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Tuesday, March 30, 2010

विरासत पर घमासान

विरासत पर संग्राम
तमिलनाडु की राजनीति में आजकल भूचाल आया हुआ है और ये भूचाल विरोधी दलों की वजह से नहीं बल्कि सत्ता पक्ष की तरफ से ही है । तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के बड़े बेटे और केंद्रीय रसायन मंत्री अझागिरी के एक तमिल साप्ताहिक को दिए गए साक्षात्कार से द्रविड़ मुनेत्र कड़गम में तूफान उठ खड़ा हुआ है । अझागिरी ने साफ तौर पर यह कह दिया है कि वो अपने पिता और सूबे के मुख्यमंत्री के बाद किसी को अपना नेता स्वीकार नहीं करेंगे । अझागिरी ने कहा- जब तक करुणानिधि जीवित हैं तबतक किसी और के डीएमके के नेता होने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है । किसी और व्यक्ति का ना तो इतना बड़ा कद है और ना ही उसमें वो नेतृत्व क्षमता है जो करुणानिधि की जगह ले सके । लेकिन उनके बाद मैं किसी को भी अपना नेता नहीं मानूंगा । दरअसल अझागिरी के निशाने पर हैं उनके छोटे भाई और तमिलनाडू के उपमुख्यमंत्री एम के स्तालिन ।

लेकिन इस पूरे झगड़े को समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा । जब दूसरी बार यूपीए की सरकार बनी तो मंत्रिमंडल गठन के वक्त करुणानिधि की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ने खासा पच्चर फंसाया था । मालदार मंत्रालय के लिए कांग्रेस के सहयोगी दलों में होड़ लगी थी । उस वक्त करुणानिधि ने लोकसभा के सदस्यों के संख्या बल के आधार पर जमकर सौदेबाजी की थी । अपने खास सांसदों के अलावा अपने बड़े बेटे अझागिरी को केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनवा दिया था । अझागिरी के केंद्र में मंत्री बनने के अगले ही दिन उन्होंने अपने छोटे बेटे एम के स्तालिन को तमिलनाडु का उपमुख्यमंत्री मनोनीत कर कई संकेत एक साथ दे दिए थे । करुणानिधि ने स्तालिन को ना केवल उपमुख्यमंत्री बनाया बल्कि सरकार और पार्टी में भी उनको प्रयत्नपूर्वक स्थापित करने लगे ताकि दो हजार ग्यारह में होनेवाले विधानसभा चुनाव के पहले स्तालिन को राज्य के मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप सकें । इस योजना के तहत सबकुछ ठीक ठाक चल रहा था । लेकिन अचानक करुणानिधि के एक बयान से सारा मामला बदल गया । करुणानिधि ने जोर देकर कहा कि वो जून में होनेवाले विश्व तमिल सम्मेलन के बाद अपने दायित्व से मुक्त होकर लोगों के बीच रहना चाहते हैं ।
इस बयान और स्तालिन के पार्टी और सरकार में बढ़ते रसूख से साफ था कि करुणानिधि तमिलनाडु को लेकर अपने छोटे बेटे पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं । इन साफ संकेतों को समझते हुए अझागिरी ने अपना विरोध तेज कर दिया और पिता पर दवाब भी बढ़ाया । अझागिरी केंद्र में कैबिनेट मंत्री बनकर खुश तो हैं लेकिन वो चाहते हैं कि पार्टी में भी उन्हें अहम ओहदा मिले ताकि वो अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार दक्षिण तमिललाडु से आगे जाकर कर सकें । दक्षिण तमिलनाडु में अझागिरी का दबदबा है और पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने इस बात को साबित भी किया । इस इलाके की सभी दस लोकसभा सीटों पर डीएमके को जीत दिलाकर अपनी धमक भी दिखाई ।
पारिवार के बढ़ते दबाव और घर में मचे कलह को देखते हुए करुणानिधि ने एक शातिर राजनेता की तरह एक बार फिर से बयान बदला । करुणा ने कहा कि हलांकि पीठ में तकलीफ की वजह से वो व्हील चेयर पर हैं लेकिन दिमागी तौर पर पूरी तरह से स्वस्थ हैं और निकट भविष्य में रिटायर होने की उनकी कोई योजना नहीं है और ना ही वो मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली करनेवाले हैं । हलांकि एक बार फिर से करुणानिधि ने ये कहकर कि स्तालिन उनके लिए प्राणवायु हैं ये संकेत दे दिया है कि सूबे की कमान वो अपने छोटे बेटे को ही सौंपनेवाले हैं ।
राज्य में मुख्यमंत्री पद को लेकर जिस तरह से परिवार में घमासान मचा है उससे ये प्रतीत होता है कि तमिलनाडु करुणानिधि की पारिवारिक जागीर है जिसकी विरासत को लेकर दोनों पुत्रों में जंग छिड़ा है । राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद का ये एक विद्रूप चेहरा है जो लोकतंत्र के मुंह पर एक बदनुमा दाग है । मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार प्रत्यक्ष रूप से तो चुने हुए विधायको के पास होता है लेकिन परोक्ष रूप से तो सूबे की जनता ही यह तय करती है कि उनका सीएम कौन होगा ।
उन्नीस सौ सत्तावन में पहली बार विधायक बने और सड़सठ में मंत्री बने करुणानिधि ने संघर्ष के बूते अपनी पहचान बनाई थी । अपने संघर्ष और सांगठनिक क्षमता की बदौलत करुणानिधि ने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री अन्नादुरै के मन पर गहरी छाप छोड़ी थी । अन्ना इनसे बेहद प्रभावित थे और बेइतहां भरोसा भी । समय के साथ उन्होंने अघोषित तौर पर करुणानिधि को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर प्रोजेक्ट भी करने शुरू कर दिया था । नतीजा यह हुआ कि जूनियर होते हुए भी करुणानिधि को उनके मंत्रिमंडल में अहम जगह मिली । जब उन्नीस सौ उनहत्तर में अन्नादुरै की मौत हुई तो करुणानिधि ने सूबे के मुख्यमंत्री का पद संभाला ।
अपने संघर्ष और द्रविड़ राजनीति की बदौलत पार्टी में अपनी जगह बनाने वाले करुणानिधि अब अपनी ही पार्टी के समर्पित और संघर्षशील कार्यकर्ताओं को भुलाकर अपने संतान मोह में डूब से गए लगते हैं । सत्ता सुख और पुत्र मोह में जिस तरह से धृतराष्ट्र को कुछ नहीं दिखाई देता था उसी तरह करुणानिधि को भी तमिलनाडु और देश की राजनीति में बेटे-बेटियों के अलावा कोई और दिखाई नहीं देता । यह एक ऐसे महान राजनेता का पतन है जिसने द्रविड़ आंदोलन में ना केवल जमकर हिस्सा लिया बल्कि उसे अपनी नेतृत्व क्षमता से एक दिशा भी दी । लेकिन सत्ता सुख और पुत्र मोह ऐसी चीज है जो बड़े से बड़े क्रांतिकारी को भी डिगा देती है । डिगे तो करुणानिधि भी थे जब उनपर भ्रष्टाचार के संगीन इल्जाम लगे और सरकारिया कमीशन ने उनको इन तमाम भ्रष्टाचार के लिए दोषी भी पाया था । उन आरोपों में घिरे करुणानिधि की सरकार को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बरखास्त भी किया था । सत्ता नेता को भ्रष्ट और कमजोर बनाती है और शायद यही वजह रही कि गांधी जी और जयप्रकाश नारायण ने पूरे जीवन में कोई सरकारी पद नहीं लिया, किसी सरकार में शामिल नहीं हुए । जिसकी वजह से इनकी विश्वसनीयता बरकरार रह सकी और लोग इनकी एक आवाज पर जान लेने और देने दोनों के लिए तैयार रहते थे ।
अझागिरी तमिल पत्रिका को दिए इंटरव्यू के बाद जब बवाल बढ़ा तो अझागिरी ने तमाम अटकलों को खारिज करते हुए सफाई दी कि वो और स्तालिन एक दुनाली बंदूक की तरह हैं जो एक साथ अपने दुश्मनों पर वार करते हैं । लेकिन तमिलनाडु की राजनीति और करुणानिधि के परिवार को लंबे अरसे से नजदीक से देखनेवालों का मानना है कि दोनों दुनाली बंदूक नहीं बल्कि एक दूसरे की तरफ तनी हुई बंदूक हैं । झगड़ा का तीसरा कोण करुणानिधि की बेटी कनीमोझी का भी है । अपनी तीसरी पत्नी के दबाव में करुणानिधि ने कनीमोझी को राज्यसभा का सदस्य तो बनवा दिया लेकिन कनिमोझी और उसकी मां इतने से संतुष्ट नहीं हैं । कनीमोझी की भी राजनैतिक महात्वाकांक्षा हिलोरे ले रही हैं, वो भी मंत्री पद और पार्टी में अहम ओहदा चाहती है । उनका तर्क है कि राजनीतिक विरासत में औलाद को बराबर हक मिलना चाहिए और हो भी क्यों ना क्योंकि करुणानिधि ने तो पूरी डीएमको अपनी जागीर बना रखी है जहां मलाई तो सिर्फ परिवार में ही बंटती है आम कार्यकर्ता के हिस्से तो आता है आंदोलन और संघर्ष । तमिलनाडु की राजनीति पर अगर हम बारीकी से नजर डालें तो ये बात साफ तौर पर दिखती है कि करुणानिधि के बाद डीएमके में उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर संग्राम तय है, इंतजार बस समय का है । पारिवारिक कलह और पुत्रमोह में फंसे करुणा पर तो बस दया की जा सकती है, क्योंकि पचासी पार इस राजनीतिक पुरोधा के आंखों पर मोह की पट्टी है ।

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