हाल के दिनों में भारतीय राजनीति में कई ऐसी घटनाएं घटी जिसे अगर हम सिलसिलेवार ढंग से देखें तो केंद्र में शासन कर रही कांग्रेस पार्टी का एक गेमप्लान सामने आता है । यह गेम प्लान अगले दो तीन सालों में सूबों में होनेवाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर तैयार किया गया प्रतीत होता है। दरअसल इन कड़ियों को जोड़ने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा । कुछ महीनों पहले पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ के संजरपुर पहुंचकर बाटला हाउस एनकाउंटर पर सवाल खड़े देते हैं । इशारों-इशारों में दिग्विजय सिंह ने बटला हाउस एनकांउटर के फर्जी होने की बात कर डाली । बटला हाउस एनकाउंटर में मारे गए आतंकवादियों के फोटोग्राफ्स की बिनाह पर उन्होंने दावा किया कि एनकाउंटर में उस तरह से सर में गोली लगना नामुमकिन है। सवाल यह भी उठा कि बटला हाउस एनकांटर पर सवाल खड़े करने के लिए दिग्विजय सिंह ने संजरपुर को क्यों चुना । इस बयान के कुछ ही दिनों बाद ही पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों के फोटोग्राफ्स और उनकी पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट लीक की गई जिसको आधार बनाकर बटला हाउस एनकाउंटर पर मीडिया में सवाल खड़े किए गए और एनकाउंटर को शक के दायरे में ला दिया गया । वोट की ओछी राजनीति के लिए दिल्ली पुलिस के जाबांज इंसपेक्टर मोहनचंद शर्मा की शहादत को भुला दिया गया । गौरतलब है कि मोहन चंद्र शर्मा को कांग्रेस पार्टी ने ही मरणोपरांत देश का सर्वोच्च सम्मान दिया था । एक बार फिर से बटला हाउस का जिन्न बोतल से बाहर आ गया और साथ ही आजमगढ़ भी सुर्खियों में आ गया । जाहिर सी बात है इस पूरे घटना क्रम को अगर हम चंद महीनों पहले दिग्विजय सिंह के संजरपुर में दिए गए बयान से जोड़कर देखें तो तस्वीर कुछ साफ होती नजर आती है । अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए फेंका गया यह पहला चारा था ।
इसमें सफलता पाने के बाद कांग्रेस ने अपना निशाना बनाया गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को । गुजरात दंगों के बाद मोदी को भारतीय मुसलमानों के बीच खलनायक की तरह पेश किया गया और उनकी छवि घोर सांप्रदायिक बना दी गई । सचाई चाहे जो हो वो तो अदालत से तय होगा लेकिन आज की तारीख में देश का मुसलमान मोदी के बारे में बेहद खराब राय रखता है । तो कांग्रेस ने फिर से देश के अल्पसंख्यकों के बीच मोदी के बहाने एक संदेश देने की कोशिश की, संदेश यह कि जो भी मोदी के साथ है वो हमारा दुश्मन है । आपको याद होगा कि मुंबई में एक समारोह में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण एक मंच पर साथ दिखे थे जिसके बाद पार्टी में अशोक चव्हाण के खिलाफ मोर्चा खुल गया था । उनको उस अमिताभ के साथ बैठने के लिए आलोचना का शिकार होना पड़ा जो गुजरात पर्यटन के ब्रांड अंबेस्डर हैं और नरेन्द्र मोदी के साथ भी मंच शेयर करते हैं । लेकिन इस आलोचना के पीछे की असली वजह वो नहीं है जो सतह के उपर दिखाई देती है बल्कि वजह वह है जो सतह के नीचे है । कांग्रेस पार्टी अशोक चव्हाण और अमिताभ बच्चन के बहाने देश के अल्पसंख्यकों को यह संदेश देना चाहती थी कि जो भी मोदी के साथ है वो हमें बर्दाश्त नहीं है और पार्टी यहां भी सफल रही क्योंकि अमिताभ का नाम आने से मीडिया में उक्त घटना को लगातार कई दिनों तक प्रमुखता से कवरेज मिलता रहा ।
तीसरी घटना जो हुई वो जुड़ी तो हुई है आईपीएल और ललित मोदी से लेकिन उसके पीछे भी नरेन्द्र मोदी का ही नाम है । आईपीएल में जब तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर और आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी के बीच जुबानी जंग जारी था तो उस विवाद में अचानक से कोच्चि टीम में हिस्सेदारी को लेकर गुजरात के उद्योगपतियों के साथ नरेन्द्र मोदी का नाम भी उछला । जैसे ही नरेन्द्र मोदी, वसुंधरा राजे और ललित मोदी के तार जुड़ते नजर आए अचानक से वित्त मंत्रालय के अधीन काम करनेवाला आयकर विभाग सक्रिय हो गया और देशभर में ताबड़तोड़ छापे डाले जाने लगे । ललित मोदी को भी बीजेपी कनेक्शन मंहगा पड़ा । यहां भी कांग्रेस देश के अल्पसंख्यकों को यह संदेश देने में सफल हो गई कि जो भी नरेन्द्र मोदी के साथ वह हमें बर्दाश्त नहीं ।
कांग्रेस की तरफ से देश के अल्पसंख्यकों को लगातार यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि सिर्फ वही इकलौती पार्टी है जो उनके हितों का ख्याल रख सकती है । इसका एक और उदाहरण अभी सामने आया है- पार्टी में अल्पसंख्यकों के नए-नए बने पैरोकार दिग्विजय सिंह ने अब मालेगांव, गोवा, जयपुर और हैदराबाद धमाकों की सुनवाई के लिए विशेष अदालत गठित करने का राग छेड़ा हुआ है । यह इसलिए कि इन जगहों पर धमाका कराने का शक कुछ हिंदूवादी संगठनों पर है और उन संगठनों से जुड़े लोग या तो जेल में हैं या फिर पुलिस हिरासत में । उनके ट्रायल के लिए दिग्विजय सिंह को भारतीय न्यायिक वयवस्था की रफ्तार पर भरोसा नहीं हो रहा है और वह इसके लिए तेज गति से सुनवाई चाहते हैं । दिग्विजय सिंह या उनकी पार्टी ने कभी भी देश भर में हुए आतकंवादी हमलों के लिए अलग से अदालत की मांग की हो ऐसा सुनने में नहीं आया । यहां भी अल्पसंख्यकों को संदेश देने की कोशिश ना कि आतंकवादी गतिविधियों पर काबू पाने की ईमानदार कोशिश ।
अब अगर हम उपर के सभी वाकयों को जोड़ते हैं तो एक मुकम्मल तस्वीर सामने आती है । यह तस्वीर बनती है कांग्रेस पार्टी द्वारा देश के अल्पसंख्यक समुदाय को अपने पाले में लाने की कोशिश और इस कोशिश का लक्ष्य है बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव । इस साल बिहार में, अगले साल पश्चिम बंगाल में और उसके अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं । कांग्रेस इस प्रयास में है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जिस तरह से अल्पसंख्यक समुदाय उनसे बिदक गया था उसे लुभाकर, रिझाकर अपने पाले में लाया जाए । दो हजार एक की जनगणना के आधार पर अगर हम देखें तो ये तीन ऐसे राज्य हैं जहां मुसलमानों की संख्या की संख्या काफी ज्यादा है । दो हजार एक के जनगणना के मुताबिक देश की कुल मुस्लिम आबादी का बाइस फीसदी उत्तर प्रदेश में है । बिहार में तकरीबन दस फीसदी और पश्चिम बंगाल में ---फीसदी मुस्लिम आबादी है । उत्तर प्रदेश की अस्सी लोकसभा सीटों में से 17 के भाग्य का फैसला मुस्लिम वोटर करते हैं जहां कि उनकी आबादी तकरीबन बीस फीसदी है । इसे इस तरह भी देख सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में बीस ऐसे जिले हैं जहां की मुस्लिम आबादी बीस फीसदी से ज्यादा है । आजमगढ़, बहराइच, गोंडा, श्रावस्ती, वाराणसी और डुमरियागंज के अलावा पश्चिम उत्तर प्रदेश के अमरोहा, मुजफ्फरनगर, मोरादाबाद में तो उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला मुस्लिम वोटों के आधार पर ही होता है ।
बिहार में भी सात जिलों में यही हालत है, किशनगंज, कटिहार अररिया और पूर्णिया में तो पैंतीस फीसदी से ज्यादा आबादी है जो दर्जनों विधानसभा क्षेत्र के नतीजों को प्रभावित करते हैं । यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुसलमान एकमुस्त वोट करते हैं । पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मुसलमानों ने कांग्रेस के पक्ष में वोट डालकर उसको बीस सीटों का आंकड़ा हासिल करने में मदद की । पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में भी मुसलमानों की निर्णायक संख्या है । क्लासलेस और कास्टलेस सोसायटी का दावा करनेवाली पश्चिम बंगाल प्रगतिशील सरकार ने भी इन्हीं वोटों को ध्यान में ऱखकर बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को सूबे से बाहर निकाल दिया । अब सरकार को यह डर सता रहा है कि मुस्लिम वोट बैंक ममता बनर्जी की ओर जा रहा है तो उसे फिर से अपने पाले में लाने के लिए तमाम हथकंडे अपना रही है । उधर कांग्रेस भी उन्हें अपनी तरफ खींचने की जुगत में लगी है ।
सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद से दशकों तक मुस्लिम वोट कांग्रेस को जाता रहा लेकिन उनके उत्थान के लिए कितना और क्या किया गया । मुस्लिम समुदाय में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए कितनी कोशिश की गई । मुस्लिम इलाकों में कितने सरकारी स्कूल खोले गए । अगर ये सारे आंकड़े सामने आ जाएं तो कांग्रेस की पोल खुल जाएगी । इस देश में उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति तो मुसलमान बन सकता है लेकिन उनका सरकारी दफ्तर में चपरासी बनना मुश्किल है । यह एक कड़वी सचाई है जिसके लिए सिर्फ और सिर्फ इस देश में आजादी के बाद पांच दशक तक राज करनेवाली पार्टी जिम्मेदार है । मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करनेवाली कांग्रेस पर क्या इस समुदाय के समुचित विकास की जिम्मेदारी नहीं है । अब वक्त आ गया है कि देश की अल्पसंख्यक जनता को ऐसी पार्टियों की राजनीति और हमदर्दी के झूठे दिखावे को समझना चाहिए और मौका मिलने पर उनको सबक भी सिखाना चाहिए ।
1 comment:
सभी राजनैतिक दल मुसलमानों का इस्तेमाल सत्ता की सीढ़ी के रूप में करते आये हैं, आजादी के बाद से आज तक सभी राजनैतिक दल के मुसलमानों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है।
भारत के लोगों ने प्रतिभा और परिश्रम को कभी भी धर्म के चश्मे से नहीं देखा पर जैसे ही मुसलमानों क़ी बात आती है हर कोई उन को वोट बैंक क़ी नज़र से देखने लगता है...
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