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Tuesday, September 26, 2017

तकनीक से परहेज क्यों ? ·

पिछले दिनों कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों से बात हो रही थी। उस बातचीत में एक आलोचक और एक कवि-आलोचक भी थे। बातचीत फेसबुक और साहित्य से होते होते हिंदी में तकनीक के इस्तेमाल तक पहुंच गई। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हिंदी इन दोनों आलोचक ईमेल का इस्तेमाल नहीं करते थे। हिंदी के कई स्थापित लेखक ईमेल का इस्तेमाल नहीं करते हैं । उन्हें इस बात का मलाल भी नहीं है, बल्कि बात इस तरह से करते हैं कि गोया उन्हें इस बात का फख्र हो कि उनका ईमेल अकाउंट नहीं है । आज जब पूरी दुनिया फिजिकल से वर्चुअल की ओर बढ़ रही है ऐसे में हिंदी के इन वरिष्ठ लेखकों का तकनीक को लेकर हठ उचिच नहीं प्रतीत होता है। इसका एक नुकसान ये हो सकता है कि वो समय के साथ कदमताल नहीं कर पाएं और पाठकों का मिजाज समझने में पीछे रह जाएं। विदेशों में ई रीडर्स की बढ़ती तादाद का फायदा उठाने के लिए प्रकाशकों ने बेहतर रणनीति बनाकर काम किया जिनके नतीजे भी उनको मिले। किसी बड़े लेखक की कोई अहम कृति प्रकाशित होनेवाली होती है तो प्रकाशक लेखकों से आग्रह कर प्रकाशन के पहले रीडर्स के लिए छोटी छोटी कहानियां लिखवाते हैं जो सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में उपलब्ध होती है इसका फायदा यह होता है कि छोटी कहानियों की लोकप्रियता से लेखक के पक्ष में एक माहौल बनता है और प्रकाश्य कृति के लिए पाठकों के बीच उत्सुकता पैदा होती है जब उत्सुकता अपने चरम पर होती है तो प्रकाशक बाजार में उक्त लेखक की किताब पेश कर देता है मशहूर और बेहद लोकप्रिय ब्रिटिश थ्रिलर लेखक ली चाइल्ड ने भी अपने उपन्यास के पहले कई छोटी छोटी कहानियां सिर्फ डिजीटल फॉर्मेट में लिखी उन्होंने साफ तौर पर माना कि ये कहानियां वो अपने आगामी उपन्यास के लिए पाठकों के बीच एक उत्सुकता का माहौल बनाने के लिए लिख रहे थे चाइल्ड के मुताबिक दौड़ में बने रहने के लिए ऐसा करना बेहद जरूरी था इन स्थितियों की तुलना में अगर हम हिंदी लेखकों की बात करें तो वहां एक पिछड़ापन नजर आता है ।ज्यादातर लेखकों की अपनी कोई बेवसाइट नहीं है दो-चार प्रकाशकों को छोड़ दें तो हिंदी के प्रकाशकों की भी बेवसाइट नहीं है । नतीजा यह कि हिंदी में लेखकों पर पाठकों की पसंद का दबाव नहीं बन पाता और वो अपनी रफ्तार से लेखन करते हैं फिर रोना रोते हैं कि पाठक नहीं इस बात को लक्षित किया जा सकता है फोर जी तकनीक के प्रसार और इंटरनेट और स्मार्ट फोन के सस्ता होने से उसके उपभोक्ताओं की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ है।फोन बनाने वाली कंपनियां बड़े साइज की स्क्रीन युवाओं की सहूलियत को ध्यान में रखकर कर रही हैं।
सामाजशास्त्रीय विश्लेषण करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इक्कीसवीं सदी के पाठकों की रुचि में सत्तर और अस्सी के दशक के पाठकों की रुचि में जमीन आसमान का अंतर आ चुका है । सन 1991 को हम इस रुचि का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं । हमारे देश में 1991 से अर्थव्वयस्था को विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया और उससे करीब सात साल पहले देश में संचार क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी । हमारे देश के लिए ये दो बहद अहम पड़ाव थे जिसका असर देश की साहित्य संस्कृति पर बेहद गहरा पड़ा । संचार क्रांति और उदारीकरण का असर यह हुआ कि संस्कृति और साहित्य भी ग्लोबल और लोकल मिलकर ग्लोकल हो गई। बाजारवाद और नवउदारवाद के प्रभाव में भारत में आम जनता की और खासकर युवा वर्ग की रुचि में बदलाव तो साफ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है । युवा वर्ग और इन दशकों में जवान होती पीढ़ी में धैर्य कम होता चला गया और एक तरह से इंस्टैंट का जमाना आ गया चाहे वो कॉफी हो, नूडल्स हो या फिर साहित्यक उपन्यास। यह अधीरता कालांतर में और बढ़ी । यह लगभग वही दौर था जब हमारे देश के आकाश को निजी टेलीविजन के तरंगों के लिए खोल दिया गया । मतलब यह है कि देश में कई देशी विदेशी मनोरंजन और न्यूज चैनलों ने अपना प्रसारण शुरू किया । यह वही वक्त था जब हिंसा प्रधान फिल्मों की जगह बेहतरीन रोमांटिक फिल्मों ने ली । मार-धाड़ वाली फिल्मों की बजाय शाहरुख काजोल की रोमांटिक फिल्मों को जबरदस्त सफलता मिली । यह सब बताने का तात्पर्य यह है कि नवें दशक में हमारे देश की लोगों की पसंद बदलने लगी ।
आज की युवा पीढ़ी की आदतों को देखें तो वो ऑन द मूव पढ़ना चाहती है । उसके लिए मोबाइल फोन या फिर किंडल से बेहतर कोई प्लेटफॉर्म हो ही नहीं सकता है । किंडल एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जहां आप किताबों के ई वर्जन डाउनलोड कर सकते हैं और फिर उसको अपनी सुविधानुसार पढ़ सकते हैं।पूरी दुनिया में ई बुक्स की सफलता के बरक्श अगर हम हिंदी प्रकाशन की तुलना करते हैं तो वो काफी पिछड़ा हुआ नजर आता है।हिंदी के कुछ प्रकाशकों ने ई बुक्स में बेहतर काम किया है लेकिन ज्यादातर अपने प्रकाशनों को ई फॉर्मेट में नहीं ला पाए हैं। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक अपनी स्थापना के सत्तावन साल बाद नेशनल बुक ट्रस्ट ने पहला ईबुक विवेकानंद पर जारी किया था ।
दो हजार सात में अंतराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार करनेवाली कंपनी अमेजॉन ने इलेक्ट्रानिक बुक रीडर किंडल लॉच किया था। शुरुआत में इसकी कीमत तकरीबन पच्चीस हजार रुपए रखी गई थी । ई बुक्स की लोकप्रियता को बढ़ाने में किंडल का खासा योगदान है । अमेजॉन ने बहुत सोच-समझकर ये रीडिग डिवाइस लांच किया था । ऑनलाइन कारोबार करनेवाली इस कंपनी के पास तकरीबन दस लाख किताबों के इलेक्ट्रानिक फॉर्मेट के अधिकार थे । कंपनी ने उसको भुनाने के लिए बाजार में किंडल को उतारा जो काफी लोकप्रिय हुआ । किंडल के साथ साथ कई किताबें प्री लोडेड आती हैं और बाद में आप चाहें तो नई से नई किताबें खरीदकर डाउनलोड कर सकते हैं । किंडल पर मौजूद ई बुक्स बाजार से खरीदी गई किताबों से सस्ती होती हैं । इसको रखने में आसानी होती है । हजारों किताबें एक छोटे से टेबलेटनुमा डिवाइस में स्टोर की जा सकती हैं । एक बार डाउनलोड कर लेने के बाद इंटरनेट कनेक्शन की भी जरूरत नहीं पड़ती है। जब चाहें जहां चाहें पाठक अपनी पसंद की किताबें पढ़ सकते हैं । इस डिवाइस को किसी कंप्यूटर या तार से जोड़ने का झंझट भी नहीं है । इस डिवाइस पर अखबारों का स्बसक्रिप्शन लेकर अखबार भी पढ़े जा सकते हैं । अब तो आंखों को सहूलियत प्रदान करनेवाले डिवाइस भी आ गए हैं।
आज के रीडिंग और राइटिंग के दौर के पहले लेखक साल में एक कृति की रचना कर लेते थे तो उसे बेहद सक्रिय लेखक माना जाता था ।हिंदी में भगवानदास मोरवाल लगभग हर साल एक उपन्यास लिख लेते हैं, उनकी सक्रियता से हिंदी जगत चौंकता रहता है। जॉन ग्रीशम जैसा लोकप्रिय लेखक भी साल में एक ही किताब लिखता था पाठकों को भी साल भर अपने प्रिय लेखकों की कृति का इंतजार रहता था पुस्तक छपने की प्रक्रिया भी वक्त लगता था लेकिन वक्त बदला, स्टाइल बदला, लेखन और प्रकाशन की प्रक्रिया बदली अब तो हिंदी में भी लेखन का दौर गया है लेखन और पाठक के इस दौर में पाठकों की रुचि में आधारभूत बदलाव देखने को मिल रहा है इंटरनेट के इस दौर में पाठकों का लेखकों से भावनात्मक संबंध की जगह सीधे संवाद ने ले ली । ऑनलाइन रहकर लेखक पाठकों से बात करते हैं और उनकी पसंद जानते हैं ट्विटर पर सवालों के जवाब देते हैं ।फेसबुक पर अपना स्टेटस अपडेट कर पाठकों की प्रतिक्रिया हासिल करते हैं । हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकारों में से कुछ ही फेसबुक पर नहीं है लेकिन जो हैं उनमें से ज्यादातर फेसबुक का इस्तेमाल अपनी भड़ास निकालने के लिए या अपनी विचारधारा को पोषण के लिए करते हैं, या फिर प्रवचन के लिए करते हैं। फेसबुक पर साहित्यकारों की मौजूदगी को लेकर एक दिलचस्प किस्सा याद आ रहा है। चार साल पहले की बात है, दिल्ली के प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला के दौरान एक साथी पत्रकार, जो कवि-कथाकार, आलोचक आदि भी हैं, मेरे यह कहने पर कि लेखकों को फेसबुक और ट्वीटर पर होना चाहिए, भड़क गए थे। उनका तर्क था कि अगर हम फोन उठाकर बात नहीं कर सकते तो फिर फेसबुक पर संवाद की क्या सार्थकता है। उसके बाद उन्होंने बेहद गंभीरता के साथ यह सवाल भी खड़ा किया कि इन माध्यमों से सामाजिक सरोकार कैसे जुड़ते हैं। उस गोष्ठी को याद करते हुए हंसी भी आती है क्योंकि इन दिनों उनके कई घंटे फेसबुक पर ही गुजरते है। जरूरत किसी माध्यम को खारिज करने की नहीं बल्कि उसके स्वागत करने की है।