हमारा देश आज दो बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है । पहली बड़ी समस्या है महंगाई जो सुरसा की मुहं की तरह फैलती जा रही है । दूसरी बड़ी समस्या है भ्रष्टाचार, जिसको लेकर लोगों के मन में गुस्सा बढ़ता जा रहा है । बढ़ती महंगाई को लेकर सरकार के हाथ पांव फूले हुए हैं । हर तीसरे महीने या तो वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह महंगाई पर काबू पाने की एक डेडलाइन दे देते हैं । सरकार हर बार यह विश्वास दिलाती है कि फलां महीने तक महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा लेकिन होता ठीक उसके उल्टा है । पेट्रोल के दाम बढ़ जाते हैं । मंहगाई दर और खाद्य महंगाई दर में बढ़ोतरी हो जाती है । बढ़ती महंगाई को लेकर विरोधी दल संसद में सक्रिय नजर आते हैं लेकिन आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दाम को लेकर विपक्षी दल अबतक कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए हैं । भारतीय जनता पार्टी ने मंहगाई को लेकर देशव्यापी आंदोलन का ऐलान तो किया था लेकिन व्यापक जनसमर्थन नहीं मिल पाने की वजह से आंदोलन टांय टांय फिस्स हो गया था । भारतीय जनता पार्टी के महंगाई के खिलाफ आंदोलन का हश्र देखकर अन्य विपक्षी दलों के भी हाथ पांव फूल गए और उन्होंने कोई आंदोलन नहीं किया । लेकिन संसद के शीतकालीन सत्र के शुरूआती दिनों में विपक्ष ने मंहगाई को लेकर खासा बवाल किया । सदन में कामकाज भी ठप करवाया । महंगाई के खिलाफ जनता से समर्थन नहीं मिल पाने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी और बंगाल में अपनी प्रासंगिकता खो चुके वामदलों को संसद में एक अवसर दिखाई दिया । सवाल यह उठता है कि क्या संसद सत्र को ठप करके मंहगाई पर काबू पाया जा सकता है । क्या बहस से मंहगाई काबू में आ जाएगी । यह बात विपक्ष के कद्दावर नेताओं को समझ में नहीं आती । वो संसद में लंबे-लंबे भाषण करके देश के लोगों को यह दिखाना चाहते हैं कि बढ़ती कीमतों को लेकर वो चिंतित है । लेकिन जनता अब खाने और दिखाने के दांत के फर्क को समझ गई है ।
दरअसल विकास के पायदान पर उपर की ओर चढ़ रहे देश में बढ़ती मंहगाई पर काबू पाना लगभग नामुमकिन है । खुली अर्थवयवस्था में बाजार ही सबकुछ तय करती है और बाजार तो मांग और आपूर्ति के बहुत ही आधारभूत सिद्धांत पर चलता है । अगर हम भारत में ही देखें तो पिछले दो दशक में हमारे देश में हर चीज की मांग में जबरदस्त इजाफा हुआ है लेकिन उस अनुपात में आपूर्ति में बढो़तरी नहीं हुई है लिहाजा वस्तुओं के दाम बढ़े । किसी के कम तो किसी के ज्यादा । पिछले दो दशकों में भारतीय जनता की खर्च करने की क्षमता में भी तकरीबन दो गुना इजाफा हुआ है । नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च के शोध- मॉर्केट इंफॉर्मेशन सर्वे ऑफ हाउसहोल्ड- से इस बात की पुष्टि भी हुई थी । इस सर्वे के मुताबिक आम भारतीय हाउसहोल्ड की खर्च करने की क्षमता 1985 के मुकाबले 2004 में दुगनी हो गई । नतीजा यह हुआ कि भारत में एक नए मध्यवर्ग का उदय हुआ जिसके पास पैसे थे । क्षमता बढ़ी तो खर्च करने की इच्छा भी बढ़ी । मैंकेजी के एक सर्वे के मुताबिक अगर भारत की विकास दर आनेवाले सालों में वर्तमान स्तर पर कायम रहती है तो भारतीय बाजार में और उपभोक्ताओं के नजरिए में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है । एक मजबूत और नए मध्यवर्ग का उदय संभव है जिसकी आय अगले दो दशक में लगभग तिगुनी हो जाएगी । इस विकास का फायदा सिर्फ शहरी मध्यवर्ग को नहीं होगा बल्कि अनुमान है कि ग्रामीण क्षेत्र के हाउसहोल्ड आय में भी बढ़ोतरी होगी । जिस ग्रामीण हाउसहोल्ड की आय 2.8 प्रतिशत है वो अगले दो दशक में बढ़कर 3.6 प्रतिशत हो जाने की उम्मीद है । जाहिर है शहरी और ग्रामीण दोनों उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता और ललक दोनों में बढ़ोतरी होगी । नतीजा यह होगा कि खाद्य पदार्थों से लेकर स्वास्थ्य, परिवहन पर लोगों का खर्च बढ़ेगा । लेकिन उस अनुपात में अगर उत्पादन नहीं हुआ तो मूल्य बढ़ोतरी को रोका नहीं जा सकता ।
महंगाई सिर्फ भारत में ही नहीं बढ़ रही है । विश्व के कई विकासशील और विकसित मुल्कों में जहां लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो रहा है और उनकी आय और खर्च करने की क्षमता में बढ़ोतरी हो रही है वहां हर तरह की कमोडिटी के दामों में इजाफा हो रहा है । एक अंतराष्ट्रीय एजेंसी की सर्वे के आंकड़ों को मानें तो अगले बीस सालों में तीन अरब उपभोक्ता खरीदारी के बाजार में आएंगे । एक अनुमान के मुताबिक अगले दो दशक में विश्व में खाद्य पदार्थ से लेकर, बिजली, पानी, पेट्रोल और गाड़ियों की मांग बेहद बढ़ जाएगी । अभी की खरीदारी पैटर्न और ऑटोमोबाइल सेक्टर के ग्रोथ के आधार पर जो प्रोजेक्शन किया जा रहा है उसके मुताबिक दो हजार तीस तक विश्व में गाड़ियों की संख्या एक अरब सत्तर करोड हो जाने का अनुमान है । सिर्फ गाड़ियों में ही नहीं बल्कि हर तरह के कमोडिटी की खपत बढ़ने से कीमतों पर भारी दबाव पड़ सकता है । अंतराष्ट्रीय एजेंसी मैकेंजी की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कैलोरी खपत के बीस फीसदी बढ़ जाने का अनुमान लगाया जा रहा है जिसका असर साफ तौर पर खाद्य महंगाई दर पर पड़ेगा और इस सेक्टर की कमोडिटी महंगी हो जाएगी । इसी तरह चीन में भी प्रति व्यक्ति मांस के खपत में 60 फीसदी बढ़ोतरी का अनुमान लगाया गया है । वहां मांस की खपत प्रति व्यक्ति 80 किलोग्राम सालाना होना का अनुमान है । अगले बीस साल तक भारत में बुनियादी ढांचे पर भी खासा जोर दिए जाने की योजना है । अगर ये योजना परवान चढ़ती है तो निर्माण कार्य में खपत होनेवाली चीजों की खपत बढ़ेगी और अगर उस अनुपात में उत्पादन नहीं बढ़ा तो उसका दबाव भी मूल्य पर पडे़गा ।
ऐसा नहीं है कि कमोडिटी के खपत में इस तरह की बढ़ोतरी से भारत और विश्व का पहली बार पाला पड़ा है । बीसबीं शताब्दी में भी इस तरह का दबाव महसूस किया गया था जब पूरी सदी के दौरान विश्व की जनसंख्या तिगुनी हो गई थी और तमाम तरह की चीजों की मांग में 6000 से 2000 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली थी । लेकिन उस वक्त कीमतों पर यह दबाव इस वजह से ज्यादा महसूस नहीं किया गया था क्योंकि उस सदी के दौरान बहुत सारी वैकल्पिक वस्तुओं की खोज के अलावा पूरे विश्व में खेती में जबरदस्त बदलाव हुआ था । नतीजे में खाद्य उत्पादन में हुई बढ़ोतरी ने मूल्य के दबाव को थाम सा लिया था और कीमतें बेकाबू नहीं हो पाई। लेकिन इस सदी में पिछली सदी के मुकाबले तीन तरह की दिक्कतें सामने आ रही हैं । कार्बन उत्सर्जन को लेकर मौसम पर पड़नेवाले असर को लेकर जिस तरह से पूरे विश्व में जागरूकता आई है उससे किसी भी प्रकार का अंधाधुंध उत्पादन संभव नहीं है । दूसरा यह कि अब कमोडिटी एक दूसरे से इस कदर जुड़ गए हैं कि एक दूसरे को प्रभावित करने लगे हैं । मसलन अगर पेट्रोल की कीमतों में इजाफा होता है तो उसका दबाव खाद्य पदार्थ के मूल्य पर भी पड़ता है । अब जरूरत इस बात की है कि सरकारें मूल्य को रेगुलेट करने की बजाए कमोडिटी के उत्पादन और मांग के मुताबिक सप्लाई बढ़ाने की नीति बनाए और इसमें आनेवाली बाधाओं को दूर करे तभी महंगाई पर काबू पाया जा सकता है और तभी डेडलाइऩ को प्राप्त किया जा सकता है अन्यथा हर तीन महीने पर भरोसे का बयान आता रहेगा और कीमतें बढ़ती रहेंगी ।
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