Translate
Saturday, April 9, 2011
निराशा का संपादकीय
पिछले पच्चीस साल से राजेन्द्र यादव के संपादन में प्रकाशित हंस का संपादकीय होता है- मेरी तेरी उसकी बात । मैं पिछले पच्चसी साल से तो नहीं लेकिन सत्तरह अठारह साल से नियमित राजेन्द्र जी का संपादकीय पढ़ता रहा हूं । मुझे यह कहने या मानने में कोई संकोच नहीं है कि हंस के संपादकीय ने मुझे चीजों को देखने समझने की एक अलग दृष्टि दी । राजेन्द्र यादव का संपदकीय बहुधा उर्जा से लबरेज और व्यवस्था से लड़ने भिड़ने पर उतारू या सामाजिक रूढियों पर चोट करता हुआ रहता था । यादव जी की तीखी भाषा और तर्क गढ़ने की शक्ति का कायल हो गया था । कई बार हंस संपादक से उनके संपादकीय में प्रकट किए गए विचारों को लेकर असहमतियां भी रही जो लिखकर या फिर मौखिक दर्ज करवाई । लोग संपादकीय के बारे में बेशक अनाप शनाप बोलते रहे हों, कई नामवर लोग तो -मेरी तेरी उसकी बात- को कूड़े की बात कहकर मजाक भी उड़ाते रहे हैं लेकिन अगर ईमानदारी से कहूं तो मुझे उनका संपादकीय हमेशा से विचारोत्तेजक लगता रहा है । अभी पिछले दो तीन अंकों का संपादकीय बेहद अच्छा था,पसंद इसलिए आ रहा था क्योंकि कम डिप्लोमैटिक था । साफ बातें हमेशा से लोगों को पसंद आती हैं, मुझे भी । लेकिन फरवरी अंक का संपादकीय पढ़कर मुझे जाने क्यों बेहद कोफ्त हुई । मैं उनको पत्र लिखना चाह रहा था लेकिन अपनी व्यस्तताओं की वजह से लिख नहीं पाया । लेकिन अगले ही अंक में संपादकीय की भूल-गलतियों पर साधना अग्रवाल का एक लंबा पत्र और राजेन्द्र यादव का खेद भी प्रकाशित है । लेकिन वो तो तथ्यात्मक भूल की बातें थी लेकिन फरवरी अंक के संपादकीय से जो निराशा का भाव सामने आता है वो ना केवल चिंता जनक है बल्कि उस निराशा के अंधकार में यादव जी इतना डूब जाते हैं कि उन्हें पूरी दुनिया, समाज का हर तबका(लेखक को छोड़कर) भ्रष्ट और टुच्चा नजर आता है । उनके संपादकीय को देखिए- “घूस, घोटालों और घपलों का एक साल (2010) बीत गया, शायद यह साल स्वतंत्र भारत के सबसे काले दिनों के रूप में याद किया जाएगा, जहां निरंकुश सत्ता भारतीय संविधान से कारपोरेट हाउसों ने छीन ली और देश के सारे शक्ति स्तंभ चरमरा कर ढह गए हैं । पांचवां स्तंभ यानी मीडिया या तो पेड न्यूज के हाथों बिक गया है या नीरा राडिया जैसों के माध्यम से दोनों हाथों से दलाली खा रहा है ।“ यादव जी के इस संपादकीय ने मीडिया को लोकतंत्र में एक पायदान नीचे ठेल दिया अब तक चौथा स्तंभ माना जाता था लेकिन राजेन्द्र जी ने इसे पांचवा स्तंभ करार दिया । निराशा के घोर आलम में राजेन्द्र यादव जी ने पूरी मीडिया को बिका हुआ या दलाल करार दे दिया । यादव जी जैसे जिम्मेदार और बुजुर्ग लेखक से इस तरह की फतवेबाजी की उम्मीद नहीं की जा सकती है । अगर किसी एक दो अखबार में पेड न्यूज छप रहा है या फिर कुल जमा चार पत्रकारों के नीरा राडिया से संवंध सामने आए हैं वैसे में पूरी मीडिया को दलाल कहना गैरजरूरी ही नहीं गैर जिम्मेदाराना भी है । यादव जी जैसे सम्मानित लोगों को इस तरह के स्वीपिंग रिमार्क से बचना चाहिए । उन्हें शायद इस बात का एहसास होगा कि लोग उनकी बात सुनते हैं, उनके कहे का समाज पर असर पड़ता है । इसलिए अगर वो कोई बात कहते हैं तो उसमें सब्सटैंस होना चाहिए । लेकिन वो तो एक डंडा लेकर निकल पड़े हैं और उससे ही सभी को हांकने पर आमादा हैं । मीडिया पर यहीं नहीं रुकते उसी में आगे कहते हैं – देश की राजधानी में हर रोज दर्जनों हत्याएं, बलात्कार और लूट-पाट की घटनाएं आम हो चुकी हैं – गरीबी अमीरी के बीच की खाई अपराधों और हत्याओं से पाटी जा रही है । गरीब और वंचित आदमी आखिर कब तक उपर वालों की हजारों-लाखों करोड़ की हेर-फेर को चुपचाप बैठा देखता रहे ? टीवी चैनलों और अखबारों के पास इन सनसनीखेज खबरों के सिवा परोसने को कुछ नहीं बचा है । वे इन्हें ही कूट पीस रहे हैं । गांव और गरीबी का वहां कोई नामोनिशान नहीं रह गया है । यहां भी यादव जी का संपादकीय समान्यीकरण के दोष का शिकार हो गया है । यादव जी जिन घपलों –घोटालों की बात कर रहें हैं उसे किसने उजागर किया । जिस एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ के टेलीकॉम घोटाले में पूर्व मंत्री ए राजा जेसल में हैं उसका पर्दाफाश किसने किया । क्या एक अखबार के रिपोर्टर ने आजाद भारत के इस सबसे बड़े घोटाले का पर्दाफाश नहीं किया । क्या कमजोर के हक की लडाई मीडिया नहीं लड़ता है । क्या यादव जी जेसिका के इंसाफ की लड़ाई भूल गए या फिर प्रियदर्शिनी मट्टू कांड में मीडिया की सामाजिक भूमिका को भुला दिया या फिर अभी अभी दिल्ली के एक कॉलेज की लड़की राधिका की सरेआम हत्या पर मीडिया ने सरकार और पुलिस पर दबाव नहीं बनाया । यह फेहरिश्त बड़ी लंबी है । लेकिन यादव जी देखना चाहें तब तो उन्होंने तो पहले से ही तय कर लिया है कि सबका नाश करना है और फिर उसपर पिल पड़े । लेकिन जब आप सामान्यीकरण की बीमारी से ग्रस्त होते हैं तो आप सिर्फ वही देख सकते हैं जो आप देखना चाहते हैं । आगे अपने संपादकीय में यादव जी अपने पसंदीदा विषय नक्सली और उसके हमदर्द विनायक सेन पर पहुंचते हैं और टिप्पणी करते हैं – उधर काश्मीर, असम और महाराष्ट्र में रोज बंद होते हैं । घर बसें और सार्वजनिक संपत्तियां फूंकी जाती हैं । गोली लाठी पत्थर चलाए जाते हैं ऐसे में आदिवासियों, किसानों के हितों के लिए लड़नेवाले माओवादी, नक्सली देश के दुश्मन नंबर वन घोषित ही नहीं किए जाते, फौजों और हवाई जहाजों से वहां शांति स्थापित की जाती है । भगवान जाने किसने माओवादियों को देश का दुश्मन नंबर वन घोषित किया है लेकिन यादव जी इतना तो तय मानिए कि जिसे आप आदिवासियों और किसानों के हितों के लिए लड़नेवाला नक्सली और माओवादी बता रहे हैं वो अब सिर्फ अपने हित की सोचते हैं । अब वो अपराधी बन चुके हैं । अब वो फिरौती के लिए अपहरण करते हैं और धन नहीं मिलने पर मासूमों को जान से मार डालते हैं । किसानों के हितों की आड़ में अपराध का नंगा खेल खेला जा रहा है । उससे भी चिंता की बात है कि उनका संपर्क आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों से होने लगा है । लेकिन यादव जी आप जिस लाल चश्मे से नक्सलियों को देखते हैं उससे तो वो किसानों और गरीबों के हितों का रक्षक ही नजर आएगा । जरा आंखों से लाल चश्मा हटाकर देखिए आपको अपराध की काली दुनिया नजर आएगी । जिस बिनायक सेन को आप गरीबों का चिकित्सक बता रहे हैं वो देशद्रोह की सजा काट रहे हैं । देश के तमाम नामी गिरामी वकीलों और गैर सरकारी संस्थाओं का पैसा भी बिनायक सेन को हाईकोर्ट से जमानत नहीं दिलवा सका । आपलोगों का तर्क होगा कि अदालत भी तो राज्य सत्ता का एक अंग ही होता है । देश की न्यायपालिका पर भी आपका भरोसा नहीं रहा । आपने लिखा- न्यायपालिकाएं खुलेआम अपने फैसले अपराधी के पक्ष में बेच रही हैं । यहां भी जनरलाइजेशन । अगर हमारी न्यायपालिका अपने फैसले बेच रही होती तो विदेशों से आर्थिक मदद पानेवाली देशी एनजीओ बिनायक सेन के लिए फैसला खरीद चुकी होती । लेकिन यकीन मानिए यादव जी हमारी देश की न्यायपालिका आपको अवस्य बिकी हुई नजर आ रही हो लेकिन एक दो अपवादों को छोड़कर, कमोबेश ईमानदार है । राजेन्द्र जी के अपने इस छाती पीट रंडी रोना पर क्षमा मांगते हुए भविष्य को और काला देख रहे हैं । लेकिन असलियत में यादव जी जितना काला देख पा रहे हैं उतना है नहीं । समाज के हर क्षेत्र में गड़बड़ लोग हैं, गड़बड़ियां भी हो रही है लेकिन उससे ज्यादा अच्छा काम भी हो रहा है । जरूरत है कि हम अपने अप्रोच और आउटलुक में पॉजेटिव हों । अगर इतना हो गया तो यकीन मानिए यादव जी की निराशा की काली छाया भी छंट जाएगी ।
Labels:
राजेन्द्र यादव,
संपादकीय
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment