हाल
ही में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड जिसे आमतौर पर लोग सेंसर बोर्ड के नाम से
जानते हैं, का पुर्नगठन किया गया और अध्यक्ष समेत कई सदस्यों को बदला गया। हटाए गए
अध्यक्ष पहलाज निहलानी के कार्यकाल में फिल्मों के सेंसरशिप को लेकर काफी हो हल्ला
मचता रहा। उनके विवादास्पद बयानों ने भी उनके विरोधियों को काफी मसाला दे दिया। बोर्ड
के अंदर ही सदस्यों के बीच मतभेद शुरू हो गए थे। दरअसल पहलाज निहलानी ने सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष बनते ही ऐसे काम शुरू कर दिए
किए कि बोर्ड तो को संस्कारी बोर्ड कहा जाने लगा था। सेंसर बोर्ड ने जब जेम्स बांड
की फिल्म में कांट-छांट की थी तो संस्कारी बोर्ड हैश टैग के साथ कई दिनों तक वो
मसला ट्विटर पर ट्रेंड करता रहा था । फिल्म में चुंबन के दृश्य पर सेंसर बोर्ड की
कैंची चली थी । उस वक्त पहलाज निहलानी का तर्क था कि भारतीय समाज के लिए लंबे
किसिंग सीन उचित नहीं हैं और उन्होंने आधे से ज्यादा इस तरह के सीन को हटवा दिया
था । बांड की फिल्म में कट लगाने के बाद पूरी दुनिया में सेंसर बोर्ड और उसके
अध्यक्ष की फजीहत हुई थी । अभी हाल ही में प्रकाश
झा की फिल्म लिपस्टिक अंडर बुर्का को लेकर भी काफी विवाद हुआ। विवादित फिल्मों की
काफी लंबी सूची है। अब जब सेंसर बोर्ड का नए सिरे से गठन किया गया है और प्रसून
जोशी को उसका अध्यक्ष बनाया गया है तो फिल्मकारों को उम्मीद जगी है कि अब उनका काम
आसान होगा। पर क्या सच में यह इतना आसान है। क्या फिल्मों पर कैंची चलनी रुक
जाएगी। शायद नहीं।
नवगठित बोर्ड में दोबारा नामित वाणी त्रिपाठी के बयानों से
लगता है कि जबतक सिनेमेटोग्राफी एक्ट में बदलाव नहीं किया जाएगा तो बहुत कुछ बदलने
वाला नहीं है। वाणी त्रिपाठी जिस ओर इशारा कर रही हैं उसपर विचार करना बहुत आवश्यक
है । सिनेमेटोग्राफी एक्ट की धारा 5 बी
(1) को देखे जाने की जरूरत है। इस धारा के अंतर्गत बोर्ड के
सदस्यों को यह छूट मिलती है कि वो शब्दों को अपने तरीके से व्याख्यायित कर सकें ।
इस धारा के मुताबिक - किसी फिल्म को रिलीज करने का प्रमाण पत्र तभी दिया जा सकता
है जब कि उससे भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता पर कोई
आंच ना आए । मित्र राष्ट्रों के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी ना हो । इसके अलावा
तीन और शब्द हैं – पब्लिक ऑर्डर, शालीनता
और नैतिकता का पालन होना चाहिए । अब इसमें सार्वजनिक शांति या कानून व्यवस्था तक
तो ठीक है लेकिन शालीनता और नैतिकता की व्याख्या अलग अलग तरीके से की जाती रही है
। अब नए बोर्ड में ही अगर हम देखें तो प्रसून और वाणी के लिए शालीनता और नैतिकता
की परिभाषा अलग हो सकती है वहीं नरेन्द्र कोहली की व्य़ाख्या इनसे अलग हो सकती है। और
यहीं से मतभेद और विवाद की शुरुआत होती है।
इस एक्ट के तहत सालों से विवाद होते रहे हैं । उन्नीस
सौ तेहत्तर में बी के आदर्श की फिल्म ‘गुप्त ज्ञान’ को लेकर काफी बवाल
मचा था । तत्कालीन बोर्ड के कई सदस्यों को लग रहा था कि ये जनता की यौन भावनाओं को
भड़का कर पैसा कमाने के लिए बनाई गई फिल्म है जबकि निर्माताओं का तर्क था था वो
समाज को शिक्षित करना चाहते हैं । लंबी बहस के बाद ‘गुप्त
ज्ञान’ को बगैर किसी काट छांट के प्रदर्शन की इजाजत तो दी गई
थी। फिल्म के प्रदर्शन के बाद उसके अंतरंग
दृष्यों को लेकर इतनी आलोचना हुई कि चंद महीने में ही उसको सिनेमाघरों से वापस
लेना पड़ा था । उन्नीस सौ चौरानवे में दस्यु सुंदरी फूलन देवी की जिंदगी पर
बनी फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ में भी
स्त्री देह की नग्नता को लॉंग शॉट में ही दिखाने की इजाजत दी गई थी । फिल्म ‘फायर’ से लेकर ‘डर्टी पिक्चर’ तक पर अच्छा खासा विवाद हुआ लेकिन सेंसर बोर्ड ने अपनी बात मनवा कर ही दम
लिया था । फिल्म ‘12 इयर्स अ स्लेव’
में गुलामों के अत्याचार के नाम पर नग्नतापूर्ण दृश्यों की इजाजत देना हैरान
करनेवाला था । जब दो हजार में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सीईओ घूसखोरी के
आरोप में सीबीआई के हत्थे चढ़े तो स्थितियां साफ होने लगी थीं कि किस वजह से
मानदंड को अलग अलग तरीके से किसी के हक में इस्तेमाल किया जाता है। सीईओ की
गिरफ्तारी के बाद कई सुपरस्टार्स और निर्देशकों ने इस बात के पर्याप्त संकेत दिए
थे कि उनको अपनी फिल्मों में गानों को पास करवाने के लिए घूस देना पड़ा था । एक
सेंसर बोर्ड सैफ अली की फिल्म ‘ओमकारा’
में गालियों के प्रयोग की इजाजत देता है तो दूसरा सेंसर बोर्ड प्रकाश झा की फिल्म
में गाली हटाने को कहता है ।फिल्म प्रमाणन बोर्ड में जिस तरह से एडल्ट और यू ए
फिल्म को श्रेणीबद्ध करने की गाइडलाइंस है उसको लेकर भी बेहद भ्रम है । फिल्मों को
सर्टिफिकेट देने की गड़बड़ी शुरू होती है क्षेत्रीय स्तर की कमेटियों से जहां वैसे
लोगों का चयन होता है जिनको सिनेमा की गहरी समझ नहीं होती है । इसके बाद फिल्म
प्रमाणन बोर्ड में भी कई स्तर होते हैं और एक्ट के शब्दों को अपनी तरह से
व्याख्यित कर अध्यक्ष अपनी मनमानी चलाते हैं ।
वाणी त्रिपाठी इस बात को जोर देकर कहती हैं कि फिल्म प्रमाणन
बोर्ड में सुधार के लिए श्याम बेनेगल समिति की सिफारिशों को जल्द से जल्द लागू
किया जाना चाहिए। अरुण जेटली जब सूचना और प्रसारण मंत्री थे तब श्याम बेनेगल की
अध्क्षता में एक समिति बनाई थी। इस
समिति में राकेश ओमप्रकाश मेहरा और पियूष पाडें सदस्य थे। सीबीएफसी में सुधारों को
लेकर इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी लेकिन उसको लागू नहीं किया जा सका है।जहां
तक ज्ञात हुआ है कि श्याम बेनेगल समिति ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सेंसर
बोर्ड के कामकाज के अलावा फिल्मों को दिए जानेवाले सर्टिफिकेट की प्रक्रिया में
बदलाव की सिफारिश की थी । यह भी कहा जा रहा है कि बेनेगल कमेटी की सिफारिशों के
मुताबिक अब इस संस्था को सिर्फ फिल्मों के वर्गीकरण का अधिकार रहना चाहिए । वो
फिल्म को देखे और उसको किस तरह के यू , ए या फिर यूए सर्टिफिकेट दिया जाना चाहिए, इसका फैसला करे । इस सिफारिश को अगर मान लिया जाता है तो फिल्म सेंसर के
इतिहास में बदलाव की शुरुआत हो सकेगी। सूचना और प्रसारण मंत्रालय संभालने के बाद
जिस तरह से स्मृति ईरानी ने फिल्म प्रमाणन बोर्ड से लेकर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल
की आयोजन से जुड़ी समितियों में बदलाव किया है उससे उम्मीद जगी है कि बेनेगल समिति
की सिफारिशों को लागू किया जा सकेगा। फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सदस्य ही बेनेगल
समिति की सिफारिशों को लेकर उत्साहित हैं तो संभव है कि उसको लागू करने का
प्रक्रिया में तेजी आए। बेनेगल कमेटी की सिफारिशों को लागू करते हुए यह भी ध्यान
रखना चाहिए कि उसमें भी सिनेमेटोग्राफिक एक्ट की धारा 5 बी(1) का ख्याल रखने की
सलाह दी गई है। सारी समस्या की जड़ में तो यही धारा है ।
यह भी ज्ञात हुआ है कि बेनेगल समिति की सिफारिशों
के मुताबिक फिल्मकारों के लिए ये बताना जरूरी होगा कि वो किस श्रेणी की फिल्म
बनाकर लाए हैं और उन्हें किस श्रेणी में सर्टिफिकेट चाहिए । उसके बाद सीबीएफसी के
सदस्य फिल्म को देखकर तय करेंगे कि फिल्मकार का आवेदन सही है या उनके वर्गीकरण में
बदलाव की गुंजाइश है । उसके आधार पर ही फिल्म को सर्टिफिकेट मिलेगा । बेनेगल कमेटी
ने अपनी सिफारिशों में फिल्मों के वर्गीकरण का दायरा और बढा दिया गया है । यू के
अलावा यूए श्रेणी को दो हिस्सों में बांटने की सलाह दी गई है । पहली यूए + 12 और यूए +15 । इसी तरह से ए कैटेगरी को भी दो हिस्सों में बांटा गया है । ए और
ए सी । ए सी यानि कि एडल्ट विद कॉशन । इसके अलावा कमेटी ने बोर्ड के कामकाज में
सुधार के लिए भी सिफारिश की है । उन्होंने सुझाया है कि बोर्ड के चेयरमैन समेत सभी
सदस्य फिल्म प्रमाणन के दैनिक कामकाज से खुद को अलग रखेंगे और इस काम की रहनुमाई
करेंगे । पहलाज निहलानी के साथ एक दिक्कत यह भी थी कि वो रोजाना बोर्ड के दफ्तर
में बैठते थे और हर छोटे बड़े फैसलों को लेकर बयान देने के लिए उपलब्ध रहते थे।
अबतक की छवि के मुताबिक प्रसून जोशी बेहद संजीदगी से काम करते हैं और विवादों से
दूर रहते हैं और उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके कार्यकाल में विवादित बयान कम आएंगे
लेकिन फिल्मों पर कैंची चलनी कम हो जाएगी यह उम्मीद तबतक बेमानी है जबतक कि बेनेगल
कमेटी की सिफारिशों को सुधारों के साथ लागू नहीं कर दिया जाता है ।
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