हाल के दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार के कामकाज के तरीकों की आलोचना की है या यों कह सकते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने सरकार की कई नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं या कई मसलों पर पार्टी की राय सरकार से बिल्कुल अलग है । मनमोहन सिंह कहते हैं कि नक्सली इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है और उनसे सख्ती से निबटने की जरूरत है । लेकिन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की राय उनसे इतर है । सोनिया गांधी किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ हैं लेकिन नक्सल समस्या को मानवीय ढंग से देखने और इसकी जड़ तक जाने की वकालत करती हैं । अपनी पार्टी के मुख पत्र कांग्रेस संदेश में सोनिया गांधी ने कहा कि नक्सल समस्या को विकास के आईने में देखने की जरूरत है । समाज के सबसे निचले तबके विकास योजनाओं का कर्यान्वयन नहीं होने से ये समस्या बढ़ी है । सोनिया गांधी ने इसे एक सामाजिक समस्या के तौर पर देखती हैं, जबकि उनकी ही सरकार के गृह मंत्री इसे कानून वयवस्था की समस्या मानते हैं और उससे उसी तरह से निबटने की रणनीति बनाते हैं । पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी इकनॉमिक टाइम्स में लेख लिखकर देश के गृह मंत्री की उनकी नक्सली समस्या से निबटने की नीति की आलोचना की थी । इन वाकयों से यह साफ-साफ झलकता है कि नक्सल मुद्दे पर पार्टी और सरकार में एक राय नहीं है । अभी उड़ीसा में वेदांता को बॉक्साइट खनन की मंजूरी नहीं दिए जाने के फैसले को भी इसी आलोक में देखा जाना चाहिए । कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री ने संपादकों के साथ अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि विकास के हर काम में पर्यावरण का अड़ंगा नहीं लगाना चाहिए । मनमोहन सिंह देश में खुली अर्थवयवस्था के जनक और बाजार के पैरोकार माने जाते हैं । लेकिन बावजूद इसके वेदांता को पर्यावरण के नाम पर ही खनन की इजाजत नहीं दी गई । कुछ लोग इसका श्रेय राहुल गांधी को दे रहा हैं जो इस फैसले के पहले नियामगिरी जाकर वहां के आदिवासियों को इस बात का भरोसा दे चुके थे ।
इस तरह के वाकयों से पूरे देश में एक संकेत गया है कि सोनिया गांधी अब मनमोहन सिंह को पसंद नहीं करती हैं और दोनों के बीच मतभेद पैदा हो गए हैं । मीडिया में भी इस बात पर चर्चा शुरू हो गई कि मनमोहन सिंह की प्रधानमंत्री के रूप में उल्टी गिनती शुरू हो गई है । लेकिन इस मसले पर जल्दबाजी में किसी निर्णय पर पहुंचने के बजाए इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है । सरकार और सत्ताधारी पार्टी के बीच मतभेद होना लोकतंत्र के मजबूत होने की निशानी है। और पिछले एक दशक में हमारे राजनीतिक दलों में यह परिपक्वता आई है ।
अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो पहले कांग्रेस में कम से कम इस तरह की परंपरा नहीं थी । जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधाननमंत्री बने तो कुछ दिनों तक तो आजाद होने का रूमानी एहसास कायम था । बाद में नेहरू जी का कद इतना बड़ा हो गया था कि उनके सरकार की आलोचना उनकी आलोचना मान ली जाती थी । लेकिन जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी तो कई मसलों पर मतभिन्नता के चलते कांग्रेस में बंटवारा हुआ । पार्टी पर कब्जे की लड़ाई शुरू हुई जिसमें इंदिरा गांधी को उनकी राजनैतिक कौशल की वजह से जीत मिली । लेकिन जब इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली । हताशा और निराशा में डूबी इंदिरा को पार्टी के तीन बड़े नेताओं- जगजीवन राम, हेमवतीनंदन बहुगुणा और नंदिनी सत्पथी ने छोड़ दिया । एक तो चुनाव में हार और फिर अपनों का साथ छोड़ना- इंदिरा गांधी सतर्क हो गई और 1978 में खुद पार्टी की कमान संभाल ली । उन्होंने यह पद 1980 में फिर से प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नहीं छोड़ा । यहीं आकर पार्टी ही सरकार और सरकार ही पार्टी बन गई, सरकार से अलग पार्टी की कोई राय ही नहीं थी । इंदिरा गांधी ने प्रयासपूर्वक पार्टी को सरकार का पिछलग्गू बना दिया । नतीजा यह हुआ कि पार्टी सरकार की पिछलग्गू बनी और कैबिनेट प्रधानमंत्री की । अपनी मां के पद चिन्हों पर चलते हुए राजीव गांधी ने भी इस परंपरा को कायम रखा । उन्होंने भी प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । वो 1985 से 1991 तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे । राजीव गांधी के बाद जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भी पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए अध्यक्ष का पद अपने ही पास रखा । नतीजा पार्टी सरकार की अनुगामी बनी रही ।
लेकिन बाद में जब एनडीए का शासन आया तो लगा कि यह परंपरा टूटने वाली है । अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उस वक्त कुशाभाई ठाकरे बीजेपी के अध्यक्ष थे । कालांतर में भी बीजेपी के कई अध्यक्ष बदलते रहे लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संगठन पर काबिज होने की कोशिश नहीं की । लेकिन नेहरू की ही तरह अटल बिहारी वाजपेयी का कद भी इतना बड़ा हो गया था कि वो पार्टी से उपर हो गए थे । उनकी सरकार के कामकाज की आलोचना भी अटल बिहारी की वयक्तिगत आलोचना मान ली जाती थी । जिस जिसने भी अटल जी के सरकार की नीतियों की आलोचना की वो संगठन में दरकिनार कर दिए गए चाहे वो गोविंदाचार्य हों या फिर कल्याण सिंह । ये दीगर बात है कि बाद में इन दोनों नेताओं ने अटल जी पर वयक्तिगत हमले किए। लेकिन अगर कुछ देर के लिए बीजेपी को छोड़ दिया जाए और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों की बात की जाए तो वहां सरकार की नीतियों की आलोचना होती थी या फिर ये संगठन सरकार से अलग राय जाहिर करते थे । एनडीए शासन काल में सरकार खुले बाजार और वैश्वीकरण के पक्ष में थी और सरकारी कंपनियों में कई डिसइंवेस्टमेंट हुए । तब संघ से जुड़े संगठन सरकारी कंपनियों में विनिवेश के फैसले की खुले आम आलोचना कर रहे थे । पार्टी से ही संबंद्ध उसके अनुषांगिक संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने सरकार की खुले बाजार की नीति का सार्वजनिक तौर पर विरोध किया था । रामजन्मभूमि के मसले पर भी वीएचपी ने सरकार की नीतियों की खुलेआम आलोचना की थी । लेकिन बीजेपी में आतंरिक लोकतंत्र अपेक्षाकृत कम है । जसवंत सिंह को किताब लिखकर अपनी राय जाहिर करने पर पार्टी से निकाल दिया जाता है, आडवाणी को जिन्ना पर अपनी राय जाहिर करना भारी पड़ा था और उन्हें भी पार्टी अध्यक्ष पद से हटाया गया था ।
लेकिन जिस तरह से कांग्रेस में इन दिनों डेमोक्रेसी दिख रही है उसका श्रेय सोनिया गांधी की कार्यशैली को जाता है । दो हजार चार में जब यूपीए की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री पद ठुकराने के बाद सोनिया ने पार्टी को सरकार से अलग पहचान देने की कोशिशें शुरू कर दी । कई मंत्रियों को शपथ लेने के बाद पार्टी का पद छोड़ना पड़ा । यूपीए -1 के वक्त यह काम थोड़ा धीमा अवस्य रहा लेकिन अब पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी साफ तौर रेखांकित की जा सकती है । राहुल गांधी पार्टी में एक अलग सत्ता केंद्र हैं लेकिन वो भी अपनी राय खुलकर सामने रख रहे हैं और कई बार उनकी राय अपनी ही सरकार की नीतियों के खिलाफ दिखाई देती है । कश्मीर में जारी संकट के बीच उमर अब्दुल्ला को उन्होंने खुलेआम सपोर्ट किया लेकिन सोनिया गांधी की राय उस मसले पर अलग है । उसी तरह प्रणब मुखर्जी की नक्सलियों पर सोनिया गांधी से इतर राय है और वो इसे सार्वजनिक तौर पर उसे जाहिर भी कर चुके हैं । उपर से देखने पर तो यह लगता है कि देश में सबसे बड़ी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र है जहां सबको अपनी राय खुलकर रखने की आजादी है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मेच्योर होने की निशानी है ।
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