Translate

Tuesday, February 11, 2014

नियमित हो तो बात बने


मैंने अपने स्तंभ में कई बार हिंदी में निकल रही साहित्यक पत्रिकाओं के बारे में विस्तार से लिखा है । पाठकों ने पिछले अंक में पढ़ा होगा कि किस तरह से हिन्दी साहित्य में साहित्यक पत्रिकाओं को निकालने के पीछे बाजार को भुनाने की चाहत बढ़ती जा रही है । मैं हमेशा से इस बात का पक्षधर रहा हूं कि बाजार का अपने पक्ष में उपयोग किया जाना चाहिए । लेकिन बाजार को कोसना और फिर उसका ही इस्तेमाल करना मुझे साइकोफैंसी लगती है । बाजार के विरोध की आड़ में जिस तरह से ये खेल खेला जा रहा है उसको पाठकों के सामने बेनकाब करने की जरूरत है । ऐसी पत्रिकाओं की संख्या थोड़ी ही है लेकिन वो बिगाड़ने और पाठकों को भ्रमित करने के लिए काफी है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी जगत खड़ा होकर ये कहने का हिम्मत जुटाए कि अमुक पत्रिका अमुक मकसद से निकल रही है । मेरे यह कहने का अर्थ कदापि यह नहीं है कि हिंदी में निकलनेवाली सभी साहित्यक पत्रिकाएं इस खेल में शामिल हैं । हिंदी में अब भी कई पत्रिकाएं बेहद गंभीरता से निकल रही है । कुछ व्यक्तिगत प्रयास से तो कुछ सांस्थानिक पूंजी के सहारे । ऐसी ही दो पत्रिका है तद्भव और आलोचना । तद्भव को कथाकार-उपन्यासकार अखिलेश बेहद श्रमपूर्व सालों से बगैर किसी संस्थागत पूंजी किी मदद के निकाल रहे हैं और आलोचना तो राजकमल प्रकाशन से अरुण कमल के संपादकत्व और नामवर सिंह जी की रहनुमाई में निकल रहा है । अभी हाल ही में तद्भव और आलोचना दोनों ही पत्रिकाओं का नया अंक आया है । आलोचना का समीक्ष्य जुलाई-सितंबर 2013 अंक सहस्त्राब्दी अंक 50 है । आलोचना लंबे समय से निकल रही है और इस पत्रिका की हिंदी के पाठकों के बीच साहित्यक रुचि और संस्कृति विकसित करने में अहम भूमिका है । शिवदान सिंह चौहान से लेकर नामवर सिंह तक इसके संपादक रहे हैं । इन दिनों नामवर जी इसके प्रधान संपादक है और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित और वरिष्ठ कवि अरुण कमल इसके संपादन का दायित्व संभाल रहे हैं । पत्रिका की आवर्तिता लगभग ठीक होने के बावजूद समय से थोड़ा पीछे चल रही है। जैस समीक्ष्य सहस्त्राब्दी अंक जुलाई सितंबर दो हजार तेरह का अंक है । सहस्त्राब्दि अंक के संपादकीय में अरुण कमल ने बेहद विनम्रतापूर्क कहा है कि- आलोचना का मुख्य काम श्रेष्ठ की पहचान कर, उसके मूल्य को स्वीकार्य बनाना है । साथ ही, ऐसे वातावरण, ऐसे समाज की रचना में अपना योग देना है जो श्रेष्ठ को पोषण प्रदान करे । ऐसे समाज का निर्माण जहां रोटी और कविता में सबकी बराबर की हिस्सेदारी हो। अब कवि हैं तो आत्मा तो थोड़ी कविता की ओर झुकी ही होगी लेकिन बेहतर होता कि संपादक यह कहता कि- रोटी और साहित्य में सबकी बराबर की हिस्सेदारी हो । इसके अलावा साहित्य को रोटी से जिस तरह से अरुण कमल ने जोडा़ है उसको थोड़ा और विस्तार देते तो आलोचना के आम पाठकों के लिए समझना आसान होता । अरुण कमल का गद्य भी पद्य की ही तरह मोहक होता है । इसके अलावा अपने संपादकीय में अरुण कमल ने बड़े बोल नहीं बोले हैं । वो कहते हैं हम यह नहीं कहते कि यहां जो भी प्रकाशित हुआ वह सब मूल्यवान ही है या श्रेष्ठ ही है । लेकिन पचास ऐसी प्रस्तुतियां भी मिले को हम धन्य होंगे । अब इस वाक्य में ही शब्द पर ध्यान देने की आवश्यकता है । सिर्फ ही लगाकर संपादक ने विनम्रता के साथ अपने दावे को पेश कर दिया है । इस बात का हक भी उनको है क्योंकि आलोचना में सैकड़ों ऐसे लेख और कविताएं प्रकाशित हुई हैं जिनकी गूंज लंबे समय तक हिंदी साहित्य में सुनाई देती रही है । समीक्ष्य अंक में लेख स्तरीय हैं लेकिन इस बार ज्यादातर कविताएं औसत हैं । संपादक और सहसंपादक दोनों अच्छे कवि हैं । लिहाजा यह कमी खटकती है ।

तद्भव के इस अंक में अखिलेश ने साहित्य और राजनीति को मिलाकर अपने संपादकीय पेश किया है । अपने सारगर्भित संपादकीय में अखिलेश ने हिंसा और घृणा को अपने तरीके से परिभाषित किया है । उनका मानना है कि घृणा की बिसात पर होनेवाली हिंसा ज्यादा भयानक और गहन होती है । वो इसके लिए नरेन्द्र मोदी के मशहूर कुत्ते के पिल्ले वाले बयान का उदाहरण देते हैं। अखिलेश का मानना है कि मगुलों ने राज्य सत्ता का विस्तार करने के लिए हिंसा का सहारा अवश्य लिया था लेकिन बाद में अपना शास्न स्थापित कर वो वैमनस्यता भूल गए थे । अखिलेश इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि हिंसा और घृणा के खिलाफ साहित्य का कला कोई प्रतिरोध नहीं कर रहा है । अखिलेश की विचारधारा ज्ञात है और इस वजह से उनके संपादकीय में अमेरिका की घृणा और युद्दोन्माद तो दिखाई देता है लेकिन रूस या फिर पश्चिम बंगाल में वामदलों के शासनकाल में सरकारी हिंसा पर टिप्पणी करने से बच निकलते हैं । संभवत वो यह सोचते हों कि रूस या बंगाल में जो हिंसा हो रही है वो मुगलों की तरह है जो अपना आधिपत्य स्थापित कर वैमनस्यता भूल जाती है । लेकिन इतना अवश्य है कि राजेन्द्र यादव ते निन के बाद हिंदी में इस तरह के तीखे संपादकीय लिखने वाले अखिलेश अकेले लेखक बचे हैं । अब तद्भव चूंकि अनियतकालीन है लिहाजा संपादकीय पढ़ने का अवसर भी तय वक्त पर नहीं मिल पाता है । वीरेन्द्र यादव तद्भव में संपादकीय की तरह ही स्थायी हैं । इस बार भी उन्होंने अतिया हुसैन पर लिखा है । वीरेन्द्र यादव को पढ़ना हमेशा से रुचिकर होता है बीच बीच में जब वो अपने पूर्वग्रहों पर जाते हैं तो अतार्किक हो जाते हैं लेकिन इस लेख में वो इस फैलेसी के शिकार नहीं है । तद्भव के इस अंक में गरिमा श्रीवास्तव का मलयालम स्त्री आत्मकथा पर लिखा बेहतरीन है । अपने इस शोधपूर्ण लेख में गरिमा ने हिंदी के पाठकों का मलयालम में लिखी गई आत्मकथाओं से परिचय करवाया है । मैं जब इस अंक को पढ़ रहा था तो मन के किसी कोने अंतरे में यह बात थी कि शायद गरिमा ने सिस्टक जेसमी की आत्मकथा पर नहीं लिखा हो लेकिन लेख ने मेरी आशंका को गलत साबित किया । उसने ना केवर सिस्टर जेसमी की आत्मकथा आमीन को उभारा है । इसके अलावा इस अंक में उपासना और शिवेन्द्र की लंबी कहानियां हैं । कविताओं में कुंवर नारायण, ऋतुराज, चेतनक्रांति और सुंदरचंद ठाकुर की कविताएं हैं । तुलसीराम का आत्मकथा तो लंबे वक्त से चल ही रही है जो इस अंक में भी जारी है । कुल मिलाकर अखिलेश के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका तद्भव हिंदी साहित्य में एक अलग और उंचे स्थान पर स्थापित है । मैं पहले भी कई बार इस बात को कह चुका हूं कि अखिलेश को इस पत्रिका को नियमित करना चाहिए । अगर मासिक निकालना संभव नहीं है तो कम से कम द्वैमासिक तो निकालना ही चाहिए । मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि पूरा हिंदी साहित्य अखिलेश को रचनात्मक सहयोग करेगा ।  

No comments: