर पर दिखती है कि करुणानिधि के बाद डीएमके में उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर संग्राम तय है, इंतजार बस समय का है । पारिवारिक कलह और पुत्रमोह में फंसे करुणा पर तो बस दया की जा सकती है, क्योंकि पचासी पार इस राजनीतिक पुरोधा के आंखों पर मोह की पट्टी है ।

Tuesday, March 23, 2010

मकबूल पर फिदा क्यों हों ?

जब मैंने मकबूल फिदा हुसैन के भारत छोड़ने और कतर की नागरिकता स्वीकार करने पर सेक्युलरवादियों के दोहरे चरित्र को उजागर करता हुआ लेख हाहाकार पर लिखा तो मेरे विवेक और मेरी समझ,मेरी विचारधारा, मेरी शिक्षा, मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि को लेकर लोगों ने सवाल किए ।मुझे कालिदास का कुमार संभव पढ़ने की और खजुराहो की प्रसिद्ध मूर्तियां देखने समझने के अलावा प्राचीन भारतीय मूर्तिकला के बारे में अपने ज्ञान को बढ़ाने का उपदेश दिया गया । मुझे इस बात पर घेरने की कोशिश की गई कि मेरी बातें भगवा ब्रिगेड या संघियों से क्यों मिलती जुलती हैं । जिन लोगों ने मुझे इस तरह की सलाह दी मुझे नहीं मालूम कि उनकी समझ कितनी बेहतर है, उन्होंने कालीदास को कितना पढ़ा है । उन्होंने कितनी बार खजुराहो की मूर्तियां देखी है, लेकिन उन्हें मैं ये बता दूं कि हुसैन ने अपनी जीवनी और अपनी एक पेंटिंग दस्तखत करके मुझे दिए हैं जो मेरे लिए अमूल्य धरोहर हैं । हुसैन की पेंटिंग को समझने का दावा करनेवाले उनके तथाकथित समर्थकों में अभिवयक्ति की आजादी को लेकर घोर चिंता है और उन्हें लगता है कि हुसैन के भारत चोड़कर चले जाने से संविधान द्वारा प्रदत्त इस अधिकार पर हमला हुआ है । उन्हें यह सोचने समझने की जरूरत है कि जब भी कोई अपने आपको अभिव्यक्त करने के लिए ज्यादा स्वतंत्रता की अपेक्षा करता है तो स्वत: उससे ज्यादा उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार भी अपेक्षित हो जाता है । भारत माता का नंगा चित्र बनाने पर हुसैन के खिलाफ दायर याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल ने खारिज कर दिया, साथ ही अपने फैसले में कला और उसकी समझ को लेकर कुछ कठोर टिप्पणियां भी की । लेकिन हुसैन के उन्नीस सौ सत्तर में बनाए गए सरस्वती और दुर्गा की नंगी तस्वीरों के एक दूसरे मामले में दो हजार चार में दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस जे डी कपूर का भी एक फैसला आया था । जस्टिस कपूर ने आठ अप्रैल दो हजार चार के अपने फैसले में लिखा- इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि देश के करोड़ो हिंदुओं की इन देवियों में अटूट श्रद्धा है- एक ज्ञान की देवी हैं तो दूसरी शक्ति की । इन देवियों की नंगी तस्वीर पेंट करना इन करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना तो है ही साथ ही उन करोड़ों लोगों की धर्म और उसमें उनकी आस्था का भी अपमान है । शब्द, पेंटिंग, रेखाचित्र और भाषण के माध्यम से अभिव्यक्ति की आजादी को संविधान में मौलिक अधिकार का दर्जा हासिल है जो कि हर नागरिक के लिए अमूल्य है । कोई भी कलाकार या पेंटर मानवीय संवेदना और मनोभाव को कई तरीकों से अभिवयक्त कर सकता है । इन मनोभावों और आइडियाज की अभिवयक्ति को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है । लेकिन कोई भी इस बात को भुला या विस्मृत नहीं कर सकता कि जितनी ज्यादा स्वतंत्रता होगी उतनी ही ज्यादा जिम्मेदारी भी होती है । अगर किसी को अभिवयक्ति का असीमित अधिकार मिला है तो उससे यह अपेक्षित है कि इस अधिकार का उपयोग अच्छे कार्य के लिए करे ना कि किसी धर्म या धार्मिक प्रतीकों या देवी देवताओं के खिलाफ विद्वेषपूर्ण भावना के साथ उन्हे अपमानित करने के लिए । हो सकता है कि ये धर्मिक प्रतीक या देवी देवता एक मिथक हों लेकिन इन्हें श्रद्धाभाव से देखा जाता है और समय के साथ ये लोगों के दैनिक धर्मिक क्रियाकलापों से इस कदर जुड़ गए हैं कि उनके खिलाफ अगर कुछ छपता है, चित्रित किया जाता है या फिर कहा जाता है तो इससे धार्मिक भावनाएं बेतरह आहत होती है । किसी भी खास धर्म के देवी देवताओं की आपत्तिजनक या नीचा दिखाने वाले रेखाचित्र या फिर पेंटिंग समाज में वैमनस्यता और एक दूसरे के प्रति नफरत पैदा करते हैं । अगर यह मान लिया जाए कि इस तरह के कार्य कला का एक नमूना है तब भी इस बात को विस्मृत नहीं किया जा सकता है कि इस तरह के कृत्य जानबूझकर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने या फिर अपमानित करने के दायरे में आता है, क्योंकि ये देवी देवता करोड़ों लोगों के अराध्य हैं । एक बार फिर मैं ये कहता हूं कि ये देवी देवता एक मिथक हो सकते हैं लेकिन जब भी इस तरह से नग्न रूप में उनको चित्रित किया जाता है तो लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं । अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर किसी व्यक्ति को किसी भी वर्ग या समाज की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ की इजाजत नहीं दी जा सकती है । यह बात याचिकाकर्ता ( हुसैन) को समझनी चाहिए कि वो एक अलग धर्म से संबंधित हैं । अगर याचिकाकर्ता को लोगों की धार्मिक भावनाओं की गहराई का एहसास नहीं है तो वो अपने धर्म या फिर किसी और धर्म पर हाथ अजमाकर देखें तो उन्हें पता चल जाएगा कि धार्मिक भवानाओं की जड़ें कितनी गहरी होती हैं । इस तरह के काम दो अलग-अलग धर्मों को मानने वालों के बीच वैमनस्यता की खाई को और गहरा करती हैं, साथ ही सामाजिक सदभाव और आपसी भाईचारे के बीच बाधा बनकर खड़ी हो जाती है । याचिकाकर्ता ने महाभारत की पात्र द्रोपदी, जिन्हें हिंदू धर्म को मानने वाले लोग इज्जत की नजरों से देखते हैं, को भी पूरी तरह से निर्वस्त्र चित्रित किया है, जबकि चीरहरण के वक्त भी द्रोपदी निर्वस्त्र नहीं हो पाई थी । इस पेंटिंग में जिस तरह से द्रोपदी का चित्रण हुआ है वह साफ तौर से हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचानेवाला और नफरत पैदा करनेवाला है । अपने बारह पन्नों के जजमेंट में विद्वान न्यायाधीश ने और कई बातें कही और अंत में आठ शिकायतकर्ताओं की याचिका खारिज कर दी क्योंकि धार्मिक भावनाओं को भड़काने, दो समुदायों के बीच नफरत फैलाने आदि के संवंध में जो धाराएं (153 ए और 295 ए) लगाई जाती हैं उसमें राज्य या केंद्र सरकार की पू्र्वानुमति आवश्यक होती है, जो कि इस केस में नहीं थी । सनद रहे कि जब केस चल रहा था तो केंद्र में बीजेपी की सरकार थी । ये तो हुई अदालत और न्यायाधीश की बात । आपको एक और उदाहरण देते चलें जिससे कि हुसैन की महानता(?) और उनके पूर्वाग्रह पर से परदा हटता है । हुसैन ने एक बार महात्मा गांधी, कार्ल मार्क्स, अलबर्ट आइंस्टीन और हिटलर की पेंटिंग बनाई जिसमें हिटलर को उन्होंने नंगा दिखाया । जब उनसे इसके बार में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि किसी को अपमानित करने का यह उनका यह अपना तरीका है । इसके बाद मुझे लगता नहीं है कि कुछ कहने की जरूरत है । मार्क्स के अंध भक्तो धर्मनिरपेक्षता और अभिवयक्ति की आजादी के खतरे पर विलाप करना बंद करो । अपनी आंखों पर चढ़ा लाल चश्मा उतारो, तभी तर्क संगत बातें भी होंगी और विमर्श भी । ( जस्टिस कपूर के जजमेंट के चुनिंदा अंशों के अनुवाद में हो सकता है कोर्ट की भाषा में कोई त्रुटि रह गई हो लेकिन भाव वही हैं )

Monday, March 22, 2010

शीला, श्लाका और बवाल

हिंदी में साहित्यिक पुरस्कारों की स्थिति बेहद खराब है । पुरस्कारों की विश्वसनीयता और उसके दिए जाने के तरीके को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं । हालत तो यहां तक पहुंच गए हैं कि साहित्य अकादमी पुरस्कारों की साख पर बट्टा लगा है । लेकिन ताजा विवाद तो दिल्ली की हिंदी अकादमी के श्लाका सम्मान को लेकर उठा है । दिल्ली की हिंदी अकादमी की अध्यक्ष वहां की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित हैं और उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर हैं । हिंदी अकादमी हर साल श्लाका सम्मान के अलावा कई और अन्य पुरस्कार देती है । वर्ष 2008-09 के लिए अकादमी की कार्यकारिणी ने हिंदी के वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक कृष्ण बलदेव वैद को श्लाका सम्मान देने की संस्तुति की थी । उसके बाद अकादमी की अध्यक्ष की हैसियत से तत्कालीन कार्यकारिणी के फैसलों पर मुहर लगा थी । लेकिन बाद के दिनों में हिंदी अकादमी में प्रशासनिक अराजकता की वजह से उस वर्ष के सम्मान नहीं दिए जा सके । लेकिन अब जब अकादमी ने वर्ष 2009-10 के पुरस्कारों के साथ 2008-09 के पुरस्कारों का ऐलान किया तो 2008-09 के लिए श्ललाका सम्मान के लिए किसी का नाम घोषित नहीं किया गया । सूची से कृष्ण बलदेव वैद का नाम गायब था । बताया जा रहा है कि एक अनाम से कांग्रेसी नेता ने अकादमी की अध्यक्ष दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पत्र लिखकर कृष्ण बलदेव वैद को श्लाका सम्मान नहीं देने का अनुरोध किया था । कांग्रेसी नेता का आरोप है कि वैद के उपन्यास नसरीन में कई जगह अश्लील शब्दों और स्थितियों का चित्रण किया गया है । कांग्रेसी नेता की आपत्ति को कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने इस तरह स्वीकार कर लिया जैसै ये दस जनपथ का फरमान हो और ना मानने पर उनकी कुर्सी जाने का खतरा हो । शीला दीक्षित, जो कला और संस्कृति को लेकर संवेदनशील और समझदार मानी जाती है उनका यह निर्णय चौंकानेवाला है क्योंकि वैद जी को पुरस्कार देने का निर्णय हिंदी के लब्धप्रतिष्ठित लेखकों की एक कमिटी ने किया था । यहां यह बात भी समझ से परे हैं कि शुचिता और पवित्रता का ठेका कांग्रेसियों ने कब से ले लिया । यह ठेका तो भगवा खेमे के पास था । क्या धर्मनिरपेक्षता और अभिवयक्ति की आजादी का नारा देनेवाली कांग्रेस पार्टी भी भगवा रंग में रंगने लगी है । या फिर मुख्यमंत्री अपनी अधिकारियों की राय को तरजीह देने के क्रम में भगवा विचारधारा के साथ नजर आने की गलती कर बैठी । दरअसल ज्योतिष जोशी के हिंदी अकादमी के सचिव पद से इस्तीफे के बाद किन्हीं परिचयदास को अकादमी का सचिव का प्रभार दे दिया गया । परिचयदास अपने नाम के आगे कभी प्रोफेसर तो कभी डॉक्टर लिखकर लगातार हिंदी अकादमी के विज्ञापनों में छपते रहते हैं । लेकिन असली खेल तो प्लेयर बिलंडिग में बैठने वाले एक अफसर का चल रहा है, परिचयदास तो इस वजह से कुर्सी पर बैठे हैं कि वो एक कमजोर सचिव हैं जो अपने आकाओं के हुक्म को बगैर किसी सवाल जबाव के बजाते रहते हैं । अब ये मुख्यमंत्री को तय करना है कि दिल्ली की हिंदी अकादमी को सचिवालय में बैठे अफसर चलाएंगे या फिर साहित्यकारों की संचालन समिति । क्या अकादमी को स्वायत्ता मिल पाएगी या फिर यह दिल्ली सरकार का भोंपू बन कर रह जाएगा । खैर ये तो एक अवांतर प्रसंग है ।
कृष्ण बलदेव वेद को श्ललाका सम्मान नहीं दिए जाने पर हिंदी साहित्य में भूचाल आ गया । सबसे पहले हिंदी के आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने हिंदी अकादमी के साहित्यकार सम्मान लेने से इंकार कर दिया और अकादमी के सचिव को एक पत्र लिखकर अग्रवाल ने अपना विरोध भी जताया और कहा कि – साहित्य और कला में श्लीलता और अश्लीलता के फैसले इतने सपाट ढंग से नहीं किए जा सकते । साहित्येतर कारणों से जूरी की संस्तुति की उपेक्षा करना अनुचित है । यह स्थिति केवल एक वरिष्ठ लेखक के ही प्रति नहीं, साहित्य मात्र के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान के आभाव की सूचना देती है । अपने विरोध पत्र में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखा- साहित्य के सामाजिक दायित्व की चर्चा बहुत की जाती है । इसी के साथ यह भी जरूरी है कि समाज और सामाजिक-राजनैतिक सत्ता की विभिन्न संस्थाएं भी साहित्य, कला, ज्ञान और विचार की साधना और उसकी स्वायत्तता का सम्मान करना सीखें ।
पुरुषोत्तम अग्रवाल के इस्तीफे की खबर अखबारों में छपते ही हिंदी अकादमी का विरोध और तेज हो गया । 2009-10 के श्ललाका सम्मान के लिए तुने गए वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने भी पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया । उनका कहना है कि वैदजी हिंदी के बेहद अहम रचनाकार हैं, उनसे श्लाका सम्मान की स्वकीकृति हासिल करने के बाद उन्हें पुरस्कार से वंचित कर उनका अपमान किया गया है । इस खुलासे के बाद स्थितियां बिल्कुल बदल गई हैं और उनका जमीर श्लाका सम्मान लेने की इजाजत नहीं देता । केदार जी के इस कदम के बाद तो जैसे पुरस्कार ठुकरानेवालों की लाइन लग गई । कवि-पत्रकार विमल कुमार, कवि पंकज सिंह, कवयित्रि और स्वर्गीय निर्मल वर्मा की पत्नी गगन गिल, रेखा जैन ने भी हिंदी अकादमी द्वारा घोषित पुरस्कार लेने से मना कर दिया है । इसके अलावा पूरा का पूरा हिंदी साहित्य वैद जी के अपमान के बाद उद्वेलित है और दिल्ली सरकार की जमकर थुक्का फजीहत हो रही है । अब तो हालात ऐसे बन रहे हैं कि हिंदी अकादमी को सम्मान समारोह करना मुश्किल हो रहा है ।
लेकिन इस सारे विवाद की एक अवांतर कथा भी है । बताया जा रहा है कि कृष्ण बलदेव वैद के खिलाफ मुख्यमंत्री को कांग्रेस के नेता से चिट्ठी लिखवाने के पीछे हिंदी की एक वरिष्ठ आलोचक हैं । जिस वर्ष जूरी ने वैद जी का नाम तय किया था उस वर्ष उक्त महिला आलोचक भी अपनी दावेदारी को लेकर लॉबिंग कर रही थी । जब उनकी बात नहीं बनी और जूरी ने वैद जी का नाम तय कर दिया तो उन्होंने एक कांग्रेसी से कृष्ण बलदेव वैद जी के खिलाफ पत्र लिखवा दिया । नतीजा यह हुआ कि अपसरशाही में जकड़ी हिंदी अकादमी ने उस पत्र के आधार पर वैद जी को पुरस्कार देने से मना कर दिया बिना ये सोचे समझे, बिना यह जाने की आपत्ति का आधार क्या है । दरअसल अकादमी के अफसरों को लगता है कि हिंदीवालों का विरोध फौरी होता है । जब अशोक चक्रधर को हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था तो हिंदी के कई वरिष्ठ लेखकों ने घोर आपत्ति जताई थी । लेकिन चंद दिनों बाद वही साहित्यकार अशोक चक्रधर के सानिध्य में मंचासीन हो रहे थे । ना विरोध रहा और ना ही कोई दूरी । उस घटना के बाद अकादमी के अफसर बेपरवाह हो गए हैं । लेकिन अफसरों का इस बात का अंदाजा नहीं था कि इस बार इतनी संख्या में पुरस्कार ठुकरा दिए जाएंगे और मामला इतना संगीन हो जाएगा । शीला जी अब भी वक्त है अकादमी को कहिए कि अपनी गलती माने और कृष्ण बलदेव वैद जी माफी मांगकर उन्हें सम्मानित करे वर्ना होगा यह कि आप भी साहित्य और कला के मामले में भगवा खेमे में नजर आएंगी ।
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Thursday, March 18, 2010

महिलाओं से दुश्मनी क्यों

देशभर में महिलाओं को संसद में आरक्षण दिए जाने पर जोरदार बहस चल रही है । महिलाओं को और अधिकार देने और उसे भारतीय पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों के बराबर दर्जा हासिल हो इस प्रयास को महिला आरक्षण बिल से बल मिला । लेकिन भारतीय महिला को ताकत मिले, वो देश की भागयविधाता बने, नीति-निर्धारण करे, यह बात हमारके देश में मौजूद धर्म के ठेकेदारों को मंजूर नहीं । महिला आरक्षण के समर्थन और विरोध के कोलाहल के बीच अयोध्या के राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंथ नृत्यगोपाल दास ने एक बेहद आपत्तिजनक और अव्यावहारिक बयान जारी कर दिया । नृत्यगोपाल दास ने कहा कि महिलाओं को अकेले मंदिर, मठ या देवालय में नहीं जाना चाहिए । अगर वो मंदिर, मठ या देवालय जाती हैं तो उन्हें पिता, पुत्र या भाई के साथ ही जाना चाहिए । राम जन्मभूमि न्यास के ही वरिष्ठ सदस्य रामविलास वेदांती तो इससे भी एक कदम आगे जाकर कहते हैं कि महिलाओं के अकेले मंदिर में जाने पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए । मेरे जानते सनातन धर्म के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी हिंदू धर्म गुरू ने महिलाओं के मंदिर या मठ में जाने को लेकर ऐसी बात कही है । धर्म के इन दो ठेकेदारों के बयान के पीछे की मानसिकता और मनोविज्ञान पर विचार करने की आवश्यकता है । नृत्य गोपाल दास और वेदांती के ये विचार भारतीय परुष प्रधान समाज की जड़ मानसिकता और मनोविज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्हें लगता है कि हर समस्या की जड़ में नारी और उसका सौंदर्य है । इन दो धर्मानुभावों को यह लगता है कि अगर महिलाएं मंदिर में अकेले गई तो साधुओं और पुजारियों का मन डोल जाएगा और कुछ भी अनहोनी घटित हो जाएगा । इन जैसे महंथों और वेदांतियों को लगता है कि दुनिया के सारे पापों की जड़ में नारी है ।बजाए साधुओं और महात्माओं को संयम का उपदेश देने के बजाए ये लोग महिलाओं को ही सावधानी बरतने की सालह दे रहे हैं । यहां ये यह भी भूल जाते हैं कि मन तो सनातन धर्म के सबसे श्रद्धेय मुनि विश्वामित्र का भी डोल गया था ।
लेकिन ये धर्मानुभाव भारतीय सनातन परंपरा को भूल गए हैं जहां मंदिरों में नारियों को सदियों से सम्मान मिलता रहा है । दक्षिण भारत में तो महिलाएं मंदिरों में रहती भी हैं । भगवान को समर्पित ये महिलाएं मंदिरों और देवालयों में देवदासी कहलाती है । कालांतर में धर्म के ठेकेदारों और मठाधीशों की वजह से देवदासी परंपरा भी बदनाम हुई और उसमें कुछ ऐसे तत्व घुस आए जो स्त्रियों का शोषण करने लगे और उस पवित्र परंपरा को देह व्यापार में तब्दील कर दिया ।
हद तो तब हो जाती है जब धर्म के ये ठेकेदार अपने बयानों के लिए शास्त्रों को आधार बनाते हैं । लेकिन धर्म के नाम पर अपनी दुकान चलानेवाले इन आचार्यों को कौन बताए कि शास्त्रों और धर्मग्रंथों में तो मंदिरों का उल्लेख ही नहीं मिलता है । आश्रमों का जिक्र अवश्य है । शास्त्रों में तो गंगा की पूजा होती थी, सूर्य की आराधना होती थी, शिव की पूजा का उल्लेख है लेकिन मंदिरों का उल्लेख नहीं है । रावण को भी जब शिव की पूजा करना था तो वो कैलाश पर्वत गया था किसी मंदिर या मठ में नहीं । पहली बार किसी मंदिरनुमा चीज का उल्लेख रामायण में मिलता है जब राम ने लंका जाने के क्रम में शिवलिंग की पूजा की थी, जो बाद में सेतुबंध शिवलिंग के नाम से जाना गया । कहना ना होगा कि धर्म के ये ठेकेदार शास्त्रों और धर्मग्रंथों को आधार बनाकर देश की भोली भाली जनता को बेवकूफ बनाते हैं, और यह कोई नई प्रवृत्ति नहीं है, ये सालों से चल रहा है । जरूरत इस बात की है कि महंथ और वेदांती के बयानों की जोरदार शब्दों में निंदा करनी चाहिए क्योंकि इस तरह के बयान स्त्रियों को पीछे धकेलने की साजिश है । क्या यह महज संयोग है कि नृत्य गोपाल दास के बयान के चंद दिनों बाद ही शिया धर्म गुरू कल्बे जव्वाद का भी स्त्रियों को लेकर एक बयान आता है जिसमें वो कहते हैं कि लीडर बनना औरतों का काम नहीं है, उनका काम लीडर पैदा करना है । जव्वाद के मुताबिक कुदरत ने अल्लाह ने उन्हें इसलिए बनाया है कि वो घर संभालें, अच्छी नस्ल के बच्चे पैदा करें । कल्बे जव्वाद के इस बयान के समर्थन देश के सबसे बड़े मदरसे नदवा कॉलेज के आला मौलाना ने भी किया । सवाल यह उठता है कि क्या हर धर्म के ठेकेदारों को सशक्त महिलाओं से डर क्यों लगता है । वो क्या वजह है जो धर्म, मजहब, जाति के नाम पर एक दूसरे के खिलाफ जहर उगलनेवाले तत्व महिलाओं को अधिकार देने के खिलाफ एक ही प्लेटफॉर्म पर साथ खड़े नजर आते हैं । इस सवाल का जबाव बेहद जरूरी है ।
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Thursday, March 4, 2010

हुसैन पर विधवा विलाप क्यों ?

दुनिया भर में मशहूर कूची के जादूगर मकबूल फिदा हुसैन के कतर की नागरिकता स्वीकार करने पर देशभर में कुछ चुनिंदा वामपंथी सेकुलर लेखकों और कार्यकर्ताओं ने हो हल्ला मचाया । हुसैन के भारत छोड़ने को इन परम सेकुलरवादियों ने अभिवयक्ति की आजादी से जोड़ दिया । उन्हें लगने लगा कि भारत ने यह नायाब हीरा देश में संघ और उससे जुड़े अतिवादी हिंदुओं की वजह से खो दिया । वो इस बात को लेकर चिंतित दिखाई दिए कि हुसैन का विरोध इसलिए हो रहा है कि वो एक मुसलमान हैं । हुसैन के विरोधियों की इस बात के लिए भी लानत मलामत की गई कि वो कौन होते हैं यह कहने वाले कि हुसैन पैगंबर की तस्वीर बना कर दिखाएं । तर्क यह कि एक कलाकार को इस बात की स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वो जो चाहे उसे चित्रित करे । लेकिन हुसैन के इस्लाम से संबंधित कोई भी चित्र नहीं बनाने से तथाकथित सेकुलरवादियों का यह तर्क कमजोर होता है । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि कुरान इस बात कि इजाजत नहीं देता कि किसी भी वस्तु या व्यक्ति का चित्रण हो । लेकिन सवाल यह उठ खडा़ होता है कि क्या एक कलाकार की अभिव्यक्ति पवित्र कुरान और इस्लाम की सीमा में प्रवेश नहीं कर सकता ।
जबतक भारत में इन सवालों पर बहस होती या फिर कला और कलाकार के पक्ष में खड़े होने का दंभ भरनेवाले प्रगतिवादी-जनवादी लेखक विरोध का डंडा-झंडा संभालते हुसैन के एक इंटरव्यू ने उसकी हवा निकाल दी । हुसैन ने कतर से दिए एक इंटरव्यू में यह स्वीकार किया कि उनके भारत छोड़ने की वजह कुछ और भी है । हुसैन ने माना कि भारत में उनका रहना मुमकिन नहीं था लेकिन इसके बाद जो बात हुसैन ने कही उसपर तो छातीकूट अभियान चला रहे इन प्रगतिवादियों के पांव तले से भी जमीन खिसक गई । हुसैन ने अपने साक्षात्कार में कहा कि वो तीन मुख्य प्रोजेक्ट पर काम करना चाहते थे- पहला मोहनजोदाड़ो से लेकर मनमोहन सिंह तक के भारतीय सभ्यता का इतिहास, बेबीलोन और विश्व की दूसरी अन्य सभ्यताओं का इतिहास और भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों का इतिहास । हुसैन ने माना कि भारत में इन प्रोजेक्ट्स पर काम करने के लिए उनको प्रायोजक नहीं मिल रहे थे । इसलिए जब कतर के शेख मोज़ा ने उनकी इस योजना को प्रायोजित करने की इच्छा जताई तो वो मना नहीं कर सके । मकबूल फिदा हुसैन ने यह भी माना कि भारत में कला के लिए उचित माहौल नहीं है लेकिन उसके पहले प्रायोजक नहीं मिले की बात कहकर हुसैन ने अपनी असली परेशानी जाहिर कर दी । इसके अलावा हुसैन ने जो एक बात और साफगोई से मानी वो यह कि भारत में टैक्स का ढांचा बेहद जटिल और परेशान करनेवाला है और यह भी उनके देश छोड़ने की वजहों में से एक है ।
हुसैन के इन बयानों से यह साफ हो गया कि हुसैन ने अतिवादियों से परेशान होकर तो भारत छोड़ा लेकिन उनकी परेशानी की वजह सिर्फ उनकी अभिवयक्ति की आजादी पर हमला नहीं था । अगर सिर्फ यह वजह होती तो हुसैन भारत जैसे सहिष्णु समाज को छोड़कर कतर जैसे कट्टर देश को नहीं चुनते । भारत में हुसैन को मुट्ठी भर लोगों का विरोध झेलना पड़ रहा था, कमोबेश वो अपनी कलाकृतियों में अपनी जादुई कूची का रंग भर सकते थे लेकिन कतर में वो सिर्फ एक दरबारी पेंटर भर होकर रह जाएंगे । अगर हुसैन को भारत में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं मिल रही थी और वो भगवा ब्रिगेड की गुंडागर्दी से परेशान थे तो कतर में उन्हें कौन सी आजादी मिलेगी । भारत में जितने हुसैन के विरोधी हैं उनसे ज्यादा उनके समर्थक हैं । लेकिन पैसे और व्यावसायिक कारणों से हुसैन ने भारत को छोड़ने का फैसला लिया और उसे अभिव्यक्ति की आजाजदी से जोड़ने का खेल खेला गया । अब कतर में हुसैन मजे में हिंदू देवी देवताओं के नंगे और शर्मसार करनेवाले चित्र बेखौफ होकर बना पाएंगे , वहां के शासकों के पसंद का ख्याल रखेंगे । लेकिन क्या हुसैन वहां रहकर कतर के शासकों के चित्र में प्रयोग कर पाएंगे । क्या कतर की खूबसूरत औरतों में उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी दिखाई देगी । क्या वहां के समाज की रूढिवादिता पर हुसैन की कूची चल सकेगी । या फिर भारी भरकम रकम के नीचे एक कलाकार की कला दब कर रह जाएगी ।
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनपर भारत के बयानवीर लेखकों को विचार करना चाहिए । दरअसल मार्क्स के इन आधुनिक चेलों को मार्क्सवाद ने हर चीज को देखने की एक नई दृष्टि तो दी लेकिन उनकी दूसरी आंख से सचाई देखने की दृष्टि छीन ली । वो हर चीज को अब मार्क्सवाद के लाल चश्मे से देखने लगे । तस्लीमा का मामला अभी ताजा है । कर्नाटक के एक अखबार ने तस्लीमा के पुराने लेख को छाप दिया । जिसपर वहां कई जिलों में जमकर हिंसा हुई, विरोध इतना बढ़ा कि पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी जिसमें दो लोगों की जान चली गई और लाखों की संपत्ति का नुकसान हुआ । विरोध बढ़ता देखकर कर्नाटक सरकार ने आनन-फानन में तस्लीमा के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया । जबकि तस्लीमा यह सफाई दे चुकी थी कि उन्होंने कन्नड़ के अखबार के लिए कोई लेख लिखा ही नहीं था । हुसैन के भारत छोड़ने पर बुक्का फाड़कर विलाप करनेवाले इन प्रगतिवादियों को तस्लीमा पर हो रहा अत्याचार नहीं दिखाई दे रहा । दरअसल मार्क्स के इन चेलों ने सबसे आधुनिक होने का दावा करनेवाले इस वाद को उतना ही भ्रष्ट किया है जितना हिंदू धर्म को पोंगा पंडितों ने । इन कथित मार्क्सवादियों के दोहरे रवैये की वजह से ही हिंदुओं, जो कि साधारणतया सहिष्णु होते हैं, के मन में भी यह सवाल उठने लगता है कि बुद्दिजीवियों का एक वर्ग सिर्फ हिंदुओं के खिलाफ ही सेकुलर क्यों होता है । प्रगतिशीलता का ताना-बाना धारण किए इन बुद्धिजीवियों को यह लगता है कि अगर वो हिंदुओं का विरोध नहीं करेंगे तो वो ना तो प्रगतिशील रह पाएंगे और ना ही सेकुलर ।
अंत में इतना कहना चाहता हूं कि हुसैन ने अपने इंटरव्यू में यह भी कहा कि भारतीय संविधान सिर्फ एक कागज का टुकडा़ है । अगर किसी भी देशवासी के मन में उसके संविधान को लेकर इतनी ही इज्जत है तो फिर वो देश छोड़कर जाए या रहे कोई फर्क नहीं पड़ता ।