चंद महीनों पहले तक केरल की सियासत में बीजेपी का नाम सीरियस
प्लेयर के तौर पर नहीं लिया जाता था। पिछले विधानसभा चुनाव में भी पहली बार बीजेपी
का एक विधायक वहां चुना गया था लेकिन बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के बाद
अब केरल में बीजेपी प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर जमीनी संघर्ष करती दिखाई दे रही
है। अमित शाह ने 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव को लेकर जो रणनीति तैयार की है
उनमें केरल उनकी प्रथामिकता में है। केरल में बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता दौरा कर
चुके हैं। 29 जुलाई को केरल में आरएसएस के कार्यकर्ता राजेश की हत्या के बाद अगस्त
में वित्त मंत्री अरुण जेटली खुद केरल पहुंचकर बीजेपी की स्ट्रैटजी के बारे में
संकेत दे गए थे। वित्त मंत्री जेटली ने उस वक्त केरल की वाम सरकार पर संघ के
कार्यकर्ताओं के हत्यारों को परोक्ष रूप से मदद करने का आरोप लगाया था। उन्होंने
राजेश के परिवारवालों से मुलाकात पार्टी कैडर में को एक भरोसा भी दिया था। केरल को
लेकर बीजेपी को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का भी साथ मिल रहा है और दिल्ली में संघ
के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होस्बोले की मौजूदगी में विरोध प्रदर्शन भी किया गया था।
उसके बाद भी सेमिनार आदि करके भी केरल में संघ के कार्यकर्ताओं की हत्या के खिलाफ
जनमत तैयार किया जा रहा है।
केरल की सियासी लड़ाई में उत्तर प्रदेश के सीएम योगी
आदित्यनाथ को उतारकर अब बीजेपी ने इसको नई धार देने की कोशिश की है। योगी आदित्यनाथ
को केरल ले जाना बीजेपी की रणऩीति का यूटर्न भी है। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले
बीजेपी ने वहां सॉफ्ट हिंदुत्व को ध्यान में रखा था क्योंकि केरल में 46 फीसदी
मतदाता अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। उस वक्त बीजेपी इन 46 फीसदी वोटरों को टार्गेट
कर रही थी। पर उस रणनीति का परिणाम बेहतर नहीं रहा था और 140 सीटों की विधानसभा
में बीजेपी को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा था। अब योगी आदित्यनाथ को मैदान
में उतारकर बीजेपी हार्डकोर हिदुत्व की लाइन पर चलती दिख रही है। 15 दिनों तक
चलनेवाली जनरक्षा यात्रा में रेड जेहादी के मुद्दे को उठाने के साथ साथ बीजेपी
अपने कॉडर की हत्या के मुद्दे को लेकर भी केरल की जनता के बीच जा रही है। योगी
आदित्यनाथ ने केरल पहुंचकर लव जेहाद का मुद्दा तो उठाया ही साथ ही उन्होंने लगातार
हो रही राजनीतिक हत्या के लिए भी मौजूदा सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है। जनरक्षा
यात्रा में योगी आदित्यनाथ के अलावा कई अन्य केंद्रीय मंत्रियों को भी शामिल होना
है। जाहिर है कि दोनों तरफ से जुबानी जंग जारी रहेगी । सालों बाद केरल में ऐसा
पहली बार हो रहा है कि सत्ताधारी दल को विपक्षी दल इतनी गंभीरता से चुनौती दे रही
है।
बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीतने का लक्ष्य
रखा है। इस वक्त लोगों को ये टार्गेट बहुत ज्यादा लग रहा है क्योंकि जब से बीजेपी
बनी है यानि 1980 से तब से लेकर अबतक बीजेपी ने वहां से कोई लोकसभा सीट जीती नहीं
है। योगी आदित्यनाथ के वहां पहुंचने और लव जेहाद और आतंकवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे
को उठाकर बीजेपी हिंदू और क्रिश्चियन दोनों वोटरों को एक संदेश दे रही है। क्रिश्चियन
वोटरों का विश्वास जीतने के लिए असफांस को केंद्र में पर्यनट मंत्री का पद भी दिया
गया। मंत्री बनने के बाद अलफांस ने केरल कैथोलिक बिशप कांफ्रेंस के चीफ के अलावा
भी अन्य चर्चों के मुखिया से मुलाकात की थी। इसके अलावा राजनीतिक हत्या को मुद्दा
बनाकर वामपंथ के अंतर्विरोधों को भी जनता के सामने रखा जा रहा है। केरल में सबसे
ज्यादा राजनीतिक हत्या कन्नूर जिले में होती है जहां से मुख्यमंत्री विजयन आते
हैं। केरल में राजनीति हत्याओं का बहुत पुराना इतिहास रहा है लेकिन अबतक इस स्तर
पर ले जाकर किसी दल ने इसको मुद्दा नहीं बनाया। दरअसल मार्क्सवादियों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत है कि उनकी दीक्षा ही हिंसा और हिंसक राजनीति में होती है।उन्नीस सौ साठ में विभाजन के बाद सीपीआई तो लोकतांत्रिक आस्था के साथ काम करती रही लेकिन सीपीएम तो सशस्त्र संघर्ष के बल पर भारतीय गणतंत्र को जीतने के सपने देखती रही । चेयरमैन माओ का नारा लगानेवाली पार्टी चीन के तानाशाही के मॉडल को इस देश पर लागू करने करवाने का जतन करती रही । चीन में जिस तरह से राजनीतिक विरोधियों को कुचला डाला जाता है , विरोधियों का सामूहिक नरसंहार किया जाता है वही इनके रोल मॉडल बने । उसी चीनी कम्युनिस्ट विचारधारा की बुनियाद पर बनी पार्टी भारत में भी लगातार कत्ल और बंदूक की राजनीति को जायज ठहराने में लगी रही । केरल में तो मार्क्सवादी नेता खुले आम सार्वजनिक सभा में
हिंसा और मरने मारने की बात भी करते रहे हैं। वहां राजनीति हत्याओं को रोकने के
लिए सरकार के ठोस कदम दिखाई भी नहीं देते है।
यह अकारण नहीं है कि हॉवर्ड फास्ट जैसे मशहूर लेखक अपनी कृति
दे नेकेड गॉड में कहते हैं कि –कम्युनिस्ट
पार्टी एक ऐसी मशीन है जिसमें प्राय: अच्छे लोग प्रवेश करते
हैं जो अन्नत: बुरे लोगों में परिवर्तित हो जाते हैं ।
सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों में इस प्रक्रिया से बच पाना आमतौर पर जान देने की
कीमत पर ही होता है ।‘ अब अगर हम हॉवर्ड फास्ट के
विचारों का विश्लेषण करें तो लगता है कि कम्युनिस्ट विचारधारा फासिस्ट है जो अपना
जनतांत्रिक विरोध भी बर्दाश्त नहीं कर पाती है। फासिज्म का डर दिखाकर फलती फूलती
रहती है। बंगाल चुनावों में एक के बाद एक हार के बाद केरल ही उऩका अंतिम गढ़ बचा
है लेकिन जिस तरह से बीजेपी ने वहां अपनी मुहिम को परवान चढ़ाया है तो ये देखना
दिलचस्प होगा कि 2019 में वामपंथ का किला बच पाता है या उसमें भी सेंध लग जाती है।
1 comment:
जबर्दस्त लेख।
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