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Monday, February 24, 2014

फैसले पर उठते सवाल

हिंदू धर्म पर कई किताब लिखनेवाली मशहूर लेखिका वेंडी डोनिगर की किताब- द हिंदूज, एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री को पेंग्विन बुक्स ने भारतीय बाजार से वापस लेने और छपी हुई अनबिकी प्रतियों को नष्ट करने का फैसला लिया । प्रकाशक के इस फैसले के बाद लेखकों के एक बड़े समुदाय में इस बात को लेकर खासी निराशा और क्षोभ है । पेंग्विन के कोर्ट के बाहर किए गए इस समझौते पर लेखकों ने विरोध जताना शुरू कर दिया है । बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका अरुंधति राय ने तो पत्र लिखकर पेंग्विन से स्थिति स्पष्ट करने की गुजारिश की है । वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सिद्धार्थ वरदराजन और लेखक ज्योतिर्मय शर्मा ने पेंग्विन से अपनी किताबों को नष्ट करने और क़ापीराइट वापस करने का अनुरोध किया है । सिद्धार्थ वरदराजन ने अपने पत्र में साफ लिखा है कि उन्हें अब पेंग्विन पर भरोसा नहीं रह गया है लिहाजा वो गुजरात दंगों पर लिखी गई उनकी किताब- दे मेकिंग ऑफ अ ट्रेजडी- के अधिकार वापस कर दें । सिद्धार्थ का मानना है कि कल को अगर किसी समूह की भावना इस किताब से आहत हो जाती है और वो भारतीय दंड विधान की धारा 295 के तहत केस कर देता है, तो संभव है कि पेंग्विन उनकी किताब को भी वापस लेने का फैसला कर ले । विरोध के इस तरह के स्वर सहमत की ओर से भी उठे । पीइएन इंटरनेशनल की भारत इकाई ने भी प्रकाशक के इस फैसले का विरोध किया । पेंग्विन विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक है और उसके पास ना तो साधन की कमी है और ना ही संस्धान की तो फिर उसके एक छोटे से संगठन  के सामने घुटने टेकने से साहित्य जगत हैरान है । दिल्ली की एक अदालतत में वेंडी डोनिगर की किताब पर शिक्षा बचाओ समिति नाम के एक अनाम संगठन ने केस किया । इसको किताब के कुछ अंशों पर आपत्ति थी और इसके अगुवा दीनानाथ बत्रा ने दो हजार ग्यारह में हिंदुओं की भावनाएं भड़काने का आरोप लगाते हुए केस दर्ज करवाया था तीन साल बाद पेंगिवन ने याचिकाकर्ता से समझौता कर लिया । ये तो किताब के प्रकाशक की कमजोरी है जो अदालती कार्रवाई के झमेले में नहीं पड़ना चाहता है विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक, जिसके पास ना तो पैसे की कमी है और ना ही संसाधनों की, उसने अदालती कार्रवाई के झंझट से मुक्त होने के लिए समझौता किया । वैसे भी इंटरनेट के इस युग में किसी भी कृति पर पाबंदी संभव ही नहीं है ।पेंग्विन के फैसले के बाद जिस तरह से किंडल पर ये कृति ई बुक्स के रूप में धड़ाधड़ बिक रही है इससे यह बात साफ हो गई है कि किताब वापसी का कोई अर्थ है नहीं । इस मामले में तो वेंडी डोनिगर चाहे तो किताब छापने का अधिकार पेंग्विन से लेकर किसी अन्य प्रकाशक को दे सकती है दूसरा प्रकाशक इसको छापने के लिए स्वतंत्र होगा क्योंकि अदालत ने इस किताब के भारत में प्रकाशन और वितरण पर पाबंदी नहीं लगाई है
इस तरह का ये कोई पहला केस नहीं है । इसके पहले भी प्रकाशकों ने भय और आशंका के मारे गुटों के सामने घुटने टेक दिए थे । मशहूर स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो की सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित किताब भारत में अब तक छप नहीं सकी है । अपनी किताब रेड साड़ी में जेवियर मोरो ने सोनिया गांधी की जीवन यात्रा को इटली से लेकर भारत तक अपने नजरिए से देखने की कोशिश की है । जैसे ही इस किताब के भारत में छपने की खबर आई तो कांग्रेस के नेताओं के कान खड़े हो गए और उन्होंने जोरदार विरोध शुरू कर दिया । पार्टी के नेता और मशहूर वकील अभिषेक मनुसिंघवी ने अदालती कार्रवाई की भी धमकी दी थी । अब तक जेवियर मोरो की किताब भारत में छप नहीं पाई है । इसी तरह से महात्मा गांधी पर जब पत्रकार जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब द ग्रेट सोल प्रकाशित हुई तो खूब हो हल्ला मचा था । एयर इंडिया पर लिखी जितेन्द्र भार्गव की किताब के कुछ पन्ने हटाने के बाद ही उसको प्रकाशक ने रिलीज किया । प्रकाशकों के बीच ये एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है । पहले दुनियाभर के प्रकाशक लेखकीय स्वतंत्रता को लेकर ना केवल सजग रहते थे बल्कि अंतिम दम तक उसको बनाए रखने के लिए संघर्ष भी करते थे । अब अगर किसी किताब पर कहीं से धमकी आ गई तो प्रकाशक बीच का रास्ता तलाशने में लग जाते हैं । प्रकाशन जगत के साथ साथ अभिव्यक्ति की आजादी के लिए प्रकाशकों की ये प्रवृत्ति खतरनाक है ।

वेंडी डोनिगर को इस बात की आशंका थी कि उसकी इस किताब को लेकर कुछ हिंदुओं को आपत्ति हो सकती है । प्रोफेसर वेंडी डोनिगर ने लिखा था कई हिंदू धार्मिक नेता इस किताब को समुद्र में फेंक देना चाहेंगे क्योंकि उन्हें इसमें तथ्यों के साथ खिलवाड़, धार्मिक प्रसंगों की गलत व्याख्या आदि आदि दिखाई देंगे । लेखिका इतने पर ही नहीं रुकती हैं उन्होंने अपनी इसी किताब में ये भी लिखा है कि हमें हिंदू धर्म मैं मौजूद ज्ञान और दर्शन का उपयोग करना चाहिए क्योंकि यहां मौजूद साहित्य उच्च कोटि का है और हिंदू धर्म सर्व को समाहित करता चलता है । वेंडी डोनिगर को भारतीय धर्म और धर्मग्रंथों की रुचि के केंद्र में रहे हैं । उन्होंने ऋगवेद, मनुस्मृति और कामसूत्र का अनुवाद किया है । उनकी किताब- शिवा, द इरोटिक एसेटिक, द ओरिजन ऑफ एविल इन हिंदू मायथोलॉजी काफीमशहूर है । द हिंदूज- एन ऑलटेरनेटिव हिस्ट्री की भूमिका में वो स्वीकार करती है कि दलितों और महिलाओं ने हिंदू धर्म के फैलाव और उत्थान में बड़ा योगदान किया है । महिलाओं और दलितों के इस योगदान को सदियों से नजरअंदाज किया जाता रहा है । वेंडी डोनिगर ने अपनी इस किताब में हाशिए के इन लोगों की नजरों से इतिहास को देखने की कोशिश की है । इस किताब में वेंडी डोनिगर ने हिंदू धर्म की अवधारणाओं और प्रस्थापनाओं को लेकर पश्चिमी मानकों और कसौटी पर कसा है । उनकी इन प्रस्थापनाओं पर कई विद्वानों में मतभेद हो सकते हैं । वेंडी डोनिगर के मुताबिक हिंदू धर्म की खूबसूरती उसकी जीवंतता और विविधता है जो हर काल में अपने दर्शन पर डिबेट की चुनौती पेश करता है । हमारे धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक एक आदर्श हिंदू वह है जो लगातार सवाल खड़े करता है, जवाब को तर्कों की कसौटी पर कसता है और किसी भी चीज, अवधारणा और तर्क को अंतिम सत्य नहीं मानता है । हिंदू धर्म की इस आधारभूत गुण को आत्मसात करते हुए वेंडी डोनिगर ने कई व्याख्याएं की हैं और कुछ असुविधाजनक सवाल खड़े किए हैं । इस किताब में कई ऐसी बातें हैं जो वेंडी डोनिगर ने संस्कृत में पहले से सुलभ हैं और उसको अंग्रेजी के पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है । अंत में फिर से सवाल वही उठता है कि क्या तथ्यों और संदर्भों को समझे बगैर किए गए विरोध के सामने घुटने टेकना कितना जायज है । यह सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब पेंग्विन जैसा बड़ा संस्थान अदने से विरोध के आगे सरेंडर कर देता है । 

खुशवंत के सौ वसंत

अगर चाहते हो कि तुम्हें / तुम्हारे मरते ही और नष्ट होते ही भुला न दिया जाय/ तो या तो पढ़ने लायक कुछ लिख डालो/ या कुछ ऐसा कर डालो जिस पर कुछ लिखा जाय- बैंजामिन फ्रैंकलिन की इस उक्ति को अपने जीवन का दर्शन मानने वाले खुशवंत सिंह मानते हैं कि -मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसे दूसरे लोग लिखने लायक समझें । इसलिए मेरे मरते और नष्ट होते ही लोग मुझे भुला ना दें इसका मेरे पास सिर्फ एक ही तरीका है कि मैं खुद पढ़ने काबिल चीजों को लिखूं । यह खुशवंत सिंह की विनम्रता है कि वो अपने कामों को दूसरों के लिखने लायक नहीं मानते ,लेकिन यह हकीकत से कोसों दूर है । खुशवंत सिंह ने प्रचुर मात्रा में स्तरीय और मौलिक लेखन किया जो सालों से पाठकों के बीच लोकप्रिय है । अपने जीवन में अट्ठानवें वसंत देख चुके खुशवंत सिंह की ताजा किताब- खुशवंतनामा, द लेशंस ऑफ माई लाइफ- इस साल फरवरी में उनके जन्मदिन पर प्रकाशित हुई है । इस किताब में खुशवंत सिंह ने बुढापे में मौत का डर और सेक्स से मिलने वाले आनंद जैसे दो छोरों को उठाया है । निन्यानवें साल की उम्र में जाकर अब उनका नियमित लेखन बाधित हुआ है, नहीं तो हर हफ्ते देश के तमाम अखबारों में भाषा की सरहदों को तोड़ते हुए उनका स्तंभ छपा करता था । पचानवे साल की उम्र में उन्होंन अपना उपन्यास द सनसेट क्लब लिखा । दशकों से जारी खुशवंत सिंह के उस कॉलम- विद मैलिस टुवर्ड्स वन एंड ऑल- की विशेषता यह थी उसमें छोटे से छोटे विषय से लेकर बड़ी घटनाओं तक पर टिप्पणी होती थी और स्तंभ के अंत में संता-बंता के बीच का चुटकुला होता था । एक अनुमान के मुताबिक खुशवंत सिंह के उन चुटकुलों पर लगभग आधा दर्जन किताब बाजार में हैं जिसके हर साल नए संस्करण छपते हैं । हास्य की दुनिया में संता-बंता को खुशवंत सिंह ने एक ऐसे चरित्र के तौर पर स्थापित कर दिया जो अमर है । अंग्रेजी पत्रकारिता में खुशवंत सिंह का एक लंबा अनुभव रहा है, अपने पत्रकारिता के दौर में खुशवंत सिंह ने अपना दायरा बहुत विस्तृत कर लिया था । खुशवंत सिंह जिस दौर में पत्रकारिता कर रहे थे वह दौर भारत के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक पुनर्निमाण का दौर था । ऐसे ऐतिहासिक और निर्णायक दौर में खुशवंत सिंह जैसी पैनी नजर वाले पत्रकार ने देश की राजनीति को बेहद करीब से ना केवल देखा बल्कि अपनी लेखनी से उसका विश्लेषण करते हुए उसे देश की जनता के सामने पहुंचाने का बड़ा काम भी किया । एक पत्रकार के तौर पर खुशवंत सिंह की यात्रा में कई राजनीतिक हस्तियों के चेहरे से मुखौटा हटा तो कइयों के वय्क्तित्व के छुपे हुए पहलू उजागर हुए ।
अपनी जिंदगी के निन्यानवें साल में चल रहे भारतीय पत्रकारिता के इस स्तंभ के बारे में देश-विदेश में कई किवदंतियां भी मौजूद हैं । माना जाता है कि खुशवंत सिंह सुबह चार बजे उठते हैं और फिर हाथ से ही अपने संत्भ लिखते हैं । उनके लेखन में महिलाओं और शराब का जिस तरह से जिक्र आता है उससे उनकी छवि एक ऐसे बिंदास बुजुर्ग की बनती है जिसे हर रोज बेहतरीन स्कॉच चाहिए और जो महिलाओं और सेक्स को लेकर ऑबसेस्ड है । जिसे खूबसूरत महिलाओं की सोहबत भाती है । एक बार खुशवंत सिंह ने अपने स्तंभ में मुरादाबाद के एक नेता की पत्नी की खूबसूरती की चर्चा करते हुए लिख दिया था कि अब तक वो वो जितनी महिलाओं से मिले हैं उनमें से वो सबसे सुंदर हैं । नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों बाद उस महिला ने अपने नेता पति को छोड़ दिया क्योंकि खुशवंत सिंह के कॉलम के बाद उसे लगने लगा था कि उसकी खूबसूरती उत्तर प्रदेश के कस्बाई शहर में बर्बाद हो रही है  । खुशवंत सिंह ने जिस तरह से अपनी महिला सहयोगियों और मित्रों के साथ अपने संबंधों का वर्णन अपने लेखन में किया है उससे इस छवि को और बल मिलता है । लेकिन अपनी आत्मकथा में जिस तरह से उन्होंने अपनी पत्नी की बीमारी और उनके ना होने की आशंका के एकाकीपन का वर्णन किया है वह उनकी छवि के विपरीत उनके अंदर के एक संवेदनशील पति की छवि को उभारता है । यह जानते हुए कि उनकी पत्नी का भी उनके दोस्त से अफेयर रहा है । इस संबंध का खुलासा खुशवंत सिंह के पुत्र राहुल सिंह ने अपनी किताब में किया है । बावजूद इसके खुशवंत सिंह अपनी आत्मकथा में लिखते हैं मुझे इस बात का निश्चय था कि मेरी पत्नी मेरे बाद वर्षों जीवित रहेगी, अब मुझे ऐसा यकीन नहीं होगा । मुझे अंदर ही अंदर महसूस होता है कि अगर वह मुझसे पहले चली गई, तो मैं अपने लेखनी को एक किनारे रखकर लेखन से विदा ले लूंगा । यह एक ऐसे पति का कहना था जिसके लेखन में फ्लर्ट और लंपटपन कई बार अपने चरम पर होता है ।
खुशवंत सिंह की चर्चा इंदिरा गांधी, संजय गांधी और इलेस्ट्रेटेड वीकली के बगैर अधूरी है । खुशवंत सिंह की गांधी परिवार से बेहद नजदीकी रिश्ते रहे हैं । जब संजय गांधी मारुति कारखाना विवाद में उलझे थे तो खुशवंत सिंह ने उनके समर्थऩ में इलेस्ट्रेटेड वीकली में लेख लिखा था । इमरजेंसी के दौर में भी खुशवंत संजय-मेनका के साथ रहे । बेहद उत्साह के साथ संजय के परिवार नियोजन कार्यक्रम और गंदी बस्तियों के सफाई के अभियान का समर्थन किया था । बाद में शाह कमीशन के सामने संजय-मेनका की पेशी के दौरान उनके साथ रहे । कांग्रेस के अखाबर द नेशनल हेराल्ड का संपादन किया । मेनका ने सूर्या पत्रिका निकाली तो खुशवंत सिंह वहां सलाहकार बने । अस्सी में इंदिरा गांधी सत्ता में लौटी और उसी साल खुशवंत सिंह राज्यसभा पहुंचे । लेकिन संजय गांधी की मौत के बाद मेनका के समर्थन में लिखे उनके लेख ने इंदिरा-राजीव और उनके बीच दरार डाल दी । उन्होंने मेनका गांधी और इंदिरा गांधी के झगड़े पर भी विस्तार से लिखा । बाद में अपनी आत्मकथा को लेकर मेनका से कानूनी लड़ाई भी खुशवंत सिंह को लड़नी पड़ी थी । ठीक इसी तरह इलेस्ट्रेटेड वीकली की कहानी भी किसी किवदंती से कम नहीं है । खुशवंत सिंह की संपादकी में सिर्फ पांच साल में पत्रिका का सर्कुलेशन पैंतीस हजार से चार लाख दस हजार तक पहुंच गया । पत्रिका और ज्यादा छापी जा सकती थी लेकिन अखबारों के नफा नुकसान के गणित में यह तय किया गया था कि इससे ज्यादा छापना घाटे का सौदा होगा । तमाम सफलताओं के बाद भी खुशवंत सिंह को वहां से बेआबरू होकर निकलना पड़ा था क्योंकि मालिकों ने उन्हें बर्खास्त कर दिया था । खुशवंत सिंह ने कई बेस्ट सेलर किताबें लिखी जिनमें- हिस्ट्री ऑफ सिख्स, ट्रेन टू पाकिस्तान, देल्ही, रणजीत सिंह, सेक्स, स्कॉच और स्कॉलरशिप प्रमुख हैं । खुशवंत सिंह की कुल मिलाकर पचास से ज्यादा कृतियां प्रकाशित हैं । पंजाब समस्या पर लिखी खुशवंत सिंह की किताब-ट्रेजडी ऑफ पंजाब उस समस्या और जनता के मनोविज्ञान को समझने का एक रास्ता देती है । खुशवंत सिंह को 1974 में पद्मभूषण मिला तो दो हजार दस में साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता से नवाजा गया । 1984 में स्वर्ण मंदिर में सेना घुसने के विरोध में खुशवंत सिंह ने पद्मभूषण पुरस्कार लौटा दिया था । बाद में उन्हें दो हजार सात में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया । खुशवंत सिंह के वयक्तित्व के इतने शेड्स हैं कि उसको पकड़ना बहुत आसान नहीं है । उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी खुशवंत सिंह की सक्रियता और बीच बीच में उनका अपना स्तंभ लिखना पत्रकारों-लेखकों के लिए प्रेरणा पुंज की तरह है । 

Sunday, February 23, 2014

पुस्तक मेले में युवा लेखकों की धूम

पिछले नौ दिनों से जारी दिल्ली विश्व पुस्तक मेले का आज आखिरी दिन है। दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला जर्मनी के फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला और लंदन बुक फेयर के बाद सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित माना जाता है । दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में देश के कोने कोने से लेखकों का जत्था पहुंचता है । किताबों के इस महाकुंभ में लेखकों के साथ साथ पाठकों की भी भागीदारी होती है । विश्व में पुस्तक मेलों का एक लंबा इतिहास रहा है। पुस्तक मेलों की पाठकों की रुचि बढ़ाने से लेकर समाज में पुस्तक संस्कृति को बनाने और उसको विकसित करने में एक अहम योगदान रहा है ।  भारत में बड़े स्तर पर पुस्तक मेले सत्तर के दशक में लगने शुरू हुए । दिल्ली और कोलकाता में पुस्तक मेला शुरू हुआ । 1972 में भारत में पहले विश्व पुस्तक मेले का दिल्ली में आयोजन हुआ । उसके बाद से हर दूसरे साल दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया जाता था । दो हजार बारह में जब एम ए सिकंदर ने नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक का पद संभाला तो इस हर साल आयोजित करने का ऐलान किया । अगले साल से यह पुस्तक मेला अब प्रतिवर्ष आयोजित हो रहा है । इस बार का पुस्तक मेला पहले के आयोजनों से कई मायनों में अलग और व्यवस्थित है । पाठकों से लेखकों के संवाद से लेकर हिंदी महोत्सव तक आयोजित हुए जिसमें लेखक पाठक संवाद सुकून से संभव हुआ । इस बार लोकार्पण को लेकर भी मारामारी नहीं हुई क्योंकि उसके लिए भी व्यवस्था थी । कुल मिलाकर कह सकते हैं कि विश्व पुस्तक मेला इंतजाम के लिहाज से विश्वस्तरीय होने की राह पर चल पड़ा है ।

इस वर्ष का विश्व पुस्तक मेला कई लिहाज से उल्लेखनीय रहा । इस बार हिंदी के कई युवा लेखकों की कृतियां सामने आई । हिंदी के कई प्रकाशकों ने इस बार इन युवा लेखकों की कृतियों को प्रचारित भी किया । इस बात पर हिंदी में बहुधा गंभीर चिंता जताई जाती है कि साहित्य से हिंदी का युवा पाठक दूर होता जा रहा है । विश्व पुस्तक मेले में युवा पाठकों की भागीदारी ने इस चिंता को कुछ हद तक दूर किया । युवा लेखकों की भारी संख्या में प्रकाशित कृतियों को हिंदी के प्रकाशकों ने पहले के मुकाबले बेहतर तरीके से प्रचारित और प्रदर्शित कर नए पाठकों से उनका परिचय करवाने का प्रत्न भी किया । भारतीय ज्ञावपीठ ने पुस्तक मेले के दौरान ही युवा पुरस्कार दिया और पुरस्कृत लेखक की किताब भी जारी की । कहानी के लिए आठवां ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार पत्रकार योगिता यादव को दिया गया और योगिता का पहला कहानी संग्रह क्लीन चिट भी ज्ञानपीठ प्रकाशन से छपकर विमोचित हुआ । कविता के लिए यही पुरस्कार अरुणाभ सौरभ को उनके काव्य संग्रह दिन बनने के क्रम में को दिया गया । इस मौके पर एक और नए लेखक आशुतोष का कहानी संग्रह मरें तो उम्र भर के लिए भी विमोचित किया है । इस मौके पर बोलते हुए वरिष्ठ लेखकों और आलोचकों का मानना था कि इन युवा लेखकों ने अपनी रचनाओं से एक उम्मीद जगाई है । ज्ञानपीठ के अलावा आधार प्रकाशन, पंचकूला ने भी विश्व पुस्तक मेले में कई युवा लेखक लेखिकाओं की किताबें प्रकाशित की । आधार प्रकाशन से प्रकाशित नई किताबों में मशहूर लेखिका जयश्री राय का नया उपन्यास- इकबाल भी है । कश्मीर की पृष्ठभूमि पर लिखा गया एक यह उपन्यास अपनी भाषा और शैली के जरिए हिंदी साहित्य में एक ताजा हवा के झोंके की तरह से आता है । जिया और इकबाल के प्रेम संबंधों में एक अजीब तरह की कशमकश और छटपटाहट है । जयश्री राय के अलावा आधार प्रकाशन से ही कहानीकार अल्पना मिश्रा का नया उपन्यास-अन्हियारे तलछट में चमका, कविता का उपन्यास- ये दिये रात की जरूरत थे, वंदना शुक्ल की मगहर की सुबह, विमलचंद पांडे का उपन्यास भी प्रकाशित हुआ । इसके अलावा कहानीकार ज्योति चावला के कहानी संग्रह-अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती की भी पुस्तक मेले में खासी चर्चा रही । पुस्तक मेले में सामयिक प्रकाशन ने भी कई युवा लेखकों की किताबें जारी की । इसमें पूर्व पत्रकार और कवयित्री वर्तिका नंदा की किताब- खबर यहां भी.. के अलावा कहानीकार विवेक मिश्र का कहानी संग्रह-पार उतरना धीरे से और निर्मला भुराड़िया की किताब-गुलाम मंडी भी जारी हुई । गुलाम मंडी में निर्मला भुराड़िया ने देह व्यापार को केंद्र में रखा है । सामयिक प्रकाशन से ही चर्चित लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास पंचकन्या भी जारी किया गया । कहानी संग्रहों और उपन्यासों के कोलाहल के बीच हरियाणा की युवा लेखिका निर्मल सिंह की एक किताब हरियाणा के लोकगीतों पर वाणी प्रकाशन से छपी है । निर्मल ने हरियाणा के सोलह जिलों में तीन सौ लोगों से बातचीत करने के बाद ये किताब तैयार की है । किताबों की इस फेहरिश्त के बीच ये बात भी रेखांकित करने योग्य है कि इन किताबों का प्रोडक्शन भी काफी अच्छा है । उम्मीद की जा सकती है कि आनेवाले दिनों में इन युवा लेखकों की किताबों पर हिंदी में गंभीर चर्चा होगी । दिल्ली के इस पुस्तक मेले में इतनी संख्या में युवा लेखकों की किताबों का प्रकाशन आश्वस्तिकारक है जरूरत इस बात की है कि प्रकाशन इन किताबों को पाठकों तक पहुंचाने का यत्न करें । 

Friday, February 21, 2014

कलंकित पेशा, शर्मसार समाज

दिल्ली में जिस वक्त एक पूर्वोत्तर के छात्र की कथित पिटाई से मौत पर बवाल मचा हुआ था उसी वक्त पूर्वोत्तर से एक ऐसी खबर आई जो शर्मनाक होने के साथ साथ समाज को चिंतित करनेवाली थी । दिल्ली में पूर्वोत्तर की छात्र की मौत का मामला इतना तूल पकड़ा कि उसके कोलाहल में ये खबर दब कर रह गई ।  पूर्वोत्तर के ही एक विश्वविद्यालय की शोध छात्रा ने अपने शोध निर्देशक की हरकतों से तंग आकर खुदकुशी कर ली। खबरों के मुताबिक शोध निर्देशक छात्रा के साथ अश्लील हरकतें करता था और छात्रा के विरोध के बाद उसको तरह तरह से तंग करता था । इस तरह का वाकया भारत की गुरु शिष्य परंपरा पर कलंक है, हमारे समाज पर बदनुमा धब्बा है । दरअसल हाल के दिनों में पूरे देश के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों से इस तरह की बेचैन करनेवाली खबरें नियमित अंतराल पर आती रहती हैं । चाहे वो दिल्ली विश्वविद्यालय हो या फिर देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली का ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय । हर जगह से छात्राओं के यौन शोषण की खबरों के आरोप शिक्षक पर लगते रहे हैं। विश्वविद्यालय की जांच में बहुधा शिक्षक दोषी पाए जाते रहे हैं और उनपर कार्रवाई भी होती है। कई बार जुर्माना और पदावनति तो कई बार शिक्षकों को मुअत्तल तक किया जाता रहा है । दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर को तो इस तरह के आरोप में अपनी नौकरी तक गंवानी पड़ी । उनको अदालत से भी राहत नहीं मिली ।  सवाल नौकरी जाने या सजा मिलने का नहीं है सवाल है कि शिक्षा के संस्थानों में ऐसी कुत्सित मानसिकता वाले लोगों की बढ़ती संख्या और कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में यौन शोषण की बढ़ती घटनाएं ।
हमारे समाज में आदिकाल से गुरु को भगवान से उपर का दर्जा प्राप्त है । गुरू को ब्रहमा, विष्णु और महेश तक कहा गया है । कहा तो  भी गया है कि गुरू भगवान से भी ऊपर होते हैं । याद कीजिए गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारि वा गुरू की जिमि गोविंद दियो बताय । मतलब यह कि अगर गुरु और भगवान दोनों साथ खड़े हों तो पहले गुरु को प्रणाम करूंगा क्योंकि गुरु ने ही तो भगवान के बारे में बताया है । उस देश में जहां गुरू को इतना ऊंचा दर्जा हासिल है वहां अगर कोई भी शिक्षक अपनी छात्रा के साथ यौन शोषण करता या करने की कोशिश करता है तो वो अक्षम्य अपराध है, समाज को कलंकित करनेवाला अपराध, भरोसे का कत्ल करने का अपराध, मान्यताओं को धराशायी करने का अपराध। इस तरह के अपराध या घिनौनी करतूतों की सजा पदावनति या नौकरी से बर्खास्तगी नहीं हो सकती है । जिस छात्रा को के साथ किसी शिक्षक ने बदसलूकी की है उसकी मानसिक स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । लेकिन इस तरह के ज्यादातर मामलों में ये देखा गया है कि आरोपी शिक्षकों को मामूली सजा देकर यौन शोषण के मामले को रफा दफा कर दिया जाता है । होना यह चाहिए कि इस तरह के अपराध के लिए कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान हो । दिल्ली में निर्भया गैंगरेप के बाद बने कानून के तहत उनपर कार्रवाई की जानी चाहिए ताकि गुरू-छात्र के बीच के भरोसे के रिश्ते को कोई कलंकित करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सके । इस कानून क बनानेवाले स्वर्गीय जस्टिस जे एस वर्मा ने इस तरह के अपराध पर विस्तार से विचार किया है । लेकिन हमारे यहां की सरकारें छात्राओं के यौन शोषण के मामलों को लेकर संवेदनशील नहीं हैं । निर्भया गैंगरेप के पहले केंद्र सरकार ने कार्यस्थल पर यौन शोषण का एक बिल सितंबर दो हजार बारह में लोकसभा में पेश किया था । संवेदनहीनता इतनी कि इस बिल पर व्यापक चर्चा तक नहीं की गई थी । निर्भया गैंगरेप के बाद देशभर में उठे जनज्वार ने सरकार को फिर से विचार करने को मजबूर कर दिया ।
 दरअसल इन मामलों में होता यह है कि छात्रा जब भी अपने यौन शोषण की शिकायत करती है तो विश्वविद्यालय शिकायत की जांच के लिए एक कमेटी बना देती है । यौन शोषण का केस सामने आने के बाद विशाखा गाइडलाइंस के मुताबिक विश्वविद्यालय के ही कर्मचारियों की कमेटी बनाई जाती है जिसमें आधी सदस्य महिलाएं होती हैं, इसके अलावा महिलाओं के यौन शोषण के खिलाफ काम करनेवाली गैर सरकारी संस्था का भी एक सदस्य इस कमेटी में होता है ।  विशाखा गाइडलाइंस के मुताबिक ऐसे मामलों में सबसे पहले भारतीय दंडविधान की धाराओं के अंतर्गत सक्षम अधिकारियों के पास मामला दर्ज करवाना होता है । लेकिन हमारे देश के विश्वविद्यालयों में ये देखा जाता है कि यौन शोषण का केस दर्ज करवाने के पहले एक इंटरनल कमेटी से उसकी जांच करवाई जाती है । अब जबकि नए कानून के मुताबिक यौन शोषण और बलात्कार की परिभाषा बदल गई है तो जरूरत इस बात की है कि मामला के सामने आने के बाद फौरन बाद आरोपी के खिलाफ केस दर्ज हो और कानून के हिसाब से कड़ी से कड़ी कार्रवाई हो । ताकि फिर हम गर्व से कह सकें – गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुर देवो महेश्वर: । 

Sunday, February 16, 2014

हवाई गठबंधन, आसमान पर मंसूबे

न्यूज चैनलों पर हो रहे लोकसभा चुनाव पूर्व सर्वे में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत मिलता नहीं दिख रहा है । सबसे ज्यादा सीटें अन्य दलों के खाते में जा रही हैं । दूसरे नंबर पर भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गबंधन है तो सबसे आखिर में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार चला रही संयुक्त प्रगतिशील गंठबंधन । इसके अलावा इन सर्वे में जो एक बात प्रमुखता से उभरकर आ रही है वो यह है कि प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे ज्यादा पसंदीदा शख्स नरेन्द्र मोदी हैं । सभी चैनलों और पत्रिकाओं के सर्वे में मोदी के बारे में मतैक्यता है । अब इन चुनाव पूर्व सर्वे से ही तीसरे मोर्चे के गठन के सूत्र निकलते दिखने लगे हैं । देश के अलग अलग राज्यों के क्षत्रपों को केंद्र की सत्ता में अपनी और पार्टी की संभावना तलाशने का अवसर दिखने लगा है । पिछले साल तेइस अक्तूबर को दिल्ली में सांप्रदायिकता से मुकाबले की रणनीति के नाम पर चौदह दलों के नेताओं की एक बैठक हुई थी । उस वक्त भी यह बात निकलकर आई थी कि सांप्रदायिकता से मुकाबला तो एक बहाना था, मकसद अलग अलग दलों के नेताओं के मन को एक साथ एक मंच पर आने के लिए टटोलना था । अब संसद के मौजूदा सत्र में ग्यारह गैर कांग्रेस-गैर भाजपा दलों ने एक समूह का गठन किया है जो संसद में बेहतर समन्वय से काम करेगा । इस समूह में वाम दलों के अलावा, नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू, देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस, नवीन पटनायक की पार्टी बीजेडी, जयललिता की पार्टी एआईएडीएमके, असम गण परिषद आदि शामिल हैं । इस लोकसभा के अंतिम सत्र में इस तरह से इन दलों का एक साथ आना इस बात का संकेत है कि उनकी महात्वाकांक्षाएं हिलोरे ले रही हैं । अगले लोकसभा चुनाव में सत्ता की सौदेबाजी के लिए जमीन तैयार की जा रही है । इस सौदेबाजी के अलावा जो एक मकसद है वो है अपनी खिसकती जमीन को पुख्ता करने की । इस बार तीसरे मोर्चे के गठन के लिए सबसे ज्यादा सक्रिय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव दिखाई दे रहे हैं । अब इनकी सक्रियता की भी अपनी वजह है । धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन खत्म करने के बाद नीतीश कुमार बिहार में पहले से कमजोर हुए हैं । नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती उनकी पार्टी का कमजोर संगठन है । बिहार में उनकी अगुवाई में जब विधानसभा चुनाव हुआ था तो बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता मजबूती के साथ गठबंधन के लिए काम करते थे । सुशासन पर ध्यान देने के चक्कर में नीतीश जेडीयू के संगठन को मजबूत नहीं कर पाए । उन्हें उम्मीद थी कि बिहार में सुशासन के नाम पर उनको लोकसभा में भी काफी सीटें मिलेंगी । लेकिन बिहार में भाजपा ने अपनी स्थिति बेहतर की है । उधर अगर कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान में समझौता हो जाता है तो वो भी मजबूती से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे । संभावना है कि वो भी अपनी स्थिति बेहतर कर सकें । इस सारी परिस्थितियों के मद्देनजर नीतीश कुमार की पार्टी को लेकसभा चुनाव में कम सीटें मिलने का अनुमान है । मोदी के नाम पर बीजेपी छोड़नेवाले नीतीश कुमार ने इसको प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है । अब वो तीसरे मोर्चे के कंधे पर सवार होकर मोदी को रोकने की कवायद में जुटे हैं । उधर मुलायम सिंह यादव की भी स्थिति यही है । मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से अल्पसंख्यकों का वोट उनसे छिटकता नजर आ रहा है । इसके अलावा सूबे में नियमित अंतराल पर होनेवाले दंगों की वजह से मुसलमानों में खासी नाराजगी है तो कानून व्यवस्था कायम रखने में नाकाम रहने से आम जनता खफा है । विधानसभा चुनाव के वक्त अखिलेश यादव ने बाहुबली और आपराधिक छवि के नेता डीपी यादव को पार्टी में शामिल करने पर जिस तरह का सख्त रुख अपनाया था उससे जनता आशान्वित हुई थी । अब अखिलेश ने अपराधी राजनेताओं के सामने घुटने देक दिए हैं । अतीक अहमद से लेकर तमाम बाहुबलियों को टिकट बांटने से तो यही संदेश जा रहा है । दूसरी बात जो भाजपा के पक्ष में है वो है केंद्र की कांग्रेस सरकार से भारी नाराजगी । इस नाराजगी का असर उत्तर प्रदेश पर भी पड़ेगा । इन सबको भांपते हुए मुलायम ने भी तीसरे मोर्चे का राग छेड़ा हुआ है । बहुजन समाजवादी पार्टी की मुखिया मायावती ने तो चुटकी लेते हुए कह दिया कि जिन पार्टियों का जनाधार खिसक रहा है वही इस तरह के मोर्चे के गठन की कवायद में जुटी हैं । उधर दिल्ली में अपना पहला चुनाव लड़कर सरकार बना लेनेवाली आम आदमी पार्टी भी तीसरे मोर्चे की संभावनाओं के संकेत दे रही है । पार्टी के नेता योगेन्द्र यादव ने कहा कि हाल के दिनों में देश में तीसरे मोर्चे के लिए संभावना पैदा हुई है । इस बयान से तो यही लगता है कि आम आदमी पार्टी को तीसरे मोर्चे से परहेज नहीं है भले ही वो लोकसभा चुनाव अलग से लड़े लेकिन चुनाव बाद की स्थितियों में उन्हें तीसरे मोर्चे की छतरी के नीचे आने से परहेज नहीं होगा ।

पूर्व में भी हमारे देश में तीसरे मोर्चे का प्रयोग हो चुका है लेकिन उनका अनुभव देश के लिए अच्छा नहीं रहा है । तीसरे मोर्चे का अनुभव इस बात का गवाह है कि वो सत्ता पाने के लिए बनाया गया गठबंधन था जिसका कोई वैचारिक आधार नहीं था । किसी भी गठबंधन के लंबे समय तक चलने के लिए यह जरूरी है कि उसके सहयोगी दलों में न्यूनतम साझा वैचारिक समझ विकसित हो सके । नब्बे के दशक के बाद जब भी लोकसभा चुनाव की आहट होती है तो तीसरे मोर्चे की कवायद शुरू हो जाती है । हर बार गैर बीजेपी और गैर कांग्रसेवाद का नारा बुलंद करती हुई क्षेत्रीय पार्टियां एक मंच पर आने के लिए लालायित दिखती हैं । चुनाव खत्म होने के बाद सत्ता के साथ जाने में परहेज नहीं होता है । लिहाजा इस बार भी तीसरे मोर्च के गठन के लिए क्षेत्रीय दलों की सक्रियता दिखने लगी है । इस बार तीसरे मोर्चे के गठन को लेकर सबसे बड़ी चुनौती है क्षेत्रीय क्षत्रपों की प्रधानमंत्री पद को लेकर ललक। मौजूदा संसद सत्र के पहले दिन जिन दलों के नेताओं ने संदन में एक गुट बनाकर काम करने पर सहमति जताई है उसमें ही कई प्रधानमंत्री पद की ख्वाहिश वाले दल हैं । मुलायम सिंह यादव कई बार देश के सर्वोच्च प्रशासनिक पद पर जाने की अपनी आकांक्षा का सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शन कर चुके हैं । उनके पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी अपने कार्यकर्ताओं से नेताजी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जोर लगाने का आह्वान कर चुके हैं । बिहार को गर्त से निकाल कर विकास की पटरी पर ला देने वाले सुशासन बाबू नीतीश कुमार की साफ सुथरी छवि उन्हें स्वाभाविक रूप से इस पद का उम्मीदवार बना देती है । देवगौड़ा तो एक बार प्रधानमंत्री रह ही चुके हैं ।इस कथित तीसरे मोर्चे के सामने सबसे बड़ी चुनौती एक ऐसे सर्वमान्यनेता के चयन की है जिसके साथ सभी दल के नेता कम से कम सामान्य कामचलाऊ सहजता महसूस कर सकें । ऐसा होता दिख नहीं रहा है । दूसरे इस मोर्चे में अगर जयललिता हैं तो डीएमके नहीं होगी, मुलायम सिंह हैं तो मायावती नहीं होंगी । ऐसी स्थिति में चुनाव पूर्व सर्वे में अन्य के खाते की सीटें भी कम होंगी । बात वहीं आकर अटकती है कि जिस भी दल को दो सौ के आसपास सीटें मिलेंगी वो सरकार बना लेगी । तीसरे मोर्चे का कुनबा बिखरकर उसका दामन थाम लेगी । इतिहास कम से कम यही बताता है । 

विवाद के बहाने राग फासीवाद

मशहूर अमेरिकी लेखिका और शिकागो विश्वविद्यालय में इतिहास और धर्म में प्रोफेसर वेंडी डोनिगर की किताब- हिंदूज, एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री को उसके प्रकाशक पेंग्विन बुक्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने बाजार से वापस लेने और छपी हुई बाकी प्रतियों को नष्ट करने का फैसला लिया गया है यह फैसला अदालत में उस किताब पर चल रहे केस के मद्देनजर याची शिक्षा बचाओ समिति के साथ समझौते के बाद हुआ दरअसल दिल्ली की एक संस्था को इस किताब के कुछ अंशों पर आपत्ति थी और उस संगठन से जुड़े दीनानाथ बत्रा ने दो हजार ग्यारह में इस किताब के कुछ अंशों को हिंदुओं की भावनाएं भड़काने का आरोप लगाते हुए केस दर्ज करवाया था किताब के खिलाफ याचिका दायर होने के तीन साल बाद आउट ऑफ द कोर्ट एक समझौता हुआ जिसके तहत किताब को वापस लेने का फैसला हुआ दरअसल इस किताब के छपने के बाद से ही विवाद शुरू हो गया था इस किताब के छपने के बाद ही अमेरिका में इसको खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो चुका है लंदन में तो लेखिका पर अंडे तक फेंके जा चुके हैं साइबर दुनिया में भी इस किताब के खिलाफ अभियान चल रहा है इस मामले के सामने आने के बाद कई लोग इस बात पर छाती कूटने लगे कि ये अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है कई लोग इसको हिंदू संगठनों की कथित फासीवादी मानसिकता करार दे रहे हैं सेक्युलरिज्म के नाम पर अपनी दुकान चलानेवालों को हिंदू संगठनों पर हमला करने का एक बहाना चाहिए होता है प्रकाशक के इस फैसले में उनको संभावना नजर आई और वो फासीवाद-फासीवाद चिल्लाने लगे सवाल ये उठता है कि साल दो हजार नौ में किताब छपी उसके पांच साल बाद इस किताब को वापस लेने का फैसला प्रकाशक ने लिया इसमे फासीवाद कहां से गया क्या अब इस देश में किसी को भी अदालत का दरवाजा खटखटाने का अधिकार नहीं है क्या शांतिपूर्ण तरीके से कोई विरोध नहीं जताया जा सकता है ।  क्या अहिंसक तरीके से विरोध करना फासीवाद है । इस तरह के मामले तो पूरे विश्व में होता रहा है कि अगर किसी को किसी किताब पर या उसके अंश पर आपत्ति है तो वो अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं इस किताब के खिलाफ याचिकाकर्ता ने भी भारतीय संविधान के तहत मिले अपने नागरिक अधिकारों का उपयोग करते हुए कोर्ट में केस किया अदालत में मुकदमा चल ही रहा था कि दोनों पक्षों ने समझौता कर लिया, इसमें फासीवाद और हिंदू संगठनों की मनमानी कहां से गया ये तो किताब के प्रकाशक की कमजोरी है जो अदालती कार्रवाई के झमेले में नहीं पड़ना चाहता है विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक, जिसके पास ना तो पैसे की कमी है और ना ही संसाधनों की, उसने अदालती कार्रवाई के झंझट से मुक्त होने के लिए समझौता किया । वैसे भी इंटरनेट के इस युग में किसी भी कृति पर पाबंदी संभव ही नहीं है और इस मामले में तो अगर लेखक चाहे तो वो इसको छापने का अधिकार पेंग्विन से लेकर किसी अन्य प्रकाशक को दे सकता है वो इसको छापने के लिए स्वतंत्र होगा क्योंकि अदालत ने इस किताब के भारत में प्रकाशन और वितरण पर पाबंदी नहीं लगाई है इस किताब की लेखिका ने भी इसके बाद ट्विट कर अपनी नाराजगी जताई । वेंडी डोनिगर के मुताबिक भारतीय कानून इसके लिए जिम्मेदार है । अब ये तो हर देश के नागरिक को हक है कि वो अपने देश के कानून के मुताबिक काम कर सके । लेकिन छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों को तो ना तो कानून में आस्था है और ना ही अदालत में । कई बार ये उचित ही प्रतीत होता है कि प्रगतिशीलता का परचम लहरानेवाले बगैर किसी बात के बतंगड़ बनाने में जुट जाते हैं । इस समझौते का विरोध करनेवाले कई लोगों ने तो इस किताब को पढ़ा भी नहीं है और बगैर पढ़े ही उसके बारे में अपनी राय बनाए बैठे हैं ।
ये तो बातें हुआ छद्म प्रगतिवादियों की जो बेवजह का वितंडा खड़ा कर रहे हैं । अब बात की जाए इस किताब और इसके लेखिका की । भारत के धर्म और उसका धार्मिक इतिहास वेंडी डोनिगर की रुचि के केंद्र में रहे हैं । वो संस्कृत और इंडियन स्टडीज में पीएचडी कर चुकी हैं । संस्कृत में लिखे गए कई मशहूर ग्रंथों का उन्होंने अनुवाद किया है । ऋगवेद, मनुस्मृति और कामसूत्र का अनुवाद वो कर चुकी हैं । इसके अलावा शिवा, द इरोटिक एसेटिक, द ओरिजन ऑफ एविल इन हिंदू मायथोलॉजी जैसी विचारोत्तेजक कृतियां वेंडी डोनिगर ने लिखी हैं । अपनी इल किताब द हिंदूज एन ऑलटेरनेटिव हिस्ट्री की भूमिका में लेखिका ने स्वीकार किया है कि इस किताब को लिखने के पीछे उनका एजेंडा तय है । वो यह बताना चाहती है कि जो समूह पारंपरिक रूप से विकास के लिए और अन्य सामाजिक स्थितियों के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं हैं दरअसल उनकिी भूमिका कितनी और कैसी रही है । वेंडी डोनिगर साफ तौर पर कहती हैं कि उनका मानना है कि दलितों और महिलाओं ने हिंदू धर्म के फैलाव और उत्थान में बड़ा योगदान किया है । महिलाओं और दलितों के इस योगदान को सदियों से नजरअंदाज किया जाता रहा है । वेंडी डोनिगर ने अपनी इस किताब में हाशिए के इन लोगों की नजरों से इतिहास को देखने की कोशिश की है । इस किताब में वेंडी डोनिगर ने हिंदू धर्म की अवधारणाओं और प्रस्थापनाओं को लेकर पश्चिमी मानकों और कसौटी पर कसा है । उनकी इन प्रस्थापनाओं पर कई विद्वानों में मतभेद हो सकते हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सदियों कीविकास यात्रा को तय करते हुए हिंदू धर्म बना है और देश की सर्वोच्च अदालत तो अब भी इसको धर्म के बजाए एक जीवन दर्शन मानती है । हिंदुओं का धर्म तो सनातन धर्म है । हिंदुत्व की बात करने पर जो दो चीज प्रमुखता से सामने आती है वो है कर्म और धर्म । ये दोनों अवधारणाएं अलग अलग कालखंड में हिदुत्व के केंद्र में रही हैं । वेंडी डोनिगर के मुताबिक हिंदू धर्म की खूबसूरती उसकी जीवंतता और विविधता है जो हर काल में अपने दर्शन पर डिबेट की चुनौती पेश करता है । हमारे धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक एक आदर्श हिंदू वह है जो लगातार सवाल खड़े करता है, जवाब को तर्कों की कसौटी पर कसता है और किसी भी चीज, अवधारणा और तर्क को अंतिम सत्य नहीं मानता है । हिंदू धर्म की इस आधारभूत गुण को आत्मसात करते हुए वेंडी डोनिगर ने कई व्याख्याएं की हैं और कुछ असुविधाजनक सवाल खड़े किए हैं । इस किताब में कई ऐसी बातें हैं जो वेंडी डोनिगर ने संस्कृत में पहले से सुलभ हैं और उसको अंग्रेजी के पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है । जैसे वो अपनी इस किताब में वैदिक काल में प्रचलित बहुदेववादी अवधारणा को एकेश्वरवाद का ही एक रूप मानती है । अपनी इस अवधारणा को अपने तर्कों के साथ इस तरह से पेश करती है कि वो कोई नई बात कह रही हों जबकि संस्कृत में पहले से ही सर्वदेवा नमस्कार केशवम प्रतिगच्छति कहा गया है ।  

वेंडी डोनिगर को इस बात की आशंका थी कि इस किताब को लेकर कुछ हिंदुओं को आपत्ति हो सकती है । उन्होंने इस किताब की भूमिका में इसके संकेत भी किया है । वेंडी ने लिखा है कई हिंदू धार्मिक नेता इस किताब को समुद्र में फेंक देना चाहेंगे क्योंकि उन्हें इसमें तथ्यों के साथ खिलवाड़, धार्मिक प्रसंगों की गलत व्याख्या आदि आदि दिखाई देंगे । लेखिका इतने पर ही नहीं रुकती हैं उन्होंने अपनी इसी किताब में ये भी लिखा है कि हमें हिंदी धर्म मैं मौजूद ज्ञान और दर्शन का उपयोग करना चाहिए क्योंकि यहां मौजूद साहित्य उच्च कोटि का है और हिंदू धर्म सर्व को समाहित करता चलता है । इन बातों से लेखिका की मंशा और उसकी आशंका का पता चलता है । दिक्तत वहां होती है जहां जहां पश्चिमी देशों के विद्वान किसी भी भारतीय मिथकीय प्रसंग की व्याख्या का आधार अपने समाज की रीतियों को बना लेते हैं । दरअसल होना यह चाहिए कि बारतीय मिथकीय चरित्रों की व्याख्या के तर्कों का आधार भारतीय समाज में उस वक्त की या वर्तमान की मान्यताओं को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए । ताकि इस तरह के विवादों से बचा जा सके । वेंडी डोनिगर की किताब एक बेहतरीन शोध का नतीजा है और वो एक वैकल्पिक इतिहास प्रस्तुत करती है । इस किताब को वापस लेकर पेंग्विन इंडिया ने गलती की है । भारतीय पाठकों के साथ छल भी । इस गलती को तत्काल सुधारे जाने की जरूरत है ।