प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
राजनीति में भी अपने गैरपारंपरिक तौर तरीकों से चौंकाते रहे हैं। राजनीति से इतर
भी जब वो बातें करते हैं तो उनकी सोच लोगों को उन प्रदेशों तक में जाती है जहां
जाने में उनके पूर्ववर्ती कतराते रहे हैं। किसी का स्वागत करने के लिए फूल की जगह
किताब की पौरोकारी कर प्रधानमंत्री ने सभी पुस्तकप्रेमियों को दिल जीत लिया। अब
उनकी इस सलाह पर अमल भी होना शुरू हो गया है, यह देखना प्रीतिकर है कि गुलदस्तों
की बजाए नेता अब पुस्तकों से स्वागत कर रहे हैं । इसी तरह से कुछ साल पहले एक
पुरस्कार समारोह में में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहकर सबको चौंका दिया
था कि हर घर मे पूजाघर की तरह एक पुस्तकालय अवश्य होना चाहिए। उन्होंने तो यहां तक
कह दिया था कि घर बनाते समय आर्किटेक्ट से नक्शे में पुस्तकालय के प्रावधान के लिए
अनुरोध किया जाना चाहिए। अभी हाल ही में उन्होंने मन की बात में भी कुछ ऐसी ही
बातें की जो उनकी दीर्घकालीन सोच को एक बार फिर से देश के सामने रख रही है। अभी
हाल में उन्होंने 1942 को संकल्प का साल मानते हुए उन्होंने आजादी के पचहत्तरवें
साल यानि दो हजार बाइस को सिद्धि का वर्ष करार दिया यानि- संकल्प से सिद्धि का
कालखंड । जब प्रधानमंत्री संकल्प से सिद्धि की बात करते हैं और समाज के हर तबके से
इसको अपनाने की अपील करते हैं तब उनकी यह अपील समाज के साथ साथ साहित्य और
संस्कृति की देहरी पर भी दस्तक देती है। हमें
इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि आजादी के पहले रचनाधर्मियों के क्या दायित्व थे,
आजादी मिलने के बाद उनके दायित्व क्या हुए और अब आजादी के सत्तर साल बाद रचनाकारों
के दायित्व और उनकी प्राथमिकताएं कितनी बदलीं।
अगर हम उन्नीस सौ बयालीस या उसके
कुछ साल पहले से विचार करें तो उस वक्त के साहित्यकारों के सामने एक ही लक्ष्य था जो
सबसे बड़ा था वह था- आजादी। उनकी रचनाओं के केंद्र में लोक की यही चिंता प्रतिबिंबित
होती थी, लोक की यही आकांक्षा भी रहती थी। इस चिंता का प्रकटीकरण उनकी रचनाओं में
होता था। 1947 में देश को आजादी मिली, हमारी आकांक्षाएं परवान चढ़ने लगीं,
उम्मीदें सातवें आसमान पर जा पहुंची। आजादी के बाद के करीब दो दशक तक पूरा देश
स्वतंत्रता के रोमांटिसिज्म में रहा। उसके बाद का काल मोहभंग का काल रहा। सत्तर के
दशक से तो हमारे देश की बहुलतावादी संस्कृति, जिसे अनेकता में एकता की स्वीकृति
मिली हुई थी, उसका निषेध होना शुरू हो गया। एक खास विचारधारा, जो अबतक कमजोर
अवस्था में थी, उसको बल मिलना शुरू हो गया। भारतीय संस्कृति, साहित्य और ज्ञान
परंपरा के पास जो विश्व दृष्टि थी उसको मार्क्सवाद के प्रचार प्रसार के जरिए
विस्थापित करने की जोरदार कोशिशें शुरू हुईं।
भौतिकता-आधुनिकता,धार्मिकता-आध्यात्मिकता वाली ज्ञान परंपरा को विस्थापित कर
आयातित विचार के आधार पर साहित्य रचा जाने लगा। उस दौर में ही रामधारी सिंह दिनकर
को कहना पड़ा- ‘जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परंपराओं को भूलकर
दूसरों की परंपराओं का अनुकरण करने लगती हैं,...जब वे मन ही मन अपने को हीन और
दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती है। पारस्परिक
आदान-प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहां प्रवाह एकतरफा हो,
वहां यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है। किन्तु
सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को
छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने
लगती है। वह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती,
वह अपनी परंपरा से छूट जाती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है।‘
दिनकर को ये इस वजह से कहना पड़ा क्योंकि हम भाषा और रचनात्मक दोनों
स्तर पर अपनी परंपरा को भुलाकर दूसरे देश या कहें कि दूसरे विचारधारा की मानसिक
गुलामी के लिए अपनी एक पूरी पीढ़ी को तैयार करने में लगे थे।
साहित्य में आधुनिकता के नाम पर यह
दलील दी जाने लगी कि भारतीय साहित्य आधुनिकता से कोसों दूर है । भारतीय ज्ञान
परंपरा को आगे बढ़ानेवाले लेखकों को दकियानूसी और पिछड़ा कहकर अपमानित किया जाने
लगा। लेखन के केंद्र में नैतिकता, अध्यात्म और सौन्दर्यबोध को निगेट करने की
संगठित कोशिशें होने लगी। अदृश्य के प्रति आस्था और परलोक के अस्तित्व में भारतीय
जनमानस के विश्वास को खंडित करने जैसी रचनाएँ लिखी जाने लगी। इस खंडनवादी लेखन को
वैज्ञनिकता का आधार भी प्रदान किया गया लेकिन ऐसा करनेवाले यह भूल गए कि भारत में
लोक की आस्था को खंडित करना आसान नहीं है। हमारे देश में जो सृष्टिबोध है उसका
आधार विश्वास है। भारत की संस्कृति पुरातन संस्कृति है जहां लोकजीवन और लोक यहां
की संस्कृति का आधार रहे हैं। लोक को भी नकारने की कोशिशें हुईं। लोकगीतों को या
जो भारतीय ज्ञान परंपरा कंठों में निवास करती थी उसको कपोल कल्पना कहा जाने लगा। ईश्वर
को नकारने की कोशिशें हुईं। नीत्से की उस प्रसिद्ध घोषणा का सहारा लिया गया जिसमें
उसने ईश्वर की मृत्यु की बात की थी । ऐसा प्रचारित करनेवाले लोग लगातार इस बात को
छिपाते रहे कि नीत्शे ने इस घोषणा के साथ और क्या कहा था। नीत्शे ने कहा था कि
ईश्वर की मृत्यु बहुत बड़ी घटना है । इस घटना की बराबरी मनुष्य जाति में तभी संभव
है जब एक एक शख्स स्वयं ईश्वर बन जाए।
सत्तर के दशक में जो हुआ उसपर
गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। इंदिरा गांधी के पहले जवाहरलाल नेहरू के दौर
में कांग्रेस एक विचारधारा के साथ चल रही थी और उनसे नेताओं के वौचारिक सरोकार भी
होते थे। उन्नीस सौ इकहत्तर में इंदिर गांधी के मजबूत होने के बाद कांग्रेस ने
वैचारिकता का दामन छोड़ दिया और उसको वाम दलों को आउटसोर्स कर दिया। इसका फायदा भी
इंदिका गांधी को हुआ जब इमरजेंसी के दौर में प्रगतिशील लेखक संघ ने उनका समर्थन
किया और दिल्ली में भीष्म साहनी की अगुवाई में समर्थन का प्रस्ताव पास किया गया।
उधर हिंदी साहित्य अपनी पारंपरिक चेतना
से प्रेरित होने की बजाए रूसी चेतना से प्रेरित होने लगी। मार्क्सवाद में जिस समाज
की कल्पना की गई थी उसको हिंदी साहित्य में साकार किया जाने लगा। अंतराष्ट्रीय
अवधारणा के नाम पर हमारी राष्ट्रीय अवधारणा को नेपथ्य में डाल दिया गया । अंतराष्ट्रीयता
के नाम पर मार्क्सवाद की अनुचित उपासना ने हमारी राष्ट्रीय चेतना का नुकसान करना
प्रारंभ कर दिया था। अज्ञेय या निर्मल वर्मा जैसे लेखक या विद्यानिवास मिश्र या
कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकारों को साहित्य के केंद्र में आने से रोकने की कोशिश
होती रही। दिनकर को उनके जीवनकाल साहित्य की परिधि पर धकेलने का प्रयास विदेशी
विचारधारा के प्रभाव में काम कर रहे आलोचकों और लेखकों ने संगठित रूप से किया।
उऩकी मृत्यु के बाद भी उनकी रचनाओँ का मूल्यांकन ना हो पाए, इस बात का ध्यान
रखा गया। चूंकि दिनकर की रचनाएं इतनी मजबूत थीं कि तमाम प्रयासों के बावजूद उनको
जनता से दूर नहीं किया जा सका। निराला के उन लेखों को कालांतर में प्रचारित
प्रसारित नहीं होने दिया जिसमें उन्होंने हिन्दुत्व और हिंदू देवी-देवताओं के
चरित्रों पर लिखा था। ऐसे दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं। यहां तक कि अशोक
वाजपेयी को भी कलावादी कहकर साहित्य की कथित मुख्यधारा से अलग करने का प्रयास हुआ।
यह तो अशोक वाजपेयी की सांगठनिक क्षमता, सत्ता से उनकी नजदीकी और बाद में उनकी
आर्थिक संपन्नता की वजह से उनको बहुत नुकसान नहीं पहुंचाया जा सका।
यह तो साफ है कि जो संकल्प भारत
छोडो आंदोलन के वक्त साहित्य में चलकर आया था वो सिद्धि तक पहुंचने के रास्ते से
भटक गया था। लोक और जन की बात करनेवाले लोक और जन से ही दूर होते चले गए। अपनी
स्वार्थसिद्धि के चक्कर में संकल्प सिद्धि बिसरता चला गया, रचनाओं में भी और
व्यवहार में भी। साहित्य को इसका बड़ा नुकसान हुआ, साहित्य की विविधता खत्म हो गई,
चिंतन पद्धति का विकास अवरुद्ध हो गया, साहित्येतर विधाएं मृतप्राय होती चली गईं।
दो हजार बाइस तक का वक्त है, अगर हम अपनी आजादी के पचहत्तरवें साल में भी साहित्य
को उसकी विविधता लौटा सकें, लोक को उसके केंद्र में स्थापित कर सकें, कंठों के
माध्यम से जीवित साहित्य को जिंदा कर सकें तो हम संकल्प सिद्धि के छूटे हुए डोर को
पकड़ने में कामयाब हो सकते हैं।
No comments:
Post a Comment