भारतीय जनता पार्टी के सबसे कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी
और उनके चंद अहम साथियों की मर्जी को दरकिनार कर नरेन्द्र मोदी आगामी लोकसभा चुनाव
के लिए पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनकर शीर्ष नेता के तौर पर स्थापित
हो गए हैं । नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी के पहले लंबे समय तक चले ड्रामे से पार्टी की
जमकर किरकिरी हुई । इस क्रम में मोदी और उनकी शख्सियत को तमाम तरह से व्याख्यायित और
विश्लेषित किया गया । किसी ने मोदी को अपने राजनीतिक आका को ही दरकिनार करने का आरोप
जड़ा तो किसी ने उनको पार्टी पर कब्जा करनेवाला करार दे दिया । राजनीतिक विश्लेषकों ने मोदी को तनाशाह तक कह डाला
। आलोचना के जोश में वो यह भूल गए कि मोदी ने बिल्कुल लोकतांत्रिक तरीके से अपनी राजनीतिक
चालें चली । सियासत की बिसात पर उनकी इन सुनियोजित चालों ने कमाल दिखाया और वो पार्टी
के शीर्ष पर पहुंच गए । मोदी को फासिस्ट और तानाशाह बताने वाले अपने पूर्वग्रहों या
मोदी की पार्श्व छवि में इतने उलझ गए कि उनको सियासत की बिसात पर मोदी की चालें दिखाई
नहीं दी । उन्होंने गलत तर्कों के आधार पर मोदी को तानाशाह साबित करने की कोशिश की।
राजनीति करनेवाले हर नेता का यह अधिकार होता है कि वो शीर्ष पर पहुंचने के लिए अपनी
घेरेबंदी करे । मोदी ने भी वही किया । उनको अपनी बढ़ती लोकप्रियता और पार्टी में स्वीकार्यता
पर भरोसा था लिहाजा उन्होंने पार्टी के लौहपुरुष से टकराने का इरादा बनाया । पहले गोवा
में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उनका राजनीतिक कौशल दिखा और बाद में
हाल में दिल्ली में भी दिखा । गुजरात में अपने मजबूत फैसलों के आधार पर जन के मन में अपनी पैठ बनाने वाले शख्स में संघ अपना भविष्य़
तलाश रहा है ।
दरअसल भारतीय राजनीति को और उसके विश्लेषकों को पारिवारिक
पार्टियों और उनसे जुड़े नेताओं के शख्सियतों के विश्लेषण की आदत हो गई थी । बहुत दिनों
के बाद कोई नेता गणेश परिक्रमा के बगैर शीर्ष पर पहुंचा । वो भी राजनीतिक कौशल और रणनीति
के बूते पर । इस वजह से विश्लेषकों को मोदी में तानाशाह और फासिस्ट नजर आने लगा । मोदी
से पहले इस तरह के राजनीतिक दांव पेंच इंदिरा
गांधी के राजनीति में आने के बाद देखा गया था । 1965 तक इंदिरा गांधी कांग्रेस की राजनीति
में जवाहरलाल की बेटी से इतर खुद को स्थापित कर चुकी थी लेकिन देश के नेता को तौर पर
जनता की स्वीकार्यता मिलना शेष था । दक्षिणी राज्यों में भाषा को लेकर जारी हिंसक आंदोलन
को अपनी पहल से खत्म करवाकर इंदिरा गांधी ने इस कमी को पूरा करने का काम किया था ।
लेकिन उनके इस कदम से लालबहादुर शास्त्री थोड़े क्षुब्ध भी थे । इंदिरा गांधी भी खुद
को विदेश मंत्री नहीं बनाए जाने से निराश थी । पाकिस्तान के साथ युद्ध में जीत के बाद
लाल बहादुर शास्त्री की लोकप्रियता चरम पर थी लेकिन दुर्भाग्य से ताशकंद में लाल बहादुर
शास्त्री की मौत हो गई । इंदिरा गांधी को उनकी मौत की खबर 11 जनवरी को तड़के तीन बजे
मिलती है । उसी वक्त से वो खुद को प्रधानमंत्री बनाए जाने की रणनीति पर काम शुरू कर
देती हैं । अपने राजनीतिक विश्वासपात्रों को बुलाकर सबसे पहले ये संदेश देती हैं कि
कोई भी उनको नाम को लेकर सार्वजनिक तौर पर बयान नहीं देगा । इंदिरा ने उदासीनता से
जंग जीतने की रणनीति बनाई । अगर आप याद करें तो गुजरात विधानसभा चुनाव में लगातार तीसरी
जीत हासिल करने के पहले नरेन्द्र मोदी अपनी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर बहुत
ज्यादा सक्रिय नहीं थे । तीसरी जीत के साथ ही सबसे पहले सोशल मीडिया पर बेहद आक्रामक
तरीके से उनको प्रधानमंत्री के तौर पेश करने की कवायद शुरू की गई । फिर उनके समर्थकों
ने उनको प्रधानमंत्री बनाने की मांग करके पार्टी का मूड भांपने का काम शुरू किया ।
यह सब जब चरम पर पहुंचा तब बिहार भाजपा ने उनको पार्टी के प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी
बनाने की मांग का प्रस्ताव पारित किया । यह प्रस्ताव भी ठीक उसी तरह का था जब
लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद मोरार जी देसाई खुद को प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक
दावेदार मान रहे थे तो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा
ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग की थी । यह इंदिरा गांधी की चाल थी
देश और पार्टी के कद्दावर नेताओं की राजनीति का मूड भांपने की । हालात इतने तनावपूर्ण
हो गए थे कि कांग्रेस में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के लिए संसद सदस्यों के बीच वोटिंग
हुई । वोटिंग में इंदिरा गांधी ने मोरारजी भाई को करारी मात दी थी । उसी तरह गोवा की
राष्ट्रीय कार्यकारिणी के दौरान मोदी ने इस तरह की व्यूहरचना रची कि आडवाणी भी मोरार
जी देसाई की तरह पराजित हो गए ।
1969 के राष्ट्रपति के चुनाव के वक्त भी कांग्रेस में पुराने
नेताओं के सिंडिकेट ने इंदिरा को परास्त करने की कोई कसर नहीं छोड़ी। अपने उम्मीदवार नीलम संजीव रेड़्डी की जीत सुनिश्चित
करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के नेताओं से
मुलाकात कर समर्थन मांगा था । इंदिरा ने इस मुलाकात को धर्मनिरपेक्षता से जोड़ दिया
और उसको जमकर भुनाया । नतीजे में वी वी गिरी ने नीलम संजीव रेड़्ड़ी को पराजित कर दिया
। इस जीत में इंदिरा को उस वक्त के युवा नेताओं का जोरदार समर्थन था । बुजुर्ग नेता
उनके खिलाफ थे । यही हालत अब बीजेपी में है । युवा नेता मोदी के साथ हैं और जसवंत सिंह,
यशवंत सिन्हा जैसे बुजुर्ग नेता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आडवाणी के । नतीजा सामने
है । राष्ट्रपति चुनाव में अपने उम्मीदवार को जीत दिलवाने के बाद से इंदिरा गांधी के
स्वभाव में काफी बदलाव दिखाई देने लगा । आक्रामक दिखने वाली इंदिरा गांधी अपने बयानों
में संतुलित और व्यवहार में एक कुशल राजनीतिज्ञ दिखने की कोशिश करने में जुट गईं ।
उसी तरह पाकिस्तान के दांत खट्टे करने जैसे बयान देनेवाले मोदी के तेवर प्रधानमंत्री
प्रत्याशी का ऐलान होने के बाद बदल गए । रेवाड़ी की रैली में मोदी ने पाकिस्तान के
खिलाफ आक्रामकता नहीं दिखाई बल्कि उनसे शिक्षा, बेरोजगारी और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कंधे
से कंधा मिलाकर काम करने की अपील की ।
भारत
की राजनीति में नेहरू युग को मूल्यों और प्रतिभा की राजनीति का दौर माना जाता है ।
इंदिरा गांधी के दौर में इंडिया इज इंदिरा और इंदिरा इज इंडिया का जयकारा लगानेवाले
लोग सत्ता के गलियारों में शक्तिशाली होने लगे । किचन कैबिनेट देश की कैबिनेट से ज्यादा
ताकतवर हो गई । नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी तानाशाही की ओर बढ़ती चली गई जिसकी परिणति
में इमरजेंसी में हुई ।