आजादी
के आज सत्तर साल होने को आए हैं और सत्तर साल की वय किसी के भी मूल्यांकन का बेहतर
मौका तो होता ही है। हिंदी की रचनात्मकता की बात करें तो सत्तर साल के सफर पर बात
करने से हमें बहुत आशाजनक तस्वीर नजर नहीं आती है। हिंदी में आजादी के पूर्व और
आजादी के कुछ दिनों बाद जिस तरह की रटनाएं आ रही थीं धीरे धीरे उसका ह्रास होता
चला गया। हम तो अपने व्याकरण. पुरातत्व, वैदिक और पौराणिक वांग्मय, संस्कृत काव्य
को नए सिरे से व्याख्यायित करने की ओर भी ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। भारतीय धर्म
शास्त्रों को नए सिरे से उद्घाटित करने का उपक्रम भी नहीं दीखता है। वेद और
पुराणों को लेकर शोध भी लगभग नहीं के बराबर हो रहे हैं, यह जानने की कोशिश भी नहीं
हो रही है कि कि जिस वेदव्यास ने महाभारत की रचना की थी उसी ने वेदव्यास ने
पुराणों की रचना की थी। यह प्रश्न भी हिंदी के शोधार्थियों को नहीं मथता है कि
अकेले वेदव्यास सभी पुराणों के रचियता कैसे हो सकते हैं। पुराणों के रूप में जो
करीब चार लाख श्लोकों का विशाल साहित्. मौजूद है उससे मुठभेड़ का साहस लेखक क्यों
नहीं कर पाता है। भारतीय धर्म के ज्ञानकोष वेद को लेकर भी हमारे साहित्यकार
उत्साहित नजर नहीं आते हैं । वासुदेव शरण अग्रवाल जैसा विभिन्न विषयों पर विपुल
लेखन करनेवाला लेखक भी हिंदी में इस समय कोई नजर नहीं आता है। अगर कोई है तो हिंदी
समाज का दायित्व है कि ऐसे लेखक को विशाल हिंदी पाठक वर्ग से जोड़ने का उपक्रम
किया जाए। पौराणिक चरित्रों को लेकर जिस तरह से लेखन किया जा रहा है वो युवा वर्ग
के पाठकों के बीच लोकप्रिय भी हो रहा है वह भी भ्रम पैदा करता है। राम-सीता और
कृष्ण के चरित्रों के साथ जिस तरह से छेड़छाड़ किया जा रहा है उसपर भी कहीं से
किसी तरह की गंभीर लेखकीय आपत्ति का नहीं आना भी खेदजनक है।
उधर
विदेशों में पौराणिक भारतीय साहित्य को लेकर बेहद उत्साहजनक रचनात्मकता दिखाई देती
है। अमेरिका से लेकर जर्मनी तक में भारतीय पौराणिक साहित्य से मुठभेड़ करते
विद्वान नजर आते हैं। संभऴ है कि उनमें से कई लेखकों की राय पर अन्य लोगों को
आपत्ति हो लेकिन वो काम तो कर रहे हैं। ऐसी ही एक छिहत्तर साल की लेखिका हैं-
वेंडी डोनिगर। इतिहास और धर्म की प्रोफेसर रहीं वेंडी डोनिगर की किताब- ‘द हिंदूज,एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ को लेकर
भारत में काफी विरोध हुआ था। विरोध के बाद प्रकाशक ने उसको वापस लिया फिर किसी
अन्य प्रकाशक ने उसको छापा। दरअसल हिंदू धर्म और उसका धार्मिक इतिहास वेंडी डोनिगर की रुचि के केंद्र में रहे हैं। ऋगवेद, मनुस्मृति और
कामसूत्र का उन्होंने अनुवाद किया है। इसके अलावा शिवा, द इरोटिक
एसेटिक, द ओरिजन ऑफ एविल इन हिंदू मायथोलॉजी जैसी विचारोत्तेजक कृतियां भी
वेंडी डोनिगर के खाते में है। ‘द हिंदूज,एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ में वेंडी
डोनिगर ने हिंदू धर्म की अवधारणाओं और प्रस्थापनाओं को पश्चिमी मानकों और कसौटी पर
कसा है। वेंडी डोनिगर के मुताबिक हिंदू धर्म की खूबसूरती उसकी जीवंतता और विविधता
है जो हर काल में अपने दर्शन पर डिबेट की चुनौती पेश करता है।हिंदू धर्म पर प्रचुर
लेखन करने के बाद अब उनकी एक और दिलचस्प किताब आई है ‘द रिंग ऑफ ट्रुथ,
मिथ ऑफ सेक्स एंड जूलरी’। अपनी इस किताब में डोनिगर जूलरी का बिजनेस करनेवाले अपने मामा के
अनुभवों के आधार पर कई सिरों को जोड़कर उसकी व्याख्या की है। वेंडि डोनिगर ने माना
है कि उन्होंने अंगूठियों और गहनों पर करीब दो सौ लेख लिखे हैं और कई लेक्चर में
उन्होंने इसको विषय बनाया है। वेंडी के मुताबिक जब भी वो इस विषय पर कोई लेक्चर
देती थीं तो कोई ना कोई उनके पास आता था और अपनी रिंग फिंगर को दिखाकर उससे जुड़ी
कोई कहानी सुनाता था। सबकी अपनी अपनी कहानी थी। इसके बाद जब उन्होंने जब ग्रीक और
संस्कृत साहित्य पढ़ना और पढ़ाना शुरू किया तो उन्हें इस विषय पर इतने उदाहरण मिले
कि वो चकित रह गईं। और उन्होंने उसको सहेजना और जोड़ना प्रारंभ कर दिया था। हमारे
प्राचीन और पौराणिक ग्रंथों में अंगूठी को लेकर बहुत कुछ कहा गया है। राजा जब खुश
होता था तो अंगूठू उतारकर दे देता था, राजा के हाथ में जो अंगूठी होती थी वो उसके
राजा होने की जानकारी भी देती थी आदि आदि।
अपनी इस कृति
में वेंडि इस सवाल का जवाब तलाशती हैं कि अंगूठियों का कामेच्छा से क्या संबंध रहा
है और स्त्री पुरुष संबंधों में उसकी इतनी महत्ता क्यों रही है। क्यों पति-पत्नी
से लेकर प्रेमी-प्रेमिका और विवाहेत्तर संबंधों में अंगूठी इतनी महत्वपूर्ण हो
जाती है। अंगूठी प्यार का प्रतीक तो है इसके मार्फत वशीकरण की कहानी भी जुड़ती चली
जाती है। बहुधा यह ताकत के प्रतीक के अलावा पहचान के चौर पर भी देखी जाती रही है।
इस पुस्तक में यह देखना बेहद दिलचस्प है कि किस तरह से वेंडी
डोनिगर पूरी दुनिया के धर्मग्रंथों से लेकर शेक्सपियर, कालिदास और तुलसीदास तक की
कालजयी रचनाओं में अंगूठी के उल्लेख को जोड़ती चलती हैं । ग्रीक और रोमन इतिहास
में भी अंगूठियों को स्त्री-पुरुष के प्रेम से जोड़कर देखा गया है। चर्च ने भी
अंगूठी को वैवाहिक बंधन के चिन्ह के रूप में मान्यता दी थी। वो इस बारे में पंद्रह
सौ उनसठ के बुक ऑफ कॉमन प्रेयर का जिक्र करती हैं। वो बताती है कि किस तरह से
सोलहवीं शताब्दी में इटली में पुरुष जो अंगूठियां पहनते थे उसमें लगे पत्थरों में
नग्न स्त्रियों के चित्र उकेरे जाते थे। माना जाता था कि इस तरह की अंगूठी को
पहनने वाले स्त्रियों को अपने वश में कर लेते थे। अंगूठी और संबंधों के बारे में
मिथकों में क्या कहा गया है, अपनी इस खोज के सिलसिले में लेखिका ने जितना शोध किया
है वो आश्चर्यजनक है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों से उसने इतना कुछ उद्धृत किया है कि
पाठक चमत्कृत रह जाते हैं और उनके मन में यह सवाल भी कौंधता है कि हिंदी में इस
तरह की किताबें क्यों नहीं लिखी जाती हैं।
वेंडि डोनिगर
के मुताबिक करीब हजारों साल पहले जब सभ्यता की शुरुआत हुई थी तभी से कविताओं में
गहनों का जिक्र मिलता है । उन कविताओं में स्त्री के अंगों की तुलना बेशकीमती
पत्थरों की गई थी। जब नायिका के बालों को सोने जैसा बताया गया था। वेंडि डोनिगर इस
क्रम में जब भारत के मिथकीय और ऐतिहासिक चरित्रों की ओर आती हैं तो वो सीता का
उदाहरण देती हैं। इस संदर्भ में ये भी कहती हैं कि अपने पति की अनुपस्थिति में
गहने पहननेवाली औरतों को उस वक्त के समाज में अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता था।
सीता चूंकि राजकुमारी थीं, इसलिए गहने उनके परिधान का आवश्यक अंग थे, इसलिए अपने
पति से अलग निर्वासन में रहने पर भी सीता के गहने पहनने पर किसी तरह का सवाल नहीं
उठा था। सीता के अलावा वो दुश्यंत का भी उदाहरण देती हैं कि कैसे उसको अंगूठी को
देखकर अपनी पत्नी शकुंतला की याद आती है। तो आप देखें कि किस तरह से एक शोध के
सिलसिले में कालिदास से लेकर तुलसीदास की रचनाओं का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा
लेखिका जिस कालखंड में विचरण करती हैं वो कितना बड़ा है। इतने बड़े कालखंड़ को
अपने लेखन में साधने के लिए कितने कौशल और ज्ञान की जरूरत होती है इसका सहज अंदाज
लगाया जा सकता है।
इन दिनो मिथ पर इतना अधिक लिख जा रहा है और जनश्रुतियों और
लोककथाओं के आधार पर उपन्यास पर उपन्यास लिख जा रहे हैं उससे यह लगता है कि मिथक
लेखन के पाठक बहुत हैं। हाल में जिस तरह से भारतीय अंग्रेजी लेखकों ने मिथकों पर
लिखा है उससे यह प्रतीत होने लगा है कि मिथ को अपने तरीके तोड़ने मरोड़ने की छूट
वो लेते हैं और फिर संभाल नहीं पाते हैं। वेंडी डोनिगर की यह किताब बताती है कि
मिथकों और मिथकीय पात्रों और परिस्थितियों पर लिखने के लिए कितनी मेहनत की
आवश्यकता होती है। अपने तर्कों के समर्थन में कितने उदाहरण देने पड़ते हैं। जिस तरह से वेंडि डोनिगर ने अपनी इस किताब में मेसोपोटामिया की
सभ्यता से लेकर हिंदी, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म के लेखन से तथ्यों को
उठाया है और उसको व्याख्यायित किया है वो अद्धभुत है। आजादी
के सत्तर साल बाद आज हम हिंदी के लोगों को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि
हिंदी मे स्तरीय शोध आधारित लेखन को कैसे बढ़ावा दिया जाए।
8 comments:
ये शौक की बात है मित्र, शोध का विषय तो बाद में बना। हमारे यहां वाम सोच वाले ही लेखकीय दृष्टि रखने वाले माने जाते हैं। इनकी रुचि नहीं होती मिथकों ओर पुराणों में आप सब जानते हैं फिर ऐसे प्रश्न क्यों उठाते हैं। इसके अलावा हमारे यहां स्वान्तः सुखाय से आरम्भ हुआ लेखन कभी व्यावसायिक नहीं हो पाता और लेखक के साथ अंततः लेखन की भी मृत्यु हो जाती है। आप बहुत बढ़िया लिखते हैं और दिखते हैं। आपको आह्वान करना चाहिए ताकि जिस तरह के लेखन की आप कमी महसूस कर रहे हैं, उसे बढ़ावा मिले। आपके पास मंच भी है और भीतर आंच भी। तो क्यों नहीं पहल करते।
सादर।
Very interesting article. Thank you Anant Vijay
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भारत में शोध की भाषा अंग्रेजी है अगर ये शोध हिन्दी भाषा में होने लगी जाए तो देश की प्रगति की रफ्तार बड जाएगी। अभी तक हम वैज्ञानिक शोधों का अनुवाद करने में लगे हैं। काश मूल रूप से वैज्ञानिक शोध हिन्दी भाषा में होने लग जाए तो भारत का ज्ञान-विज्ञान भारतियों के मनों में स्थापित हो जाएगा। भारतीय मनोवृत्ति हमेशा से वैज्ञानिक रही है लेकिन उधार की भाषा से वैज्ञानिक नहीं हुआ जा सकता।
आपने काफी प्रासंगिक सवालों को उठाया है। लेकिन ये बात भी सच है कि आजकल अध्ययन की भाषा अंग्रेजी है विशेषतः पोस्ट ग्रेजुएट लेवल पर। तब तक इतनी अंग्रेजी इतनी पढ़ ली होती है कि हिंदी भाषी भी कोई शोध करना चाहे तो हिंदी की जगह अंग्रेजी को तरजीह देता है। ये बात इतिहास हो या तकनीकी शिक्षा हर जगह लागू है।
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क्या आपने सारे प्रकाशन या सभी लेखों और लेखकों को पढ़ रखा है आपका बार बार यह कहना कि हिंदी में ऐसी किताबे नहीं है पर मेरा मानना है कि किताबे बहुत हैं मुख्य धारा में नहीं हैं।
और अनुवाद होकर भी आने वाली पुस्तके हैं पर उन्हें हिंदी का नहीं कहा जा सकता जो अन्य भारतीय भाषाओं में लिखी गई हैं ।
हम शोध में पीछे हैं पर पुस्तकें तो मिथको और वेदों पर कई लिखी गई हैं मंत्र पुत्र, प्रथम शैलपुत्री च, सुंदरकांड पुनर्व्याख्या, मिथको का इतिहास , भगवान सिंह की पुस्तकें, नरेंद्र कोहली मिथको पर निकली पत्रिकाए व विशेषांक आदि
जागरूक पाठक
शोधक साधक
जितेंद्र जीतू जी ने सही कहा-शोध का विषय तो बाद में बना। हमारे यहां वाम सोच वाले ही लेखकीय दृष्टि रखने वाले माने जाते हैं। इनकी रुचि नहीं होती मिथकों ओर पुराणों में आप सब जानते हैं फिर ऐसे प्रश्न क्यों उठाते हैं।
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