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Saturday, August 5, 2017

टिप्पणी से कठघरे में कवि

भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के एलान के साथ ही हिंदी साहित्य में एक उबाल सा उठा है। पुरस्कार के लिए चयनित युवा कवि अच्युतानंद मिश्र की कविताओं पर बात होने के बजाए विमर्श गैर-साहित्यक मसले पर शुरू हो गया। भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार हर वर्ष हिंदी के पैंतीस साल तक की उम्र के कवि को दिया जाता है। प्रक्रिया के मुताबिक निर्णायक मंडल का एक सदस्य अपनी बारी आने पर कवि का चयन करता है । इस वर्ष चयन की बारी हिंदी की वरिष्ठ कवयित्री अनामिका की थी। उन्होंने अच्युतानंद मिश्र की कविता बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं के लिए ये पुरस्कार देने का फैसला किया। यहां तक तो सबकुछ सामान्य लग रहा था। एलान भी हो गया।  अच्युतानंद को बधाई आदि का दौर शुरू ही हुआ था कि अचानक फेसबुक पर एक कवि अवतरित हुए और उन्होंने अनामिका पर बेहद अमर्यादित टिप्पणी कर दी। फेसबुक पर इस टिप्पणी के आते ही बवाल मच गया। लगभग चरित्रहनन करते इस पोस्ट को लेकर हिंदी की कई लेखिकाओं ने अपना विरोध जताना शुरू कर दिया। बाद में कवि जी ने अनामिका पर की गई अपनी टिप्पणी को हटा दिया, लेकिन तबतक जो नुकसान होना था वह हो गया। कवि महोदय की पोस्ट वायरल हो चुकी थी। स्क्रीन शॉट साझा किए जा रहे थे। पक्ष-विपक्ष में लोग अपनी बातें कहने लगे थे। कुछ लेखिका खुद को निष्पक्ष दिखने-दिखाने के चक्कर में नापतौल कर पोस्ट लिख रही थीं। मसला ये कि कई लोग खुलकर विरोध करने से बचते रहे थे। कवि जी की पोस्ट को लेकर एक नया नया ललबबुआ ने तो पीरी लेखिका बिरादरी को ही कूढ़मगज करार दे दिया। ललबबुआ की परेशानी यह बताई जा रही है कि उसको उम्मीद थी कि इस वर्ष का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार उसको मिलेगा लेकिन अच्युतानंद को देकर अनामिका ने उसका सपना तोड़ दिया। कोई भी शख्स जब सपने को सच माने बैठा हो और जब उसके सच होने का समय आए और सपना चूट जाए तो बौखलाहट स्वाभाविक है। बौखलाहट में साहित्य के खर पतवारों में भी हलचल होनो लगी और मर्यादा तार-तार होने लगी। इस साहित्यक घटना को बताने का मकसद समकालीन हिंदी साहित्य में विमर्श के गिरते स्तर की ओर इशारा करना था। हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक हमेशा अपनी बातचीत में हमेशा कहा करते हैं कि समकालीन हिंदी साहित्य इस वक्त बजबजा रहा है। उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए ये कहा जा सकता है कि साहित्यक परिदृश्य ना केवल बजबजा रहा है बल्कि गुड़ की राब की तरह खदबदा रहा है। यह मसला सिर्फ साहित्यक विमर्श के गिरते स्तर तक नहीं पहुंचता है बल्कि इस घटना के कई छोर हैं जिनपर साहित्य से जुड़े लोगों को गंभीरता से विचार करना होगा।
लेखिकाओं के बारे में अमर्यादित और अश्लील टिप्पणी करने का मंच फेसबुक बना । फेसबुक इस वक्त हिंदी साहित्य में एक अनिवार्य उपस्थिति की तरह है। लगभग हर तरह के मसले फेसबुक पर ही सबसे पहले नमूदार होते हैं, सूचनाओ से लेकर विवाद तक, गंभीर विमर्श से लेकर हल्की फुल्की बातों तक। यहां तक कि लेखकों के व्यक्तिगत मामले भी फेसबुक पर सार्वजनिक होते रहते हैं । फेसबुक लेखकों के लिए पाठकों से जुड़ने का एक बेहद उपयोगी मंच है। नई ऩई रचनाएं और विचार, जिनको पत्र-पत्रिकाओं में जगह नहीं मिल पाती हैं, उनको फेसबुक पर स्थान तो मिलता ही है, एक पाठकवर्ग भी मिलता है। लेकिन फेसबुक पर कुछ भी लिखने की जो आजादी है वो इस मंच को कई बार एक अराजक मंच भी बना देता है। यह अराजकता फेसबुक की सबसे बड़ी खामी है । इस अराजक आजादी का फायदा कुछ लोग उठाते हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने और अपमानित करने के लिए। फेसबुक पर मौजूद साहित्य से जुड़े लोगों को इस अराजकता से निपटने के उपायों पर विचार करना चाहिए। दूसरी बात जो इस प्रकरण में उभर कर सामने आई वो ये कि लेखिकाओं पर हो रहे हमलों को अलग अलग लेखिकाओं ने अपने अपने नजरिए से देखने की कोशिश की। किसी ने सिर्फ अफसोस जाहिर किया तो किसी को आश्चर्य हुआ। अफसोस और आश्चर्य के बीच विरोध गुम हो गया। लानत मलामत तो दूर की बात।
आज समाज में जिस तरह की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है उसका भी प्रकटीकरण इस पूरे मसले में हुआ है। आज हमारी संवेदनाएं इतनी कम या खत्म हो गई हैं वो सिर्फ समाज में ही नहीं दिखता। कई बार ऐसी खबरें आती हैं कि दुर्घटना का शिकार व्यक्ति बीच सड़क पर तड़पता रहा लेकिन उसकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया । पूरे देश ने टीवी पर ऐसी कई तस्वीरें देखी हैं। ऐसी ही संवेदनहीनता साहित्य की दुनिया में भी दिखाई देने लगी है कि कोई अमुक को गाली गलौच कर रहा है तो हम उस पचड़े में क्यों पड़ें। इस प्रवृत्ति के बढ़ने से हमलावरों के हौसले बुलंद होते रहते हैं और वो जब चाहें, जिसे चाहें अपमानित करते रहते हैं और जब दबाव बनने लगता है तो पोस्ट डिलीट कर अपनी शराफत का ढिंढोरा पीटना शुरू हो जाते हैं। साहित्य में बढ़ रही इस संवेदनहीनता पर भी साहित्य से जुड़े लोगों को विचार और मंथन करना चाहिए। क्या साहित्य समाज स्त्री विरोधी मानसिकता वाले ऐसे लोगों को चिन्हित कर उसके सामूहिक बहिष्कार आदि के बारे में विचार नहीं कर सकता है। कम से कम फेसबुक पर तो बहिष्कार की पहल हो।
इस पूरे घटनाक्रम से लेखक संगठनों का भी महिलाओं को लेकर रवैया एक बार फिर उजागर हो गया। अनामिका के अपमान के मसले पर प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच के तरफ से स्तंभ लिखे जाने तक कोई बयान सामने नहीं आया। इतने समय तक लेखक संगठनों की चुप्पी उनकी कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करती है। बयानवीर जनवादी लेखक संघ का इस मसले पर कोई प्रेस रिलीज जारी नहीं करना भी उनको कठघरे में खड़ा कर गया। अब सवाल यही उठता है कि लेखक संगठन क्यों चुप हैं? दरअसल ये लेखक संगठन कोई भी स्टैंड लेने के पहले अपने अपने पैतृक राजनीतिक दलों का मुंह जोहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस मसले पर इन लेखक संगठनों के राजनीतित आकाओं की अबतक कोई राय बन नहीं पाई लिहाजा उनकी तरफ से किसी भी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। बात-बात में अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा देखनेवाले इन लेखक संगठनों को अपनी ही जमात की एक वरिष्ठ लेखिका पर हुई वाचिक हिंसा से किसी प्रकार का कोई खतरा नहीं दिखना इनके दोहरे रवैये को उजागर करता है। दरअसल इस मसले में इनका भी कोई दोष नहीं है, इस विचारधारा के जो भी नायक रहे हैं उनकी महिलाओं को लेकर क्या राय या कारनामे रहे हैं, ये जगजाहिर है। चाहे वो माओ हों, चाहे स्टालिन या लेनिन या फिर क्यूबा के कम्युनिस्ट तानाशाह फिडेल कास्त्रो। लेकिन ये लेखक संगठन इस बात को भूल जाते हैं कि ये भारत है जहां महिलाओं का सम्मान सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। इन लेखक संगठनों के अप्रासंगिक होने की वजह भी इन प्राथमिकताओं को नहीं समझ पाना रहा है।

भारतीय लेखन में ज्यादा पीछे नहीं जाकर अगर हम जयशंकर प्रसाद की कामायनी को ही देखें तो उन्होंने अपनी रचनाओं में स्त्री को भरपूर सम्मान दिया है। कामायनी की मूल आत्मा में मनुष्यता की चिंता है। वहां जब देव संस्कृति की बात होती है तो यह बताया जाता है कि उस संस्कृति में विलासिता की वजह से, स्त्री की अवमानना की वजह से या फिर कह सकते हैं कि स्त्री को सिर्फ विलासिता की वस्तु समझने की वजह से देवों को दंडित करने के लिए उस संस्कृति को लगभग समाप्त कर दिया। कामायनी का जो चित्रण हुआ है वो अद्भुत है, वह विलासिता की देवी के रूप में नहीं बल्कि ममता की प्रतिमूर्ति के रूप में, करुणा से भरी हुई श्रद्धा के रूप में सामने आती है। अनामिका जी का अपमान करनेवाले कवि हैं, उनको अपनी परंपरा का तो ज्ञान होगा ही, लेखक संगठनों को ना हो क्योंकि उनका रिमोट कंट्रोल तो कहीं और होता है। प्रसाद जी ने तो अपने नाटक ध्रुवस्वामिनी में भी स्त्री अस्मिता का प्रश्न उठाया था। यह सिलसिला आगे भी चलता रहा लेकिन कवि जी को ना तो अपनी परंपरा की फिक्र है ना ही लेखिकाओं की। इसके पहले भी वो एक अन्य कवयित्री को लेकर अनाप शनाप टिप्पणी कर चुके हैं। अगर हम देखें तो साहित्य में महिलाओं को लेकर इस तरह की घटनाएं होती रही हैं लेकिन मजबूती के साथ प्रतिरोध नहीं होता है। लेखिकाओं को एकजुट होकर स्टैंड लेना होगा, रचनाओं से आगे जाकर व्यवहार में भी।    

6 comments:

अनिल जनविजय said...

आप मास्को नहीं आ रहे? सन्तोष जी आपको नहीं ला रहीं? मैं तो इन्तज़ार कर रहा था। ख़ैर कोई बात नहीं। बाक़ी बड़े-बड़े लेखक तो रहेंगे ही। :) :)

जितेन्द्र 'जीतू' said...

आप बढ़िया लिखते हैं। अमूमन आपकी हर पोस्ट पढ़ लेता हूँ, खासतौर पर अंग्रेज़ी उपन्यासों से जुड़ी पोस्ट पसंद करता हूँ। आपकी इस पोस्ट से पहले काफी कुछ पढ़ चुका हूं इस विषय में, आभासी दुनिया पर। इसलिए कुछ नया नहीं दिखा इसमें, सिवाय इसके कि आपने खुल कर कह दिया वामपंथी संघटनों के बारे में। ये आपकी मजबूरी भी हो सकती है और ज़रूरी भी हो सकती है। मेरे विचार से आभासी दुनिया की ये कमियां बाहर ज़िक्र करने के काबिल भी नहीं, खास तौर पर अपने हाहाकार में। इसे विरोध का स्वर मंच न बनाइये और केवल साहित्य के बारे में लिखिए। आप यहां कामायनी की अपने स्तर पर व्याख्या कर दे सकते थे जो अधिक रोचक और बौद्धिक होता। हाहाकार लेखकों की हरकतों पर नहीं, उनकी साहित्यिक क्रियाओं/ कृतियों पर मचना ओर दिखना चाहिए। इस महत्वपूर्ण स्पेस का उपयोग आप पुरस्कृत कवि की कविता पर अपना विश्लेषण देकर करते तो मुझ जैसे आपके चाहने वालों पर अधिक उपकार होता। हां, अखबार में कुछ भी दीजिये क्योंकि उसके संपादक कोई और हैं।
कृपया मेरी सलाह का संज्ञान अवश्य लें। सादर।
आप मेरे प्रिय लेखक हैं और आपके पहली बार दर्शन गत पुस्तक मेले में किये थे।

वीणा वत्सल सिंह said...

विचारोत्तेजक

DINESH BHATT KI KALAM said...

बहुत अच्छा आलेख अनंत जी

vandana gupta said...

अब लेखिकाओं को ही एकजुट होकर सामने आना होगा और ऐसे लोगों का साहित्यिक बहिष्कार करना होगा

हरकीरत ' हीर' said...

सही कहा अब महिलाओं को अपना एक संगठन बनाना होगा ...जो गलत है उसका सभी को विरोध करना होगा वहां मित्रता मायने नहीं रखती .