आजादी के बाद देश को जवाहरलाल नेहरू जैसा साहित्यप्रेमी
और लेखक प्रधानमंत्री मिला जिसके दिमाग में देश में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा
देने की एक व्यापक योजना थी । नेहरू के वक्त में साहित्य और साहित्यकारों की काफी इज्जत
थी । रामधारी सिंह दिनकर और मैथिलीशरण गुप्त के अलावा कई साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों
को जवाहरलाल नेहरू ने राज्यसभा में मनोनीत कर संसद का मान और स्तर दोनों बढाया था ।
आजादी के बाद संविधान द्वारा स्वीकृत भारतीय भाषाओं में उत्कृष्ट लेखन को पुरस्कृत,
संवर्धित और विकसित करने के एक बड़े उद्देश्य को लेकर 1954 में साहित्य अकादमी की स्थापना
की गई थी । पररंतु अगर हम पिछले अट्ठावन साल की उपल्बिधियों पर गौर करें तो एक साथ
विस्मय भी होता है और आश्चर्य भी । शुरुआती एक दशक के बाद से लगभग चालीस साल तक साहित्य
अकादमी अपने उद्देश्य से भटकती रही । अस्सी और नब्बे के दशक में तो साहित्य अकादमी
की प्रतिष्ठा बेहद धूमिल हुई । जिस तरह से हिंदी के कर्ताधर्ताओं ने उस दौरान पुरस्कारों
की बंदरबांट की थी उससे साहित्य अकादमी की साख को तो बट्टा लगा ही उसकी कार्यशैली पर
भी सवाल खड़े होने लगे थे । फिर साहित्य अकादमी के चुनावों में जिस तरह से खेमेबंदी
और रणनीतियां बनी उससे भी वो साहित्य कम राजनीति का अखाड़ा ज्यादा बन गई थी । गोपीचंद
नारंग और महाश्वेता देवी के बीच हुए अध्यक्ष पद के चुनाव के दौरान तो माहौल एकदम से
साहित्य के आमचुनाव जैसा था । गोपीचंद नारंग के चुनाव जीतने के बाद साहित्य अकादमी
की स्थिति सुधरी । वर्षों से विचारधारा के नाम पर अकादमी पर कुंडली जमाए मठाधीशों की
सत्ता का अंत होने से तिलमिलाए लोगों ने नारंग पर कई तरह के आरोप लगाए । उनको हटाने
की मांग की गई लेकिन उस दौर में अकादमी ने अपना भव्य स्वर्ण जयंती समारोह तो मनाया
ही और कई बेहतरीन कार्यक्रम कर आलोचकों को मुंहतोड़ जवाब दिया । हाल के दिनों में जब
से विश्वनाथ तिवारी साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष बने हैं तो अकादमी के कार्यक्रमों
में विविध लेखकों की सहभागिता काफी बढ़ी हैं ।
साहित्य अकादमी के अलावा अगर हम अन्य राज्यों की हिंदी साहित्य, कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई अकादमियों पर विचार करें तो हालात बेहद निराशाजनक नजर आते हैं । दिल्ली की हिंदी अकादमी तो सरकार के सूचना और प्रसारण विभाग में तब्दील हो गया है । हिंदी अकादमी की संचालन समिति की पिछले कार्यकाल में एक भी बैठक नहीं हो पाई थी । दिल्ली सरकार हिंदी अकादमी का नियमित सचिव नियुक्ति नहीं कर पाई और एडहॉक सचिव से लंबे समय तक काम चलाती रही । इससे साहित्य को लेकर सरकार की गंभीरता का भी पता चलता है । नतीजा यह हुआ कि अकादमी के एडहॉक प्रशासनिक मुखिया के नेतृत्व में आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में भी एक एडहकिज्म नजर आती रही । एक जमाने में लाल किले पर होनेवाली कवि गोष्ठी दिल्ली की हिंदी अकादमी का प्रतिष्ठित कार्यक्रम हुआ करती था लेकिन जिस तरह से बाद में कवियों के चयन में मनमानी और उपकृत करने की मनोवृत्ति सामने आई उससे लालकिले का आयोजन रस्मी होकर रह गया । उसके अलावा हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए ना तो कोई किताब छापी गई और ना ही अकादमी की साहित्यक पत्रिका की आवर्तिता बरकरार रखी जा सकी । जो किताबें छपी वो भी स्तरहीन और पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने वाली बनकर रह गई । हिंदी अकादमी की प्रतिष्ठित पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती का आज कहीं कोई नामलेवा नहीं रहा । दसियों साल से दिल्ली की हिंदी अकादमी दिल्ली के युवा लेखकों के प्रोत्साहन के लिए पुस्तक प्रकाशन योजना के तहत दस हजार रुपए का अनुदान देती है । लेकिन बदलते वक्त के साथ इस अनुदान राशि में कोई बदलाव नहीं किया गया । दिल्ली की युवा प्रतिभाओं को सामने लाने के अपने दायित्व को निभा पाने में कामयाब नहीं हो पा रही है और संघर्षरत युवा लेखकों को अपनी किताबें छपवाने में दर बदर भटकना पड़ रहा है ।
यह हाल सिर्फ दिल्ली की हिंदी अकादमी का नहीं है । हिंदी प्रदेशों में जितनी भी अकादमियां हैं वो सब राजनैतिक नेतृत्व की बेरुखी और उपेक्षा के अलावा लेखकों की आपसी राजनीति का शिकार हो गई हैं । मध्य प्रदेश एक जमाने में साहित्य संस्कृति का अहम केंद्र माना जाता था । अस्सी के दशक में मध्य प्रदेश में इतनी साहित्यिक गतिविधियां हो रही थी और सरकारी संस्थाओं से नए पुराने लेखकों के संग्रह प्रकाशित हो रहे थे कि अशोक वाजपेयी ने अस्सी में कविता की वापसी का ऐलान कर दिया था । ना सिर्फ साहित्य बल्कि कला के क्षेत्र में भी मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक संस्थाओं की सक्रियता चकित करनेवाली थी । मध्य प्रदेश में कई जगहों पर मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला के नाम पर साहित्य सृजन पीठ खोले गए थे और उन पीठों पर हिंदी के मूर्धन्य लोगों को नियुक्ति दी गई थी जिससे की उन पीठों की साख शुरुआत से ही कायम हो पाई । लेकिन बाद में लेखकों की विचारधारा की लड़ाई और राजनीतिक सत्ता का बदलने से मध्यप्रदेश में साहित्यिक सत्ता भी पलट गई । कालांतर में इन साहित्यक संस्थाओं की सक्रियता और काम करने का स्तर भी गिरा । संस्थाओं पर भाई भतीजावाद के आरोप लगे । उनकी नियुक्तियों में धांधली की शिकायतें सामने आई । विचारधारा की लड़ाई और सरकार की बेरुखी से नुकसान तो साहित्य का ही हुआ । मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान साहित्य अकादमी का भी बुरा हाल है । राजस्थान से निकलने वाली पत्रिका- मधुमती- का एक जमाने में हिंदी के पाठकों को इंतजार रहता था लेकिन अब मधुमती कब आती है और कब गायब हो जाती है उसका पता भी नहीं चल पाता । राजस्थान में नेहरू की पार्टी कांग्रेस का राज है लेकिन नेहरू के सपनों का भारत बनाने की वहां के राजनैतिक नेतृत्व को फिक्र नहीं है । सरकारी साहित्यिक संस्थाएं सरकारी की बेरुखी की वजह से दम तोड़ रही हैं ।
एक जमाने में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार ग्रंथ अकादमी और बिहार साहित्य सम्मेलन की देशभर में प्रतिष्ठा थी और उनसे रामधारी सिंह दिनकर, शिवपूजवन सहाय , रामवृत्र बेनीपुरी जैसे साहित्यकार जुड़े थे । लेकिन आज बिहार सरकार के शिक्षा विभाग की बेरुखी से ये संस्थाएं लगभग बंद हो गई हैं । बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के परिसर में सरकारी सहायता प्राप्त एनजीओ किलकारी काम करने लगी है । किलकारी पर सरकारी धन बरस रहा है लेकिन उसी कैंपस में राष्ट्रभाषा परिषद पर ध्यान देने की फुर्सत किसी को नहीं है । बिहार ग्रंथ अकादमी का बोर्ड उसके दफ्तर के सामने लटककर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है । उसके अलावा बिहार साहित्य सम्मेलन में तो हालात यह है कि आए दिन वहां दो गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई को लेकर पुलिस बुलानी पड़ती है । साहित्य सम्मेलन का जो भव्य हॉल किसी जमाने में साहित्यक आयोजनों के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था वहां अब साड़ियों की सेल लगा करती है । इन संस्थाओं के समृद्ध पुस्तकालय देखभाल के आभाव में बर्बाद हो रहे हैं । बिहार के शिक्षा विभाग पर इन साहित्यक विभागों को सक्रिय रखने का जिम्मेदारी है लेकिन अपनी इस जिम्मेदारी को निभा पाने में शिक्षा विभाग बुरी तरह से नाकाम है ।
दरअसल साहित्यक संस्थाओं को लेकर नेहरू के विजन वाला कोई नेता अब देश में बचा नहीं । नेताओं को पढ़ने लिखने से ज्यादा तिकड़मों और अपनी कुर्सी बचाने की फिक्र होती है । सरकार में शामिल लोगों की साहित्य का प्रति उदासीनता से इन संस्थाओं के खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है । वक्त आ गया है कि सरकार अपनी समृद्ध साहित्यिक संस्थाओं को बचाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए ।
साहित्य अकादमी के अलावा अगर हम अन्य राज्यों की हिंदी साहित्य, कला और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई अकादमियों पर विचार करें तो हालात बेहद निराशाजनक नजर आते हैं । दिल्ली की हिंदी अकादमी तो सरकार के सूचना और प्रसारण विभाग में तब्दील हो गया है । हिंदी अकादमी की संचालन समिति की पिछले कार्यकाल में एक भी बैठक नहीं हो पाई थी । दिल्ली सरकार हिंदी अकादमी का नियमित सचिव नियुक्ति नहीं कर पाई और एडहॉक सचिव से लंबे समय तक काम चलाती रही । इससे साहित्य को लेकर सरकार की गंभीरता का भी पता चलता है । नतीजा यह हुआ कि अकादमी के एडहॉक प्रशासनिक मुखिया के नेतृत्व में आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में भी एक एडहकिज्म नजर आती रही । एक जमाने में लाल किले पर होनेवाली कवि गोष्ठी दिल्ली की हिंदी अकादमी का प्रतिष्ठित कार्यक्रम हुआ करती था लेकिन जिस तरह से बाद में कवियों के चयन में मनमानी और उपकृत करने की मनोवृत्ति सामने आई उससे लालकिले का आयोजन रस्मी होकर रह गया । उसके अलावा हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए ना तो कोई किताब छापी गई और ना ही अकादमी की साहित्यक पत्रिका की आवर्तिता बरकरार रखी जा सकी । जो किताबें छपी वो भी स्तरहीन और पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाने वाली बनकर रह गई । हिंदी अकादमी की प्रतिष्ठित पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती का आज कहीं कोई नामलेवा नहीं रहा । दसियों साल से दिल्ली की हिंदी अकादमी दिल्ली के युवा लेखकों के प्रोत्साहन के लिए पुस्तक प्रकाशन योजना के तहत दस हजार रुपए का अनुदान देती है । लेकिन बदलते वक्त के साथ इस अनुदान राशि में कोई बदलाव नहीं किया गया । दिल्ली की युवा प्रतिभाओं को सामने लाने के अपने दायित्व को निभा पाने में कामयाब नहीं हो पा रही है और संघर्षरत युवा लेखकों को अपनी किताबें छपवाने में दर बदर भटकना पड़ रहा है ।
यह हाल सिर्फ दिल्ली की हिंदी अकादमी का नहीं है । हिंदी प्रदेशों में जितनी भी अकादमियां हैं वो सब राजनैतिक नेतृत्व की बेरुखी और उपेक्षा के अलावा लेखकों की आपसी राजनीति का शिकार हो गई हैं । मध्य प्रदेश एक जमाने में साहित्य संस्कृति का अहम केंद्र माना जाता था । अस्सी के दशक में मध्य प्रदेश में इतनी साहित्यिक गतिविधियां हो रही थी और सरकारी संस्थाओं से नए पुराने लेखकों के संग्रह प्रकाशित हो रहे थे कि अशोक वाजपेयी ने अस्सी में कविता की वापसी का ऐलान कर दिया था । ना सिर्फ साहित्य बल्कि कला के क्षेत्र में भी मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक संस्थाओं की सक्रियता चकित करनेवाली थी । मध्य प्रदेश में कई जगहों पर मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला के नाम पर साहित्य सृजन पीठ खोले गए थे और उन पीठों पर हिंदी के मूर्धन्य लोगों को नियुक्ति दी गई थी जिससे की उन पीठों की साख शुरुआत से ही कायम हो पाई । लेकिन बाद में लेखकों की विचारधारा की लड़ाई और राजनीतिक सत्ता का बदलने से मध्यप्रदेश में साहित्यिक सत्ता भी पलट गई । कालांतर में इन साहित्यक संस्थाओं की सक्रियता और काम करने का स्तर भी गिरा । संस्थाओं पर भाई भतीजावाद के आरोप लगे । उनकी नियुक्तियों में धांधली की शिकायतें सामने आई । विचारधारा की लड़ाई और सरकार की बेरुखी से नुकसान तो साहित्य का ही हुआ । मध्य प्रदेश के अलावा राजस्थान साहित्य अकादमी का भी बुरा हाल है । राजस्थान से निकलने वाली पत्रिका- मधुमती- का एक जमाने में हिंदी के पाठकों को इंतजार रहता था लेकिन अब मधुमती कब आती है और कब गायब हो जाती है उसका पता भी नहीं चल पाता । राजस्थान में नेहरू की पार्टी कांग्रेस का राज है लेकिन नेहरू के सपनों का भारत बनाने की वहां के राजनैतिक नेतृत्व को फिक्र नहीं है । सरकारी साहित्यिक संस्थाएं सरकारी की बेरुखी की वजह से दम तोड़ रही हैं ।
एक जमाने में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार ग्रंथ अकादमी और बिहार साहित्य सम्मेलन की देशभर में प्रतिष्ठा थी और उनसे रामधारी सिंह दिनकर, शिवपूजवन सहाय , रामवृत्र बेनीपुरी जैसे साहित्यकार जुड़े थे । लेकिन आज बिहार सरकार के शिक्षा विभाग की बेरुखी से ये संस्थाएं लगभग बंद हो गई हैं । बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के परिसर में सरकारी सहायता प्राप्त एनजीओ किलकारी काम करने लगी है । किलकारी पर सरकारी धन बरस रहा है लेकिन उसी कैंपस में राष्ट्रभाषा परिषद पर ध्यान देने की फुर्सत किसी को नहीं है । बिहार ग्रंथ अकादमी का बोर्ड उसके दफ्तर के सामने लटककर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है । उसके अलावा बिहार साहित्य सम्मेलन में तो हालात यह है कि आए दिन वहां दो गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई को लेकर पुलिस बुलानी पड़ती है । साहित्य सम्मेलन का जो भव्य हॉल किसी जमाने में साहित्यक आयोजनों के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था वहां अब साड़ियों की सेल लगा करती है । इन संस्थाओं के समृद्ध पुस्तकालय देखभाल के आभाव में बर्बाद हो रहे हैं । बिहार के शिक्षा विभाग पर इन साहित्यक विभागों को सक्रिय रखने का जिम्मेदारी है लेकिन अपनी इस जिम्मेदारी को निभा पाने में शिक्षा विभाग बुरी तरह से नाकाम है ।
दरअसल साहित्यक संस्थाओं को लेकर नेहरू के विजन वाला कोई नेता अब देश में बचा नहीं । नेताओं को पढ़ने लिखने से ज्यादा तिकड़मों और अपनी कुर्सी बचाने की फिक्र होती है । सरकार में शामिल लोगों की साहित्य का प्रति उदासीनता से इन संस्थाओं के खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है । वक्त आ गया है कि सरकार अपनी समृद्ध साहित्यिक संस्थाओं को बचाने के लिए कोई ठोस कदम उठाए ।
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