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Saturday, May 11, 2013

लेखकों की उपेक्षा का जिम्मेदार कौन

अभी कुछ दिनों पहले फेसबुक पर टहलते हुए वरिष्ठ पत्रकार और फिलहाल यायावरी कर रहे मित्र अरविंद कुमार सिंह की वॉल पर उनका पोस्ट पढ़ा जो कुछ यूं था- रचनाकारों के प्रति सम्मान...ताजिकिस्तान है तो छोटा देश, लेकिन यहां के लोग अपने लेखकों, कवियों और रचनात्मक प्रतिभाओं वाले लोगों का बेहद सम्मान करते हैं..तजकिस्तान की मुद्रा यानि नोटों पर सबसे ज्यादा तस्वीरें रुदाकी से लेकर तमाम बड़े लेखकों और कवियों की ही मिलेगी..जगह-जगह उनके स्मारक तो हैं ही उनके बारे में विवरण भी पढ़ने को मिल जाते हैं...जीवन परिचय सहित..सरकारी दफ्तरों से लेकर तमाम सार्वजनिक जगहों और पार्कों और लोगों की जेबों तक में इनकी यादें जीवित हैं....और भारत में..... चंद साल पहले हिंदी के आलोचक भारत भारद्वाज ने क्यूबा की यात्रा से लौटकर कुछ इसी तरह की बात की थी और बताया था वि वहां भी लेखकों और कवियों के नाम पर एयरपोर्ट से लेकर इमारतों तक के नाम हैं, सड़कें तो हैं ही उनके नाम पर । अरविंद जी की इस वॉल पोस्ट से कई बड़े सवाल खड़े होते हैं । अरविंद ने जहां भारत में कहकर छोड़ दिया है सवाल वहीं से उठते हैं । भारत में लेखकों और कवियों को लेकर हमारे समाज में उत्साह क्यों नहीं बन पाता है । देश की राजधानी दिल्ली में तमाम छोटे बड़े नेताओं के नाम पर सड़कों के नाम हैं लेकिन सुब्रह्मण्यम भारती और दिनेश नंदिनी डालमिया को छोड़कर शायद ही दिल्ली तक में कोई सड़क हमारे साहित्यकारों के नाम पर है । मुझे नहीं याद है कि भारत के किसी शहर में कोई हवाई अड्डा साहित्यकारों के नाम पर है । क्या प्रेमचंद से लेकर निराला तक, रामधारी सिंह दिनकर से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक किसी भी साहित्यकार ने समाज को इतना प्रभावित नहीं किया कि हम उनका ऋण उतारने के लिए इतना भी सम्मान उनको दे सकें । आज देश के हर गली कूचे में आपको जवाहर लाल नेहरू से लेकर, संजय गांधी, राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के नाम की पट्टिका लगी मिल जाएगी । देश के कई एयरपोर्ट से लेकर अस्पताल और स्कूल कॉलेज गांधी परिवार के इन लोगों के नाम पर हैं । संजय गांधी को छोड़कर इन लोगों का देश के प्रति बहुत योगदान रहा है, लिहाजा उनके नाम पर सड़क इत्यादि का नाम रखने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन क्या हमारे लेखकों ने इस देश के लिए कुछ नहीं किया । क्या देश की आजादी में हिंदी के लेखकों का कोई योगदान नहीं है । या फिर हमारे समाज में लेखकों को लेकर कोओई उत्साह नहीं है ।
एक जमाना था जब राज्यसभा में साहित्यकार के कोटे से मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन और श्रीकांत वर्मा जैसे कवि लेखकों का मनोमयन होता था । लेकिन कालांतर में यह क्रम भी टूटा और अब साहित्यकार और कलाकार के कोटे से अब तो लोकसभा चुनाव हारे राजनेताओं का मनोनयन होने लगा । । आजादी के पहले और बाद में भी हिंदी में कई ऐसे लेखक हुए जिनको समाज में हीरो का दर्जा तो प्राप्त है लेकिन उनकी मृत्यु के बाद हम उनको लगभग भुला बैठे हैं । 
अब अगर हम इसकी वजहों की तलाश करते हैं तो सिर्फ और सिर्फ एक वजह सतह पर आते हैं वह है लेखकों के प्रति उपेक्षा के भाव का बढ़ते जाना । दूसरी वजह यह है कि देश का जो राजनीतिक वर्ग है उनका पढ़ने लिखने से रिश्ता कम होते जाना । आज के नेताओं में चाहे वो शासक वर्ग के हों या फिर विपक्ष में बैठने वाले, मौलिक लेखन और चिंतन करनेवाले कम हैं या ये कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लिखने पढ़ने की संवेदनशीलता लिए कोई नेता अब बचा ही नहीं है । बातों बातों में जब मैंने हंस संपादक राजेन्द्र यादव से इस बारे में बात की तो उन्होंने भी कमोबेश यही कहा । राजेन्द्र जी का मानना है कि शासक वर्ग की लेखकों और उनकी रचना के बारे में अज्ञानता ही इसकी वजह है कि हमारे देश में लेखकों को अहमियत नहीं मिल पाती है । इसके अलावा राजेन्द्र जी ने यह भी माना कि आज के राजनेताओं में संवेदनशीलता भी नहीं के बराबर बची है चाहे वो समाज के प्रति हो या किसी व्यक्ति के प्रति तो फिर लेखकों के लिए उनके मन में कहां से सम्मान आएगा । यही राजनेता यह भी तय करते हैं कि कौन सी इमारत या कौन सी सड़क या फिर कौन सी योजना अमुक व्यक्ति के नाम पर बनेगी ।
यह तो रही नेताओं और देश के नीति नियंताओं की लेखकों और लेखक समाज के बारे में अज्ञानता की बात । नेताओं ने लेखकों को नजरअंदाज किया इस बारे में कोई शक शुबहा नहीं है लेकिन लेखक बिरादरी को भी एक बार अपने गिरेबां में झांक कर देखना होगा । आजादी के बाद के जिन लेखकों के बारे में हम बात कर रहे थे या फिर जिनको पार्लियामेंट की मेंबरी मिली थी उसके बाद की पीढी के लेखकों ने क्या समाज के प्रति अपनी उस भूमिका का निर्वाह किया जो उनसे अपेक्षित था । क्या अब लेखक समुदाय से समाज के किसी मुद्दे पर संगठित आवाज सुनाई देती है । यूपीए सरकार के दौरान जब देश में एक से बढ़कर एक घोटाले हो रहे थे तो लेखकों ने उसके खिलाफ कोई आवाज उठाई । क्या किसी भी बड़े लेखक ने भ्रष्टाचार के खिलाफ चले आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई । क्या अपनी लेखनी से किसी आंदोलन को समर्थन दिया या फिर उसके समर्थन में माहौल बनाने में कोई भूमिका निभाई । इसके अलावा जब पिछले साल दिल्ली में चलती बस में एक मेडिकल की छात्रा के साथ गैंगरेप हुआ तो लेखक समुदाय ने उसके बारे में कोई टिप्पणी की । हो सकता है कि राजेन्द्र जी ने हंस के संपादकीय में या एक दो अन्य लेखकों ने छिटपुट रचनाएं लिखी हो लेकिन कोई संगठित लेखन नहीं हुआ जिससे कि समाज में एक वातावरण बन सके, सरकार पर दबाव बन सके । जब हम समाज के किसी मुद्दे पर लेखक अपनी राय नहीं प्रकट करेंगे या फिर समाज पर अपने विचारों की छाप नहीं छोड़ेंगे तब तक क्यों कर कोई राजनेता उनको जानेगा या उनके बारे में कुछ करने की सोचेगा । सत्ता का अपना व्याकरण होता है और वह उसी के हिसाब से चलती है । जरूरत लेखक समुदाय को भी उस व्याकरण को अपने हिसाब से बदलने की है ।

1 comment:

Sp Sudhesh said...

लेखकों की उपेक्षा का पहला कारण तो समाज द्वारा साहित्य की उपेक्षा है । दूसरा कारण लेखकों की गुटबन्दी है , जिस के चलते गुट के बाहर के लेखक को लेखक ही नहीं माना जाता । तीसरा कारण है लेखकों की सामाजिक और राजनीतिक निष्क़ियता , सत्ता की गोद में बैठने की आदत और लालसा ।