जब टीम अन्ना की सहयोगी किरण बेदी पर हवाई यात्राओं के लिए ज्यादा पैसे वसूलने का आरोप लगा तो पहले ज्यादा पैसा लेने को लोगों की भलाई के लिए लिया गया पैसा करार देकर उसको जायज ठहराने की कोशिश की गई । बाद में किरण ने यह ऐलान कर अपनी ईमानदारी का परचम लहराने की कोशिश की कि वो उन संगठनों के पैसे वापस कर देंगी जिनसे ज्यादा पैसे वसूले गए थे। सवाल पैसे वापस करने का नहीं है । सवाल यह है कि टीम अन्ना की अहम और मुखर सदस्य किरण बेदी ने जिस तरह से अपनी यात्रा के लिए गैर सरकारी संगठनों से ज्यादा पैसे वसूले वो उनकी इंटेग्रेटी पर बड़ा सवाल खड़े करता है । सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और शुचिता का डंका पीटनेवाली किरण बेदी ने एक नहीं बल्कि कई संगठनों से अपनी हवाई यात्रा के एवज में ज्यादा धन लिया । उनपर आरोप है कि उन्होंने इकॉनामी क्लास में यात्रा की और बिजनेस क्लास के टिकट के बराबर भुगतान हासिल किया । अपने उपर लग रहे आरोपों से तिलमिलाई किरण बेदी कहा कि यात्रा टिकट से जो पैसे बचे वो लोगों की भलाई के लिए उन्होंने अपने एनजीओ में जमा करवा दिए । टेलीकॉम घोटाले में जेल में बंद तमिलनाडू के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि की बेटी कनिमोड़ी ने भी अपने एनजीओ में ही धन लिया था । उनका संगठन भी लोगों की भलाई के ही काम करता है । तो क्या उनके भी गुनाह माफ कर दिए जाने चाहिए । लिहाजा किरण बेदी की इन दलीलों में दम नहीं है । जिस नैतिकता और शुचिता की बात करते हुए किरण बेदी ने हमारे देश के नेताओं को कठघरे में खड़ा किया था उन्हीं के भंवर में वो फंस गई हैं । इल्जाम इतने पर ही नहीं रुके । आरोप यह भी है कि उन्होंने एक ही शहर की यात्रा के लिए दो अलग अलग संगठनों से पैसे लिए । किरण बेदी को गैलेंटरी अवॉर्ड की बिनाह पर यात्रा में छूट मिलती है । किरण बेदी ने वो छूट भी हासिल की और फिर किराए का पूरा पैसा भी वसूला । यह तो सीधे तौर पर घपला है। सरकारी छूट भी हासिल करो उसको भुना भी लो ।ईमानदारी का डंका भी बजाओ और जहां मौका मिले वहां माल भी काट लो । इनके अगुवा अन्ना हजारे चूंकि मौन व्रत पर हैं इस वजह से उनके प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने किरण बेदी के समर्थन में मोर्चा संभाला और अपनी चिरपरिचित शैली में किरण का बचाव करते हुए कहा कि यह सब जनलोकपाल के मुद्दे से देश का ध्यान हटाने की साजिश के तहत किया जा रहा है । केजरीवाल पहली बार डिफेंसिव और दलीलों में लचर लग रहे थे । सिर्फ जनलोकपाल के मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश की आड़ में किरण का बचाव करने में असमर्थ केजरीवाल ने आनन फानन में बुलाई अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में तो यहां तक कह डाला कि उन्हें पूरे मामले की जानकारी नहीं है । सवाल यह उठता है कि अगर आपको पूरे मामले की जानकारी नहीं थी तो फिर मीडिया के सामने आकर बयानबाजी क्यों कर रहे हैं । क्या बयान देने से पहले पूरे मामले की जानकारी हासिल करने की जरूरत नहीं समझी गई । जब सवालों के तीर ज्यादा चलने लगे तो अरविंद ने इशारों-इशारों में मीडिया को इस मामले में केस दर्ज करवाने की नसीहत दे डाली । सवाल अब भी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ा है कि क्या किरण बेदी ने गलत नहीं किया । क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन का एक तथाकथित बड़ा चेहरा छोटे से लाभ के लिए अपने रास्ते से भटक नहीं गया । क्या वीरता के लिए मिले छूट का बेजा इस्तेमाल नहीं किया । क्या लोगों की भलाई करने के लिए भ्रष्ट तरीके से पैसा जुटाना जायज है । अरविंद और अन्ना हजारे हमेशा से पारदर्शिता की बात करते रहे हैं लेकिन किरण बेदी के मामले में जो गड़बड़झाला है उससे उसकी हवा निकल जाती है ।
दूसरा संगीन इल्जाम लगा है टीम अन्ना के एक और अहम सदस्य डॉक्टर कुमार विश्वास पर । अन्ना आंदोलन के दौरान कुमार विश्वास बड़े जोश-ओ-खरोश के साथ रामलीला मैदान में मंच संचालन करते नजर आए थे । उसके बाद गाहे बगाहे खबरिया चैनलों ने भी उनको तवज्जो दी । कुमार विश्वास ने भी खुद को टीम अन्ना का प्रवक्ता साबित करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । कुमार विश्वास ने खुद को टीम अन्ना के अहम सदस्य के तौर पर स्थापित भी कर लिया । लेकिन इन सबके बीच कुमार यह भूल गए कि वो गाजियाबाद के लाजपत राय कॉलेज में शिक्षक भी हैं । आरोप है कि बेईमानी के खिलाफ ईमानदारी का झंडा थामे कुमार विश्वास ने क्लास लेना बंद कर दिया । देश के लिए बड़ी जिम्मदारी निभाने वाला शख्स छात्रों के प्रति अपनी जिम्मेदारी भुला बैठा । छात्र कॉलेज आते रहे और शिक्षक के गैरहाजिर रहने पर मायूस होकर लौटते रहे । कॉलेज प्रशासन के मुताबिक कुमार विश्वास बगैर किसी जानकारी से अनुपस्थित रहते हैं । कुमार विश्वास कवि सम्मेलनों में जाकर ज्ञान का अलख जगा रहे हैं, पैसे भी कमा रहे हैं । पैसा कमाना गलत नहीं है लेकिन नौकरी करते हुए बगैर छुट्टी के आंदोलन में शामिल होना, चुनाव में दौरे पर जाना कितना जायज है । क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है कि जिस काम के लिए आपको पैसे मिलते हैं उसको आप उचित ढंग से नहीं कर रहे हैं । अरविंद केजरीवाल ने कुमार विश्वास के मसले पर भी सफाई देने की कोशिश की और इस मुद्दे को भी जनलोकपाल से ध्यान भटकाने वाला करार दिया । लेकिन क्या टीम अन्ना पर उठनेवाला हर सवाल जनलोकपाल से भटकाने के लिए उठाया जा रहा है । अरविंद जैसे समझदार आदमी से इस तरह के लचर तर्क की अपेक्षा नहीं थी। यहां यह जानना दिसचस्प होगा कि कुमार विश्वास ने अगर अपने कॉलेज से छुट्टी ली तो वजह क्या बताई । सवाल यह है कि टीम अन्ना अगर ईमानदारी और नैतिकता की बात करेंगे तो उन्हें पहले खुद ही उसका पालन करना होगा ।
टीम अन्ना ने जब भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का ऐलान किया था तो पूरे देश ने उन्हें सर आंखों पर बिठा लिया था । टीम अन्ना के हर सदस्य को लेकर, टीम अन्ना के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं को लेकर समाज में एक इज्जत बनी थी । जब दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे अनशन पर बैठे थे तो तिरंगा हाथ में लिए लोगों को, बाइक सवार युवकों को लोग अपनी गाड़ियां रोककर रास्ता देते थे । यह उसी प्रकार की श्रद्धा का प्रदर्शन था जैसा कि लोग कांवड़ियों को रुककर रास्ता देते वक्त करते हैं । कहने का मतलब यह कि देश की जनता के मन में टीम अन्ना और उसकी विश्वसनीयता की बेहद उंची जगह बनी थी । टीम अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ऐसे प्रतीक के तौर पर उभरी थी जिसपर पूरा देश आंख मूंदकर श्रद्धाभाव से यकीन कर रहा था । आंदोलन शुरू होने के बाद टीम अन्ना के कई सदस्यों पर संगीन इल्जाम लगने शुरू हो गए । सबसे पहले प्रशांत भूषण को नोएडा में फॉर्म हाउस के लिए जमीन आवंटन का मामला उछला । उस जमीन का आवंटन भी टेलीकॉम स्पेक्ट्रम की तरह पहले आओ पहले पाओ की नीति के तहत किया गया था । नोएडा की जमीन का मामला थमा भी नहीं था कि इलाहाबाद के उनके घर की रजिस्ट्री की फीस का मामला सामने आया । प्रशांत भूषण के बाद अरविंद केजरीवाल को इंकम टैक्स विभाग की तरफ से बकाया राशि चुकाने का नोटिस मिला । लेकिन जब ये आरोप लग रहे थे तो अन्ना आंदोलन अपने चरम पर था और लोगों को लगा कि सरकार और चंद लोग टीम अन्ना को बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं । प्रशांत और अरविंद पर लग रहे आरोपों का असर उल्टा हुआ था । देश की जनता और मजबूती के साथ टीम अन्ना से जुड़ती चली गई ।
अब वक्त आ गया है कि टीम अन्ना को उन्हीं उच्च मानदंडों पर खरा उतरना होगा जिसके लिए वो आंदोलन कर रहे हैं । गांधी जब कोई बात कहते थे तो पहले खुद उसपर अमल करते थे । गांधी उपदेश कम देते थे मिसाल कायम करके जनता को वो काम करने के लिए प्रेरित ज्यादा करते थे । गांधी के अनुयायियों ने भी उसी सिद्धांत पर अमल किया । टीम अन्ना से भी देश उसी ईमानदारी और नैतिकता की अपेक्षा रखता है ।
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Friday, October 28, 2011
Monday, October 24, 2011
अमिताभ का विरोध क्यों ?
हमारे देश के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार को लेकर विवाद पैदा किया जा रहा है । विवाद और आपत्ति इस बात को लेकर है कि शहरयार और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन के हाथों दिया गया । इस बात को लेकर कई साहित्यकारों को घोर आपत्ति है कि हिंदी फिल्मों में नाचने गाने वाला कलाकार हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक को सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार देने योग्य कैसे हो गया । दरअसल ये हिंदी के शुद्धतावादी लेखकों की कुंठा है जो किसी ना किसी रूप में प्रकट होती है । मेरी जानकारी में सबसे पहले ये सवाल हिंदी के आलोचक वीरेन्द्र यादव ने सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर उठाया । वीरेन्द्र यादव ने फेसबुक पर लिखा- हिंदी के दो शीर्ष लेखकों श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने का समाचार इन दिनों सुर्खियों में है । फिलहाल इस बात से ध्यान हट गया है कि ज्ञानपीठ में अब अमिताभ बच्चन का दखल हो गया है । अभी पिछले ही हफ्ते शहरयार को अमिताभ बच्चन ने यह पुरस्कार दिया है । यानि अब मूर्धन्य साहित्यकार बॉलीवुड के ग्लैमर से महिमामंडित होंगे । जिस सम्मान को अबतक भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और नेल्सन मंडेला जैसी विभूतियां देती रही हों उसकी यह परिणति दयनीय नहीं है । वीरेन्द्र यादव ने फेसबुक पर क्या नहीं की शक्ल में सवाल भी उछाला । वीरेन्द्र यादव एक समझदार और सतर्क आलोचक हैं । उनसे इस तरह की हल्की टिप्पणी की उम्मीद मुझे नहीं थी । अमिताभ बच्चन इस देश के एक बड़े कलाकार हैं और सिर्फ फिलमों में लंबू तंबू में बंबू लगाए बैठा और झंडू बाम का विज्ञापन कर देने भर से उनका योगदान कम नहीं हो जाता । क्या वीरेन्द्र यादव को अमिताभ बच्चन की उन फिल्मों का नाम गिनाना होगा जिसमें उन्होंने यादगार भूमिकाएं की । क्या वीरेन्द्र यादव को अमिताभ बच्चन के अभिनय की मिसाल देनी होगी । मुझे नहीं लगता है कि इसकी जरूरत पड़ेगी । अमिताभ बच्चन इस सदी के सबसे बड़े कलाकार के तौर पर चुने गए हैं । वीरेन्द्र यादव को यह समझना होगा कि हर व्यक्ति की अपनी आर्थिक जरूरतें होती हैं और वो जिस पेशे में होता है उससे अपनी उन आर्थिक जरूरतों को पूरा करने की कोशि्श करता है । अमिताभ बच्चन ने भी वही किया । सचिन तेंदुलकर और शबाना आजामी भी कई उत्पादों का विज्ञापन करते हैं तो क्या सिर्फ उन विज्ञापनों के आधार पर ही उनके क्षेत्र में उनके योगदान को नकार दिया जाए । अमिताभ बच्चन की तरह बिरजू महाराज भी झंडू बाम का विज्ञापन करते हैं तो इसी आधार परक उनके योगदान को कम कर दिया जाना चाहिए । लगता है वीरेन्द्र जी की नजर से यह विज्ञापन नहीं निकला वर्ना वो बिरजू महाराज को और उनके योगदान को खारिज कर देते । कई बड़े कलाकार विज्ञापन करते हैं ये बातें उनके पेशे से जुड़ी है । अमिताभ बच्चन पोलियो ड्राप का भी विज्ञापन करते हैं । वीरेन्द्र यादव की बहस में अमिताभ की इस बात के लिए भी आलोचना की गई है कि वो गुजरात के ब्रैंड अंबेस्डर हैं । उस गुजरात के जिसके मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं । लेकिन इस बात को छुपा लिया गया कि वही अमिताभ बच्चन उस जमाने में केरल के ब्रैंड अंबेसडर थे जब वहां वामपंथी सरकार थी । तो इस तरह के तर्क और इस तरह की समझ पर सिर्फ तरस आ सकता है ।
हिंदी के एक और लेखक अशोक वाजपेयी -जिनका दायरा और एक्सपोजर किसी भी अन्य लेखक से बड़ा है- ने भी अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने को संस्थान की एक दयनीय कोशिश करार दिया है । अशोक वाजपेयी ने अपने साप्ताहिक कॉलम में लिखा कि – यह समझना मुश्किल है कि अब अपने को सिनेमाई चमक से जोड़ने की जो दयनीय कोशिश भारतीय ज्ञावपीठ कर रहा है, उसका कारण क्या है । अशोक वाजपेयी जी को यह समझना होगा कि ज्ञानपीठ की यह कोशिश अपने को सिनेमाई चमक से जोड़ने की नहीं बल्कि हिंदी के बड़े लेखक को एक बड़े कलाकार के हाथो सम्मानित करवाने की हो सकती है । मुझे नहीं मालूम कि ज्ञानपीठ की मंशा क्या थी । वो सिनेमाई चमक से जुड़कर क्या हासिल कर लेगा । इस मंशा और वजह को अशोक वाजपेयी बेहतर समझते होंगे । अशोक जी के मुताबिक ज्ञानपीठ का किसी अभिनेता को बुलाने का निर्णय किसी कलामूर्धन्य को बुलाने की इच्छा से नहीं जुड़ा है क्योंकि ऐसी इच्छा के ज्ञानपीठ में सक्रिय होने का कोई प्रमाण या परंपरा नहीं है । प्रसंगव श उन्होंने भारत भवन में कालिदास सम्मान के लिए तीन कलामूर्धन्यों को बुलाने की बात कहकर अपनी पीठ भी थपथपा ली । वाजपेयी जी के इन तर्कों में कोई दम नहीं है और ज्ञानपीठ की परंपरा की दुहाई देकर वो अमिताभ बच्चन के योदगान को कम नहीं कर सकते । अमिताभ का हिंदी के विकास में जो योदगान है उसे अशोक वाजपेयी के तर्क नकार नहीं सकते । अमिताभ बच्चन ने हिंदी के फैलाव में जिस तरह से भूमिका निभाई उसको बताने की कोई आवश्यकता नहीं है । लेकिन वह उनके आलोचकों को वह भी दिखाई नहीं देता । अमिताभ बच्चन हिंदी फिल्मों के एकमात्र कलाकार हैं जो हिंदी में पूछे गए सवालों का हिंदी में ही जवाब देते हैं । मुझे तो लगता है कि हाल के दिनों में जिस तरह से घोटालों के छीटें यूपीए सरकार पर पड़ रहे हैं उस माहौल में मनमोहन सिंह से बेहतर विकल्प तो निश्चित तौर पर अमिताभ बच्चन हैं । दरअसल अशोक वाजपेयी जैसा संवेदनशील लेखक जो कला और कलाकारों की इज्जत करते रहे हैं उनकी लेखनी से जब एक बड़े कलाकार के लिए छोटे शब्द निकलते हैं तो तकलीफ होती है । अशोक वाजपेयी को अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिलवाने पर तो आपत्ति है लेकिन जब हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश को कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ अपने कर कमलों से पुरस्कृत करते हैं तो अशोक वाजपेयी चुप रह जाते हैं । अशोक वाजपेयी जैसे बड़े लेखक की जो ये सेलेक्टेड चुप्पी होती है वह साहित्य और समाज के लिए बेहद खतरनाक है ।
मुझे लगता है कि अशोक वाजपेयी का विरोध अमिताभ से कम ज्ञानपीठ से ज्यादा है । उसी विरोध के लपेटे में अमिताभ बच्चन आ गए हैं । जिस तरह से किसी जमाने में प्रतिष्ठित रहा अखबार ज्ञानपीठ के खिलाफ मुहिम चला रहा है उससे यह बात और साफ हो जाती है । अशोक वाजपेयी की देखादेखी कुछ छुटभैये लेखक भी अमिताभ बच्चन और ज्ञानपीठ के विरोध में लिखने लगे । अखबार ने उन्हें जगह देकर वैधता प्रदान की कोशिश की लेकिन अखबार के कर्ताधर्ताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि पाठक मूर्ख नहीं होते हैं । उन्हें प्रायोजित चर्चाओं में और स्वत:स्फूर्त स्वस्थ साहित्यिक बहस में फर्क मालूम होता है । वो यह भांप सकता है कि कौन सा विवाद अखबार द्वारा प्रायोजित है और उसके पीछे की मंशा और राजनीति क्या है । कहना ना होगा कि ज्ञानपीठ और अमिताभ को विवादित करने के पीछे की मंशा भी साफ तौर पर लक्षित की जा सकती है । इस विवाद को उठाने के पीछे की मंशा के सूत्र आप छिनाल विवाद से भी पकड़ सकते हैं । लेकिन इतना तय मानिए कि हिंदी के लोगों का फिल्म के कलाकारों को लेकर जो एक ग्रंथि है वो उनके खुद के लिए घातक है । फिल्म में काम करनेवाला भी कलाकार होता है और किसी भी साहित्यकार, गायक, चित्रकार से कम नहीं होता । मेरा तो मानना है कि अमिताभ बच्चन को बुलाकर ज्ञानपीठ ने एक ऐसी परंपरा कायम की है जिससे हिंदी का दायरा बढेगा । इस बात का विरोध करनेवाले हिंदी भाषा के हितैषी नहीं हो सकते । उनसे मेका अनुरोध है कि वयक्तिगत स्कोर सेट करने के लिए किसी का अपमान नहीं होना चाहिए ।
हिंदी के एक और लेखक अशोक वाजपेयी -जिनका दायरा और एक्सपोजर किसी भी अन्य लेखक से बड़ा है- ने भी अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने को संस्थान की एक दयनीय कोशिश करार दिया है । अशोक वाजपेयी ने अपने साप्ताहिक कॉलम में लिखा कि – यह समझना मुश्किल है कि अब अपने को सिनेमाई चमक से जोड़ने की जो दयनीय कोशिश भारतीय ज्ञावपीठ कर रहा है, उसका कारण क्या है । अशोक वाजपेयी जी को यह समझना होगा कि ज्ञानपीठ की यह कोशिश अपने को सिनेमाई चमक से जोड़ने की नहीं बल्कि हिंदी के बड़े लेखक को एक बड़े कलाकार के हाथो सम्मानित करवाने की हो सकती है । मुझे नहीं मालूम कि ज्ञानपीठ की मंशा क्या थी । वो सिनेमाई चमक से जुड़कर क्या हासिल कर लेगा । इस मंशा और वजह को अशोक वाजपेयी बेहतर समझते होंगे । अशोक जी के मुताबिक ज्ञानपीठ का किसी अभिनेता को बुलाने का निर्णय किसी कलामूर्धन्य को बुलाने की इच्छा से नहीं जुड़ा है क्योंकि ऐसी इच्छा के ज्ञानपीठ में सक्रिय होने का कोई प्रमाण या परंपरा नहीं है । प्रसंगव श उन्होंने भारत भवन में कालिदास सम्मान के लिए तीन कलामूर्धन्यों को बुलाने की बात कहकर अपनी पीठ भी थपथपा ली । वाजपेयी जी के इन तर्कों में कोई दम नहीं है और ज्ञानपीठ की परंपरा की दुहाई देकर वो अमिताभ बच्चन के योदगान को कम नहीं कर सकते । अमिताभ का हिंदी के विकास में जो योदगान है उसे अशोक वाजपेयी के तर्क नकार नहीं सकते । अमिताभ बच्चन ने हिंदी के फैलाव में जिस तरह से भूमिका निभाई उसको बताने की कोई आवश्यकता नहीं है । लेकिन वह उनके आलोचकों को वह भी दिखाई नहीं देता । अमिताभ बच्चन हिंदी फिल्मों के एकमात्र कलाकार हैं जो हिंदी में पूछे गए सवालों का हिंदी में ही जवाब देते हैं । मुझे तो लगता है कि हाल के दिनों में जिस तरह से घोटालों के छीटें यूपीए सरकार पर पड़ रहे हैं उस माहौल में मनमोहन सिंह से बेहतर विकल्प तो निश्चित तौर पर अमिताभ बच्चन हैं । दरअसल अशोक वाजपेयी जैसा संवेदनशील लेखक जो कला और कलाकारों की इज्जत करते रहे हैं उनकी लेखनी से जब एक बड़े कलाकार के लिए छोटे शब्द निकलते हैं तो तकलीफ होती है । अशोक वाजपेयी को अमिताभ बच्चन के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार दिलवाने पर तो आपत्ति है लेकिन जब हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश को कट्टर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ अपने कर कमलों से पुरस्कृत करते हैं तो अशोक वाजपेयी चुप रह जाते हैं । अशोक वाजपेयी जैसे बड़े लेखक की जो ये सेलेक्टेड चुप्पी होती है वह साहित्य और समाज के लिए बेहद खतरनाक है ।
मुझे लगता है कि अशोक वाजपेयी का विरोध अमिताभ से कम ज्ञानपीठ से ज्यादा है । उसी विरोध के लपेटे में अमिताभ बच्चन आ गए हैं । जिस तरह से किसी जमाने में प्रतिष्ठित रहा अखबार ज्ञानपीठ के खिलाफ मुहिम चला रहा है उससे यह बात और साफ हो जाती है । अशोक वाजपेयी की देखादेखी कुछ छुटभैये लेखक भी अमिताभ बच्चन और ज्ञानपीठ के विरोध में लिखने लगे । अखबार ने उन्हें जगह देकर वैधता प्रदान की कोशिश की लेकिन अखबार के कर्ताधर्ताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि पाठक मूर्ख नहीं होते हैं । उन्हें प्रायोजित चर्चाओं में और स्वत:स्फूर्त स्वस्थ साहित्यिक बहस में फर्क मालूम होता है । वो यह भांप सकता है कि कौन सा विवाद अखबार द्वारा प्रायोजित है और उसके पीछे की मंशा और राजनीति क्या है । कहना ना होगा कि ज्ञानपीठ और अमिताभ को विवादित करने के पीछे की मंशा भी साफ तौर पर लक्षित की जा सकती है । इस विवाद को उठाने के पीछे की मंशा के सूत्र आप छिनाल विवाद से भी पकड़ सकते हैं । लेकिन इतना तय मानिए कि हिंदी के लोगों का फिल्म के कलाकारों को लेकर जो एक ग्रंथि है वो उनके खुद के लिए घातक है । फिल्म में काम करनेवाला भी कलाकार होता है और किसी भी साहित्यकार, गायक, चित्रकार से कम नहीं होता । मेरा तो मानना है कि अमिताभ बच्चन को बुलाकर ज्ञानपीठ ने एक ऐसी परंपरा कायम की है जिससे हिंदी का दायरा बढेगा । इस बात का विरोध करनेवाले हिंदी भाषा के हितैषी नहीं हो सकते । उनसे मेका अनुरोध है कि वयक्तिगत स्कोर सेट करने के लिए किसी का अपमान नहीं होना चाहिए ।
Sunday, October 23, 2011
क्यों मिलता अन्ना को समर्थन
पिछले दिनों जब दिल्ली में अन्ना हजारे का अनशन हुआ था तो रामलीला मैदान में उमड़ी भीड़ को देखकर अचंभा हुआ था । दिल्ली में लाख लोग एक जगह किसी खास मकसद को लेकर जमा हो जाएं ये लगभग अविश्वसनीय था । लेकिन वो हुआ और लोग खुद से अन्ना के आंदोलन को समर्थन देने चले आए । अन्ना के समर्थन में रामलीला मैदान में सिर्फ दिल्ली की जनता ही नहीं पहुंची थी बल्कि देश के अलग अलग हिस्सों से लोग वहां जमा हुए थे । वहां जाकर ये समझने की कोशिश की थी कि कौन सी वजह है जो लोगों को वहां खींच ला रही है । लोगों से बात कर कुछ समझ में आया लेकिन जिस निष्ठा और कनविक्शन के साथ लोग वहां पहुंच रहे थे उसको समझ नहीं पा रहा था । कई लोगों से बात की – एक मित्र ने बताया कि एक दिन उनकी पत्नी घर से उनके दफ्तर पहुंची और रिसेप्शन पर कार की चाबी के साथ एक चिट छोड़ा जिसमें लिखा था- मैं अन्ना हजारे के आंदोलन में शरीक होने के लिए रामलीला मैदान जा रही हूं । अगर तुमको वक्त मिले तो मुझे लेने आ जाना वर्ना मैं मेट्रो से घर आ जाउंगी । मैं उन दोनों, पति-पत्नी, को कई वर्षों से जानता हूं । पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करने के बारे में भाभी सोच भी सकती हैं यह मेरे समझ से परे था । मेरे मित्र ने बाद में बताया कि वो अन्ना इफेक्ट था । इस तरह के कई वाकए मेरे सामने आए तो मेरे मन में यह जानने की जिज्ञासा और प्रबल हो गई कि अन्ना में क्या जादू है जो लोग खिंचे चले जाते हैं । काफी लोगों से बात की, काफी लेख पढ़े लेकिन फिर भी वजह का पता नहीं चल पाया । लेकिन अचानक से मेरा ज्ञानचक्षु खुल गया । वाकया बेहद मजेदार है, आप भी सुनिए ।
तकरीबन चार महीने पहले किसी काम की वजह से स्टैंप पेपर खरीदना पड़ा था । गलत गणित की वजह से तकरीबन दस हजार रुपए के स्टैंप पेपर की ज्यादा खरीद हो गई । हमें लगा कि पैसे बर्बाद हो गए लेकिन हमारे वकील ने बताया कि स्टैंप पेपर वापस लौटाने का भी प्रावधान है । उसके लिए एडीएम के कार्यालय में जाना पड़ेगा । वकील साहब ने आनन- फानन में इस बाबत एक आवेदनपत्र तैयार कर दिया और कहा कि उसको जाकर एडीएम के दफ्तर में जमा करवा दीजिए । मैं रजिस्ट्रार के दफ्तर से एडीएम साहब के दफ्तर में पहुंचा । वहां संबंधित बाबू से मिला तो उन्होंने बताया कि जिस वेंडर से स्टैंप पेपर खरीदा गया है उससे प्रमाणित करवा कर लाना होगा कि उक्त स्टैंप पेपर उसने ही बेचा है । मैंने उनको ये बताने की कोशिश की कि स्टैंप पेपर के पीछे तो बेचनेवाले वेंडर की मुहर लगी है और उसका पूरा पता भी अंकित है लिहाजा फिर से प्रमाणित करवाने की आवश्कता नहीं है । लेकिन बाबू तो ठहरे बाबू । लकीर के फकीर । टस से मस नहीं हुए और फिर से वही दुहरा दिया । मेरे पास कोई विकल्प नहीं था । घर लौट आया । हफ्ते भर बाद जब दफ्तर से साप्ताहिक अवकाश मिला तो सुबह सुबह तकरीबन ग्यारह बजे रजिस्ट्रार के दफ्तर पहुंचा । वहां स्टैंप विक्रेता से मिला तो उसने कहा कि दो बजे आइए । मेरे पास इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था । तपती दुपहरी में कचहरी परिसर में इंतजार करता रहा । ठीक दो बजे उनके पास पहुंचा तो उन्होंने वादे के मुताबिक स्टैंप पेपर पर लिख कर दे दिया । अब मैं विजेता के भाव से कचहरी परिसर से निकला और तीन चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित एडीएम के दफ्तर पहुंचा और वहां बाबू के टेबल पर उसी विजयी भाव से स्टैंप पेपर रखा और कहा कि चलिए इसको लौटाने की कार्रवाई शुरू करिए । मेरे उत्साह पर चंद पलों में पानी फेरते हुए उन्होंने कहा कि आप पोस्ट ऑफिस से एक रजिस्ट्री का लिफाफा खरीद कर और उसपर अपना पता लिखकर दे दीजिए । मैं भागकर नीचे पोस्ट ऑफिस पहुंचा् तबतक पोस्ट ऑफिस बंद हो चुका था । मैं हारे हुए योद्धा की तरह बाबू के पास पहुंचा । उनसे बताया कि पोस्ट ऑफिस बंद हो चुका है । बाबू साहब जल्दी में लग रहे थे । उन्होंने बेहद अनौपचारिक अंदाज में कहा कि कोई बात नहीं कल दे जाना । मेरे बहुत अनुरोध करने पर वो इस बात के लिए राजी हो गए कि मैं किसी और से वो लिफाफा भिजवा दूंगा । मैंने अपने एक मित्र से अनुरोध किया और उनको वो लिफाफा भिजवा दिया । मेरे मित्र को साहब बहादुर ने बताया कि अब तीन महीने बाद आकर रिफंड ले जाएं । मुझे संतोष हुआ कि चलो तीन महीने बाद पैसे मिल जाएंगे । तब तक कचहरी और एडीएम ऑफिस के चार चक्कर लग चुके थे ।
तकरीबन साढे तीन महीने बाद एक दिन मेरी पत्नी ने मुझे याद दिलाया कि हमें स्टैंप का कुछ रिफंड मिलना है । अगले ही साप्ताहिक अवकाश में मैं एडीएम साहब के दफ्तर पहुंचा । बाबू साहब अपनी सीट पर मौजूद थे । मैंने नमस्कार कर अपना नाम बताया । बेहद ही तत्परता से उन्होंने फाइल निकाली और कहा कि मैं अपने किसी परिचय पत्र की फोटो कॉपी उन्हें दूं । मैं मूर्ख अज्ञानी बगैर फोटो कॉपी लिए वहां चला गया था । खैर पास की ही एक दुकान से फोटो कॉपी करवाकर उनको सौंप दिया । उन्होंने भी मुझे स्टैंप पेपर के पीछे लिखकर दे दिया और कहा कि नीचे की मंजिल पर कोषागार कार्यालय है वहां जाकर जमा करवा दूं । जब मैं उठने को हुआ तो बाबू साहब ने मुझे पोस्ट ऑफिस की रजिस्ट्री वाला लिफाफा पकड़ाया और कहा कि रख लो तुम्हारे काम आएगा । मैं हैरान कि अगर वापस ही करना था तो फिर मंगवाया क्यों । लेकिन ये बात पूछने का साहस नहीं था सो लिफाफा लेकर नीचे उतर आया ।
नीचे आकर जब मैं कोषागार के काउंटर पर पहुंचा और वहां मौजूद साहब को स्टैंप पेपर देकर कहा कि मेरा रिफंड दे दीजिए । उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई जुर्म कर दिया है । उन्होंने कहा कि आपके रिफंड का चेक बनेगा । और चेक बनने के लिए आपको बैंक से अपने दस्तखत को प्रमाणित करवा कर लाना पड़ेगा । मैं झल्लाया और कहा कि अगर आप अकाउंट पेयी चेक बना रहे हैं तो दस्तखत को प्रमाणित करवाने की क्या जरूरत है । बाबू बहस करने के मूड में नहीं था । उन्होंने मुझे सहायक कोषाधिकारी के पास भेज दिया । वहां पहुंचा तो सफारी शूट में एक बुजुर्ग शख्स बैठे थे । मैंने उनसे अपनी व्यथा सुनाई और अनुरोध किया कि रिफंड का चेक बनवा दें । उन्होंने बड़े रौब से और अहसान जतानेवाले अंदाज में कहा कि कि बैंक से प्रमाणित करवा कर ला दीजिए तो दो एक दिन में चेक बनवा दूंगा । अब तक मेरा धैर्य मेरा साथ छोड़ने लगा था । मैंने सहायक कोषाधिकारी महोदय से पूछा कि किस नियम के तहत वो ऐसा कर रहे हैं, मुझे वो नियम दिखाएं । मेरे इतना पूछते ही वो भड़क गए । कहा पंद्रह साल पहले का शासनादेश है मैं कहां से लाउं । बहस होते होते गर्मागर्मी हो गई । मैंने कहा कि मैं आठ चक्कर लगा चुका हूं लेकिन अभी तक रिफंड नहीं मिला है । लिफाफे की बात भी उन्हें बताई । उनका तर्क था कि उनके विभाग में तो मैं पहली बार आया हूं, इसलिए मेरी नाराजगी नाजायज है । वो सरकारी नियमों का हवाला देकर बैंक से दस्तखत प्रमाणित करवा कर जमा करवाने पर अड़े रहे । इसी बहस के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप जैसे लोगों की वजह से ही अन्ना हजारे को अनशन करना पड़ता है । इतना सुनते ही वो ऐसे भड़के जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया हो । अन्ना के नाम पर ही वो अड़ गए, उनकी इच्छा थी कि मैं अन्ना वाली बात वापस लूं । लेकिन मैं उसपर कायम रहा । लाख बहस करने के बाद भी अधिकारी महोदय नहीं माने । मुझे दो चक्कर और लगाने पड़े । तब जाकर मुझे रिफंड का चेक मिला । मेरे घर से कोषागार कार्यालय की दूरी बारह किलोमीटर है । इस चक्कर में मैं बुरी तरह से खिन्न हो चुका था । लेकिन इस बात की खुशी थी कि मुझे मेरे प्रश्न का जवाब मिल चुका था कि अन्ना हजारे को समर्थन क्यों मिला और हर तबके के लोग उनके साथ क्यों जुडे़ । अन्ना का विरोध करनेवालों को ना तो ये वजह समझ आएगी और ना ही जनता का मिजाज ।
तकरीबन चार महीने पहले किसी काम की वजह से स्टैंप पेपर खरीदना पड़ा था । गलत गणित की वजह से तकरीबन दस हजार रुपए के स्टैंप पेपर की ज्यादा खरीद हो गई । हमें लगा कि पैसे बर्बाद हो गए लेकिन हमारे वकील ने बताया कि स्टैंप पेपर वापस लौटाने का भी प्रावधान है । उसके लिए एडीएम के कार्यालय में जाना पड़ेगा । वकील साहब ने आनन- फानन में इस बाबत एक आवेदनपत्र तैयार कर दिया और कहा कि उसको जाकर एडीएम के दफ्तर में जमा करवा दीजिए । मैं रजिस्ट्रार के दफ्तर से एडीएम साहब के दफ्तर में पहुंचा । वहां संबंधित बाबू से मिला तो उन्होंने बताया कि जिस वेंडर से स्टैंप पेपर खरीदा गया है उससे प्रमाणित करवा कर लाना होगा कि उक्त स्टैंप पेपर उसने ही बेचा है । मैंने उनको ये बताने की कोशिश की कि स्टैंप पेपर के पीछे तो बेचनेवाले वेंडर की मुहर लगी है और उसका पूरा पता भी अंकित है लिहाजा फिर से प्रमाणित करवाने की आवश्कता नहीं है । लेकिन बाबू तो ठहरे बाबू । लकीर के फकीर । टस से मस नहीं हुए और फिर से वही दुहरा दिया । मेरे पास कोई विकल्प नहीं था । घर लौट आया । हफ्ते भर बाद जब दफ्तर से साप्ताहिक अवकाश मिला तो सुबह सुबह तकरीबन ग्यारह बजे रजिस्ट्रार के दफ्तर पहुंचा । वहां स्टैंप विक्रेता से मिला तो उसने कहा कि दो बजे आइए । मेरे पास इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था । तपती दुपहरी में कचहरी परिसर में इंतजार करता रहा । ठीक दो बजे उनके पास पहुंचा तो उन्होंने वादे के मुताबिक स्टैंप पेपर पर लिख कर दे दिया । अब मैं विजेता के भाव से कचहरी परिसर से निकला और तीन चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित एडीएम के दफ्तर पहुंचा और वहां बाबू के टेबल पर उसी विजयी भाव से स्टैंप पेपर रखा और कहा कि चलिए इसको लौटाने की कार्रवाई शुरू करिए । मेरे उत्साह पर चंद पलों में पानी फेरते हुए उन्होंने कहा कि आप पोस्ट ऑफिस से एक रजिस्ट्री का लिफाफा खरीद कर और उसपर अपना पता लिखकर दे दीजिए । मैं भागकर नीचे पोस्ट ऑफिस पहुंचा् तबतक पोस्ट ऑफिस बंद हो चुका था । मैं हारे हुए योद्धा की तरह बाबू के पास पहुंचा । उनसे बताया कि पोस्ट ऑफिस बंद हो चुका है । बाबू साहब जल्दी में लग रहे थे । उन्होंने बेहद अनौपचारिक अंदाज में कहा कि कोई बात नहीं कल दे जाना । मेरे बहुत अनुरोध करने पर वो इस बात के लिए राजी हो गए कि मैं किसी और से वो लिफाफा भिजवा दूंगा । मैंने अपने एक मित्र से अनुरोध किया और उनको वो लिफाफा भिजवा दिया । मेरे मित्र को साहब बहादुर ने बताया कि अब तीन महीने बाद आकर रिफंड ले जाएं । मुझे संतोष हुआ कि चलो तीन महीने बाद पैसे मिल जाएंगे । तब तक कचहरी और एडीएम ऑफिस के चार चक्कर लग चुके थे ।
तकरीबन साढे तीन महीने बाद एक दिन मेरी पत्नी ने मुझे याद दिलाया कि हमें स्टैंप का कुछ रिफंड मिलना है । अगले ही साप्ताहिक अवकाश में मैं एडीएम साहब के दफ्तर पहुंचा । बाबू साहब अपनी सीट पर मौजूद थे । मैंने नमस्कार कर अपना नाम बताया । बेहद ही तत्परता से उन्होंने फाइल निकाली और कहा कि मैं अपने किसी परिचय पत्र की फोटो कॉपी उन्हें दूं । मैं मूर्ख अज्ञानी बगैर फोटो कॉपी लिए वहां चला गया था । खैर पास की ही एक दुकान से फोटो कॉपी करवाकर उनको सौंप दिया । उन्होंने भी मुझे स्टैंप पेपर के पीछे लिखकर दे दिया और कहा कि नीचे की मंजिल पर कोषागार कार्यालय है वहां जाकर जमा करवा दूं । जब मैं उठने को हुआ तो बाबू साहब ने मुझे पोस्ट ऑफिस की रजिस्ट्री वाला लिफाफा पकड़ाया और कहा कि रख लो तुम्हारे काम आएगा । मैं हैरान कि अगर वापस ही करना था तो फिर मंगवाया क्यों । लेकिन ये बात पूछने का साहस नहीं था सो लिफाफा लेकर नीचे उतर आया ।
नीचे आकर जब मैं कोषागार के काउंटर पर पहुंचा और वहां मौजूद साहब को स्टैंप पेपर देकर कहा कि मेरा रिफंड दे दीजिए । उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई जुर्म कर दिया है । उन्होंने कहा कि आपके रिफंड का चेक बनेगा । और चेक बनने के लिए आपको बैंक से अपने दस्तखत को प्रमाणित करवा कर लाना पड़ेगा । मैं झल्लाया और कहा कि अगर आप अकाउंट पेयी चेक बना रहे हैं तो दस्तखत को प्रमाणित करवाने की क्या जरूरत है । बाबू बहस करने के मूड में नहीं था । उन्होंने मुझे सहायक कोषाधिकारी के पास भेज दिया । वहां पहुंचा तो सफारी शूट में एक बुजुर्ग शख्स बैठे थे । मैंने उनसे अपनी व्यथा सुनाई और अनुरोध किया कि रिफंड का चेक बनवा दें । उन्होंने बड़े रौब से और अहसान जतानेवाले अंदाज में कहा कि कि बैंक से प्रमाणित करवा कर ला दीजिए तो दो एक दिन में चेक बनवा दूंगा । अब तक मेरा धैर्य मेरा साथ छोड़ने लगा था । मैंने सहायक कोषाधिकारी महोदय से पूछा कि किस नियम के तहत वो ऐसा कर रहे हैं, मुझे वो नियम दिखाएं । मेरे इतना पूछते ही वो भड़क गए । कहा पंद्रह साल पहले का शासनादेश है मैं कहां से लाउं । बहस होते होते गर्मागर्मी हो गई । मैंने कहा कि मैं आठ चक्कर लगा चुका हूं लेकिन अभी तक रिफंड नहीं मिला है । लिफाफे की बात भी उन्हें बताई । उनका तर्क था कि उनके विभाग में तो मैं पहली बार आया हूं, इसलिए मेरी नाराजगी नाजायज है । वो सरकारी नियमों का हवाला देकर बैंक से दस्तखत प्रमाणित करवा कर जमा करवाने पर अड़े रहे । इसी बहस के दौरान मैंने उनसे कहा कि आप जैसे लोगों की वजह से ही अन्ना हजारे को अनशन करना पड़ता है । इतना सुनते ही वो ऐसे भड़के जैसे सांड को लाल कपड़ा दिखा दिया हो । अन्ना के नाम पर ही वो अड़ गए, उनकी इच्छा थी कि मैं अन्ना वाली बात वापस लूं । लेकिन मैं उसपर कायम रहा । लाख बहस करने के बाद भी अधिकारी महोदय नहीं माने । मुझे दो चक्कर और लगाने पड़े । तब जाकर मुझे रिफंड का चेक मिला । मेरे घर से कोषागार कार्यालय की दूरी बारह किलोमीटर है । इस चक्कर में मैं बुरी तरह से खिन्न हो चुका था । लेकिन इस बात की खुशी थी कि मुझे मेरे प्रश्न का जवाब मिल चुका था कि अन्ना हजारे को समर्थन क्यों मिला और हर तबके के लोग उनके साथ क्यों जुडे़ । अन्ना का विरोध करनेवालों को ना तो ये वजह समझ आएगी और ना ही जनता का मिजाज ।
Saturday, October 15, 2011
संस्मरणों से बनता इतिहास
जब भगत सिंह औऱ उनके साथियों को फांसी दी गई तो महात्मा गांधी ने कहा था- भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई और वो शहीद हो गए । उनकी मौत कई लोगों के लिए वयक्तिगत क्षति है । मैं भी इन तीन नौजवानों को श्रद्धांजलि देता हूं । लेकिन मैं देश के युवाओं को चेतावनी भी देना चाहता हूं कि वो उनके पदचिन्हों पर न चलें । हमें अपनी उर्जा, त्याग करने का जज्बा, अपनी मेहनत और अदम्य साहस को भगत सिंह और उनके साथियों की तरह इस्तेमाल नहीं करना है । हमें खून खराबा से आजादी नहीं मिल सकती है । - यह बात सर्वविदित है कि गांधी जी न केवल अहिंसा की वकालत करते थे बल्कि अहिंसक तरीके से काम करने में यकीन भी रखते थे । लेकिन कई ऐसे अवसर भी आए जब गांधी जी ने भी हिंसा का सहारा लिया और उसकी वकालत भी की । बहुत ही दिलचस्प वाकया है । 1895 में उनके डरबन के घर पर उनके दोस्त शेख महताब ने एक वेश्या को बुला लिया । गांधी को पता चला तो वो भड़क गए । ना केवल जबरदस्ती कमरे का दरवाजा खुलवाया बल्कि महताब की बांह मरोड़कर उन्हें घर से निकल जाने का हुक्म भी दिया । मेहताब के मना करने पर पुलिस बुलाने की धमकी भी दी । उसी तरह 1898 में जब बा से विवाद हुआ, बहस बढ़ गई और कस्तूरबा ने जवाब दे दिया तो गांधी उन्हें लगभग घसीटते हुए घर के गेट तक ले गए और धकेलते हुए वहां से निकल जाने का फरमान सुना दिया । तीसरा वाकया है जोहानिसबर्ग का जहां उनकी सेक्रेटरी सेलसिन ने उनके कमरे में सिगरेट सुलगा ली तो गांधी बिफर गए और उसको एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया । इस तरह के कई उदाहरण मौजूद हैं जहां गांधी ने हिंसा का सहारा लिया । लेकिन इसके विपरीत उस तरह के भी अनकों उदाहरण मौजूद हैं जहां गांधी ने पिटने और घोर अपमानित होने के बावजूद बल प्रयोग नहीं किया । ये मोहनदास के वयक्तित्व के दिलचस्प पहलू हैं । गांधी ने क्यों ऐसा किया और फिर बाद में किस तरह से उन्होंने अपने को बदल लिया इस बात को और उनके उनके जटिल और बहुआयामी वयक्तित्व को परखा है उनके ही पौत्र गोपाल कृष्ण गांधी ने अपनी नई किताब में । आधुनिक भारत के इतिहास में या यों कहें कि बीसवीं शताब्दी के विश्व इतिहास में महात्मा गांधी एक ऐसी शख्सियत है जिसके व्यक्तित्व की गुत्थी सुलझाना विद्वानों के लिए एक बड़ी चुनौती है । महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के इतने आयाम हैं कि एक को पकड़ो तो दूसरा छूट जाता है । गांधी विश्व के इकलौते ऐसे शख्स हैं जिनकी मृत्यु के तिरसठ साल बाद भी उनपर और उनके विचारों और लेखन पर लगातार शोध और लेखन हो रहा है । खुद गांधी के परिवार के सदस्यों ने उनपर कई किताबें लिखी है ।
समीक्ष्य पुस्तक ऑफ अ सर्टेन एज ट्वेंटी लाइफ स्केचेज - गोपाल कृष्ण गांधी की नई किताब है । इस किताब में आधुनिक बारत की बीस हस्तियों के जीवन पर गोपाल कृष्ण गांधी ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर टिप्पणी की है । ये बीस लेखनुमा टिप्पणी समय समय पर लिखे गए हैं । इस किताब की भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया है कि उनके ये लेख 1981 से 2001 के बीच लिखे गए हैं । अभी कुछ दिनों पहले ही इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा की भी एक किताब-मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया प्रकाशिकत हुई थी । गुहा ने अपनी किताब में उन्नीस लोगों पर लिखा था । रामचंद्र गुहा के मुताबिक उन्होंने उन महिला और पुरुष नेता या सामाजिक कार्यकर्ता या समाज सुधारक को अपनी किताब में जगह दी जिन्होंने स्वतंत्रतापूर्व और स्वातंत्रोत्तर भारत को अपने लेखन और भाषण से गहरे तक प्रभावित किया । लेखक के मुताबिक ये उन्नीस भारतीय लोग सिर्फ राजनेता ही नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने लेखन से भी समाज और देश को एक नई दिशा दी । लेकिन गोपाल कृष्ण के चयन का आधार अलहदा है, सैली भी जुदा और ज्यादा रोचक ।
गोपाल कृष्ण गांधी के संस्मरणों की इस किताब की विशेषता यह है कि इसमें आजाद भारत के प्रमुख हस्तियों के बारे में कुछ बेहद ही दिलचस्प और अज्ञात तथ्य सामने आते हैं । इस किताब में गांधी के बाद सबसे दिलचस्प संस्मरण या कहें कि जीवनीचित्र जयप्रकाश नारायण का है । जयप्रकाश नारायण को गांधी जी जमाई राजा मानते थे क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए जयप्रकाश के अमेरिका चले जाने के बाद प्रभावती जी गांधी के साथ वर्धा में ही रहने लगी थी और बा और बापू दोनों उन्हें पुत्रीवत स्नेह देते थे । जयप्रकाश नारायण जब सात साल के बाद भारत आए तो अपनी पत्नी और गांधी से मिलने वर्धा गए । वहीं उनकी मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से भी हुई । पहली मुलाकात में गांधी ने जयप्रकाश से देश में चल रहे आजादी के आंदोलन के बारे में कोई बात नहीं कि बल्किन उन्हें ब्रह्मचर्य पर उपदेश दिया । बताते हैं कि गांधी जी ने प्रभावती जी के कहने पर ही ऐसा किया क्योंकि प्रभावती जी शादी तो कायम रखना चाहती थी लेकिन ब्रह्मचर्य के व्रत के साथ । जयप्रकाश नरायण ने अपनी पत्नी की इस इच्छा का आजीवन सम्मान किया । तभी तो गांधी जी ने एक बार लिखा- मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । गांधी जी की ये राय 25 जून 1946 के दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित भी हुई । गांधी से जयप्रकाश का मतभेद भी था, गांधी जयप्रकाश के वयक्तित्व में एक प्रकार की अधीरता भी देखते थे लेकिन बावजूद इसके वो कहते थे कि जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । मोहनदास करमचंद गांधी के बड़े बेटे हरीलाल पर भी गोपाल कृष्ण का आकलन कुछ ज्ञात और अज्ञात तथ्यों के साथ सामने आता है । हरीलाल गांधी न केवल अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष कर रहे थे बल्कि उनके विकल्प के तौर पर भी उभर रहे थे और दक्षिण अफ्रीका में लोग उन्हें छोटे गांधी भी कहने लगे थे । लेकिन बाद में पिता पुत्र के बीच मतभेद गहरा गए। गांधी का अपने बेटे की जगह एक पारसी युवक सोराबजी को बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए भेजने का फैसला हरीलाल को चुभ गया । यह घाव इतना गहरा हुआ कि उसने बापू समते सबकुछ त्याग दिया । थोड़े समय के लिए इस्लाम भी स्वीकार कर लिया । यह तो ज्ञात तथ्य है और कई विद्वानों ने इसपर लिखा है । कुछ दिनों पहले मैंने दिनकर जोशी की किताब में महात्मा बनाम गांधी में इसपर विस्तार से पढ़ा था । लेकिन समीक्ष्य पुस्तक में हरीलाल के भाई देवदास का हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा संपादकीय भी है । देवदास ,गांधी जी के पुत्र थे और बाद में हिदुस्तान टाइम्स के संपादक भी रहे ।
इन तीन के अलावा गोपालकृष्ण गांधी ने और सत्रह लोगों पर लिखा है जिनमें खान अब्दुल गफ्फार खान, हरीलाल गांधी, प्यारेलाल, ज्योति बसु. पुपुल जयकर, रमलादेवी चट्टोपाध्याय, सुबुल्क्ष्मी,दलाई लामा, सिरिमाओ भंडारनायके, दलाई लामा ,आर वेंकटरमण और के आर नाराय़नण शामिल हैं । अपनी इस किताब के अंत में अपने बचपन के दिनों को भी गोपालकृष्ण गांधी ने शिद्दत के साथ याद किया है । सेंट स्टीफन से अंग्रेजी साहित्य में एम गोपाल कृष्ण गांधी की भाषा में एक प्रवाह है जो इन संस्मरणों को एक नई उंचाई देता है और महानुभावों के वयक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं को उद्घाटित भी करता है । अंग्रेजी में संस्मरण साहित्य की बेहद समृद्ध परंपरा है और मेरा मानना है कि गोपाल कृष्ण गांधी की ये किताब उसे और समृद्ध करेगी ।
समीक्ष्य पुस्तक ऑफ अ सर्टेन एज ट्वेंटी लाइफ स्केचेज - गोपाल कृष्ण गांधी की नई किताब है । इस किताब में आधुनिक बारत की बीस हस्तियों के जीवन पर गोपाल कृष्ण गांधी ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर टिप्पणी की है । ये बीस लेखनुमा टिप्पणी समय समय पर लिखे गए हैं । इस किताब की भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया है कि उनके ये लेख 1981 से 2001 के बीच लिखे गए हैं । अभी कुछ दिनों पहले ही इतिहासकार और स्तंभकार रामचंद्र गुहा की भी एक किताब-मेकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया प्रकाशिकत हुई थी । गुहा ने अपनी किताब में उन्नीस लोगों पर लिखा था । रामचंद्र गुहा के मुताबिक उन्होंने उन महिला और पुरुष नेता या सामाजिक कार्यकर्ता या समाज सुधारक को अपनी किताब में जगह दी जिन्होंने स्वतंत्रतापूर्व और स्वातंत्रोत्तर भारत को अपने लेखन और भाषण से गहरे तक प्रभावित किया । लेखक के मुताबिक ये उन्नीस भारतीय लोग सिर्फ राजनेता ही नहीं थे बल्कि उन्होंने अपने लेखन से भी समाज और देश को एक नई दिशा दी । लेकिन गोपाल कृष्ण के चयन का आधार अलहदा है, सैली भी जुदा और ज्यादा रोचक ।
गोपाल कृष्ण गांधी के संस्मरणों की इस किताब की विशेषता यह है कि इसमें आजाद भारत के प्रमुख हस्तियों के बारे में कुछ बेहद ही दिलचस्प और अज्ञात तथ्य सामने आते हैं । इस किताब में गांधी के बाद सबसे दिलचस्प संस्मरण या कहें कि जीवनीचित्र जयप्रकाश नारायण का है । जयप्रकाश नारायण को गांधी जी जमाई राजा मानते थे क्योंकि उच्च शिक्षा के लिए जयप्रकाश के अमेरिका चले जाने के बाद प्रभावती जी गांधी के साथ वर्धा में ही रहने लगी थी और बा और बापू दोनों उन्हें पुत्रीवत स्नेह देते थे । जयप्रकाश नारायण जब सात साल के बाद भारत आए तो अपनी पत्नी और गांधी से मिलने वर्धा गए । वहीं उनकी मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से भी हुई । पहली मुलाकात में गांधी ने जयप्रकाश से देश में चल रहे आजादी के आंदोलन के बारे में कोई बात नहीं कि बल्किन उन्हें ब्रह्मचर्य पर उपदेश दिया । बताते हैं कि गांधी जी ने प्रभावती जी के कहने पर ही ऐसा किया क्योंकि प्रभावती जी शादी तो कायम रखना चाहती थी लेकिन ब्रह्मचर्य के व्रत के साथ । जयप्रकाश नरायण ने अपनी पत्नी की इस इच्छा का आजीवन सम्मान किया । तभी तो गांधी जी ने एक बार लिखा- मैं जयप्रकाश की पूजा करता हूं । गांधी जी की ये राय 25 जून 1946 के दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित भी हुई । गांधी से जयप्रकाश का मतभेद भी था, गांधी जयप्रकाश के वयक्तित्व में एक प्रकार की अधीरता भी देखते थे लेकिन बावजूद इसके वो कहते थे कि जयप्रकाश एक फकीर हैं जो अपने सपनों में खोए रहते हैं । मोहनदास करमचंद गांधी के बड़े बेटे हरीलाल पर भी गोपाल कृष्ण का आकलन कुछ ज्ञात और अज्ञात तथ्यों के साथ सामने आता है । हरीलाल गांधी न केवल अपने पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष कर रहे थे बल्कि उनके विकल्प के तौर पर भी उभर रहे थे और दक्षिण अफ्रीका में लोग उन्हें छोटे गांधी भी कहने लगे थे । लेकिन बाद में पिता पुत्र के बीच मतभेद गहरा गए। गांधी का अपने बेटे की जगह एक पारसी युवक सोराबजी को बैरिस्टरी की पढ़ाई के लिए भेजने का फैसला हरीलाल को चुभ गया । यह घाव इतना गहरा हुआ कि उसने बापू समते सबकुछ त्याग दिया । थोड़े समय के लिए इस्लाम भी स्वीकार कर लिया । यह तो ज्ञात तथ्य है और कई विद्वानों ने इसपर लिखा है । कुछ दिनों पहले मैंने दिनकर जोशी की किताब में महात्मा बनाम गांधी में इसपर विस्तार से पढ़ा था । लेकिन समीक्ष्य पुस्तक में हरीलाल के भाई देवदास का हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा संपादकीय भी है । देवदास ,गांधी जी के पुत्र थे और बाद में हिदुस्तान टाइम्स के संपादक भी रहे ।
इन तीन के अलावा गोपालकृष्ण गांधी ने और सत्रह लोगों पर लिखा है जिनमें खान अब्दुल गफ्फार खान, हरीलाल गांधी, प्यारेलाल, ज्योति बसु. पुपुल जयकर, रमलादेवी चट्टोपाध्याय, सुबुल्क्ष्मी,दलाई लामा, सिरिमाओ भंडारनायके, दलाई लामा ,आर वेंकटरमण और के आर नाराय़नण शामिल हैं । अपनी इस किताब के अंत में अपने बचपन के दिनों को भी गोपालकृष्ण गांधी ने शिद्दत के साथ याद किया है । सेंट स्टीफन से अंग्रेजी साहित्य में एम गोपाल कृष्ण गांधी की भाषा में एक प्रवाह है जो इन संस्मरणों को एक नई उंचाई देता है और महानुभावों के वयक्तित्व के कुछ अनछुए पहलुओं को उद्घाटित भी करता है । अंग्रेजी में संस्मरण साहित्य की बेहद समृद्ध परंपरा है और मेरा मानना है कि गोपाल कृष्ण गांधी की ये किताब उसे और समृद्ध करेगी ।
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