अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है जब स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की किताब द रेड साड़ी को लेकर कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने अच्छा खासा बवाल मचाया था । दरअसल स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की ये किताब कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित है । लेखक मोरो का दावा है कि यह पूरी किताब सोनिया के बचपन से लेकर उनकी राजीव गांधी से मुलाकात और शादी से लेकर सास इंदिरा गांधी के साथ बिताए दिनों के अलावा राजीव गांधी की हत्या का बाद सोनिया की मानसिकता का चित्रण करती है । दरअसल मोरो की इस किताब से इस बात के संकेत मिलते हैं कि सोनिया गांधी अपने पति की हत्या के बाद भारत छोड़कर इटली जाना चाहती थी । मोरो की किताब में पृष्ठ संख्या सोलह पर इस बात का उल्लेख है कि सोनिया ने सोचा कि उस देश में क्यों रहना जो अपने ही बच्चों को खा जाता है । इसके अलावा पृष्ठ संख्या एक सौ छिहत्तर पर भी इस बात के संकेत हैं कि गांधी परिवार में राजीव की मौत के बाद इटली जाने पर चर्चा होती थी । इस किताब में कई ऐसे प्रसंग है जहां ये लगता है कि लेखक ने सोनिया की जिंदगी के यथार्थवादी पहलुओं में अपनी कल्पना का तड़का लगाया है । जैसे पृष्ठ संख्या एक सौ तिरसठ पर कहा गया है कि रात के तीन बजे सोनिया ने राजीव को कहा कि देश में इमरजेंसी लगाने के ड्राफ्ट में उन्होंने इंदिरा गांधी की मदद की थी ।
ये कुछ ऐसी बातें हैं जिससे साबित होता है कि जेवियर मोरो ने सोनिया की इस जीवनी में कल्पना के आधार पर कई प्रसंग जोड़े हैं । खुद लेखक ने भी माना है कि यह सोनिया की फिक्सनलाइज्ड बायोग्राफी है । लेकिन यहां सवाल यह खड़ा होता है कि किसी जीवित व्यक्ति की काल्पनिक जीवनी लिखने का अधिकार किसी को भी कैसे मिल सकता है । जबतक इस आत्मकथा पर विवाद नहीं खड़ा हुआ था तब तक तो इसको सोनिया गांधी ती जीवनी बताकर ही प्रचारित किया जा रहा था और बेचा भी जा रहा था । सबसे पहले ये जीवनी अक्तूबर दो हजार आठ में स्पेनिश में छपी और बाद में इसका अनुवाद इटैलियन, फ्रैंच और डच में हो चुका है । एक अनुमान के मुताबिक अबतक इस किताब की तीन लाख प्रतिया बिक चुकी हैं । जाहिर है लेखक ने तीन भाषाओं के बल पर एक बडा़ बाजार और पाठक वर्ग हासिल कर लिया है ।
अब जेवियर मोरो इसको अंग्रेजी में प्रकाशित कर भारतीय बाजार के अलावा अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के बाजार में सोनिया गांधी के नाम को भुनाना चाहते हैं । जैसा कि उपर संकेत किया गया है कि इसमें इटली में सोनिया के बचपन को प्रमुखता से छापा गया है । मोरो लिखते हैं- सोनिया के पैदा होने पर लुजियाना के घरों में परंपरा के अनुसार गुलाबी रिबन बांधे गए । चर्च ने सोनिया को नाम दिया एडविजे एनटोनियो अलबिना मैनो । लेकिन उनके पिता स्टीफैनो ने उन्हें सोनिया नाम दिया । रूसी नाम रखकर वो उन रूसी परिवारों का शुक्रिया अदा करना चाहते थे जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उनकी जान बचाई थी । सोनिया के पिता स्टीफैनो, मुसोलिनी की सेना में थे जो रूसी सेना से पराजित हो गई थी । सोनिया जियोवेनो के कॉन्वेंट स्कूल में गई लेकिन उतनी ही पढाई की जितनी की जरूरत थी । यानि वो अच्छी विद्यार्थी नहीं थी लेकिन पढ़ाई में कमजोर होने के बावजूद वो हंसमुख और दूसरों की मदद को तत्पर रहती थी । कफ और अस्थमा की शिकायत की वजह से वो बोर्डिंग स्कूल में अकेले सोती थी । आगे जाकर तूरीन में पढ़ाई के दौरान सोनिया के मन में एयर होस्टेस बनने का अरमान भी जगा था ले किन वो सपना जल्द ही बदल गया । उसके बाद सोनिया विदेशी भाषा की शिक्षक या फिर संयुक्त राष्ट्र में अनुवादक बनने की ख्वाहिश पालने लगी ।
उपरोक्त प्रसंगों के सामने आते ही कांग्रेस के नेताओं ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी । कांग्रेस का आरोप है कि मोरो ने वास्तविकता से छेड़छाड़ की है लेकिन मोरो का दावा है कि उसकी किताब एक वृहद और लंबे रिसर्च का नतीजा है । जेवियर मोरो के मुताबिक तथ्यों और घटनाओं की सत्यता को जानने परखने के लिए उन्होंने खुद सोनिया के होम टाउन लुजियाना में काफी वक्त बिताया । उसका तो यह भी दावा है कि उसवे किताब छपने के पहले उसकी पांडुलिपि सोनिया गांधी की बहन नाडिया को भी दिखाई थी क्योंकि वो स्पैनिश जानती थी । इसके अलावा मोरो ने किताब छपने के बाद सोनिया को भी उसकी एक प्रति भेजी । मोरो का कहना है कि नाडिया ने किताब पर कोई आपत्ति दर्ज नहीं की जबकि सोनिया की तरफ से कोई जबाव ही नहीं मिला ।
कांग्रेस नेताओं की आपत्तियों और लेखक को कानूनी नोटिस के हो हल्ले के बीच जेवियर मोरो की किताब सोनिया और उसके इर्द गिर्द के विवादों और घटनाओं में सिमटकर रह गई। जबकि इस किताब में बीजेपी की सांसद और सोनिया की देवरानी मेनका गांधी के बारे में ज्यादा विस्फोटक प्रसंग छपे हैं, जो घटनाओं के चश्मदीदों के बयानों पर आधारित होने की वजह से ज्यादा प्रामाणिक प्रतीत होते हैं । इस किताब में मोरो ने मेनका और इंदिरा गांधी की पहली मुलाकात का बड़ा ही दिलचस्प विवरण दिया है । जब मेनका पहली बार इंदिरा गांधी से मिलने पहुंची तो बेहद डरी और सहमी हुई थी । बावजूद इसके जब वो अपनी होनेवाली सास को अपना परिचय देने लगी तो यह बात छुपा गई कि वो एक तौलिया कंपनी के विज्ञापन की मॉडल है । इंदिरा गांधी मेनका से पहली मुलाकात के बाद उसके और उसके परिवार के बारे में और ज्यादा जानकारियां इकट्ठा करना चाहती थी लेकिन संजय गांधी बेहद जल्दबाजी में थे और उन्होंने मंगनी कर ली । जब सगाई के बाद दोनों परिवार साथ खाने बैठे तो और बातचीत के दौरान इंदिरा गांधी को इस बात का एहसास हुआ कि मेनका और उसके परिवार के लोग ना तो उतने पढ़े लिखे हैं और ना ही विचारों में आधुनिक ।
बेटे संजय गांधी की जिद की वजह से तेइस सितंबर उन्नीस सौ चौहत्तर को गांधी के पारिवारिक मित्र मोहम्मद युनुस के घर पर संजय और मेनका परिणय सूत्र में बंध गए । यहां पर जेवियर मोरो ने इस बात के संकेत दिए हैं कि मेनका को गांधी परिवनार में एडजस्ट करने में सोनिया से ज्यादा दिक्कत हुई । मेनका को सिगरेट पीने की आदत थी जबकि संजय ध्रूमपान को सख्त नापसंद करते थे, इंदिरा गांधी बीमारी की वजह से और सोनिया अस्थमा की वजह से धुंआ बरदाश्त नहीं कर पाती थी । एक बार तो मेनका के व्यवहार से राजीव गांधी काफी खिन्न हो गए थे । हुआ यह था कि मेनका सोफे पर बैठकर सिगरेट पी रही थी और सोनिया घर के काम में हाथ बंटा रही थी । इसको देखकर राजीव गांधी को बेहद कोफ्त हुई थी जिसे उन्होंने जाहिर भी किया था ।
एक और बेहद ही दिलचस्प वाकया इस किताब में है । एक बार मशहूर लेखक खुशवंत सिंह जब गांधी परिवार से मिलने उनके घर गए तो वहां कुत्तों के बीच जबरदस्त झगड़ा चल रहा था । किताब के मुताबिक मेनका के आइरिश वुल्फहाउंड और सोनिया के शांत से अफगानी कुत्ते के बीच लड़ाई चल रही थी । सोनिया दोनों को अलग करना चाह रही थी लेकिन मेनका इस झगड़े से मजा ले रही थी क्योंकि उसे मालूम था कि उसका कुत्ता सोनिया के कुत्ते से मजबूत था । मेनका ने सोनिया पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए खुशवंत सिंह के साथ मिलकर सूर्या पत्रिका भी निकाली थी ।
लेखक ने इंदिरा गांधी की सचिव उषा के हवाले से लिखा है कि मेनका बेहद ही बुद्धिमती लेकिन महात्वाकांक्षी थी । उसे हर वक्त यह लगता था कि जल्द ही संजय गांधी भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे, और वो गाहे बगाहे इस बात तो सार्वजनिक रूप से कहती भी थी । लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था । सतहत्तर में कांग्रेस की कारी हार के बाद जब संजय गांधी की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई तो इंदिरा गांधी मेनका को लेकर बेहद चिंतित रहने लगी । उन्होंने अपनी दोस्त पुपुल जयकर से अपनी चिंता जताते हुए कहा भी था कि मेनका की मां की महात्वाकांक्षा उसको संजय की जगह लेने के लिए प्रेरित करेगी । इस सोच को बल मिला खुशवंत सिंह के एक लेख से जिसमें उन्होंने खुलेआम इस बात की वकालत की थी कि संजय की मौत के उनकी राजनीतिक वारिस मेनका हैं । खुशवंत सिंह ने यह भी लिखा कि मेनका संजय गांधी की तरह बहादुर हैं और दुर्गा की अवतार हैं । जाहिर है खुशवंत सिंह के इस लेख से इंदिरा गांधी आहत हुई क्योंकि बांग्लादेश युद्द में विजय के बाद इंदिरा गांधी की तुलना दुर्गा से होने लगी थी । खुशवंत की इस तुलना से इंदिरा गांधी के मन में इस बात का संदेह पैदा हो गया कि मेनका की रजामंदी के बाद ही खुशवंत ने वो लेख लिखा ।
उसके बाद संजय पर लिखी किताब को लेकर विवाद और बढ़ा । राजीव गांधी की राजनीति में आने पर मेनका की आपत्तियों से इंदिरा गांधी बेहद खफा रहने लगी । लेकिन जब सन उन्नीस सौ बयासी में मेनका ने इंदिरा गांधी के मना करने के बावजूद लखनऊ में लंबा चौड़ा भाषण दे डाला तो इंदिरा गांधी ने मेनका के खिलाफ निर्णय लेने का मन बना लिया । मेनका के लखनऊ से वापस लौटते ही गुस्से से भरी इंदिरा गांधी ने उसको तत्काल घर से बाहर निकल जाने का हुक्म सुना दिया । घर से बाहर निकालने के वक्त हुए हाई वोल्टेज ड्रामा पर भी मोरो ने विस्तार से लिखा है ।
ये सारी बातें लिखते हुए मोरो ने किताब में एक डिस्क्लेमर भी लगाया है - बातचीत, संवाद और स्थितियां लेखक के व्याख्या पर आधारित है और यह जरूरी नहीं है कि वो प्रामाणिक भी हो । लेकिन यहां एक बार फिर से सवाल खडा़ हो जाता है कि किसी भी जीवित वयक्ति की जीवनी को फिक्शनलाइज कैसे किया जा सकता है । क्या लेखकीय आजादी के नाम पर कुछ भी काल्पनिक लिखने की इजाजत किसी लेखक को दी जा सकती है । इन्हीं सवालों और कानूनी पचड़ों के बीच भारतीय पाठकों को इस किताब का बेसब्री से इंतजार है ।
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Sunday, October 17, 2010
Saturday, October 9, 2010
उदासीन हिंदी समाज
आज हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष रामविलास शर्मा की जन्मतिथि है । सुबह दफ्तर पहुंचा तो अपने सहयोगी से पूछा कि आपको मालूम है कि आज रामविलास जी का जन्मदिन है तो उन्होंने सहज भाव से कहा कि क्या आज रामविलास पासवान का जन्मदिन है । मैं हतप्रभ रह गया और मुझसे कुछ कहते नहीं बना । हम अपने पूर्वज साहित्यकारों के प्रति इतने उदासीन क्यों है । क्यों नहीं हमारे जेहन में उनका नाम आता है । इस उदासीनता के लिए क्या हमारा हिंदी समाज जिम्मेदार है । या फिर हमारे साहित्यकार खुद जिम्मेदार हैं । इस विषय पर लिखने का मन बना रहा हूं । तबतक आप अपनी प्रतिक्रिया दें ।
Wednesday, October 6, 2010
मतभेद से मजबूत लोकतंत्र
हाल के दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार के कामकाज के तरीकों की आलोचना की है या यों कह सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने सरकार की कई नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं या कई मसलों पर पार्टी की राय सरकार से बिल्कुल अलग है । मनमोहन सिंह कहते हैं कि नक्सली इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है और उनसे सख्ती से निबटने की जरूरत है । लेकिन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की राय उनसे इतर है । सोनिया गांधी किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ हैं लेकिन नक्सल समस्या को मानवीय ढंग से देखने और इसकी जड़ तक जाने की वकालत करती हैं । अपनी पार्टी के मुख पत्र कांग्रेस संदेश में सोनिया गांधी ने कहा कि नक्सल समस्या को विकास के आईने में देखने की जरूरत है । समाज के सबसे निचले तबके विकास योजनाओं का कर्यान्वयन नहीं होने से ये समस्या बढ़ी है । सोनिया गांधी ने इसे एक सामाजिक समस्या के तौर पर देखती हैं, जबकि उनकी ही सरकार के गृह मंत्री इसे कानून वयवस्था की समस्या मानते हैं और उससे उसी तरह से निबटने की रणनीति बनाते हैं । पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी इकनॉमिक टाइम्स में लेख लिखकर देश के गृह मंत्री की उनकी नक्सली समस्या से निबटने की नीति की आलोचना की थी । इन वाकयों से यह साफ-साफ झलकता है कि नक्सल मुद्दे पर पार्टी और सरकार में एक राय नहीं है । अभी उड़ीसा में वेदांता को बॉक्साइट खनन की मंजूरी नहीं दिए जाने के फैसले को भी इसी आलोक में देखा जाना चाहिए । कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री ने संपादकों के साथ अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि विकास के हर काम में पर्यावरण का अड़ंगा नहीं लगाना चाहिए । मनमोहन सिंह देश में खुली अर्थवयवस्था के जनक और बाजार के पैरोकार माने जाते हैं । लेकिन बावजूद इसके वेदांता को पर्यावरण के नाम पर ही खनन की इजाजत नहीं दी गई । कुछ लोग इसका श्रेय राहुल गांधी को दे रहा हैं जो इस फैसले के पहले नियामगिरी जाकर वहां के आदिवासियों को इस बात का भरोसा दे चुके थे ।
इस तरह के वाकयों से पूरे देश में एक संकेत गया है कि सोनिया गांधी अब मनमोहन सिंह को पसंद नहीं करती हैं और दोनों के बीच मतभेद पैदा हो गए हैं । मीडिया में भी इस बात पर चर्चा शुरू हो गई कि मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री के रूप में उल्टी गिनती शुरू हो गई है । लेकिन इस मसले पर जल्दबाजी में किसी निर्णय पर पहुंचने के बजाए इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है । सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बीच मतभेद होना लोकतंत्र के मजबूत होने की निशानी है। और पिछले एक दशक में हमारे राजनीतिक दलों में यह परिपक्वता आई है ।
अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो पहले कांग्रेस में कम से कम इस तरह की परंपरा नहीं थी । जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधाननमंत्री बने तो कुछ दिनों तक तो आजाद होने का रूमानी एहसास कायम था । बाद में नेहरू जी का कद इतना बड़ा हो गया था कि उनके सरकार की आलोचना उनकी आलोचना मान ली जाती थी । लेकिन जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी तो कई मसलों पर मतभिन्नता के चलते कांग्रेस में बंटवारा हुआ । पार्टी पर कब्जे की लड़ाई शुरू हुई जिसमें इंदिरा गांधी को उनकी राजनैतिक कौशल की वजह से जीत मिली । लेकिन जब इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली । हताशा और निराशा में डूबी इंदिरा को पार्टी के तीन बड़े नेताओं- जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी ने छोड़ दिया । एक तो चुनाव में हार और फिर अपनों का साथ छोड़ना- इंदिरा गांधी सतर्क हो गई और 1978 में खुद पार्टी की कमान संभाल ली । उन्होंने यह पद 1980 में फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नहीं छोड़ा । यहीं आकर पार्टी ही सरकार और सरकार ही पार्टी बन गई, सरकार से अलग पार्टी की कोई राय ही नहीं थी । इंदिरा गांधी ने प्रयासपूर्वक पार्टी को सरकार का पिछलग्गू बना दिया । नतीजा यह हुआ कि पार्टी सरकार की पिछलग्गू बनी और कैबिनेट प्रधानमंत्री की । अपनी मां के पद चिन्हों पर चलते हुए राजीव गांधी ने भी इस परंपरा को कायम रखा । उन्होंने भी प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । वो 1985 से 1991 तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे । राजीव गांधी के बाद जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । नतीजा पार्टी सरकार की अनुगामी बनी रही ।
लेकिन बाद में जब एनडीए का शासन आया तो लगा कि यह परंपरा टूटने वाली है । अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त कुशाभाई ठाकरे बीजेपी के अध्यक्ष थे । कालांतर में भी बीजेपी के कई अध्यक्ष बदलते रहे लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संगठन पर काबिज होने की कोशिश नहीं की । लेकिन नेहरू की ही तरह अटल बिहारी वाजपेयी का कद भी इतना बड़ा हो गया था कि वो पार्टी से उपर हो गए थे । उनकी सरकार के कामकाज की आलोचना भी अटल बिहारी की वयक्तिगत आलोचना मान ली जाती थी । जिस जिसने भी अटल जी के सरकार की नीतियों की आलोचना की वो संगठन में दरकिनार कर दिए गए चाहे वो गोविंदाचार्य हों या फिर कल्याण सिंह । ये दीगर बात है कि बाद में इन दोनों नेताओं ने अटल जी पर वयक्तिगत हमले किए। लेकिन अगर कुछ देर के लिए बीजेपी को छोड़ दिया जाए और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों की बात की जाए तो वहां सरकार की नीतियों की आलोचना होती थी या फिर ये संगठन सरकार से अलग राय जाहिर करते थे । एनडीए शासन काल में सरकार खुले बाजार और वैश्वीकरण के पक्ष में थी और सरकारी कंपनियों में कई डिसइंवेस्टमेंट हुए । तब संघ से जुड़े संगठन सरकारी कंपनियों में विनिवेश के फैसले की खुले आम आलोचना कर रहे थे । पार्टी से ही संबंद्ध उसके अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने सरकार की खुले बाजार की नीति का सार्वजनिक तौर पर विरोध किया था । रामजन्मभूमि के मसले पर भी वीएचपी ने सरकार की नीतियों की खुलेआम आलोचना की थी । लेकिन बीजेपी में आतंरिक लोकतंत्र अपेक्षाकृत कम है । जसवंत सिंह को किताब लिखकर अपनी राय जाहिर करने पर पार्टी से निकाल दिया जाता है, आडवाणी को जिन्ना पर अपनी राय जाहिर करना भारी पड़ा था और उन्हें भी पार्टी अध्यक्ष पद से हटाया गया था ।
लेकिन जिस तरह से कांग्रेस में इन दिनों डेमोक्रेसी दिख रही है उसका श्रेय सोनिया गांधी की कार्यशैली को जाता है । दो हजार चार में जब यूपीए की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री पद ठुकराने के बाद सोनिया ने पार्टी को सरकार से अलग पहचान देने की कोशिशें शुरू कर दी । कई मंत्रियों को शपथ लेने के बाद पार्टी का पद छोड़ना पड़ा । यूपीए -1 के वक्त यह काम थोड़ा धीमा अवस्य रहा लेकिन अब पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी साफ तौर रेखांकित की जा सकती है । राहुल गांधी पार्टी में एक अलग सत्ता केंद्र हैं लेकिन वो भी अपनी राय खुलकर सामने रख रहे हैं और कई बार उनकी राय अपनी ही सरकार की नीतियों के खिलाफ दिखाई देती है । कश्मीर में जारी संकट के बीच उमर अब्दुल्ला को उन्होंने खुलेआम सपोर्ट किया लेकिन सोनिया गांधी की राय उस मसले पर अलग है । उसी तरह प्रणब मुखर्जी की नक्सलियों पर सोनिया गांधी से इतर राय है और वो इसे सार्वजनिक तौर पर उसे जाहिर भी कर चुके हैं । उपर से देखने पर तो यह लगता है कि देश में सबसे बड़ी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र है जहां सबको अपनी राय खुलकर रखने की आजादी है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मेच्योर होने की निशानी है ।
इस तरह के वाकयों से पूरे देश में एक संकेत गया है कि सोनिया गांधी अब मनमोहन सिंह को पसंद नहीं करती हैं और दोनों के बीच मतभेद पैदा हो गए हैं । मीडिया में भी इस बात पर चर्चा शुरू हो गई कि मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री के रूप में उल्टी गिनती शुरू हो गई है । लेकिन इस मसले पर जल्दबाजी में किसी निर्णय पर पहुंचने के बजाए इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है । सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बीच मतभेद होना लोकतंत्र के मजबूत होने की निशानी है। और पिछले एक दशक में हमारे राजनीतिक दलों में यह परिपक्वता आई है ।
अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो पहले कांग्रेस में कम से कम इस तरह की परंपरा नहीं थी । जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधाननमंत्री बने तो कुछ दिनों तक तो आजाद होने का रूमानी एहसास कायम था । बाद में नेहरू जी का कद इतना बड़ा हो गया था कि उनके सरकार की आलोचना उनकी आलोचना मान ली जाती थी । लेकिन जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी तो कई मसलों पर मतभिन्नता के चलते कांग्रेस में बंटवारा हुआ । पार्टी पर कब्जे की लड़ाई शुरू हुई जिसमें इंदिरा गांधी को उनकी राजनैतिक कौशल की वजह से जीत मिली । लेकिन जब इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली । हताशा और निराशा में डूबी इंदिरा को पार्टी के तीन बड़े नेताओं- जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी ने छोड़ दिया । एक तो चुनाव में हार और फिर अपनों का साथ छोड़ना- इंदिरा गांधी सतर्क हो गई और 1978 में खुद पार्टी की कमान संभाल ली । उन्होंने यह पद 1980 में फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नहीं छोड़ा । यहीं आकर पार्टी ही सरकार और सरकार ही पार्टी बन गई, सरकार से अलग पार्टी की कोई राय ही नहीं थी । इंदिरा गांधी ने प्रयासपूर्वक पार्टी को सरकार का पिछलग्गू बना दिया । नतीजा यह हुआ कि पार्टी सरकार की पिछलग्गू बनी और कैबिनेट प्रधानमंत्री की । अपनी मां के पद चिन्हों पर चलते हुए राजीव गांधी ने भी इस परंपरा को कायम रखा । उन्होंने भी प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । वो 1985 से 1991 तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे । राजीव गांधी के बाद जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । नतीजा पार्टी सरकार की अनुगामी बनी रही ।
लेकिन बाद में जब एनडीए का शासन आया तो लगा कि यह परंपरा टूटने वाली है । अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त कुशाभाई ठाकरे बीजेपी के अध्यक्ष थे । कालांतर में भी बीजेपी के कई अध्यक्ष बदलते रहे लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संगठन पर काबिज होने की कोशिश नहीं की । लेकिन नेहरू की ही तरह अटल बिहारी वाजपेयी का कद भी इतना बड़ा हो गया था कि वो पार्टी से उपर हो गए थे । उनकी सरकार के कामकाज की आलोचना भी अटल बिहारी की वयक्तिगत आलोचना मान ली जाती थी । जिस जिसने भी अटल जी के सरकार की नीतियों की आलोचना की वो संगठन में दरकिनार कर दिए गए चाहे वो गोविंदाचार्य हों या फिर कल्याण सिंह । ये दीगर बात है कि बाद में इन दोनों नेताओं ने अटल जी पर वयक्तिगत हमले किए। लेकिन अगर कुछ देर के लिए बीजेपी को छोड़ दिया जाए और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों की बात की जाए तो वहां सरकार की नीतियों की आलोचना होती थी या फिर ये संगठन सरकार से अलग राय जाहिर करते थे । एनडीए शासन काल में सरकार खुले बाजार और वैश्वीकरण के पक्ष में थी और सरकारी कंपनियों में कई डिसइंवेस्टमेंट हुए । तब संघ से जुड़े संगठन सरकारी कंपनियों में विनिवेश के फैसले की खुले आम आलोचना कर रहे थे । पार्टी से ही संबंद्ध उसके अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने सरकार की खुले बाजार की नीति का सार्वजनिक तौर पर विरोध किया था । रामजन्मभूमि के मसले पर भी वीएचपी ने सरकार की नीतियों की खुलेआम आलोचना की थी । लेकिन बीजेपी में आतंरिक लोकतंत्र अपेक्षाकृत कम है । जसवंत सिंह को किताब लिखकर अपनी राय जाहिर करने पर पार्टी से निकाल दिया जाता है, आडवाणी को जिन्ना पर अपनी राय जाहिर करना भारी पड़ा था और उन्हें भी पार्टी अध्यक्ष पद से हटाया गया था ।
लेकिन जिस तरह से कांग्रेस में इन दिनों डेमोक्रेसी दिख रही है उसका श्रेय सोनिया गांधी की कार्यशैली को जाता है । दो हजार चार में जब यूपीए की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री पद ठुकराने के बाद सोनिया ने पार्टी को सरकार से अलग पहचान देने की कोशिशें शुरू कर दी । कई मंत्रियों को शपथ लेने के बाद पार्टी का पद छोड़ना पड़ा । यूपीए -1 के वक्त यह काम थोड़ा धीमा अवस्य रहा लेकिन अब पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी साफ तौर रेखांकित की जा सकती है । राहुल गांधी पार्टी में एक अलग सत्ता केंद्र हैं लेकिन वो भी अपनी राय खुलकर सामने रख रहे हैं और कई बार उनकी राय अपनी ही सरकार की नीतियों के खिलाफ दिखाई देती है । कश्मीर में जारी संकट के बीच उमर अब्दुल्ला को उन्होंने खुलेआम सपोर्ट किया लेकिन सोनिया गांधी की राय उस मसले पर अलग है । उसी तरह प्रणब मुखर्जी की नक्सलियों पर सोनिया गांधी से इतर राय है और वो इसे सार्वजनिक तौर पर उसे जाहिर भी कर चुके हैं । उपर से देखने पर तो यह लगता है कि देश में सबसे बड़ी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र है जहां सबको अपनी राय खुलकर रखने की आजादी है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मेच्योर होने की निशानी है ।
Saturday, October 2, 2010
पुरस्कारों का ‘खेल’
अभी कुछ अरसा पहले डाक से एक बेहद दिलचस्प पत्र प्राप्त हुआ । मध्य प्रदेश से लिखा गया यह खत एक परिपत्र की शक्ल में था, जो एक साथ तकरीबन कई लेखकों-पत्रकारों को भेजा गया प्रतीत होता है । दिलचस्प इसलिए था कि उसमें इस बात का प्रस्ताव दिया गया था कि अगर आप अमुक पुरस्कार पाना चाहते हैं तो सौ रुपये के डिमांड ड्राफ्ट और अपनी किताब की दो प्रतियों के साथ प्रविष्टि भेजें । इस मनोरंजक पत्र को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि किसी ने मजाक किया है लेकिन चंद दिनों पहले जब मैंने अमुक पुरस्कार के ऐलान की खबर की पढ़ी तो मुझे लगा कि वह खत तो गंभीरता पूर्वक लिखा गया था । जिन लेखक महोदय को उक्त पुरस्कार देने का ऐलान किया गया है उन्होंने अवश्य ही सौ रुपये के डिमांड ड्राफ्ट के साथ पुरस्कार के लिए आवेदन किया होगा । तो हिंदी के लेखकों में पुरस्कार लोलुपता इतनी बढ़ गई है कि वो पुरस्कार पाने के लिए आवेदन करने लगे हैं । अब तक तो पुरस्कार के लिए घेरेबंदी की खबरें ही सामने आती रही थी लेकिन आवेदन कर पुरस्कार मेरे लिए चैंकानेवाली खबर थी ।
दरअसल हाल के दिनों में हिंदी में दिए जाने वाले पुरस्कारों की विश्वसनीयता और साख बेहद कम हुई है । कुछ अरसा पहले साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित पुरस्कार थे । ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा और साख तो अब भी कायम है लेकिन साहित्य अकादमी पुरस्कारों की साख पर पिछले कई वर्षों में अनेकों बार बट्टा लगा है । इसके लिए हिंदी के वो प्रगतिशील शिखर लेखक-आलोचक कम जिम्मेदार नहीं हैं जो कई वर्षों तक साहित्य अकादमी के कर्ता-धर्ता रहे । बाद में जब साहित्य अकादमी में सत्ता परिवर्तन हुआ तो हिंदी के संयोजक ने समर्थन देने के एवज में सौदेबाजी कर अपने चहेते लेखक को पुरस्कार दिलवाया । उनके बाद जो आलोचक महोदय हिंदी के संयोजक बने उन्होंने भी उस परंपरा को कायम रखा । साहित्य अकादमी के इस सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार का खेल उसके ऐलान होने के काफी पहले ही शुरु हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी, जिस वर्ष पुरस्कार दिए जाने हैं उसके पहले के एक वर्ष को छोड़कर, तीन वर्षों की अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है । यानि इस वर्ष दिए जानेवाले पुरस्कार के लिए दो हजार नौ से दो हजार सात के बीच प्रकाशित कृतियों पर विचार किया जाएगा । इस अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची को हिंदी के एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों को भेजी जाती है और उनसे सूची में से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध किया जाता है । लेकिन यहां सिर्फ तीन कृतियों की सिफारिश की कोई पाबंदी नहीं है, बोर्ड सदस्य अगर चाहें तो तीन से ज्यादा कृतियों की भी सिफारिश कर सकते हैं । जब सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है तो उसके बाद हर विधा के लिए अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय के आधार पर हर विधा की तीन तीन किताबों का चयन किया जाता है । इन्हीं तीन किताबों में से जूरी एक कृति को चुनती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है ।
लेकिन यह प्रक्रिया उपर से देखने में जितनी दोष-रहित लगती है व्यवहार में उतनी ही दोषपूर्ण है । किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में तिकड़मों का बड़ा खेल खेला जाता है ।अपनी किताब को आधार सूची में डलवाने से लेकर ही यह खेल शुरु हो जाता है जिसके लिए तमाम तरह के दंद-फंद किए जाते हैं । जब एक बार आधार सूची में नाम आ जाता है तो उसके बाद अपनी लेखनी से क्रांति का दावा करनेवाले ये तथाकथित प्रतिशील लेखक एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपना नाम भिजवाने की जुगत में लग जाते हैं । येन केन प्रकारेण बोर्ड के सदस्य से अपना नाम प्रस्तावित करवाने के लिए सम्मानित लेककगण एड़ी चोटी का जोड़ लगा देते हैं । फिर घेरेबंदी शुरु होती है जूरी के सदस्यों के चयन की । जूरी में तीन सदस्य होते हैं जिनका चुनाव साहित्य अकादमी का अध्यक्ष करता है । इसलिए पुरस्कार के लिए लालायित तमाम तिकड़मी लेखक अध्यक्ष के पास अपनी गोटी फिट करने में लग जाते हैं, उनकी गणेय़ परिक्रमा शुरू हो जाती है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत भर करते हैं । हलांकि उर्दू के एक आलोचक के अकादमी अध्यक्ष बनने के पहले जब हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तब ये स्थिति नहीं थी । तब उनकी मर्जी चला करती थी । नियमों को दरकिनार करते हुए वो जिसे चाहते उसे पुरस्कार दिला देते थे । लेकिन अकादमी के चुनाव में जब उस गुट का सफाया हो गया उसके बाद से स्थिति पूरी तरह बदल गई । पहले भाषा के संयोजक की मर्जी चला करती थी अब अध्यक्ष की चलने लगी । भाषा संयोजक अकादमी के संविधान के तहत बैठक की सिर्फ प्रोसिंडिंग शुरु करते हैं । लेकिन एक बार फिर से अध्यक्ष बदले तो स्थितियां बदल गई । अब हिंदी के लिए पूर्व अध्यक्ष और भाषा संयोजक की राय हावी होने लगी ।
पुरस्कार के निर्णय के लिए जब अंतिम बैठक होती है तो जूरी के सदस्य अलग अलग कृतियों पर विचार करते हैं और फिर या तो सर्वसम्मति से या बहुमत के आधार पर फैसला लेते हैं । ऐसा कम ही देखने में आया है कि सर्वसम्मति से किसी कृति को पुरस्कृत किया गया हो । ज्यादातर फैसले बहुमत यानि दो –एक से होते है । इससे एक तो ये लगता है कि जूरी में कृति की गुणवत्ता को लेकर जोरदार बहस हुई और लोकतांत्रिक तरीके से फैसला हुआ । लेकिन होता ये सिर्फ दिखावा है । जब जूरी के तीन सदस्यों का चुनाव किया जाता है तभी ये तय कर लिया जाता है कि दो सदस्य अध्यक्ष की मनमाफिक काम करनेवाले हों और तीसरा घोर विरोधी । इससे होता ये है कि कमिटी के गठन पर कोई विवाद नहीं हो पाता है और सारा काम पूर्व निर्धारित रणनीति के हिसाब से हो जाता है । जूरी के फैसले के बाद उसे एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं ।
राज्यों की हिंदी अकादमियों में तो पुरस्कारों की स्थिति और भी खराब है। सारा कुछ सेटिंग-गेटिंग के सिद्धांत पर चलता है । अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली की हिंदी अकादमी के पुरस्कारों को लेकर अच्छा खासा विवाद भी हुआ था । दिल्ली की हिंदी अकादमी हिंदी के लेखकों को हर साल पुरस्कृत करती है । इसके लिए वो अखबारों में विज्ञापन देकर शहर के नामचीन लोगों और लेखकों की राय आमंत्रित करती है । उसके बाद कार्यकारिणी की बैठक में पुरस्कार का फैसला होता है । इन पुरस्कारों में कार्यकारिणी के सदस्य जिसे चाहते हैं उसको पुरस्कृत कर देते हैं । कई बार तो कार्यकारिणी के सदस्यों ने खुद को पुरस्कृत कर लिया, भले ही उसके पहले उनको कार्यकारिणी से इस्तीफा देना पड़ा । हलांकि अकादमी के सबसे बड़े पुरस्कार श्लाका सम्मान को लेकर बड़ा विवाद कभी नहीं हुआ लेकिन साहित्यकार सम्मान और अन्य पुरस्कारों के चयन पर कई बार उंगलियां उठी । दिल्ली की हिंदी अकादमी के अलावा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद और बिहार का राजभाषा विभाग भी थोक में हिंदी के लेखकों को पुरस्कृत करती है । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के पुरस्कारों को नियमविरुद्ध प्रसातावित करने के लिए पिछले वर्ष रद्द करना पड़ा । चयन समिति के सदस्य हिंदी के वरिष्ठ आलोचक ने अपने कहानीकार अनुज का नाम प्रस्तावित कर दिया लेकिन वहां नियम है कि चयनकर्ता को यह लिखकर देना होता है कि पुरस्कृत लेखकों में कोई उनका संबंधी नहीं है । इसी नियम ने भाइयों का खेल बिगाड़ दिया और छोटे भाई पुरस्कार से वंचित रह गए ।
ये चंद उदाहरण हैं हिंदी साहित्य के, जो ये दर्शाते हैं कि हिंदी में पुरस्कारों के लेकर लेखक कितने बेचैन हैं और उन्हें हथियाने के लिए तमाम तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करने से भी उन्हें गुरेज नहीं । पहले मीडिया का इतना फैलाव नहीं था और उस तरह के षडयंत्र सामने नहीं आ पाते थे लेकिन मीडिया के विस्तार के बाद इस तरह की तमाम खबरें सामने आने लगी । इन खबरों के प्रकाशन के बाद हिंदी के पाठकों के मन में अपने आदर्शवादी लेखकों को लेकर एक खास तरह की दुविधा पैदा होने लगी । लिखते कुछ और आचरण कुछ की दुविधा ने पाठकों के मानस पर हिंदी लेखकों की छवि पर प्रहार कर उसे खंडित किया । जब साख पर बट्टा लगता है और विश्वसनीयता संदिग्ध होती है तो स्थिति बेहद चिंतनीय हो जाती है । हिंदी के वरिष्ठ लेखकों को यह समझना होगा कि कुछ लेखकों की वजह से हिंदी लेखक समाज की साख पर बट्टा लग रहा है । अगर इसे समय रहते ठीक नहीं किया गया तो एक समय ऐसा भी आ सकता है जब हिंदी के पाठक अपने ही लेखकों को रिजेक्ट करना शुरू कर दें । वह स्थिति पूरे हिंदी लेखक समाज के लिए बेहद खराब होगी । पुरस्कारों के पीछे भागने की लेखकों की जो ललक है वो सिर्फ इस वजह से है कि उन्हें जल्दी प्रसिद्धि मिले और वो मशहूर हो जाएं वो यह भूल जाते हैं कि यह प्रसिद्धि तात्कालिक होती है । तभी तो अज्ञेय जी ने कहा था कि अगर किसी लेखक को माराना हो तो उसे पुरस्कृत कर दो । अज्ञेय जी की यह बात बाद में साबित भी हुई ।
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दरअसल हाल के दिनों में हिंदी में दिए जाने वाले पुरस्कारों की विश्वसनीयता और साख बेहद कम हुई है । कुछ अरसा पहले साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित पुरस्कार थे । ज्ञानपीठ की प्रतिष्ठा और साख तो अब भी कायम है लेकिन साहित्य अकादमी पुरस्कारों की साख पर पिछले कई वर्षों में अनेकों बार बट्टा लगा है । इसके लिए हिंदी के वो प्रगतिशील शिखर लेखक-आलोचक कम जिम्मेदार नहीं हैं जो कई वर्षों तक साहित्य अकादमी के कर्ता-धर्ता रहे । बाद में जब साहित्य अकादमी में सत्ता परिवर्तन हुआ तो हिंदी के संयोजक ने समर्थन देने के एवज में सौदेबाजी कर अपने चहेते लेखक को पुरस्कार दिलवाया । उनके बाद जो आलोचक महोदय हिंदी के संयोजक बने उन्होंने भी उस परंपरा को कायम रखा । साहित्य अकादमी के इस सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार का खेल उसके ऐलान होने के काफी पहले ही शुरु हो जाता है । प्रक्रिया के मुताबिक अकादमी, जिस वर्ष पुरस्कार दिए जाने हैं उसके पहले के एक वर्ष को छोड़कर, तीन वर्षों की अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची बनाती है । यानि इस वर्ष दिए जानेवाले पुरस्कार के लिए दो हजार नौ से दो हजार सात के बीच प्रकाशित कृतियों पर विचार किया जाएगा । इस अवधि में प्रकाशित कृतियों की एक आधार सूची को हिंदी के एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों को भेजी जाती है और उनसे सूची में से तीन किताबों का चयन कर सुझाव देने का अनुरोध किया जाता है । लेकिन यहां सिर्फ तीन कृतियों की सिफारिश की कोई पाबंदी नहीं है, बोर्ड सदस्य अगर चाहें तो तीन से ज्यादा कृतियों की भी सिफारिश कर सकते हैं । जब सदस्यों की सिफारिश अकादमी को प्राप्त हो जाती है तो उसके बाद हर विधा के लिए अलग अलग सूची बनाई जाती है । मोटे तौर पर एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों की राय के आधार पर हर विधा की तीन तीन किताबों का चयन किया जाता है । इन्हीं तीन किताबों में से जूरी एक कृति को चुनती है जिसको पुरस्कृत किया जाता है ।
लेकिन यह प्रक्रिया उपर से देखने में जितनी दोष-रहित लगती है व्यवहार में उतनी ही दोषपूर्ण है । किताबों की आधार सूची से लेकर जूरी के चयन तक में तिकड़मों का बड़ा खेल खेला जाता है ।अपनी किताब को आधार सूची में डलवाने से लेकर ही यह खेल शुरु हो जाता है जिसके लिए तमाम तरह के दंद-फंद किए जाते हैं । जब एक बार आधार सूची में नाम आ जाता है तो उसके बाद अपनी लेखनी से क्रांति का दावा करनेवाले ये तथाकथित प्रतिशील लेखक एडवायजरी बोर्ड के सदस्यों के पास से अपना नाम भिजवाने की जुगत में लग जाते हैं । येन केन प्रकारेण बोर्ड के सदस्य से अपना नाम प्रस्तावित करवाने के लिए सम्मानित लेककगण एड़ी चोटी का जोड़ लगा देते हैं । फिर घेरेबंदी शुरु होती है जूरी के सदस्यों के चयन की । जूरी में तीन सदस्य होते हैं जिनका चुनाव साहित्य अकादमी का अध्यक्ष करता है । इसलिए पुरस्कार के लिए लालायित तमाम तिकड़मी लेखक अध्यक्ष के पास अपनी गोटी फिट करने में लग जाते हैं, उनकी गणेय़ परिक्रमा शुरू हो जाती है । पुरस्कार के लिए किताबों के अंतिम चयन के लिए जूरी की जो बैठक होती है उसमें भाषा के संयोजक की कोई भूमिका नहीं होती वो सिर्फ बैठक का संयोजन और शुरुआत भर करते हैं । हलांकि उर्दू के एक आलोचक के अकादमी अध्यक्ष बनने के पहले जब हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष हिंदी के संयोजक हुआ करते थे तब ये स्थिति नहीं थी । तब उनकी मर्जी चला करती थी । नियमों को दरकिनार करते हुए वो जिसे चाहते उसे पुरस्कार दिला देते थे । लेकिन अकादमी के चुनाव में जब उस गुट का सफाया हो गया उसके बाद से स्थिति पूरी तरह बदल गई । पहले भाषा के संयोजक की मर्जी चला करती थी अब अध्यक्ष की चलने लगी । भाषा संयोजक अकादमी के संविधान के तहत बैठक की सिर्फ प्रोसिंडिंग शुरु करते हैं । लेकिन एक बार फिर से अध्यक्ष बदले तो स्थितियां बदल गई । अब हिंदी के लिए पूर्व अध्यक्ष और भाषा संयोजक की राय हावी होने लगी ।
पुरस्कार के निर्णय के लिए जब अंतिम बैठक होती है तो जूरी के सदस्य अलग अलग कृतियों पर विचार करते हैं और फिर या तो सर्वसम्मति से या बहुमत के आधार पर फैसला लेते हैं । ऐसा कम ही देखने में आया है कि सर्वसम्मति से किसी कृति को पुरस्कृत किया गया हो । ज्यादातर फैसले बहुमत यानि दो –एक से होते है । इससे एक तो ये लगता है कि जूरी में कृति की गुणवत्ता को लेकर जोरदार बहस हुई और लोकतांत्रिक तरीके से फैसला हुआ । लेकिन होता ये सिर्फ दिखावा है । जब जूरी के तीन सदस्यों का चुनाव किया जाता है तभी ये तय कर लिया जाता है कि दो सदस्य अध्यक्ष की मनमाफिक काम करनेवाले हों और तीसरा घोर विरोधी । इससे होता ये है कि कमिटी के गठन पर कोई विवाद नहीं हो पाता है और सारा काम पूर्व निर्धारित रणनीति के हिसाब से हो जाता है । जूरी के फैसले के बाद उसे एक्जीक्यूटिव कमिटी की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और वहां से स्वीकृति मिलने के बाद अंतिम मुहर अध्यक्ष लगाते हैं ।
राज्यों की हिंदी अकादमियों में तो पुरस्कारों की स्थिति और भी खराब है। सारा कुछ सेटिंग-गेटिंग के सिद्धांत पर चलता है । अभी कुछ दिनों पहले दिल्ली की हिंदी अकादमी के पुरस्कारों को लेकर अच्छा खासा विवाद भी हुआ था । दिल्ली की हिंदी अकादमी हिंदी के लेखकों को हर साल पुरस्कृत करती है । इसके लिए वो अखबारों में विज्ञापन देकर शहर के नामचीन लोगों और लेखकों की राय आमंत्रित करती है । उसके बाद कार्यकारिणी की बैठक में पुरस्कार का फैसला होता है । इन पुरस्कारों में कार्यकारिणी के सदस्य जिसे चाहते हैं उसको पुरस्कृत कर देते हैं । कई बार तो कार्यकारिणी के सदस्यों ने खुद को पुरस्कृत कर लिया, भले ही उसके पहले उनको कार्यकारिणी से इस्तीफा देना पड़ा । हलांकि अकादमी के सबसे बड़े पुरस्कार श्लाका सम्मान को लेकर बड़ा विवाद कभी नहीं हुआ लेकिन साहित्यकार सम्मान और अन्य पुरस्कारों के चयन पर कई बार उंगलियां उठी । दिल्ली की हिंदी अकादमी के अलावा बिहार राष्ट्रभाषा परिषद और बिहार का राजभाषा विभाग भी थोक में हिंदी के लेखकों को पुरस्कृत करती है । बिहार सरकार के राजभाषा विभाग के पुरस्कारों को नियमविरुद्ध प्रसातावित करने के लिए पिछले वर्ष रद्द करना पड़ा । चयन समिति के सदस्य हिंदी के वरिष्ठ आलोचक ने अपने कहानीकार अनुज का नाम प्रस्तावित कर दिया लेकिन वहां नियम है कि चयनकर्ता को यह लिखकर देना होता है कि पुरस्कृत लेखकों में कोई उनका संबंधी नहीं है । इसी नियम ने भाइयों का खेल बिगाड़ दिया और छोटे भाई पुरस्कार से वंचित रह गए ।
ये चंद उदाहरण हैं हिंदी साहित्य के, जो ये दर्शाते हैं कि हिंदी में पुरस्कारों के लेकर लेखक कितने बेचैन हैं और उन्हें हथियाने के लिए तमाम तरह के हथकंडों का इस्तेमाल करने से भी उन्हें गुरेज नहीं । पहले मीडिया का इतना फैलाव नहीं था और उस तरह के षडयंत्र सामने नहीं आ पाते थे लेकिन मीडिया के विस्तार के बाद इस तरह की तमाम खबरें सामने आने लगी । इन खबरों के प्रकाशन के बाद हिंदी के पाठकों के मन में अपने आदर्शवादी लेखकों को लेकर एक खास तरह की दुविधा पैदा होने लगी । लिखते कुछ और आचरण कुछ की दुविधा ने पाठकों के मानस पर हिंदी लेखकों की छवि पर प्रहार कर उसे खंडित किया । जब साख पर बट्टा लगता है और विश्वसनीयता संदिग्ध होती है तो स्थिति बेहद चिंतनीय हो जाती है । हिंदी के वरिष्ठ लेखकों को यह समझना होगा कि कुछ लेखकों की वजह से हिंदी लेखक समाज की साख पर बट्टा लग रहा है । अगर इसे समय रहते ठीक नहीं किया गया तो एक समय ऐसा भी आ सकता है जब हिंदी के पाठक अपने ही लेखकों को रिजेक्ट करना शुरू कर दें । वह स्थिति पूरे हिंदी लेखक समाज के लिए बेहद खराब होगी । पुरस्कारों के पीछे भागने की लेखकों की जो ललक है वो सिर्फ इस वजह से है कि उन्हें जल्दी प्रसिद्धि मिले और वो मशहूर हो जाएं वो यह भूल जाते हैं कि यह प्रसिद्धि तात्कालिक होती है । तभी तो अज्ञेय जी ने कहा था कि अगर किसी लेखक को माराना हो तो उसे पुरस्कृत कर दो । अज्ञेय जी की यह बात बाद में साबित भी हुई ।
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