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Monday, April 5, 2010

अनुवाद से जगती उम्मीदें

हिंदी में अनुवाद की हालत बेहद खराब है । जो अनुवाद हो भी रहे हैं वो बहुधा स्तरीय नहीं होते हैं । अनुवाद इस तरह से किए जाते हैं कि मूल लेखन की आत्मा कराह उठती है । हिंदी के लेखकों में अनुवाद को लेकर बहुत उत्साह भी नहीं है । अमूनन अनुवाद में लेखक तभी जुटते हैं जब उनके पास या तो काम कम होता है या नहीं होता है । जैसे ही काम मिलता है अनुवाद को लेकर वो उदासीन हो जाते हैं । इसलिए हिंदी में अनुवाद एक विधा के रूप में विकसित नहीं पाई और अनुवादक को उचित सम्मान नहीं मिल पाया । नतीजा यह हुआ कि अन्य भारतीय भाषाओं से हिंदी में अनुवाद नहीं हो पाया और हिंदी के पाठक का परिचय विश्व की अन्यतम कृति से नहीं हो पाया ।
लेकिन अभी हाल के दिनों में हॉर्पर कालिन्स पब्लिकेशंस और पेंग्विन बुक्स ने भारतीय अंग्रेजी लेखकों के अलावा विश्व के अन्य भाषाओं की कृतियों का अनुवाद हिंदी में प्रकाशित करना शुरू किया है । यह एक स्वागत योग्य कदम है । हॉर्पर कालिन्स से अभी अद्वैत काला के उपन्यास ऑलमोस्ट सिंगल का अनुवाद मनीषा तनेजा ने किया है । लगभग तीन सौ पन्नों का उपन्यास बेहतरीन अनुवाद का एक नमूना है । मनीषा तनेजा दिल्ली विश्वविद्यालय में स्पेनिश पढ़ाती हैं और इसके पहले भी गैबरील गारसिया मारक्वैज का उपन्यास एकाकीपन के सौ साल और पॉउलो नेरुदा के संस्मरण का हिंदी में अनुवाद किया है । अभी-अभी मैंने उनके द्वारा अनूदित अद्वैत काला के उपन्यास का हिंदी अनुवाद लगभग सिंगल पढ़ा । मैंने अद्वैत काला का अंग्रेजी में लिखा मूल उपन्यास भी पढ़ा था । मनीषा के अनुवाद में मूल की आत्मा की रक्षा की गई है जिससे उपन्यास के प्रवाह में बाधा नहीं आती । हिंदी अनुवाद में अंग्रेजी भाषा के शब्दों को लेकर कोई दुराग्रह दिखाई नहीं देता, बल्कि पात्रों के बीच बोलचाल में सहजता से जो अंग्रेजी के शब्द आते हैं उसे हिंदी अनुवाद में बदला नहीं गया है जिस वजह से अनुवाद बेहतर हो पाया है । दारू पीते हुए उपन्यास की बिंदास नायिका और उसकी दोस्त अंग्रेजी के शब्दों का प्रयास करती हैं और अनुवाद में उससे छेड़छाड़ नहीं की गई है ।
कुछ दिनों पहले मैंने वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दो हजार चार के नोबेल पुरस्कार विजेता लेखिका फ्रेडरिक येलनिक के उपन्यास क्लावीयरश्पीलेरिन का हिंदी अनुवाद पियानो टीचर पढ़ा । उक्त उपन्यास का हिंदी अनुवाद विदेशी भाषा साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका सार संसार के मुख्य संपादक और जर्मन भाषा के जानकार अमृत मेहता ने किया था । पहली नजर में हिंदी अनुवाद ठीक-ठाक लगा था । मैंने अपने इस स्तंभ में ही उस उपन्यास पर लिखा भी था । लेकिन बाद में जमशेदपुर से लेखिका विजय शर्मा ने मेरा ध्यान कुछ त्रुटियों की ओर दिलाया तो फिर मैंने उसका अंग्रेजी अनुवाद पढ़ा । उसको पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि अमृत मेहता का अनुवाद बिल्कुल ही स्तरीय नहीं था । ट्रांसलिटरेशन के चक्कर में अमृत मेहता ने कुछ बेहद अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया जो गैरजरूरी था । साथ ही उपन्यास में वर्णित कुछ दृश्यों को भी उन्होंने बदल डाला । अमृत मेहता ने लिखा कि नायिका बाथ टब में अपने हाथ के नस काट लेती है जबकि मूल उपन्यास में येलनिक लिखा है कि नायिका बाथ टब में अपने यौनांग काट लेती है । अनुवाद में शब्दों के चयन की स्वतंत्रता तो अनुवादक ले सकता है लेकिन प्रसंग और घटनाओं को बदलने की छूट वो नहीं ले सकता है । इस तरह के लापरवाह अनुवाद का नतीजा यह होता है कि भविष्य के शोधार्थियों को गलत संदर्भ मिलते हैं और अर्थ का अनर्थ हो जाता है । इस मामले में मनीषा तनेजा ने सावधानी बरती है और उनके द्वारा अनूदिक उपन्यास लगभग सिंगल बेहतर बेहद पठनीय बन पडा है ।
दूसरा अहम उपन्यास हॉर्पर कालिन्स ने प्रकाशित किया वह है - बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखक अरविंद अडिगा का द वाइट टाइगर । प्रकाशक का दावा कि इस उपन्यास की सिर्फ भारत में दो लाख प्रतियां बिक चुकी हैं । किताब के बैक पर कवर पर इस सूचना के प्रकाशन से हिंदी प्रकाशन जगत सकते में पड़ सकता है । हिंदी में उपन्यासों का संसकरण पांच सौ या फिर अब तो तीन सौ का ही होता है । और मेरे जानते हाल के दिनों में हिंदी का कोई उपन्यास दस हजार भी नहीं बिका है । दो लाख प्रतियां बिकने की बात तो हिंदी में सोची भी नहीं जा सकती है । जबकि भारत में हिंदी के पाठकों की संख्या अंग्रेजी पाठकों से कई गुणा ज्यादा है । ये एक बेहद अहम सवाल है, जिसपर हिंदी समाज को विचार करने की जरूरत है ।
अब बात अरविंद अडीगा के उपन्यास द वाइट टाइगर की बात । अरविंद के इस उपन्यास का अनुवाद मनोहर नोतानी ने किया है । मनोहर पेशे से इंजीनियर हैं लेकिन एक लंबे अरसे से अनवाद का काम कर रहे हैं, लेकिन किसी उपन्यास का अनुवाद करने का यह उनका पहला अनुभव है । वाइट टाइगर में मध्य भारत के गांव में जन्मे रिक्शा चालक के बेटे बलराम की कहानी है । लेकिन जब उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है तो वो चाय की दुकान पर सफाई और बरतन धोने का काम करता अपने भविष्य के सपने बुनता है । उसकी तकदीर तब बदलती है जब उसके गांव का एक अमीर जमींदार उसे अपना ड्राइवर बनाकर दिल्ली ले आता है । महानगर की चकाचौंध में बलराम की एक नए तरीके से शिक्षा होती है । इस उपन्यास का अनुवाद थोड़ा शास्त्रीय किस्म का है जो पाठ को बाधित करता है । इस उपन्यास के अनुवाद के क्रम में मनोहर नोतानी ने हिंदी के खांटी शब्दों के इस्तेमाल के साथ-साथ स्थानीय शब्द का भी इस्तेमाल किया है । एक बानगी- उस रात, एक बार फिर आंगन झाड़ने का बहाना करते हुए हम चमरघेंच और उसके बेटों के नजीक जा फटके, वे लोग एक बेंच पर बिराजे बतियाते रहे, हाथ में गिलास और गिलास में चमचम दारू । इस दो वाक्य में तीन शब्दे ऐसे हैं जो बिल्कुल स्थानीय भाषा के हैं - चमरघेंच, नजीक और चमचम दारू । इस तरह के कई शब्दो का इस्तेमाल अनुवादक ने किया है जिससे उनके मेहनत का पता चलता है ।
एक तीसरी किताब जो हाल में प्रकाशित हुई है वो है शिक्षाविद् और सांसद रह चुकी भारती राय की आत्मकथा- ये दिन, वे दिन । ल रूप से बांग्ला में लिखी गई इस आत्मकथा का हिंदी अनुवाद सुशील गुप्ता ने किया । सुशील गुप्ता का नाम हिंदी के पाठकों के लिए जाना पहचाना है । उन्होंने बांग्ला की कई चर्चित लेखकिओं और लेखकों की कृतियों का अनुवाद हिंदी में किया है । भारती राय ने अपनी इस आत्मकथा में पांच पीढियों की कहानी लिखी है । ये कहानी शुरू होती है उनकी परनानी शैलबाला उर्फ सुंदर मां के साथ । कथा के दूसरे पड़ाव पर हैं लेखिका की नानी मां । तीसरे पड़ाव पर लेखिका की मां से पाठकों की मुलाकात होती है और चौथे पड़ाव पर हैं और पांचवें भाग में कई अहम सवाल हैं । इस किताब की प्रस्तावना वरिष्ठ लेखिका और पत्रकार मृणाल पांडे ने लिखी है । इस किताब से एक लंबे काल खंड का इतिहास सामने आता है । का ने पारिवारिक स्थितियों के बहाने बंगाल और देश की राजनीतिक और साहित्यिक परिदृश्य का सुरुचिपूर्ण चित्र खींचा है । हिंदी में आत्मकथा के बहाने जो एक आत्म प्रचार का दौर चल पड़ा है यह किताब उससे पूरी तरह से अलग है । इस वजह से ही मुझे उम्मीद है कि यह किताब हिंदी के पाठकों को पसंद आएगी । अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुदित होकर आ रही ये कृतियां एक उम्मीद जगाती हैं ।

16 comments:

सोनू said...

अनंतजी, कहीं आप अंग्रेज़ी के वर्चस्व के बस में तो नहीं हो गए? आप कहते हैं: "ट्रांसलिटरेशन के चक्कर में अमृत मेहता ने कुछ बेहद अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया जो गैरजरूरी था । साथ ही उपन्यास में वर्णित कुछ दृश्यों को भी उन्होंने बदल डाला ।" अव्वल तो ट्रांसलिटरेशन का अर्थ मेरी जानकारी में तो एक लिपि से दूसरी लिपि में लिखना होता है जिस हिंदी में शायद प्रतिलिपि कहते हैं। तो मैं ट्रांसलिटरेशन से आपका अर्थ सटीक अनुवाद ही समझ रहा हूँ। क्या आपको इस विरोधाभास पर हैरानी नहीं हो रही कि एक तरफ़ तो अमृतजी सटीक अनुवाद के ख़ातिर ग़ैरज़रूरी तौर पर बेहद अश्लील शब्द बरतते हैं और दूसरी तरफ़ एक अश्लील बयान को हल्का कर देते हैं? और आप कहते हैं: "...जबकि मूल उपन्यास में येलनिक लिखा है कि..."। आप निश्चिंत होकर अंग्रेज़ी अनुवाद को मूल उपन्यास बतला देते हैं। सार-संसार (saarsansaar.com) आज की तारीख़ तक हिंदी की बहुद अहम पत्रिका है। साहित्य अकादमी ने तो कोई काम नहीं किया कि विदेशी साहित्य का अनुवाद मूल भाषा से ही हो। अधिकतर इस पत्रिका में जर्मन की रचनाएँ छपीं हैं। जिनमें बहुत बार अश्लील प्रसंग आ जाते हैं। कई लोगों ने इस पर आपत्ति की, और संपादक पर ज़ोर डाला कि ऐसे प्रसंगों में कतरब्योंत करे, लेकिन अमृतजी ने कोई समझौता नहीं किया। उनका यह लेख पढ़ें। जब काफ़ी विरोध के बावजूद, अब तक उन्होंने किसी भी काट-छाँट से नट दिया, तो वे इस उपन्यास में बाक़ी जगह अपना ढंग ऐसा ही बनाए रखते हुए एक प्रसंग पर क्यों बदलने लगे? मेरा शक तो अंग्रेज़ी अनुवादक पर भी है और अमृतजी को ई-मेल से आपके लेख का लिंक भी भेज दिया है।

सोनू said...

दुबारा-- अभी आपका पक्का लेख यहाँ पढ़ा। इसमें आपके वाक्य सही रूप में ये हैं:
"ट्रांसलेशन के चक्कर में अमृत मेहता ने कुछ बेहद अश्लील शब्दों का इस्तेमाल किया, जो ग़ैर ज़रूरी था. साथ ही उपन्यास में वर्णित कुछ दृश्यों को भी उन्होंने बदल डाला."

वाह! अगर अंग्रेज़ी अनुवादक गंदे प्रसंगों में कतर-ब्योंत कर दे तो हिंदी वाले का ऐसा नहीं करना ज़रूरत के ख़िलाफ़ हो जाता है, तिसपर भी कि अमृतजी ने मूल जर्मन से अनुवाद किया है? अनुवाद की समीक्षा करने का यह ढंग तो ग़लत है जिसमें आप हिंदी के तईं दुराग्रह रखते हुए हिंदी तर्जुमे को तो स्तरहीन बताते हैं और अंग्रेज़ी वाले को मूल रचना ही कह देते हैं। अंग्रेज़ी के ताबे से बाहर आइए। गड़बड़ पर मेरा शक तो अंग्रेज़ी अनुवादक पर ही है। अमृतजी जर्मन से हिंदी, पंजाबी से जर्मन अनुवाद और जर्मन में कविता करते हैं। अब तक सार-संसार के ज़रिए वे और उनके साथी विदेशी भाषाओं से अनुवाद करने वाले 58 अनुवादकों को ला चुके हैं, और मूल रचना के गंदे प्रसंगों से ना कतराने की उनकी ज़िद के बारे में भी बता चुका हूँ। मैं तो ऐसे बंदे पर अनुवाद में घटनाओं से छेड़छाड़ का शक नहीं कर सकता। अंग्रेज़ी प्रकाशकों को भला मत समझिए, एक उदाहरण देता हूँ, सिमोन दि बुवा की किताब द सेकंड सेक्स का अंग्रेज़ी अनुवाद जल्दबाज़ी में किया गया, लेकिन उसके अंग्रेज़ी अनुवाद के विश्व अधिकार ख़रीद लिए गए। उस अनुवाद में कई ख़ामियाँ हैं और कई काट-छाँट है। हिंदी के एक युवा कवि और अनुवादक गीत चतुर्वेदी ने यह लेख लिखकर पाठकों से प्रकाशक को दुबारा अनुवाद करने की अपील में हस्ताक्षर देने का आग्रह किया। फ्रेंच से सीधे हिंदी में अनुवाद करवाने की सोचना तक उनके बस में नहीं है। हिंदी लेखिका प्रभा खेतान ने इसका अंग्रेज़ी से अनुवाद किया है तो वो भी बेकार ही मानिए। क्या पता जब येनेलिक को नोबेल पुरस्कार मिला हो तब आनन-फानन में उनकी किताब का भी ऐसा ही कोई अनुवाद करवा दिया गया हो?

डॉ॰ अमृत मेहता said...

अनंतजी, आपका वार अनपेक्षित नहीं है। यदि मेरा कथन आपको अपनी निष्पक्षता पर वार लगे तो मैं क्षमायाचना सहित यही कहूँगा कि मेरा तात्पर्य बिल्कुल यही था। एक बार एक समीक्षा लिख कर फिर कहना कि "पहली नज़र में हिंदी अनुवाद ठीक ठाक लगा था", लेकिन किसी एक व्यक्ति द्वारा पत्र लिख देने पर वह "बिल्कुल स्तरीय नहीं रहा" जैसा वक्तव्य एक आम पाठक के मन में भी आपकी निष्पक्षता के प्रति शंका उत्पन्न करेगा। परन्तु सबसे पहले मैं आपके द्वारा प्रकट की गयी विवेकहीन तथा झूठी आपत्तियों पर आपका शंका-निवारण कर दूं, फिर आपके इरादों पर आऊंगा।

प्रथमतः मैनें ट्रांस्लिटरेशन के चक्कर में किसी अश्लील शब्द का प्रयोग नहीं किया। "ट्रांस्लिटरेशन" का अर्थ "लिप्यन्तरण" होता है, और मैनें केवल व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का ही ट्रांस्लिटरेशन किया है। अश्लील शब्दों का प्रयोग मैनें नहीं किया, एल्फ्रीडे येलीनेक ने किया है, और जहाँ उन्होंने जैसे भी शब्द का प्रयोग किया है, वैसा ही पर्याय मैनें हिंदी में दिया है, और लेखिका से इस बारे में परामर्श भी किया है। आप शायद अनुवाद का एक बुनियादी उसूल नहीं जानते कि अनुवादक को किसी भी शब्द या कथन के रजिस्टर में परिवर्तन करने की इजाज़त नहीं होती। आप यदि पुस्तक को "दूसरी" या "तीसरी नज़र" से पढ़ें तो आप पाएंगे कि अनेकों स्थानों पर अश्लील शब्दों का प्रयोग किया जा सकता था, परन्तु मैनें नहीं किया, क्योंकि लेखिका ने भी नहीं किया था। वैसे आपकी जानकारी के लिए लेखिका का नाम फ्रेडेरिक येल्निक नहीं, बल्कि एल्फ्रीडे येलीनेक है। इनकी भाषा के बारे में भी मैं आपकी जानकारी में कुछ वृद्धि करना चाहूँगा। येलीनेक की जर्मन को जर्मन नहीं समझ पाते, फिर अगर हिंदी वाले इसे दुरूह पाएं तो मैं उन्हें दोष नहीं दूंगा। इसी कारण "पिआनो टीचर" बरसों से अंग्रेज़ी में उपलब्ध होने के बावज़ूद किसी हिंदी वाले ने उसका अनुवाद करने का साहस नहीं किया, २००४ में लेखिका को नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी। अब आप मूल भाषा से किये गए अनुवाद की खाट बिछा कर उसे खड़ी करने में लगे हैं।

अश्लीलता की बात करें तो जिसे आप "यौनांग" कह रहे हैं, उसे येलीनेक ने "यौनांग" नहीं, बल्कि "Öffnung " कहा है, अर्थात "ओपनिंग", पर्याय मैंने तनिक से अश्लील शब्दों "मोरी" या "छेद" से भी नहीं चुना, बल्कि एक शालीन शब्द "रंध्र" का प्रयोग किया है। पुस्तक में इसी को जब आगे "Mundhhöhle" कहा कहा गया है तो मैनें पुनः एक सुसंस्कृत शब्द "मुखगुहा" चुना है। अतः "गैरज़रूरी अश्लीलता" का दोषारोपण करते समय आपने तथ्यों को नज़रंदाज़ कर दिया है। और स्वयं एक गैरज़रूरी अश्लील शब्द "यौनांग" का इस्तेमाल किया है।

यह दृश्यावली पृष्ठ ८७ (मूल पुस्तक में ९१) की है।

संभवतः आपने पुस्तक को पढ़ा ही नहीं है, क्योंकि पृष्ठ ४६ (मूल पुस्तक में पृष्ठ ४७) पर नायिका द्वारा अपने हाथ की नसें काटने का वर्णन है। गौर से देखिये, प्रिय अनंत जी।

और आपने हर तरह की शालीनता को दरकिनार करते हुए, पुस्तक को पढ़े बिना ही, लिख दिया कि मैनें दृश्य ही बदल डाला। मुझ पर अर्थ का अनर्थ करने का इल्ज़ाम लगा डाला। शोधार्थियों के भविष्य कि दुहाई दे डाली। आप खुद ही बताइए कि एक साहित्यिक समीक्षा में अपनी नकारात्मक सोच तो अभिव्यक्ति दे कर देश का भविष्य कौन बिगाड़ रहा है। (जारी)

डॉ॰ अमृत मेहता said...

देश का भविष्य देश की भाषा, देश के स्वाभिमान, के साथ भी जुड़ा होता है: जिस भाषा ने आपको रोज़ी-रोटी दी है, आप उसी की चादर उतारने पर उतारू हैं। मेरी तुलना आप उन लोगों से कर रहे हैं, जो अंग्रेज़ी से अनुवाद कर रहे हैं। मनीषा तनेजा अच्छी अनुवादिका होंगी, परन्तु वह मुख्यतः अंग्रेज़ी की किताबों का तर्जुमा कर रही हैं। स्पेनी की अनुवादिका वह उस दिन से मानी जाएँगी, जब किसी आधुनिक स्पेनी-भाषी लेखक की रचना का हिंदी में अनुवाद करेंगी। मारक्वेज या नेरुदा का अनुवाद करने वालों को विदेशी-भाषी जगत में मूल भाषा से अनुवाद करने वाला नहीं समझा जाता। एक सप्ताह पहले ही मैं लिटरेरी कोल्लोकुइम बर्लिन से लौटा हूँ , और इस बात को दशकों से बखूबी समझता हूँ।

अब असली मुद्दे पर आयें? इसे छाप सकें तो छापें। आप उसी माफ़िया के साथ जुड़ गए हैं, जिसने विदेशी भाषा साहित्य को अंग्रेज़ी की छलनी से भारतीय भाषाओँ में अनुवाद करने को अपना धंधा बना रखा है। गत १५ साल से, जबसे मैनें "सार संसार" का प्रकाशन आरम्भ किया है, ये भाई मेरे पीछे हाथ धो कर पड़े हुए हैं। विशेषकर जब से मैनें विष्णु खरे द्वारा अनूदित ग्युन्टर ग्रास के एक उपन्यास की हिंदी में टांग तोड़े जाने की पोल खोली है - हिंदी में "राजभाषा भारती" में तथा अंग्रेज़ी में "ट्रांसलेटिंग एलियन कल्चर्स" (निबंध संग्रह) में - तबसे मुझ पर हमले और तेज़ हो गए हैं। अभी तक बहुधा पीठ में छुरियां भोंकी जा रही थी, अच्छा हुआ की आप खुल कर सामने आये। सार संसार के गत अंक (अक्तूबर-दिसंबर ०९) में मैनें इस पर एक सम्पादकीय लिखा था, आपकी समीक्षा शायद उसी का परिणाम है।

अंग्रेजी के अनुवाद को मूल उपन्यास मान कर उसके आधार पर हिंदी अनुवाद की आलोचना करना आपकी गुलामी की प्रवृत्ति और मानसिक दिवालियेपन का सबूत है। "पिआनो टीचर" को मैनें अंग्रेज़ी में नहीं देखा, परन्तु येलीनेक के इसके बाद के एक उपन्यास "लस्ट" के अंग्रेज़ी अनुवाद में मैनें १०० से अधिक अर्थगत त्रुटियाँ रेखांकित की हैं, कभी इस पर एक लेख लिखूंगा। क्या आप चाहते हैं कि मैं इन अनुवादों से अनुवाद करके आपकी प्रशंसा का पत्र बनूँ, या मूल के प्रति निष्ठ रहूँ? सुप्रसिद्ध स्विस लेखक फ्रांत्स होलेर द्वारा २००५ में चंडीगढ़ में किये गए एक साहित्य-पाठ के दौरान उनके उपन्यास "Steinflut" के अंग्रेज़ी अनुवाद के चार ही पृष्ठों में एक भारी ग़लती मैनें पकड़ी थी, जहां "तोप" को "पिस्तौल" बना दिया गया था। आपकी यह अंगरेज़ तथा अंग्रेज़ी महिम किसी भी समझदार इंसान की समझ से परे की बात होगी।

अगले वार की प्रतीक्षा रहेगी, कहीं से भी!

सादर अमृत मेहता

अनंत विजय said...

अमृत मेहता जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया कि आपने मेरे लेख को ना केवल पढ़ा बल्कि उसपर अपनी प्रतिक्रिया भी दी । आप विद्वान हैं और मुझे पूरा यकीन है कि आपने प्रेमचंद को पढ़ा होगा । प्रेमचंद ने कहा है कि विचारों में जड़ता मूर्खता का प्रतीक है । मैं आपके तमाम आरोपों का जवाब दूंगा थोड़ा इंतजार करिए । एक बार फिर धन्यवाद

सोनू said...

आपके जवाब में ईमानदारी की उम्मीद करता हूँ। वैसे जड़ता से आपका आशय हिंदी की हिमायत करने से भी है तो मुझे जड़बुद्धि ही जानिए।

सोनू said...

आपके इस लेख के प्रसंग से, और आपको उद्धृत करके, अमृतजी ने एक लेख लिखा है:

अँगरेज़ीदां हिंदीवाले ले ही डूबे हिंदी को

अनंत विजय said...

सोनू जी,
आपकी अमृत मेहता के प्रति अंधभक्ति का मैं कायल हो गया हूं । आपके दिए लिंक पर जाकर मैंने डॉक्टर मेहता का लेख पढ़ा । स्व स्तुति गान में सराबोर मेहता का वो लेख उनके अनुवाद की तरह ही अति साधारण है । वो जर्मन जानने का दंभ भले भरते हों पर उनका हिंदी ज्ञान निहायत घटिया है । उनके द्वारा अनुदित दो किताबों को मैंने फिर से पढ़ा और मेरी यह धारणा पुष्ट हुई । मैं उनके लेख का उत्तर दूंगा, प्रतीक्षा कीजिए । डॉ मेहता को संभव हो तो बता दीजिए कि मेरा विष्णु खरे से कोई परिचय नहीं है

Anonymous said...

सोनू जी,
आपकी अमृत मेहता के प्रति अंधभक्ति का मैं कायल हो गया हूं । आपके दिए लिंक पर जाकर मैंने डॉक्टर मेहता का लेख पढ़ा । स्व स्तुति गान में सराबोर मेहता का वो लेख उनके अनुवाद की तरह ही अति साधारण है । वो जर्मन जानने का दंभ भले भरते हों पर उनका हिंदी ज्ञान निहायत घटिया है । उनके द्वारा अनुदित दो किताबों को मैंने फिर से पढ़ा और मेरी यह धारणा पुष्ट हुई । मैं उनके लेख का उत्तर दूंगा, प्रतीक्षा कीजिए । डॉ मेहता को संभव हो तो बता दीजिए कि मेरा विष्णु खरे से कोई परिचय नहीं है

सोनू said...

भाव की बात कीजिए, व्यक्ति की नहीं।

चलिए, आपने मुझसे कलाम तो किया। वैसे आपने मेरी एक टिप्पणी क्यों दबा दी? उस टिप्पणी को भी प्रकाशित कीजिए। और अब तक आपको अमृतजी का ई-मेल मालूम चल ही गया होगा, तो मझसे कहलवाने का बहाना क्यों कर रहे हैं?

अनंत विजय said...

सोनू जी
मैं किसी की भी कोई टिप्पणी रोकता नहीं हूं । अगर कहीं भूलवश रह गया हो तो आप फिर से कमेंट भेज दीजिए प्रकाशित करना मेरा दायित्व है । हाहाकार पर किसी भी तरह की कोई सेंसरशिप नहीं है । सिर्फ वयक्तिगत गाली गलौच के लिए यहां कोई जगह नहीं है ।

सोनू said...

आपकी 3 मई की टिप्पणी के एकाध दिन बाद कहा था:

मुझे आपके जवाब में ईमानदारी की उम्मीद है।

वैसे जड़ता से आपके आशय हिंदी की हिमायत करने से भी है, तो मुझे जड़बुद्धि ही जानिए।


दुबारा-- अपनी ग़लतबयानियों के बारे में आपकी क्या सोच है? क्या उन बातों पर चुप रह कर अब अमृतजी की हिंदीभाषा की मीन-मेख ढूंढेंगे? तिस पर भी मुझे उम्मीद नहीं है कि कोई पते की बात आपके हाथ लगेगी। आपसे उम्मीदें चुक ही रही हैं। कहाँ तो आप साहित्य की राजनीति को उघाड़ते हैं और कहाँ यह लेख। विष्णु खरे से तो आपकी जान-पहचान नहीं है, भारत भारद्वाज से है क्या?

सोनू said...

अनंतजी, ये क्या है? --
Anxiety for Hindi, but justice denied

यह आपके पुस्तक-वार्ता वाले आलेख का अंग्रेज़ी अनुवाद है। इस पोस्ट की तारीख़ 28 अगस्त की है। आपने इस विवाद के बावजूद, जिसका जवाब देना का आश्वासन आपने अब तक पूरा नहीं किया है, इस आलेख को अनूदित करवा के किस नीयत से वहाँ प्रकाशित करवाया है?

सोनू said...

तो आप उस टिप्पणी को मंज़ूर नहीं करेंगे। देखते हैं।

अनंत विजय said...

सोनू जी, कमेंट के लिए बहुत धन्यवाद । आपने एक बार फिर से अपनी अंधभक्ति साबित कर दी है । बधाई । मैं कई दिनों से मेल चेक नहीं कर पाया था इसलिए कमेंट पोस्ट करने में देर हो गई । तबतक आपका चुनौतीभरा कमेंट भी आ गया । मैंने दोनों को पब्लिश कर दिया है । मैं पहले भी कह चुका हूं कि हाहाकार पर कोई सेंसरशिप नहीं है । जहां तक रही अमृत मेहता जी के आरोपों का जबाव तो मैंने विचार करने के बाद यह तय किया कि अनर्गल आरोपों का जबाव नहीं देना चाहिए । मैं सिर्फ इतना कह सकता हूं कि मैं आज तक विष्णु खरे से मिला नहीं हूं और ना ही उनसे मेरा परिचय है ।

सोनू said...

आपकी यह बात बहुत अच्छी लगी कि आप टिप्पणियों को मॉडरेशन में नहीं दबाते। लेकिन आपके बाक़ी काम इतने ओछे हैं कि मेरा ऐसा शक करना वाजिब ही है।