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Sunday, October 22, 2017

फिक्शन और वैचारिकी का द्वंद्व

वर्ष 2017 के लिए जब मैन बुकर प्राइज अमेरिकी लेखक जॉर्ज सांडर्स को उनके उपन्यास लिंकन इन द बार्डो को दिया गया तो एक बार फिर से जूरी के सदस्यों ने पुरस्कार के उच्च मानदंडों को मजबूक किया । पांच लेखक इस पुरस्कार के लिए शॉर्ट लिस्ट थे जिनमें से जॉर्ज सांडर्स को ये पुरस्कार दिया गया। मैन बुकर प्राइज को लेकर पूरी दुनिया में एक उत्सकुता का माहौल रहता है और माना जाता है कि इसकी जूरी उसी कृति का चुनाव करती है जिसने सचमुच साहित्य की दुनिया में नई जमीन तोड़ी है। नया भाषागत प्रयोग, नया फॉर्म, नया विषय या नया ट्रीटमेंट वाले लेखक ही मैन बुकर प्राइज हासिल कर पाते हैं। इस वर्ष के जूरी के सदस्यों ने भी इस परंपरा को कायम रखा और अपने बयान में कहा कि सैंडर्स का उपन्यास उनके सामने एक चुनौती की तरह था। उनके पास कोई विकल्प नहीं बचा था कि मैन बुकर प्राइज किसी और को दिया जाए। जूरी की अध्यक्ष ने इस कृति तो असाधारण करार दिया। तीन साल पहले इस पुरस्कार को अमेरिकी लेखकों के लिए भी खोला गया था और उसके बाद से दो अमेरिकी लेखकों को ये पुरस्कार मिल चुका है। पॉल बेयटी को भी उनके उपन्यास पर पचास हजार डॉलर का मैन बुकर प्राइज मिल चुका है। अगर हम जॉर्ज सैंडर्स के उपन्यास को देखें तो इसका विषय और उस विषय का ट्रीटमेंट भी अलग है। जॉर्ज सैंडर्स का उपन्यास लिंकन इन द बार्डो एकदम नए विषय और सही घटना पर आधारित है। लिंकन इन द बार्डो में उपन्यासकार ने 1862 में अब्राहम लिंकन के ग्यारह वर्षीय बेटे की मौत के बाद वाशिंगटन डीसी के कब्रिस्तान में दफनाने की घटना से उठाया है। मैन बुकर प्राइज मिलने के बाद सैंडर्स ने बताया कि अब्राहम लिंकन के बेटे के दफनाने की घटना को जब उन्होंने सुना और उनको पता चला कि लिंकन बार बार कब्रगाह जाया करते थे तो उनके जेहन में इस उपन्यास ने आकार लेना शुरू कर दिया था । लेकिन उसको लिखन में काफी वक्त लगा और लंबे अंतराल के बाद जब ये उपन्यास प्रकाशित हुआ तो अपनी विषयगत नवीनता को लेकर पाठकों और आलोचकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। लेखक ने डर को और फिर उस डर से निबटने के मनोविज्ञान और स्थितियों को अपने इस उपन्यास का केंद्रीय थीम बनाया है। पुरस्कार मिलने के बाद उन्होंने स्वीकार भी किया कि हम एक अजीबोगरीब समय में रह रहे हैं जहां डर से छुटकारा पाने के लिए या तो हम हिंसा की ओर जाते हैं या फिर बहिष्कार का रास्ता अपनाते हैं। सैंडर्स को लगता है कि जिस तरह से पहले डर को प्यार से जीतने की कोशिश होती थी वो अब नहीं हो रही है।अपने डर को लोग दूसरों को डराकर या हराकर दूर करना चाहते हैं। तमाम तरह की ऐसी घटनाएं उनके उपन्यास में प्रतिबिंबित होती हैं। लिंकन के बेटे की कब्र से कहानी को उठाकर लेखक बौद्ध धर्म में वर्णित मृत्यु और उसके बाद पुनर्जन्म के बीच के काल को समेटता चलता है। उपन्यास का कालखंड वो है जब अब्राहम लिंकन अमेरिका में अपनी पहचान को लेकर संघर्ष कर रहे थे। लिंकन के समय का संघर्ष भी इस उपन्यास में बार बार लौट कर आता है। लिंकन इन द बार्डो में सांडर्स ने कई पुरानी घटनाओं का, पत्रों का, इतिहास की पुस्तकों का हवाला भी दिया है। यह उपन्यास अमेरिकी साहित्य जगत में मील का पत्थर साबित होगा।
जब गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के प्रकाशन के बीस साल बाद अरुंधति का दूसरा उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस। छपा था तब से इस बात की चर्चा शुरू हो गई थी कि उनके नए उपन्यास को मैन बुकर प्राइज मिल सकता है।  अरुंधति राय ने पिछले दो दशकों में अपने एक्टिविज्म से एक अलग ही तरह का वैश्विक पाठक वर्ग तैयार किया है। अरुंधति राय का पहला उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स उन्नीस सौ सत्तानवे में आया था, जिसपर उन्हें मैन बुकर पुरस्कार मिला था। यह भारत में रहकर लेखन करनेवाले किसी लेखक को पहला बुकर था। पूरी दुनिया में अरुंधति राय के नए उपन्यास का इंतजार था, भारत में भी उनके पाठकों को और उनकी विचारधारा के लोगों को भी। दो उपन्यासों के प्रकाशन के अंतराल के बीच अरुंधति ने कश्मीर समस्या, नक्सल समस्या, भारतीय जनता पार्टी खासकर नरेन्द्र मोदी के उभार पर बहुत मुखरता से अपने विचार रखे थे। उनके इस तेवर को आधार बनाकर ही उनके समर्थकों ने उनको वैश्विक स्तर का विचारक करार दिया। अरुंधति का अपना एक पक्ष है, उनके अपने तर्क हैं, जिससे सहमति या असहमति एक अलहदा मुद्दा है लेकिन वो बहुधा विचारोत्तेजक होते हैं । इस वैचारिक मुखरता की वजह से उनकी एक रचनात्मक लेखक के रूप में उपस्थिति थोड़ी कमजोर पड़ गई । जितनी मुखरता से वो भारत की उपरोक्त समस्याओं पर अपने विचारों को प्रकट करती रही हैं, तो यह लाजमी था कि ये सब विचार किसी ना किसी रूप में उनके उपन्यास में आएं। आए भी हैं। द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस के पात्रों की पृष्ठभूमि इन्हीं इलाकों से है। पात्रों के संवाद के केंद्र में भी बहुधा इन समस्याओं को लेखिका जगह देती चलती हैं।
अरुंधति का यह उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस रोचक तरीके से शुरू होता है । शुरुआत एक लड़के की कहानी से होती है कि किस तरह से उसके अंदर स्त्रैण गुण होता है और अंतत: वो किन्नरों के समूह में शामिल हो जाता है। अगर हम जॉर्ज सैंडर्स की उपन्यास से इस उपन्यास की तुलना करें तो शुरुआत में दोनों में एक मजबूत टक्कर दिखाई देती है, लेकिन जॉर्ज सैंडर्स अपने उपर अपने विचारों को हावी नहीं होने देते हैं, जबकि अब्राहम लिंकन के वक्त अमेरिका में काफी उथल पुथल थी, वैचारिक टकराहट भी जमकर हो रहे थे। लेकिन सैंडर्स की तुलना में अरुंधति ने अपने उपन्यास में वैचारिकी को हावी होने दिया। नतीजा यह हुआ कि अरुंधति का एक्टिविस्ट उनके लेखक पर हावी होता चला गया। किन्नरों के बीच के संवाद में यह कहा जाता है कि दंगे हमारे अंदर हैं, जंग हमारे अंदर है, भारत-पाकिस्तान हमारे अंदर है आदि आदि। अब इस तरह के बिंबों के बगैर भी बात की जा सकती थी, रोचक और दिलचस्प तरीके से किन्नरों के अंदर और बाहर का संघर्ष दिखाया जा सकता था। लेकिन कहानी जैसे जैसे आगे बढ़ती है तो लेखक पर एक्टिविस्ट पूरी तरह से हावी हो जाता है। फिक्शन की आड़ लेकर जब अरुंधति कश्मीर के परिवेश में घुसती हैं तो उनकी भाषा बेहद तल्ख हो जाती है, बहुधा फिक्शन की परिधि को लांघते हुए वो अपने सिद्धांतों को सामने रखती नजर आती हैं। कश्मीर के हालात और कश्मीरियों के दुखों का विवरण देते हुए वो पाठकों को उस भाषा से साक्षात्कार करवाती हैं जिस भाषा से कोफ्त हो सकती है क्योंकि पाठक फिक्शन समझ कर इस पुस्तक को पढ़ रहा होता है। कश्मीर के परिवेश की भयावहता का वर्णन करते हुए वो लिखती हैं मौत हर जगह है, मौत ही सबकुछ है, करियर, इच्छा, कविता, प्यार मोहब्बत सब मौत है। मौत ही जीने की नई राह है । जैसे जैसे कश्मीर में जंग बढ़ रही है वैसे वैसे कब्रगाह भी उसी तरह से बढ़ रहे हैं जैसे महानगरों में मल्टी लेवल पार्किंग बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह की भाषा बहुधा वैचारिक पुस्तकों या लेखों में पढ़ने को मिलती है। यहीं आकर जॉर्ज सैंडर्स आगे बढ़ते चले गए और प्राथमिक सूची में आने के बावजूद अरुंधति का उपन्यास अंतिम पांच में भी जगह नहीं बना पाया।
अरुंधति का यह उपन्यास, दरअसल, कई पात्रों की कहानियों का कोलाज है। शुरुआत होती है अंजुम के किन्नर समुदाय में शामिल होने से। उसके बाद कई कहानियां एक के बाद एक पाठकों के सामने खुलती जाती हैं। केरल की महिला तिलोत्तमा की कहानी जो अपनी सीरियन क्रश्चियन मां से अलग होकर दुनिया को अपनी नजरों से देखती है। इस पात्र को देखकर अरुंधति के पहले उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स की ममाची की याद आ जाती है क्योंकि दोनों पात्र रंगरूप से लेकर हावभाव और परिवेश तक में एक है। अपने उपन्यास में अरुंधति ने ये बहताने की कोशिश की है कि किस तरह परिस्थियों के चलते श्मीरी युवक आतंकवादी बन जाते हैं। यहां पर एक बार फिर से संवाद के जरिए कश्मीर की ऐतिहासिकता को लेकर अरुंधति के विचार प्रबल होने लगते हैं । पाठकों पर जब इस तरह के विचार लादने की कोशिश होती है तो उपन्यास बोझिल होने लगता है, उसके विषय का ट्रीटमेंट गड़बडाने लगता है । एक बार फिर से यह बात पुख्ता हुई कि फिक्शन में ज्यादा वैचारिकी चलती नहीं है। यही हाल हिंदी के भी ज्यादातर उपन्यासों का है जहां वैचारिकी फिक्शन पर हावी होने लगती है।  



2 comments:

pritpalkaur said...

अरुंधती राय की नयी किताब की समीक्षा करते हुए आपने बड़ा मार्मिक प्रश्न उठाया है, अनंत जी. कई बार उपन्यास और कहानी पढ़ते हुए कई अंश छोड़ देती हूँ क्योंकि मेरे हिसाब से वे लेखक का भारी सा बैगेज उठाये हुए होते हैं... ये सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, निजी; कुछ भी हो सकता है. निजी बैगेज तो फिक्शन में समोहित किया जा सकता है. क्योंकि मूलतः फिक्शन कई तरह के अनुभवों के नतीजे में ही उपजता है. इसमें लेखक के निजी अनुभव तो होते ही हैं, उन पात्रों के भी निजी अनुभव होते हैं जो लेखक की कलम से जन्म ले कर स्थूल आकार में हमारे सामने एक पारदर्शी शीशे के पार अपनी ज़िंदगी जी रहे होते हैं. लेकिन धार्मिक और राजनैतिक बैगेज का बोझा पाठक पर डालना ज़रा अनुचित सा लगता है. मेरे विचार से... सामाजिक सरोकार भी परोसने होते हैं मगर इस तरह कि वे उतने बोझिल न हो जाएँ कि पाठक जाना छुड़ा कर भाग निकले. सो फिक्शन का काम है तो टेढ़ा... लेकिन जिसके मुंह ये खून लग जाए उसका भगवान् ही मालिक... लागी छूटे ना......

कौशल लाल said...

सटीक विश्लेषण