अभी हाल में तीन
ऐसी घटनाएं घटी हैं जिसने हिंदी भाषा से प्रेम करनावालों को खुश होने का मौका दिया
है । पहला तो ये कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के लिए कैलिफोर्निया की मतदाता सूची
और उसकी बेवसाइट हिंदी में बनाई गई है । दूसरी घटना ये हुई कि ऑस्ट्रेलिया की प्रधानमंत्री
जूलिया गिलार्ड ने ऐलान किया कि ऑस्ट्रेलिया में हिंदी को एक भाषा के तौर पर पढाया
जाएगा । तीसरी बात हुई है कि चीन के शंघाई विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा न्यास की स्थापना
की जाएगी जिसके बाद शंघाई इंटरनेशनल स्टडीज विश्वविद्यालय में 2013 से हिंदी भाषा का
पाठ्यक्रम शुरू किया जाएगा । इन तीनों घटनाओं से एक बात तो साफ होती है कि हमारी अपनी
भाषा हिंदी को अब विश्व के अन्य देशों में मान्यता मिलनी शुरू हो गई है । पढ़ाई तो पहले से ही कई देशों में जा रही थी । इन तीनों
घटनाओं से हिंदी के वैश्विक होने और विदेशों में उसके एक ताकतवर भाषा के तौर पर उभरने
का संकेत तो माना ही जा सकता है । लेकिन यहां सवाल यही उठता है कि क्या अपने देश में
हिंदी की जड़ें मजबूत हो पा रही है । क्या हिंदी हमारे देश में वो स्थान प्राप्त कर
पाई है जिसकी वो हकदार है । आज भी चंद अंग्रेजीदां लोग ही हमारे देश के नीति नियंता
हैं । उन्हें हिंदी से लगाव ही नहीं है । देश में गांधी की विरासत का दावा करनेवाली
कांग्रेस पार्टी हिंदी को लेकर कितनी चिंतित है । उस पार्टी के नेता हिंदी के विकास
के लिए क्या कर रहे हैं यह पता नहीं चलता है । अभी मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ तो कई
गैर हिंदी भाषी सांसदों ने हिंदी में शपथ लेकर भाषा के प्रति अपने प्रेम का प्रदर्शन
किया लेकिन पार्टी की तरफ से बात करनेवाले लोगों ने अंग्रेजी में शपथ लेकर अपनी नाक
उंची की । ये अंग्रेजीदां लोग महात्मा गांधी के उस कथन को भूल गए हैं जो उन्होंने
1947 में देश की आजादी के फौरन बाद कही थी । गांधी ने हरिजन में लिखा था- मेरा आशय
यह है कि जिस प्रकार हमने सत्ता हड़पनेवाले अंग्रेजों के राजनैतिक शासन को सफलतापूर्वक
उखाड़ फेंका, उसी प्रकार हमें सांस्कृतिक अधिग्रहण करनेवाली अंग्रेजी को भी हटा देना
चाहिए । यह आवश्यक परिवर्तन करने में जितनी देरी हो जाएगी, उतनी ही राष्ट्र की सांस्कृतिक
हानि होती जाएगी ।
गांधी की ये चिंता कालांतर में सही साबित हुई । हमारे समाज में, सत्ता में ,सत्ता प्रतिष्ठानों में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता चला गया और उत्तरोत्तर हमारी हानि होती चली गई । स्वतंत्रता के बाद से ही हिंदी को लेकर देश के नेताओं की चिंता कम होती चली गई । बाद में कुछ लोगों ने तो हिंदी के विस्तार को, उसके राष्ट्रभाषा के प्रस्तावित दर्जे को भावनाओं से जोड़कर ओछी राजनीति शुरू कर दी । उस राजनीति की वजह से देश में ये माहौल बन गया कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं की दुश्मन है और अगर उसे बढावा दिया गया तो देश की अन्य भाषाओं के सामने खत्म हो जाने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा । एक सुनियोजित तरीके से देश के दक्षिणी राज्यों में हिंदी के खिलाफ घृणा का वातावरण फैलाया गया जो बाद में हिंसक स्वरूप ले बैठा । जबकि होना यह चाहिए था कि भाषा के संबंध में भावना को प्रमुखता नहीं दिया जाता । प्रमुखता तो भावना को सिर्फ गल्प में दिया जा सकता है अन्यथा भावना में बहकर कोई भी निर्णय सही नहीं हुआ है, इतिहास इस बात का गवाह है । खासकर भाषा के मामले में तो प्रेम से ही काम किया जाना चाहिए । हिंदी के मशहूर कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने लिखा भी है – तुर्की, अरबी, हिंदी, भाषा जेति आहि । जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि । जायसी जिस प्रेम की बात कर रहे हैं वो संवाद के जरिए पैदा किया जा सकता था । दुर्भाग्य से ये संवाद आजादी के बाद नहीं किया जा सका । हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर दर्जा दिए जाने को लेकर उस वक्त के राजनेताओं के मन में भी संशय था । उस संशय को 1948-49 में डॉ राधाकृष्णन के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रतिवेदन से समझा जा सकता है । डॉ राधाकृष्णन ने लिखा था- अंग्रेजी हमारे राष्ट्र के अभ्यास का इतना अधिक अंग बन चुकी है कि एक सर्वथा भिन्न प्रणाली में प्रवेश करने में असामान्य भय प्रतीत होने लगता है । हमको ऐसा प्रतीत होता है कि बेधड़क कूदना अनिवार्य है, चाहे अंग्रेजी के कुछ भी लाभ हों तथा नए परिवर्तन में तुरंत कितने ही खतरे क्यों ना हों, पर सुदूर भविष्य की दृष्टि से देखा जाए तो परिवर्तन में ही अधिक लाभ होगा । डॉ राधाकृष्णन ने उसी प्रतिवेदन में यह भी कहा था कि – अंग्रेजी से परिवर्तन में विलंब न हो इसके लिए आवश्यक है कि भारत सरकार और प्रान्तीय सरकारों को संघीय तथा प्रादेशिक भाषाओं के विकास के लिए तुरंत उपाय सोचने चाहिए । लेकिन सरकारों ने तुरंत तो क्या बाद में भी इस दिशा में कोई प्रयत्न नहीं किया । नतीजा यह हुआ कि देश में आजादी के पैंसठ साल बाद भी अंग्रेजी का वर्चस्व जस का तस कायम है ।
आज तो हिंदी को लेकर हालात यह है कि जनता के बीच इसका प्रचार प्रसार तो बढ़ा है लेकिन सरकारी हिंदी और भी दुरुह हो गई है । भारत सरकार के कई मंत्रालयों में काम करनेवालों अफसरों और बाबुओं से बात करने पर उन्होंने अपनी पीड़ा का इजहार किया । उनका कहना है कि वो हिंदी में काम करना चाहते हैं लेकिन कई सरकारी नियमावलियों का अबतक अनुवाद ही नहीं हुआ है । जिसकी वजह से तकनीकी शब्दों को हिंदी में लिखने को लेकर एक भ्रम बना रहता है, भय भी । और जिनके अनुवाद हुए हैं उसकी हिंदी इतनी दुरुह है कि उससे ज्यादा आसानी से तो अंग्रेजी ही समझी जा सकती है । बहुत हद तक इन अफसरों और बाबुओं का दर्द सही भी है । सरकारी हिंदी इतनी कठिन है कि उसे लिखने-समझने में ज्यादा समय लगता है । आजादी के पैंसठ साल बाद और 1967 में भाषा अधिनियम के पास होने के पैंतालीस साल बाद भी सरकारी नियमावलियों का पूरे तौर पर हिंदी में अनुवाद नहीं होना सत्ता प्रतिष्ठान की हिंदी के प्रति उदासीनता को उजागर करती है । यहां एक और सवाल जो जेहन में उठता है कि वो यह है कि सरकारी कामकाज में साधारण हिंदी का उपयोग क्यों नहीं हो सकता । जो अधिकारी जैसी हिंदी जानते हैं वैसी हिंदी का प्रयोग क्यों नहीं करते । क्यों वो सरकारी और दुरुह हिंदी के चक्रव्यूह में पड़कर काम काज का सत्यानाश कर देते हैं । जहां उन्हें तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल करना हो वहां सिर्फ उस शब्द का इस्तेमाल करें और अगर वो तकनीकी शब्द दुरुह हो रही है तो उसकी जगह अंग्रेजी के शब्द का इस्तेमाल करें । अगर जाने के लिए जावक और आने के लिए आवक शब्द का प्रयोग होगा तो फिर तो हिंदी का भगवान ही मालिक है । कई सरकारी बेवसाइटों में अब भी डिपार्चर के लिए जावक और अराइवल के लिए आवक का प्रयोग हो रहा है । दरअसल जब हिंदी जानने वाले अफसर और बाबुओं की टोली उस हिंदी का इस्तेमाल शुरू कर देंगे जो वो जानते हैं तो समस्या का हल अपने आप निकल आएगा क्योंकि उस इस्तेामल से ही एक ऐसी भाषा विकसित होगी जो सबकी समझ में आनेवाली होगी । लेकिन यहां हिंदी के शुद्धतावादियों को भी कलेजे पर पत्थर रखना होगा । तत्सम शब्दों के इस्तेमाल की वकालत करनेवाले लोग यह भूल जाते हैं कि कभी कभार इस तरह के शब्द भाषा के विकास में बाधा बनते हैं ।
दूसरा काम हमें यह करना होगा कि न्याय की भाषा को अंग्रेजी के शिकंजे से मुक्त करना होगा । कानून की भाषा अब तक देश में अंग्रेजी ही है और उससे प्रभावित होनेवाले की भाषा कुछ और । सुप्रीम कोर्ट से लेकर अन्य अदालतों के जजों को हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में काम करना होगा । इसके लिए सरकारों को पहल करनी होगी । देश और राज्यों में लागू कानून और कानून की व्याख्या करनेवाली किताबों का हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाना होगा । यह एक श्रमसाध्य काम है लकिन अगर हमें अपनी भाषा को आगे बढाना है तो औपनिवेशिक मानसिकता को तो कभी ना कभी तोड़ना ही होगा । उस मानसिकता को जितनी जल्दी तोड़ लें उतनी ही जल्दी हिंदी का भला हो सकेगा । आज हम उपर की तीन घटनाओं से खुश तो हो सकते हैं लेकिन अगर सरकारें सचेत हुई तो इस तरह की खुशी के अवसर कई मिलेंगे लेकिन इसके लिए सरकार को अपनी प्राथमिकता में भाषा को शामिल करना होगा । हलांकि किसी भी देश के लिए ये शर्मानक है कि आजादी के पैंसठ साल बाद भी भाषा को लेकर सरकारी प्राथमिकता तय नहीं हो पाई है ।
गांधी की ये चिंता कालांतर में सही साबित हुई । हमारे समाज में, सत्ता में ,सत्ता प्रतिष्ठानों में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता चला गया और उत्तरोत्तर हमारी हानि होती चली गई । स्वतंत्रता के बाद से ही हिंदी को लेकर देश के नेताओं की चिंता कम होती चली गई । बाद में कुछ लोगों ने तो हिंदी के विस्तार को, उसके राष्ट्रभाषा के प्रस्तावित दर्जे को भावनाओं से जोड़कर ओछी राजनीति शुरू कर दी । उस राजनीति की वजह से देश में ये माहौल बन गया कि हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं की दुश्मन है और अगर उसे बढावा दिया गया तो देश की अन्य भाषाओं के सामने खत्म हो जाने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा । एक सुनियोजित तरीके से देश के दक्षिणी राज्यों में हिंदी के खिलाफ घृणा का वातावरण फैलाया गया जो बाद में हिंसक स्वरूप ले बैठा । जबकि होना यह चाहिए था कि भाषा के संबंध में भावना को प्रमुखता नहीं दिया जाता । प्रमुखता तो भावना को सिर्फ गल्प में दिया जा सकता है अन्यथा भावना में बहकर कोई भी निर्णय सही नहीं हुआ है, इतिहास इस बात का गवाह है । खासकर भाषा के मामले में तो प्रेम से ही काम किया जाना चाहिए । हिंदी के मशहूर कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने लिखा भी है – तुर्की, अरबी, हिंदी, भाषा जेति आहि । जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि । जायसी जिस प्रेम की बात कर रहे हैं वो संवाद के जरिए पैदा किया जा सकता था । दुर्भाग्य से ये संवाद आजादी के बाद नहीं किया जा सका । हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर दर्जा दिए जाने को लेकर उस वक्त के राजनेताओं के मन में भी संशय था । उस संशय को 1948-49 में डॉ राधाकृष्णन के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रतिवेदन से समझा जा सकता है । डॉ राधाकृष्णन ने लिखा था- अंग्रेजी हमारे राष्ट्र के अभ्यास का इतना अधिक अंग बन चुकी है कि एक सर्वथा भिन्न प्रणाली में प्रवेश करने में असामान्य भय प्रतीत होने लगता है । हमको ऐसा प्रतीत होता है कि बेधड़क कूदना अनिवार्य है, चाहे अंग्रेजी के कुछ भी लाभ हों तथा नए परिवर्तन में तुरंत कितने ही खतरे क्यों ना हों, पर सुदूर भविष्य की दृष्टि से देखा जाए तो परिवर्तन में ही अधिक लाभ होगा । डॉ राधाकृष्णन ने उसी प्रतिवेदन में यह भी कहा था कि – अंग्रेजी से परिवर्तन में विलंब न हो इसके लिए आवश्यक है कि भारत सरकार और प्रान्तीय सरकारों को संघीय तथा प्रादेशिक भाषाओं के विकास के लिए तुरंत उपाय सोचने चाहिए । लेकिन सरकारों ने तुरंत तो क्या बाद में भी इस दिशा में कोई प्रयत्न नहीं किया । नतीजा यह हुआ कि देश में आजादी के पैंसठ साल बाद भी अंग्रेजी का वर्चस्व जस का तस कायम है ।
आज तो हिंदी को लेकर हालात यह है कि जनता के बीच इसका प्रचार प्रसार तो बढ़ा है लेकिन सरकारी हिंदी और भी दुरुह हो गई है । भारत सरकार के कई मंत्रालयों में काम करनेवालों अफसरों और बाबुओं से बात करने पर उन्होंने अपनी पीड़ा का इजहार किया । उनका कहना है कि वो हिंदी में काम करना चाहते हैं लेकिन कई सरकारी नियमावलियों का अबतक अनुवाद ही नहीं हुआ है । जिसकी वजह से तकनीकी शब्दों को हिंदी में लिखने को लेकर एक भ्रम बना रहता है, भय भी । और जिनके अनुवाद हुए हैं उसकी हिंदी इतनी दुरुह है कि उससे ज्यादा आसानी से तो अंग्रेजी ही समझी जा सकती है । बहुत हद तक इन अफसरों और बाबुओं का दर्द सही भी है । सरकारी हिंदी इतनी कठिन है कि उसे लिखने-समझने में ज्यादा समय लगता है । आजादी के पैंसठ साल बाद और 1967 में भाषा अधिनियम के पास होने के पैंतालीस साल बाद भी सरकारी नियमावलियों का पूरे तौर पर हिंदी में अनुवाद नहीं होना सत्ता प्रतिष्ठान की हिंदी के प्रति उदासीनता को उजागर करती है । यहां एक और सवाल जो जेहन में उठता है कि वो यह है कि सरकारी कामकाज में साधारण हिंदी का उपयोग क्यों नहीं हो सकता । जो अधिकारी जैसी हिंदी जानते हैं वैसी हिंदी का प्रयोग क्यों नहीं करते । क्यों वो सरकारी और दुरुह हिंदी के चक्रव्यूह में पड़कर काम काज का सत्यानाश कर देते हैं । जहां उन्हें तकनीकी शब्दों का इस्तेमाल करना हो वहां सिर्फ उस शब्द का इस्तेमाल करें और अगर वो तकनीकी शब्द दुरुह हो रही है तो उसकी जगह अंग्रेजी के शब्द का इस्तेमाल करें । अगर जाने के लिए जावक और आने के लिए आवक शब्द का प्रयोग होगा तो फिर तो हिंदी का भगवान ही मालिक है । कई सरकारी बेवसाइटों में अब भी डिपार्चर के लिए जावक और अराइवल के लिए आवक का प्रयोग हो रहा है । दरअसल जब हिंदी जानने वाले अफसर और बाबुओं की टोली उस हिंदी का इस्तेमाल शुरू कर देंगे जो वो जानते हैं तो समस्या का हल अपने आप निकल आएगा क्योंकि उस इस्तेामल से ही एक ऐसी भाषा विकसित होगी जो सबकी समझ में आनेवाली होगी । लेकिन यहां हिंदी के शुद्धतावादियों को भी कलेजे पर पत्थर रखना होगा । तत्सम शब्दों के इस्तेमाल की वकालत करनेवाले लोग यह भूल जाते हैं कि कभी कभार इस तरह के शब्द भाषा के विकास में बाधा बनते हैं ।
दूसरा काम हमें यह करना होगा कि न्याय की भाषा को अंग्रेजी के शिकंजे से मुक्त करना होगा । कानून की भाषा अब तक देश में अंग्रेजी ही है और उससे प्रभावित होनेवाले की भाषा कुछ और । सुप्रीम कोर्ट से लेकर अन्य अदालतों के जजों को हिंदी समेत भारतीय भाषाओं में काम करना होगा । इसके लिए सरकारों को पहल करनी होगी । देश और राज्यों में लागू कानून और कानून की व्याख्या करनेवाली किताबों का हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाना होगा । यह एक श्रमसाध्य काम है लकिन अगर हमें अपनी भाषा को आगे बढाना है तो औपनिवेशिक मानसिकता को तो कभी ना कभी तोड़ना ही होगा । उस मानसिकता को जितनी जल्दी तोड़ लें उतनी ही जल्दी हिंदी का भला हो सकेगा । आज हम उपर की तीन घटनाओं से खुश तो हो सकते हैं लेकिन अगर सरकारें सचेत हुई तो इस तरह की खुशी के अवसर कई मिलेंगे लेकिन इसके लिए सरकार को अपनी प्राथमिकता में भाषा को शामिल करना होगा । हलांकि किसी भी देश के लिए ये शर्मानक है कि आजादी के पैंसठ साल बाद भी भाषा को लेकर सरकारी प्राथमिकता तय नहीं हो पाई है ।
No comments:
Post a Comment