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Thursday, December 22, 2011

खत्म होता नक्सलियों का खौफ

जनलोकपाल बिल पर सरकार और टीम अन्ना के बीच जारी बवाल, रिटेल में विदेशी निवेश पर सरकार, उसके सहयोगी दलों और विपक्ष के बीच मचे घमासान और गृहमंत्री चिंदबरम पर एक के बाद एक लग रहे आरोपों के बीच देश में कई अहम खबरें गुम सी हो गई । हर दिन या तो अन्ना हजारे कोई ऐलान करते हैं, कांग्रेस का कोई नेता अन्ना पर हमला करता है या फिर किसी न किसी वजह से संसद में हंगामा हो जाता है या फिर अदालत कोई ऐसा फैसला सुना देता है या फिर कोई टिप्पणी कर देता है जो सुर्खियां बन कर मीडिया में छा जाता है । देशभर में हुए हालिया उपचुनावों के नतीजों के कई गंभीर निहितार्थ निकले जिसपर मीडिया में न तो मंथन हो पाया और न ही ढंग से उसपर चर्चा हो सकी । अखबारों में कहीं किसी कोने अंतरे में वैसी खबरें दब गई और न्यूज चैनलों में तो तवज्जो ही नहीं मिल पाई । अगर हम ओडीशा विधानसभा के लिए हुए उपचुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो साफ तौर पर यह देखा जा सकता है कि ओडीशा में माओवादियों का असर कम होना शुरू हो गया है । जिन इलाकों में माओवादियों को लंबे समय से आदिवासियों से हर तरह का समर्थन मिल रहा था वहां भी अब वो लगभग बेअसर होने लगे हैं ।ओडीशा के आदिवासी बहुल जिले नवरंगपुर के उमरकोट विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो नक्सलियों के समर्थन में आ रही इस कमी को साफ तौर पर परिलक्षित किया जा सकता है । चुनाव के ऐन पहले माओवादियों ने नक्सल प्रभावित उमरकोट विधानसभा में आदिवासियों से वोटिंग का वहिष्कार करने का फरमान जारी कर दिया । लेकिन नक्सलियों के फरमान को धता बताते हुए भारी संख्या में आदिवासियों ने मतदान किया और चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक पचहत्तर फीसदी से ज्यादा आदिवासियों ने वोट डाले । इसी विधानसभा के छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे रायगढ़ इलाके में, जो दशकों से माओवादियों का गढ़ माना जाता है, सबसे ज्यादा मतदान हुआ। गौरतलब है कि यह वही रायगढ़ है जहां बीजू जनता दल के विधायक जगबंधु मांझी की माओवादियों ने एक जनसभा के दौरान नृशंस तरीके से हत्या कर दी थी । मांझी की मौत के बाद हो रहे इस उपचुनाव में नक्सलियों के मतदान के बहिष्कार के फरमान के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में वोटिंग होना उस इलाके में नक्सलियों के कमजोर पड़ने की निशानी है । इस पूरे इलाके में जबरदस्त वोटिंग का फायदा सत्तारूढ बीजू जनता दल के उम्मीदवार को हुआ जिसने तकरीबन बीस हजार वोटों से जीत हासिल की । माओवादियों ने वोट के बहिष्कार के साथ-साथ बीजू जनता दल के खिलाफ भी अपनी राय जाहिर की थी । जो लगभग बेअसर रही ।
उपचुनावों के नतीजों और नक्सलियों के वोट के बहिष्कार के अलावा भी ओडीशा में काफी कुछ घटित हो रहा है जिसको अगर रेखांकित किया जाए तो माओवादियों के लगातार कमजोर होते जाने की तस्वीर सामने आती है । माओवादियों के बड़े नेता किशन जी को जब पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया था तो माओवादियों ने दो दिनों के बंद का ऐलान किया । इस बंद का भी ओडीशा और झारखंड के कई इलाकों में असर देखने को नहीं मिला । मलकानगिरी, जो ओडीशा का सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित क्षेत्र माना जाता है, में ये बंद लगभग बेअसर रहा । आदिवासी इलाकों के लड़के,लडकियां अपने स्कूल पहुंचे । बंद के दौरान छात्रों का ऐसा व्यवहार अबतक इस इलाके में कभी नहीं देखा गया था । मलकानगिरी जैसे नक्सलियों के गढ़ में तो बंद के ऐलान के बाद कर्फ्यू जैसे हालात हो जाते थे । सड़कों पर सन्नाटा और पूरे इलाके में कामकाज ठप । नक्सलियों का खौफ इतना ज्यादा होता था कि बंद के दौरान मां-बाप अपने बच्चों को घर से बाहर तक नहीं निकलने देते थे । यही हाल झारखंड के डाल्टनगंज और पलामू जिलों में देखने को मिला । दो दिन के बंद के दौरान स्कूलों में छात्र पहुंचे । लोग सड़कों पर निकले अपने कार्यालय पहुंचे। सड़कों पर गाड़ियां चलीं । सबसे आश्चर्यजनक बात तो ओडीशा के नुआपाड़ा में देखने को मिला । वहां नक्सलियों ने यातायात बंद करने के लिए पेड़ काटकर सड़क पर डाल दिया था । स्थानीय नागरिकों ने नक्सलियों से बगैर डरे सड़क से पेड़ हटाकर उसे यातायात के लिए खोल दिया । पहले यह काम सुरक्षा बल किया करते थे । स्थानीय जनता के इस कदम को भी नक्सलियों के घटते प्रभाव के तौर पर देखा गया ।
दरअसल यह सब दो वजहों से हो रहा है । एक तो राज्य और केंद्र सरकार खामोशी के साथ मिलकर उन इलाकों में नक्सलियों का प्रभाव कम करने की दिशा में काम कर रहे थे जिसका थोड़ा बहुत नतीजा अब दिखाई देने लगा है । नक्सल प्रभावित इलाकों में केंद्र और राज्य सरकारों ने मिलकर समग्र विकास के प्रयास किए । नक्सलियों को सत्ता के भय से मुक्त किया और उनके शोषण पर लगाम लगाकर उनका विश्वास हासिल करने में आंशिक सफलता भी हासिल की । अर्धसैनिक बलों ने नक्सल प्रभावित इलाकों में आदिवासियों का विश्वास जीतने के फॉर्मूले पर काम किया गया और बहुत हद तक सफलता भी पाई । सरकार के रणनीतिकारों का मानना है कि आदिवासियों का जितना भरोसा सरकार या सत्ता पर बढ़ेगा उतना ही नक्सलियों को समर्थन मिलना कम होगा ।
नक्सलियों का समर्थन कम होने की एक और जो सामाजिक वजह है वह यह कि अब इस आंदोलन में अपराधी तत्वों का प्रवेश हो गया है जो आंदोलन के नाम पर इलाके में वसूली करते हैं । पैसेवालों का अपहरण करके फिरौती वसूलते हैं । इस तरह की भी कई खबरें सामने आईं जहां पता चला कि माओवादियों ने लड़कियों को जबरन अपने साथ रखकर उनका बलात्कार किया । सिद्धांत और विचारों का स्थान लूटपाट और चोरी डकैती ने ले लिया । जबरन हफ्ता वसूली, फिरौती, लड़कियों और महिलाओं के साथ बढ़ती बदसलूकी, आंदोलन के नाम पर हत्या आदि जैसी वारदातों ने आम जनता के मन में नक्सलियों के प्रति नफरत का भाव पैदा कर दिया । जो आदिवासी नक्सलियों को तम मन धन से समर्थन दे रहे थे वो अब डर से समर्थन देने लगे । लेकिन डर, खौफ या भय से मिला समर्थन ज्यादा दिन चलता नहीं है और जैसे ही मौका मिलता है वही समर्थन विरोध का स्वर बनकर खड़ा हो जाता है । माओवादियों का साथ भी वही हुआ । जैसे ही आदिवासी इलाके की जनता का माओवादियों से मन टूटा और राज्य सत्ता में भरोसा कायम हुआ वैसे ही विरोध के स्वर उठने लगे और जब भी मौका मिला विरोध या तो मुखर या फिर मौन के रूप में सामने आया । अब जरूरत इस बात की है कि इस बदलाव की अहमियत को समझते हुए राज्य सत्ता आदिवासियों का भरोसा तो जीते ही उनके दिल को जीतने भी कोशिश करे ताकि नक्सल समस्या का जड़ से अंत किया जा सके । लेकिन ऐसा लगता है कि लोकपाल के शोरगुल में इस देश के शासक वर्ग और जनता दोनों का इस समस्या से ध्यान लगभग हट सा गया है । नक्सलवाद हमारे देश के लिए एक ऐसी समस्या है जो लगभग नासूर की शक्ल अख्तियार कर चुका है ।
ऐसे में इस समस्या में अगर थोड़ा भी सकारात्मक बदलाव दिखाई देता है तो उसका प्रचार प्रसार होना चाहिए । इसका फायदा यह होगा कि नक्सल प्रभावित दूसरे इलाकों में सरकार के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ेगा और नक्सलियों के प्रति भरोसा घटेगा । भरोसे के इसी घटत और बढ़त में इस समस्या का समाधान निकलेगा । लेकिन केंद्र में सरकार चला रही पार्टी कांग्रेस अपनी कामयाबियों को जनता तक पहुंचाने के लिए प्रयत्नशील ही नहीं है । कांग्रेस पार्टी के बड़े नेता जनता से संवाद नहीं कर पा रहे हैं । अपनी कामयाबियों को जनता तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं । पहले पार्टी ने अपने दर्जनभर नेताओं की एक सूची जारी की जो मीडिया में पार्टी का पक्ष रखेंगे लेकिन उन नेताओं का कहीं अता पता नहीं है । नतीजा यह हुआ कि सरकार के प्रयत्नों से समाज में जो सकारात्मक बदलाव आए उसका प्रचार नहीं हो सका । वहीं विपक्ष और टीम अन्ना ने बढ़-चढ़कर सरकार की नाकामियों को मीडिया के जरिए जनता तक पहुंचाया । अभी हाल में सरकार के दस युवा मंत्रियों को सरकार की उपल्बधियों को जनता तक पहुंचाने का जिम्मा दिया गया । लेकिन ये युवा मंत्री भी गाहे बगाहे ही नजर आते हैं । नतीजा यह हो रहा है कि सरकार की उपल्बधियां जनता तक नहीं पहुंच पा रही है । लंबे समय से नक्सलियों का बडा़ हमला नहीं हुआ है, नक्सलियों का बड़ा नेता किशन जी को मारकर माओवादियों की कमर तोड़ दी गई । लेकिन इन कामयाबियों को नक्सल इलाकों में पहुंचाकर वहां की जनता का विश्वास जीतने का प्रयास नहीं किया जा रहा है । गरीबों के लिए खाने की गारंटी देनेवाला ऐतिहासिक कानून आनेवाला है जिसका बड़ा फायदा जंगलों में रहनेवालों को होगा यह बात भी उन इलाकों में नहीं पहुंच पा रही है । यूपीए सरकार अपने पहले कार्यकाल में हर छोटी बड़ी उपल्बधि का ढिंढोरा पीटती नजर आती थी वही अब आलस में डूबी नजर आ रही है । लेकिन वक्त आ गया है कि सरकार के कर्ताधर्ता सत्ता के मद से बाहर निकलें और जनता से संवाद स्थापित करें ताकि नक्सलवाद की समस्या को समूल खत्म किया जा सके ।

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