अभी कुछ अरसा पहले डाक से एक बेहद दिलचस्प पत्र प्राप्त हुआ । मध्य प्रदेश से लिखा गया यह खत एक परिपत्र की शक्ल में था, जो एक साथ तकरीबन कई लेखकों-पत्रकारों को भेजा गया प्रतीत होता है । दिलचस्प इसलिए था कि उसमें इस बात का प्रस्ताव दिया गया था कि अगर आप अमुक पुरस्कार पाना चाहते हैं तो सौ रुपये के डिमांड ड्राफ्ट और अपनी किताब की दो प्रतियों के साथ प्रविष्टि भेजें । इस मनोरंजक पत्र को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि किसी ने मजाक किया है लेकिन चंद दिनों पहले जब मैंने अमुक पुरस्कार के ऐलान की खबर की पढ़ी तो मुझे लगा कि वह खत तो गंभीरता पूर्वक लिखा गया था । जिन लेखक महोदय को उक्त पुरस्कार देने का ऐलान किया गया है उन्होंने अवश्य ही सौ रुपये के डिमांड ड्राफ्ट के साथ पुरस्कार के लिए आवेदन किया होगा । तो हिंदी के लेखकों में पुरस्कार लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि वो पुरस्कार पाने के लिए आवेदन करने लगे हैं । अब तक तो पुरस्कार के लिए घेरेबंदी की खबरें ही सामने आती रही थी लेकिन आवेदन कर पुरस्कार मेरे लिए चैंकानेवाली खबर थी ।
दरअसल हाल के दिनों में हिंदी में दिए जाने वाले पुरस्कारों की विश्वसनीयता और साख बेहद कम हुई है । कुछ अरसा पहले साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित पुरस्कार थे । ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा और साख तो अब भी कायम है लेकिन साहित्य अकादमी पुरस्कारों की साख पर पिछले कई वर्षों में अनेकों बार बट्टा लगा है । इसके लिए हिंदी के वो प्रगतिशील शिखर लेखक-आलोचक कम जिम्मेदार नहीं हैं जो कई वर्षों तक साहित्य अकादमी के कर्ता-धर्ता रहे । बाद में जब साहित्य अकादमी में सत्ता परिवर्तन हुआ तो हिंदी के संयोजक ने समर्थन देने के एवज में सौदेबाजी कर अपने चहेते लेखक को पुरस्कार दिलवाया । उनके बाद जो आलोचक महोदय हिंदी के संयोजक बने उन्होंने भी उस परंपरा को कायम रखा । साहित्य अकादमी के इस सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार का खेल उसके ऐलान होने के काफी पहले ही शुरु हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी, जिस वर्ष पुरस्कार दिए जाने हैं उसके पहले के एक वर्ष को छोड़कर, तीन वर्षों की अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है । यानि इस वर्ष दिए जानेवाले पुरस्कार के लिए दो हजार नौ से दो हजार सात के बीच प्रकाशित कृतियों पर विचार किया जाएगा । इस अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची को हिंदी के एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों को भेजी जाती है और उनसे सूची में से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध किया जाता है । लेकिन यहां सिर्फ तीन कृतियों की सिफारिश की कोई पाबंदी नहीं है, बोर्ड सदस्य अगर चाहें तो तीन से ज्यादा कृतियों की भी सिफारिश कर सकते हैं । जब सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है तो उसके बाद हर विधा के लिए अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय के आधार पर हर विधा की तीन तीन किताबों का चयन किया जाता है । इन्हीं तीन किताबों में से जूरी एक कृति को चुनती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है ।
लेकिन यह प्रक्रिया उपर से देखने में जितनी दोष-रहित लगती है व्यवहार में उतनी ही दोषपूर्ण है । किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में तिकड़मों का बड़ा खेल खेला जाता है ।अपनी किताब को आधार सूची में डलवाने से लेकर ही यह खेल शुरु हो जाता है जिसके लिए तमाम तरह के दंद-फंद किए जाते हैं । जब एक बार आधार सूची में नाम आ जाता है तो उसके बाद अपनी लेखनी से क्रांति का दावा करनेवाले ये तथाकथित प्रतिशील लेखक एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपना नाम भिजवाने की जुगत में लग जाते हैं । येन केन प्रकारेण बोर्ड के सदस्य से अपना नाम प्रस्तावित करवाने के लिए सम्मानित लेककगण एड़ी चोटी का जोड़ लगा देते हैं । फिर घेरेबंदी शुरु होती है जूरी के सदस्यों के चयन की । जूरी में तीन सदस्य होते हैं जिनका चुनाव साहित्य अकादमी का अध्यक्ष करता है । इसलिए पुरस्कार के लिए लालायित तमाम तिकड़मी लेखक अध्यक्ष के पास अपनी गोटी फिट करने में लग जाते हैं, उनकी गणेय़ परिक्रमा शुरू हो जाती है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत भर करते हैं । हलांकि उर्दू के एक आलोचक के अकादमी अध्यक्ष बनने के पहले जब हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तब ये स्थिति नहीं थी । तब उनकी मर्जी चला करती थी । नियमों को दरकिनार करते हुए वो जिसे चाहते उसे पुरस्कार दिला देते थे । लेकिन अकादमी के चुनाव में जब उस गुट का सफाया हो गया उसके बाद से स्थिति पूरी तरह बदल गई । पहले भाषा के संयोजक की मर्जी चला करती थी अब अध्यक्ष की चलने लगी । भाषा संयोजक अकादमी के संविधान के तहत बैठक की सिर्फ प्रोसिंडिंग शुरु करते हैं । लेकिन एक बार फिर से अध्यक्ष बदले तो स्थितियां बदल गई । अब हिंदी के लिए पूर्व अध्यक्ष और भाषा संयोजक की राय हावी होने लगी ।
पुरस्कार के निर्णय के लिए जब अंतिम बैठक होती है तो जूरी के सदस्य अलग अलग कृतियों पर विचार करते हैं और फिर या तो सर्वसम्मति से या बहुमत के आधार पर फैसला लेते हैं । ऐसा कम ही देखने में आया है कि सर्वसम्मति से किसी कृति को पुरस्कृत किया गया हो । ज्यादातर फैसले बहुमत यानि दो –एक से होते है । इससे एक तो ये लगता है कि जूरी में कृति की गुणवत्ता को लेकर जोरदार बहस हुई और लोकतांत्रिक तरीके से फैसला हुआ । लेकिन होता ये सिर्फ दिखावा है । जब जूरी के तीन सदस्यों का चुनाव किया जाता है तभी ये तय कर लिया जाता है कि दो सदस्य अध्यक्ष की मनमाफिक काम करनेवाले हों और तीसरा घोर विरोधी । इससे होता ये है कि कमिटी के गठन पर कोई विवाद नहीं हो पाता है और सारा काम पूर्व निर्धारित रणनीति के हिसाब से हो जाता है । जूरी के फैसले के बाद उसे एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं ।
राज्यों की हिंदी अकादमियों में तो पुरस्कारों की स्थिति और भी खराब है। सारा कुछ सेटिंग-गेटिंग के सिद्धांत पर चलता है । अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली की हिंदी अकादमी के पुरस्कारों को लेकर अच्छा खासा विवाद भी हुआ था । दिल्ली की हिंदी अकादमी हिंदी के लेखकों को हर साल पुरस्कृत करती है । इसके लिए वो अखबारों में विज्ञापन देकर शहर के नामचीन लोगों और लेखकों की राय आमंत्रित करती है । उसके बाद कार्यकारिणी की बैठक में पुरस्कार का फैसला होता है । इन पुरस्कारों में कार्यकारिणी के सदस्य जिसे चाहते हैं उसको पुरस्कृत कर देते हैं । कई बार तो कार्यकारिणी के सदस्यों ने खुद को पुरस्कृत कर लिया, भले ही उसके पहले उनको कार्यकारिणी से इस्तीफा देना पड़ा । हलांकि अकादमी के सबसे बड़े पुरस्कार श्लाका सम्मान को लेकर बड़ा विवाद कभी नहीं हुआ लेकिन साहित्यकार सम्मान और अन्य पुरस्कारों के चयन पर कई बार उंगलियां उठी । दिल्ली की हिंदी अकादमी के अलावा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद और बिहार का राजभाषा विभाग भी थोक में हिंदी के लेखकों को पुरस्कृत करती है । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के पुरस्कारों को नियमविरुद्ध प्रसातावित करने के लिए पिछले वर्ष रद्द करना पड़ा । चयन समिति के सदस्य हिंदी के वरिष्ठ आलोचक ने अपने कहानीकार अनुज का नाम प्रस्तावित कर दिया लेकिन वहां नियम है कि चयनकर्ता को यह लिखकर देना होता है कि पुरस्कृत लेखकों में कोई उनका संबंधी नहीं है । इसी नियम ने भाइयों का खेल बिगाड़ दिया और छोटे भाई पुरस्कार से वंचित रह गए ।
ये चंद उदाहरण हैं हिंदी साहित्य के, जो ये दर्शाते हैं कि हिंदी में पुरस्कारों के लेकर लेखक कितने बेचैन हैं और उन्हें हथियाने के लिए तमाम तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करने से भी उन्हें गुरेज नहीं । पहले मीडिया का इतना फैलाव नहीं था और उस तरह के षडयंत्र सामने नहीं आ पाते थे लेकिन मीडिया के विस्तार के बाद इस तरह की तमाम खबरें सामने आने लगी । इन खबरों के प्रकाशन के बाद हिंदी के पाठकों के मन में अपने आदर्शवादी लेखकों को लेकर एक खास तरह की दुविधा पैदा होने लगी । लिखते कुछ और आचरण कुछ की दुविधा ने पाठकों के मानस पर हिंदी लेखकों की छवि पर प्रहार कर उसे खंडित किया । जब साख पर बट्टा लगता है और विश्वसनीयता संदिग्ध होती है तो स्थिति बेहद चिंतनीय हो जाती है । हिंदी के वरिष्ठ लेखकों को यह समझना होगा कि कुछ लेखकों की वजह से हिंदी लेखक समाज की साख पर बट्टा लग रहा है । अगर इसे समय रहते ठीक नहीं किया गया तो एक समय ऐसा भी आ सकता है जब हिंदी के पाठक अपने ही लेखकों को रिजेक्ट करना शुरू कर दें । वह स्थिति पूरे हिंदी लेखक समाज के लिए बेहद खराब होगी । पुरस्कारों के पीछे भागने की लेखकों की जो ललक है वो सिर्फ इस वजह से है कि उन्हें जल्दी प्रसिद्धि मिले और वो मशहूर हो जाएं वो यह भूल जाते हैं कि यह प्रसिद्धि तात्कालिक होती है । तभी तो अज्ञेय जी ने कहा था कि अगर किसी लेखक को माराना हो तो उसे पुरस्कृत कर दो । अज्ञेय जी की यह बात बाद में साबित भी हुई ।
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1 comment:
हर जगह पुरस्कारों के साथ यही होता है, भारत में..
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