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Wednesday, June 30, 2010

बिखरा ‘तहलका’ का पठन पाठन

तरुण तेजपाल देश के ख्यातिप्राप्त पत्रकार हैं । तहलका के बैनर से स्टिंग ऑपरेशन कर काफी शोहरत कमा चुके हैं । अब दिल्ली से हिंदी और अंग्रेजी में तहलका पत्रिका निकालते हैं । अंग्रेजी तहलका ने तो कई वर्षों में अपनी एक अलग पहचान बनाई लेकिन हिंदी तहलका पत्रिकाओं की भीड़ के बीच अपना स्थान और पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही है । कुछ अलग करने की चाहत में तहलका ने हिंदी साहित्य का रुख किया और जून में पठन पाठन के नाम पर साहित्य विशेषांक निकाला । आमतौर पर जैसा इस तरह की पत्रिकाओं के साथ होता है तहलका का साहित्य विशेषांक भी उसका शिकार हो गया है । साहित्य विशेषांक के नाम पर निकली इस पत्रिका का कोई साहित्यिक स्वरूप ही नहीं बन पाया है । सबकुछ समेट लेने की चाहत और नामचीन लोगों को बेवजह स्थान देने से में पत्रिका का पूरा स्वरूप बिखर गया । अपने संपादकीय में पत्रिका के वरिष्ठ संपादक संजय दुबे ने लिखा है- समाचार पत्रिका के साहित्य विशेषांक के अपने कुछ फायदे भी हैं । इस अंक में ना केवल दस्तावेज और अन्यान्य जैसी बहुपयोगी श्रेणियां मौजूद हैं बल्कि इसे लोकतांत्रिक और सर्वसमावेशी बनाने की ओर भी विशेष ध्यान रखा गया है । इसमें अनुभवी दिग्गजों को समुचित सम्मान देते हुए साहित्यिक संभावनाओं के नए संकेतों का भी उतनी ही गर्मजोशी से स्वागत किया है । वरिष्ठ संपादक का यह दावा है तो ठीक लेकिन इस अंक में कविता और कवियों को लेकर एक उपेक्षाभाव साफ तौर पर दिखता है । एक तरफ जहां कहानीकारों और लेखकों को प्रमुखता के साथ छापा गया है वहीं कवियों और कविताओं को रनिंग मैटर की तरह एक के बाद एक छाप कर रस्म अदायगी की गई है । ना तो किसी का कोई परिचय दिया गया है और ना ही किसी के फोटो छापे गए हैं । या तो पत्रिका के कर्ता-धर्ता यह समझते हैं कि उन्होंने जितने कवियों को छापा है वो इतने प्रसिद्ध हैं और वो किसी परिचय के मोहताज नहीं है । नाम ही काफी है की अगर सोच है तो नाम तो सही छपना चाहिए था । वरिष्ठ कवि विमल कुमार बेचारे विपल कुमार हो गए, शुक्र है विफल कुमार नहीं हुए । कई अच्छी कविताएं छपी हैं लेकिन खराब डिस्पले की वजह से वो उबर नहीं पाई । चर्चित कवि संजय कुंदन की छोटी कविता- ठीक है- आज की नई पीढ़ी की मानसिकता और उसकी सोच को प्रतिबिंबित करती है । गीत चतुर्वेदी की लंबी कविता - जाना सुनो मेरा जाना – भी इस अंक की उपलब्धि है । गीत की कविता में एक गहराई होती है जिसे पढ़कर महसूस किया जा सकता है ।
आज हिंदी साहित्य में नई पीढ़ी के कहानीकारों की रवीन्द्र कालिया ने एक फौज खड़ी कर दी है । जैसा कि आमतौर पर होता है कि अगर आप फौज बनाते हैं तो उसमें कई जांबाज के साथ साथ कुछ सुस्त भी भर्ती हो जाते हैं, कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो जंग से बचकर शॉर्चकट से निकल भागने के चक्कर में लगे रहते हैं । हिंदी कहानी की इस नई पीढ़ी में भी तीनों तरह के लोग हैं । कई नए कहानीकार बेहतरीन लिख रहे हैं और उन्होंने हिंदी को एक नई भाषा दी है । क्या कहानी लेखन में नयी पीढ़ी को लेकर मच रहा शोर रचनात्मकता है इसको केंद्र में रखकर इस अंक में- समकालीन कहानी कितना जोर कितना शोर- एक लेख छपा है । इसके लेखक दिनेश कुमार ने वरिष्ठ कहानीकारों की राय के आधार पर लेख लिखा है । काशीनाथ सिंह कहते हैं कि – ये युवा लेखक विज्ञापन की ऐसी विधियां जान गए हैं, जिनसे पुराने लेखक अपरिचित थे । वे लोग लेखन पर कम ध्यान देकर विज्ञापन की आधुनिक सुविधाओं का लाभ अधिक उठा रहे हैं । काशीनाथ जी की इस बात में दम है लेकिन ये पूरी पीढ़ी पर लागू नहीं होता । दिल्ली में कई ऐसे लेखक हैं जो संपादकों के दरबार में हाजिरी लगाकर साहित्य में अपने आपको स्थापित करने में लगे हैं । उनमें से कई कहानीकारों की कहानियां इस अंक में छपी भी हैं । ज्ञानरंजन भी नई पीढ़ी को बाजार की मांग के अनुरूप लिखनेवाला करार दे रहे हैं । युवा कहानी में एक नई भाषा और कंटेंट सामने आ रहा है जिसे ये लोग बाजार की देन मांगते हैं । मेरा इन वरिष्ठ लेखकों से यही सवाल है कि हिंदी साहित्या का बाजार कितना बड़ा है । कितने लेखकों को हिंदी साहित्य के बजार से फायदा पहुंच रहा है । आज तो हिंदी में यह हालत है कि वरिष्ठ से वरिष्ठ लेखकों की कृतियां एक हजार से ज्यादा नहीं बिक पाती हैं । उधर अंग्रेजी में अद्वैत काला जैसी नई और युवा लेखिका का उपन्यास पचास हजार प्रतियों से ज्यादा बिकता है । किस भ्रम और किस मानसिकता में जी रहे हैं हमारे बुजुर्ग साहित्यकार । इस अंक में वंदना राग की कहानी देवा- देवा अच्छी है । दूसरी तरफ उमाशंकर चौधरी की कहानी बेवजह खिंची हुई लगती है, नतीजा यह हुआ कि ना केवल कहानी बिखर गई बल्कि उबाऊ भी हो गई ।
संजय दुबे ने अपने लेख में अपने सहयोगी गैरव सोलंकी को विलक्षण लेखन प्रतिभा बताया गया है लेकिन इस अंक में छपी कहानी और कविता में विलक्षणता दिखाई तो नहीं देती ।
अपने संपादकीयमुमा लेख में संजय दुबे ने एक और दावा किया है – शायद हिंदी के किसी भी साहित्य विशेषांक के लिए यह पहला प्रयास होगा कि इस अंक में हमने विभिन्न प्रकाशकों, साहित्यकारों और समालोचकों आदि से अनुरोध करके,उनसे बात करके तमाम तरह की सर्वेक्षणनुमा जानकारियां भी संकलित की हैं । संजय दुबे ने शायद शब्द लिखकर अपने बचने का रास्ता छोड़ दिया है । उन्हें याद दिलाना चाहूंगा कि हिंदी में इस तरह के आयोजन कई बार हो चुके हैं चाहे वो अवध नारायण मुदगल के संपादन में निकला छाया मयूर का अंक हो. या फिर धीरेन्द्र अस्थाना के संपादन में निकला जागरण उदय का अंक हो । कई बार इस तरह के सर्वेक्षण प्रकाशित हो चुके हैं और इसमें नया कुछ नहीं है । तहलका में नया है तो सिर्फ उनमें छपी अशुद्धियां – बेस्य सेलर में कथा सतीसर को गांताजलिश्री का उपन्यास बता दिया गया है जबकि ये चंद्रकांता की कृति है । अन्यान्य पर भी संपादक को गर्व है लेकिन इसमें विभूति नारायण राय ने कहा है कि गोविंद शुक्ल को मिले साहित्य अकादमी पुरस्कार । गोविंद मिश्र को गोविंद शुक्ल लिखकर लेखक का अपमान किया गया है । उदय प्रकाश का बड़बोलापन भी यहां है, वो कहते हैं कि 99.9 फीसदी लेखन ऐसा ही है । हिंदी जगत में सबसे चमकदार चेहरे सबसे अयोग्य हैं । मुझे लगता है कि उदय ने जो दशमलव एक फीसदी छोड़ा है वो अपने लिए छोड़ा है क्योंकि हिंदी में वही सबसे उत्तम लिख रहे हैं । इसके अलावा भारत भारद्वाज के लेख में भी प्रतीक का प्रकाशन 1943 बताया गया है जबकि उसका प्रकाशन 1945 में शुरू हुआ था ।
संपादकीयनुमा लेख में निस्वार्थ सहयोग के लिए उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल का आबार प्रकट किया गया है । हमें यह नहीं मालूम कि मोरवाल की भूमिका इस अंक में कितनी दूर तक थी लेकिन अंक की परिकल्पना चाहे जो भी हो अंक बेहद औसत निकला है । इसने ना तो हिंदी साहित्य की किसी विधा में कोई हलचल पैदा की है और ना ही इस अंक का कोई स्थायी महत्व है । तहलका के सामने इंडिया टुडे के साहित्य विशेषांक का उदाहरण तो था ही उसे पार करने की एक चुनौती भी थी लेकिन चुनौती स्वीकार करना तो दूर की बात यह अंक इंडिया टुडे के साहित्य विशेषांक के आस-पास भी नहीं पहुंच पाया है । मुझे यह भी नहीं मालूम कि तरुण तेजपाल की इस अंक में कितनी भूमिका है लेकिन इतना तो तय है कि संपादक के रूप में उसका नाम छपने की वजह से उनकी ही दृष्टि पर सवाल खडे़ होंगे ।

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