पिछले वर्ष हिंदी के शीर्षस्थ आलोचक नामवर सिंह का
नब्बेवां जन्मदिन धूमधाम के साथ दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र
में मनाया गया था। दिनभर चले इस कार्यक्रम में कई विद्वान लेखकों, विचारकों और
केंद्रीय मंत्रियों के भाषण आदि भी हुए थे। नामवर जन्मोत्सव के दिन ही महात्मा
गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘बहुवचन’ का नामवर
सिंह पर केंद्रित भारी भरकम विशेषांक विमोचित हुआ था। पत्रिका की चर्चा हुई, उसमें
छपे लेखों की चर्चा हुई। अब महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने ‘बहुवचन’ के नामवर सिंह पर केंद्रित अंक को
पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया है जिसके संपादक विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश्वर
मिश्र और उसी विश्वविद्यालय के हिंदी और तुलनात्मक साहित्य विभाग के विभागाध्यक्ष
कृष्ण कुमार सिंह हैं । पुस्तक के प्राक्कथन में गिरीश्वर मिश्र ने स्वीकार किया
है कि ‘यह सामग्री ‘बहुवचन’ के एक विशेष अंक में प्रकाशित हुई । शीघ्रता में उसमें कुछ त्रुटियां रह
गई थीं। उसका लोकार्पण दिल्ली में 28 जुलाई को आयोजित गोष्ठी और इंदिरा गांधी
राष्ट्रीय कला केंद्र के संस्कृति संवाद में किया गया। तभी यह लगा कि यह सामग्री
ऐतिहासिक महत्व की है और इसे पुस्तकाकार प्रकाशित करना उपयोगी होगा। आशा है ‘हिंदी के नामवर’ नामवर जी के बहाने हिंदी की आलोचना
यात्रा, उसकी संस्कृति, विकृति और निष्पत्ति को समझने में सहायक होगी।‘
यहां तक तो सबकुछ सामान्य लग रहा है। विश्वविद्लाय
की एक पत्रिका ने विशेषांक छापा और फिर उसे पुस्तकाकार प्रकाशित करवा दिया गया। लेकिन
सतह पर यह जितना सामान्य दिख रहा है उतना है नहीं। पुस्तक प्रकाशन में लेखकों के
साथ छल है। पत्रिका के लिए लिखवाए गए लेख को पुस्तकाकार छापने के पहले लेखकों से
लिखित अनुमति लेनी चाहिए थी, जो नहीं ली गई। दूसरे जब प्रकाशित पुस्तक मेरे पास
पहुंची तो देखा कि इस पुस्तक का कॉपीराइट महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय के पास है। जबकि कानूनन इस पुस्तक की कॉपीराइट लेखकों के पास होनी
चाहिए। अगर लेखकों से कॉपीराइट विश्वविद्यालय ने ली है तो उसके एवज में लेखकों को
भुगतान किया जाना चाहिए था। वो भी नहीं हुआ। महात्मा गांधी के नाम पर बने एक
केंद्रीय विश्वविद्लाय के कुलपति के संपादन में निकली पुस्तक में कानून का पालन
नहीं होना हैरान करनेवाला है। अगर कुलपति ने यह महसूस किया था कि ‘बहुवचन’ के
विशेषांक में प्रकाशित सामग्री ऐतिहासिक महत्व की है और उसको पुस्तकाकार प्रकाशित
करवाना चाहिए तो फिर उनको पूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन करना चाहिए था। विश्वविद्यालय
ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया और उसका व्यावसायिक उपयोग होगा, क्योंकि पुस्तक पर
मूल्य के तौर पर सात सौ पचास रुपए अंकित है। लेखकों से पत्रिका के लिए लिखवाकर,
बगैर उनकी अनुमति के व्यावसायिक उपयोग के छापी गई यह पुस्तक कॉपीराइट एक्ट का
उल्लंघन है। यह शीघ्रता में त्रुटि का केस भी नहीं है। यह मानना भी मुश्किल है कि
किसी विश्वविद्लाय के कुलपति से इस तरह की लापरवाही हो गई, क्योंकि लापरवाही से कॉपीराइट
विश्वविद्यालय के पास नहीं पहुंच सकता है। अगर कॉपीराइट लेखकों के पास होता तब भी
माना जा सकता था कि किसी स्तर पर लापरवाही या जानकारी के आभाव में ऐसा हुआ लेकिन
यहां तो ऐसा प्रतीत होत है कि सबकुछ जानते बूझते किया गया है। नियमों का पालन करते
हुए भी इस ‘ऐतिहासिक महत्व’ की पुस्तक
का प्रकाशन किया जा सकता था। यह पुस्तक महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय, वर्धा और संपादक द्वय के माथे पर एक ऐसा धब्बा है जिसमें लेखकों के
अधिकारों का हनन चिन्हित है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बात के प्रकाश में आने के
बाद विश्वविद्यालय अपनी गलती सुधार लेगा।
दरअसल महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से
प्रकाशित ये पुस्तक तो एक उदाहरण मात्र है, हिंदी प्रकाशन जगत में इस तरह के छल
छद्म बहुत हो रहे है। साहित्यक पत्रिकाओं के विशेषांकों की पुस्तकें फौरन बाजार
में आ जाती हैं। लेखकों की अनुमति आदि की फिक्र होती ही नहीं है। राजेन्द्र यादव
के संपादन में प्रकाशित ‘हंस’ के कई विशेषांक पुस्तकाकार
प्रकाशित हुए जिनकी कॉपीराइट लेखकों के पास नहीं है। सिर्फ ‘हंस’ ही क्यों, अन्य साहित्यक पत्रिकाओं के संपादकों ने भी
ये काम किया। कई साहित्यक पत्रिकाएं तो पुस्तक को ध्यान में रखकर ही अपने
विशेषांकों की योजना बनाती हैं और उसको प्रकाशित करती हैं। बगैर किसी मेहनत के
पुस्तक तैयार। अगर कुछ बिक-बिका गई तो बल्ले-बल्ले। इस काम में इन साहित्यक
पत्रिकाओं के संपादकों को कुछ प्रकाशकों का भी सहोग मिलता है। हासिल क्या होता है
यह तो पता नहीं लेकिन साहित्य में गैरे पेशेवर रवैये को बढ़ावा अवश्य मिलता है।
पत्रिकाओं के अलावा जो दूसरा बड़ा साहित्यक घपला है वो है संचयन
प्रकाशित करने का। संचयन में किसी भी लेखक की रचनाओं से चुनकर कुछ रचनाओं को
संकलित और प्रकाशित किया जाता है। चयन और संकलन के लिए एक अदद संपादक भी होता है।
कई बार लेखक तो कई बार संपादक को कॉपीराइट मिल जाता है। अब यहां इसको समझने की
जरूरत है। किसी लेखक की कुछ किताबें किसी प्रकाशक के पास है, कुछ किताबें किसी
अन्य प्रकाशक के पास हैं और फिर जब संचयन छपता है तो वो तीसरे प्रकाशक के यहां से
प्रकाशित होता है। होता यह है कि लेखक संचयन छपने की अनुमति तो दे देता है लेकिन
वो अपने मूल प्रकाशक से उसकी अनुमति नहीं लेता है। दरअसल संचयन छापकर ना तो पाठकों
का भला होता है और ना ही मूल प्रकाशकों का, हां, जो प्रकाशक संचयन छापता है उसको
अवश्य फायदा हो जाता है कि अमुक बड़े लेखक की किताब उसके पास से प्रकाशित हुई है। बिक्री
भी हो जाती है, उसका भी लाभ मिलता है वो अलग। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
संचयिता के प्रकाशन के वक्त भी महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्विद्यालय को कानूनी
पचड़े में फंसना पड़ा था। राधावल्लभ त्रिपाठी के संपादन में पुस्तक का प्रकाशन हो
गया था। इसी दौरान द्विवेदी जी के बेटे ने विश्वविद्यालय पर केस कर दिया था। बाद
में प्रकाशक की सूझबूझ से दोनों पक्षों में समझौता हुआ था।
हिंदी में कॉपीराइट को लेकर अजीब सी अराजक स्थिति
है। हिंदी पाठकों के सामने इस तरह के कहानी संग्रह आते रहें हैं जिनके नाम हैं-
मेरी श्रेष्ठ कहानियां, मेरी सर्वश्रेष्ठ कहानियां, मेरी प्रिय कहानियां, मेरी
पांच कहानियां, मेरी पसंदीदा कहानियां आदि और उसके बाद मेरी संपूर्ण कहानियां। और
तो और अब तो गौरतलब कहानियां भी प्रकाशित होने लगी हैं। इन सारे संग्रहों में घूम
फिर कर वही कहानियां छपती रहती हैं, जो अलग अलग प्रकाशकों के यहां से अलग अलग
नामों से छपती रही हैं। लेखक को थोड़ी बहुत रॉयल्टी सबके यहां से मिलती होगी लेकिन
हर प्रकाशक खुश रहता है। पाठकों के साथ छल होता रहता है। अगर नाम देखकर पाठक ने
कोई संग्रह खरीद लिया तो उसको निराशा हाथ लग सकती है। लेखक और प्रकाशक दोनों इस
स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। हिंदी में ज्यादातर लेखकों की प्रिय, अप्रिय,
पसंदीदा कहानियां जैसे संग्रह हैं। कॉपीराइट की फिक्र ना लेखक को और ना ही प्रकाशक
को। एक और विषम स्थिति तब उत्पन्न होती है जब किसी लेखक को साहित्य अकादमी
पुरस्कार मिल जाता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलते ही अन्य भारतीय भाषाओं में
पुरस्कृत लेखक की कृति का प्रकाशन होता है। उस वक्त भी कई बार कॉपीराइट को लेकर
लेखक उसके मूल प्रकाशक और अकादमी के बीच विवाद खड़ा हो जाता है।
दरअसल अगर हम देखें तो हिंदी प्रकाशन जगत में प्रोफेशनलिज्म
की बहुत आवश्यकता है। चंद प्रकाशकों को छोड़ दें तो अब भी लेखक और प्रकाशक के बीच
एग्रीमेंट नहीं होता है। लेखक-प्रकाशक के बीच के एग्रीमेंट का कोई मानक नहीं है, और
वो समय के साथ अपडेट होता है इस बारे में मुझे पक्की जानकारी नहीं है लेकिन संदेह
है कि ऐसा होता होगा। कॉपीराइट कानून को लेकर भी लेखकों और प्रकाशकों में जागरूकता
होनी चाहिए। होना तो ये चाहिए कि साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी और राज्य अकादमियों
जैसी संस्थाएं इन विषयों पर भी सेमिनार, गोष्ठी आदि करे जिसमें कॉपीराइट कानून के
जानकारों को बुलाकर उनके व्याख्यान करवाए जाएं। इस तरह के आयोजन नियमित अंतराल पर
किए जाने चाहिए ताकि हर पीढ़ी के लेखकों और प्रकाशकों को कॉपीराइट के बारे में
जानकारी हो, वो दोनों अपने-अपने अधिकारों को समझ सकें और उसके लिए बातचीत कर सकें।
हिंदी प्रकाशन जहत के लिए प्रोफेशनलिज्म बहुत आवश्यक है क्योंक् अगर हिंदी को
विश्व भाषा बनाने के संकल्प है तो फिर उसमें प्रकाशकों की बड़ी भूमिका होनेवाली
है। विश्वविद्यालयों से उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि वहां कब क्या और कैसे
हो जाता है यह किसी को पता नहीं रहता। नामवर पर जो ऐतिहासिक महत्व की सामग्री को
पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है उसकी जिम्मेदारी किसकी है, किसे मालूम?
2 comments:
बड़ी ही संवेदनशील और दुखती रग पर हाथ रखा है अनंत जी आपने। कॉपीराइट की जानकारी ही नहीं है अधिकांश को। और है भी तो प्रकाशन के गडबडझाले में सब गड़बड़ाया सा रहता है। सच कहूँ तो साहित्य लेखन से धन की उम्मीद करना इस व्यवस्था में तो बेमानी सा ही लगता है। फिर भी कभी कभार कोई पूछ ही लेता है तो उनकी नादानी और बेशर्मी पर कुछ कहते नहीं बनता। हाँ चुनिंदा वरिष्ठ लेखक ज़रूर अपवाद हैं। सो अपवाद कहाँ नहीं होते?
एक प्रकाशक महोदय ने कहा -
यहाँ unprofessionalism बहुत है - और लेखक को इस बात से समझौता करके न केवल अपने अधिकारों बल्कि अपने आत्मसम्मान को भी अनदेखा कर देना चाहिए।
कितनी गलत बात है ! - जब खुद प्रकाशक ही ऐसा कहे तो लेखन ( वह भी नए ) किससे बदलाव की उम्मीद रखेंगे ?
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