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Wednesday, December 14, 2011

सिब्बल के सपने

अन्ना हजारे के खिलाफ सरकारी मुहिम के स्वयंभू अगुवा रहे कपिल सिब्बल लंबे समय से राजनीतिक परिदृश्य से गायब थे । विवादप्रिय नेता होने के बावदूद सिब्बल की मीडिया और विवाद से दूरी आश्चर्यचकित ही नहीं करती थी बल्कि चौंका भी रही थी । अन्ना हजारे की जनलोकपाल की मुहिम और उनके अनशन के दौरान कपिल सिब्बल के अडि़यल रुख और गैरराजनीतिक तरीकों ने सरकार की अच्छी खासी किरकिरी करवाई थी । कयास यह लगाए जा रहे थे कि उसके बाद सिब्बल को आलाकमान की तरफ से चुप रहने की सलाह दी गई थी । लेकिन एक बार जिसको विवादों का चस्का लग जाता है वह ज्यादा दिनों तक उससे दूर नहीं रह सकता है । कपिल सिब्बल ने एक बार फिर से उसको साबित भी कर दिया । इस बार सिब्बल बहुत दूर की कौड़ी लेकर आए हैं । उन्होंने इस बार सोशल मीडिया पर लगाम लगाने की कवायद शुरू की है । सिब्बल ने फेसबुक, गूगल और अन्य सर्विस प्रोवाइडर कंपनी के प्रतिनिधियों को अपने दफ्तर में बुलाकर उनको कंटेंट पर लगाम लगाने की हिदायत दी । अमेरिका के एक अखबार के मुताबिक सिब्बल ने फेसबुक और अन्य कंपनी के प्रतिनिधियों को बुलाकर साफ तौर पर कहा कि साइट्स पर सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह से जुड़ी आपत्तिजनक और अपमानजनक टिप्पणियों पर पाबंदी लगाने या फिर उसे रोकने का का इंतजाम करें । सिब्बल ने इसके साथ ही धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाले चित्रों पर भी ऐतराज जताया और कहा कि इस तरह के आपत्तिजनक कंटेट वहां न हों । फेसबुक और अन्य कंपनियों ने सरकार की इस सलाह को मानने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि इन बेवसाइट्स पर यूजर्स अपनी सामग्री डालते हैं और अगर उसपर कोई पाबंदी लगाई गई तो इन बेवसाइट्स का मूल चरित्र ही खत्म हो जाएगा । इसके अलावा सिर्फ फेसबुक के पूरे विश्व में अस्सी करोड़ यूजर्स हैं और किसी भी कंपनी के लिए इतने बड़े उपभोक्ता वर्ग द्वारा डाले जाने वाले कंटेंट पर निगाह रखना मुमकिन नहीं है । ऐसा लगता है कि सिब्बल अपने इस कदम से सरकार और पार्टी के आला नेताओं को साधने में लगे हैं । मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की सैकड़ों आपत्तिजनक तस्वीरें नेट पर मौजूद हैं । क्या सिर्फ सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम लगाकर सिब्बल सोनिया और मनमोहन की आपत्तिजनक और अपमानजनक तस्वीरें हटवाने में कामयाब हो जाएंगे । लेकिन अचानक से कांग्रेसी मंत्री कपिल सिब्बल को लोगों की धार्मिक भावनाओं की फिक्र कहां से होने लगी । सिब्बल को अब धर्म और धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाली तस्वीरों की याद आ रही है लेकिन उस वक्त सिब्बल कहां थे जब एम एफ हुसैन कथित तौर पर धार्मिक भावनाएं भड़कानेवाले पेंटिग्स बना रहे थे । उस वक्त अगर हुसैन की पेंटिग्स उत्कृष्ट कला का एक नमूना और एक कलाकार की अभिवयक्ति थी तो अब भी जो कुछ नेट पर किया जा रहा है या हो रहा है उसे भी उसी स्पिरिट में देखा जाना चाहिए । हुसैन का विरोध करनेवाले अगर अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला कर रहे थे तो सिब्बल इस वक्त क्या कर रहे हैं, इसपर भी कांग्रेस और लेफ्ट दोनों को सिर्फ विचार ही नहीं करना चाहिए बल्कि आत्मावलोकन भी करना चाहिए ।
कपिल सिब्बल चाहे जो भी सफाई दें और जिस भी वजह की आड़ में सोशल साइट्स पर पाबंदी लगाने की कोशिश करें लेकिन इतना साफ है कि यह सबकुछ अन्ना हजारे की मुहिम को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है । जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था तो सरकार ने माना था कि वो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर नजर नहीं रख पाई । लिहाजा इस बार सरकार ने अपनी इस भूल को सुधारने की कोशिश की और लगात है कि उसका जिम्मा दूरसंचार मंत्री होने के नाते सिब्बल को दिया गया है । फोसबुक और ट्विटर की ताकत से सरकार अंजान नहीं है । चाहे वो मिस्त्र में तहरीर स्कावयर पर लाखों लोगों के जुटने का मामला हो, चाहे वो ट्यूनीशिया में सरकार के खिलाफ आंदोलन हो, चाहे वो अमेरिका में चल रहा ऑक्योपॉय वॉल स्ट्रीट हो या फिर अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हो, सबमें फेसबुक और टि्वटर की बेहद ही अहम भूमिका रही है । उदाहरण के तौर पर अगर हम देखें तो फेसबुक पर पिछले साल नवंबर में इंडिया अगेंस्ट करप्शऩ का पेज बनाया गया और सालभर में तकरीबन साढे पांच लाख से ज्यादा लोग उसके सदस्य बन गए और इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है । उसी तरह अगर हम ट्विटर को देखें तो जनलोकपाल के नाम से पिछले ही साल ट्विटर अकाउंट खोला गया । टि्वटर को रेटिंग देनेवाली एजेंसी ने जनलोकपाल को एक मजबूत ब्रांड के तौर पर रेटिंग दी और शुरुआत में ही उसे दसवें नंबर पर रखा । लेकिन महीने भर में ही जनलोकपाल टॉप फाइव में पहुंच गया । और तब से वो लगातार दूसरे तीसरे नंबर पर बना रहता है । बावजूद इसके कि जनलोकपाल को फॉलो करनेवाले महज दो लाख के करीब लोग है । सरकार के पास ये सब आंकड़े तो जाते ही हैं । इन आंकड़ों की वजह और पिछले दो अनशन के दौरान अन्ना हजारे को मिले जनसमर्थन से यूपीए सरकार के कान खड़े हो गए । अन्ना हजारे एक बार फिर से अनशन करने के लिए हुंकार रहे हैं और दूसरे वो यह भी ऐलान कर चुके हैं कि अगर लोकपाल बिल पास नहीं होता है तो वो आठ दिनों के अनशन के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव प्रचार करेंगे । उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की सक्रियता को लेकर कांग्रेस खासी सतर्क है । इस वजह से अन्ना के उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार के ऐलान और राजनेताओं के खिलाफ साइबर दुनिया में बन रहे माहौल को देखकर ही सिब्बल उसपर लगाम लगाने की मंशा पाले बैठे हैं । लेकिन सिब्बल जैसे कानून के जानकार यह भूल जाते हैं कि इस देश का संविधान प्री सेंसरशिप की इजाजत नहीं देता । हमारे संविधान के मुताबिक कोई भी प्रचार प्रसार- दृश्य या श्रव्य अगर आपत्तिजनक दिखाई देता है तो उसके खिलाफ शिकायत होनी चाहिए और दोषी पाए जाने पर बनाने वाले और उसे प्रचारित प्रसारित करनेवालों पर कानून के हिसाब से कार्रवाई होनी चाहिए । लेकिन कहीं भी प्री सेंसरशिप की बात नहीं कही गई है ।
प्रीसेंसरशिप की बात दो बार कांग्रेस के शासनकाल में ही कही गई है । एक बार इमरजेंसी के दौरान, जब प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दिया गया था और इंद्रकुमार गुजराल को हटाकर विद्याचरण शुक्ला को सूचना और प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई थी । पद संभालने के बाद शुक्ला अपने दफ्तर में अखबार के संपादकों को बुलाकर यह बताते थे कि अखबार में क्या छापना है । इमरजेंसी लगने और पद संभालने के फौरन बाद ही विद्याचरण शुक्ला ने 26 जून 1975 को दिल्ली में अखबार के संपादकों के साथ एक बैठक करके उन्हें सेंसरशिप समझाया था । कुछ अखबारों ने उस दिन के अपने अंक में लिख दिया था कि आज के अखबार की खबरें सरकार द्वारा सेंसर की गई हैं । जिसपर विद्याचरण शुक्ला ने संपादकों को खूब खरी खोटी सुनाई थी । सेंसरशिप का नतीजा कांग्रेस ने भुगता । इसलिए एक बार जब राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में फिर से सेंसरशिप की बात चली तो उसे लागू करने का साहस सरकार नगहीं कर पाई । सिब्बल की सोशल मीडिया पर सेंसरशिप पर ही एक वयक्ति ने ट्विट किया- 1975 में भी एक वकील सिद्धार्थ शंकर रे ने श्रीमती गांधी को सलाह दी थी जिसका नतीजा कांग्रेस ने भुगता और अब फिर से एक वकील सरकार की तरफ से मोर्चा संभाले हैं तो दूसरी श्रीमती गांधी को इस बात पर गौर करना चाहिए ।

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