किसी भी देश की संस्कृति
में पुस्तकों का बड़ा योगदान माना जाता है। जर्मनी में जब नाजियों के ताकतवर होने
और उत्थान का दौर था तब भी पुस्तकें महत्वपूर्ण थीं। पुस्तकों के इतिहास में 10 मई
1933 को पूरी दुनिया में काला दिन के तौर पर याद किया जाता है। नाजीवादी ये मानते
थे कि साहित्य मनुष्य की भावनाओं को जगाता है और भावना लोगों को दुर्बल बनाती है। नाजियों
के उस दौर में जर्मनी में विश्व साहित्य की उन महत्वपूर्ण कृतियों को जला दिया गया
था, जिसके बारे में प्रचारित किया गया था कि वो जर्मनी के संस्कृति के खिलाफ है। इन
रचनाओं को जलाने का काम बर्लिन विश्वविद्यालय के प्रांगण में किया गया था। जर्मन
स्टूडेंट एसोसिएशन ने किताबें जलाने का काम देश के अन्य विश्वविद्यालयों में किया
था जो कि करीब महीने भर तक चलता रहा था। चूंकि पुस्तकों का जलाने का काम बर्लिन
विश्विविद्यालय से शुरु हुआ था इस वजह से इसको ‘बर्लिन बुक बर्निंग’ या ‘बर्लिन बुक ब्लास्ट’ के नाम से जाना जाता
है। जर्मनी के लोगों के दिमाग पर पुस्तकों को जलाने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना की छाप
थी और नाजियों के पतन के बाद वहां इस घटना पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। जिस दिन
किताबें जलाई गईं थीं उसी दिन बर्लिन विश्वविद्यालय के उसी जगह को विश्व भर की
किताबों से पाट दिया गया था। ये काम अब हर साल वहां किया जाता है । उसी स्थान पर
लोग तख्तियों पर उन लेखकों के नाम लिखकर जमा होते हैं जिनकी किताबें 1933 में जला
दी गई थी । बर्लिन में उस दिन को किताब उत्सव की तरह मनाया जाता है । हर जगह पर
लोग किताब पढ़कर एक दूसरे को सुनाते हैं, रेस्तरां से लेकर फुटपाथ
तक, चौराहों से लेकर
पार्कों तक में । यह विरोध का एक अनूठा तरीका है। विरोध की वजह से जर्मनी में
पुस्तक संस्कृति और मजबूत हुई। इस पूरी घटना को बताने का मकसद सिर्फ इतना बताना है
कि जर्मनी में पुस्तकों को लेकर कितना प्यार, आदर और अपनापन है। वहां की सरकारें
भी पुस्तकों की संस्कृति के विकास के लिए लगातार प्रयत्नशील रहती हैं। इसी तरह से
अगर हम देखें तो पुस्तकों को लेकर यूरोप के कई देशों में और अमेरिका में भी एक खास
किस्म का आकर्षण है। वैसे ये आकर्षण हमारे देश में भी था, किसी जमाने में हर शहर
में एक अच्छा पुस्तकालय हुआ करता था, साथ ही गांवों में भी कम से कम एक कमरे का
पुस्तकालय अवश्य होता था। कालांतर में ये पुस्तकालय बंद होते चले गए, शहरों के
पुस्तकालयों की हालत भी खस्ता हो गई।
भारत में पुस्तक
संस्कृति के विकास और पुस्तकालयों की व्यवस्था को मजबूत करने के लिए कई संस्थाएं
हैं। ऐसी ही एक संस्था है राजा राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन। यह संस्कृति
मंत्रालय से संबद्ध एक स्वायत्तशासी संस्था है। ये संस्था देशभर में सार्वजनिक पुस्तकालयों को
सहयोग करने और उसको मजबूत करने के लिए केंद्र सरकार की नोडल एजेंसी है। इस संस्था
का प्रमुख कार्य देशभर में पुस्तकालय संबंधित गतिविधियों को मजबूत करना तो है ही,
साथ ही राष्ट्रीय पुस्तकालय नीति और नेशनल लाइब्रेरी सिस्टम बनाना भी है। इस
संस्था के अध्यक्ष संस्कृति मंत्री या उसके द्वारा नामित व्यक्ति होते हैं। साथ ही
इसको सुचारू रूप से चलाने के लिए बाइस सदस्यों की एक समिति होती है जिसका मनोनयन
भारत सरकार करती है। इस समिति में प्रख्यात शिक्षाविद, लेखक, वरिष्ठ
पुस्तकालयाध्यक्ष, प्रशासनिक अधिकारी आदि मनोनीत होते हैं। राजा राम मोहन राय
लाइब्रेरी फाउंडेशन का एक मुख्य उद्देश्य राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों
के साथ पुस्तकालयों को मजबूत करने की दिशा में काम करना भी है। यह संस्था केंद्रीय
स्तर पर भी पुस्तकों की खरीद करती है और राज्य सरकारों को भी पुस्तकों की खरीद के
लिए धन मुहैया करवाती है। इसको मैचिंग ग्रांट भी कहते हैं जिसका मतलब होता है कि
अगर राज्य सरकार 25 लाख पुस्तकों की खरीद के लिए देती है तो फाउंडेशन भी 25 लाख की
राशि उस राज्य सरकार को देती है। फाउंडेशन का उद्देश्य बहुत अच्छा है लेकिन इस
संस्था की बेवसाइट पर जो जानकारी है वो इसके पिछड़ते जाने का संकेत देने के लिए
काफी है। संस्था की बेवसाइट के मुताबिक आखिरी प्रोजेक्ट 2011-12 में दिया गया था
और टैगोर फेलोशिप 2010-2012 तक के लिए दिया गया था। उसके बाद इस दिशा में कोई काम
नहीं हुआ, ऐसा प्रतीत होता है।
दरअसल ये संस्था मुख्यत: पुस्तकों की खरीद और
राज्य सरकारों को अनुदान देने तक सिमट गई है। राजा राममोहन राय फाउंडेशन में
पुस्तकों की जो खरीद होती है उसके कोई तय मानक नहीं है, मोटे तौर पर कुछ बिंदु हैं
जिनको खरीद के वक्त ध्यान रखना होता है। अलग अलग विधाओं और भाषाओं के लिए खरीद का
प्रतिशत तय किया गया है। सालभर प्रकाशक और लेखक अपनी पुस्तकों को इस संस्था में
जमा करवा सकते हैं और फिर उनकी एक सूची तैयार होती है। इस सूची को तैयार करने के
वक्त से ही गड़बड़ियां शुरू हो जाती है। लापरवाही का आलम ये कि अगर आपने डाक से
पुस्तकें भेजीं तो बहुत संभव है कि वो सूची में शामिल नहीं होंगी। पुस्तकों की
खरीद की कमेटी में इस वक्त संस्था के चेयरमैन समेत ग्यारह लोग हैं। मानक तय नहीं
होने की वजह से पुस्तकों की खरीद में अराजक स्थिति होती है। जिन पुस्तकों की कीमत
400 रु से कम होती है उसकी अधिकतम 350 प्रतियां खरीदे जाने की बात सुनी जाती है लेकिन
इन दिनों अराजकता का ये आलम है कि किसी भी पुस्तक की सत्रह, पच्चीस और चालीस
पुस्तकों की खरीद के ऑर्डर जा रहे हैं। इसके पीछे क्या सोच है, क्या वजह है, इस
बारे में देश की जनता को पता होना चाहिए। ये भी तय होना चाहिए कि किसी एक प्रकाशक
से कितनी पुस्तक ली जाएगी। यह अकारण नहीं हो सकता है कि किसी खास दौर में किसी खास प्रकाशक की
पुस्तकें ज्यादा खरीद ली जाती हैं। इसके अलावा यह भी देखने में आया है कि पुस्तक
खरीद कमेटी की जब बैठक होती है तो कुछ सदस्य कई दिन कोलकाता मुख्यालय में रुकते
हैं तो कुछ सदस्य दो एक दिन में ही वापस लौट जाते हैं। ऐसा क्यों होता है। क्या
पुस्तक खरीद कमेटी का कोई कोरम आदि होता है या सब भगवान भरोसे चल रहा है। होना तो
ये चाहिए कि पुस्तक क्रय समिति की हर बैठक के बाद खरीद के लिए चयनित पुस्तकों की
सूची और कमेटी के उपस्थित सदस्यों की जानकारी भी बेवसाइट पर डाल देनी चाहिए। राजा
राम मोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का सालाना बजट करीब 50 करोड़ रुपए है जो कि
करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा है। इसके साथ किसी भी तरह की गड़बड़ी करदाताओं के
साथ तो छल होगा ही, पुस्तकों की संस्कृति के निर्माण की दिशा में बाधक भी।
इसके अलावा एक और चीज पर
गौर करना आवश्यक है कि जो मैचिंग ग्रांट राज्य सरकारों को दी जाती है उस अनुदान की
उपयोगिता और बेहतर पुस्तकों की खरीद में फाउंडेशन का कितना दखल होता है। नियमानुसार
फाउंडेशन के चेयरमैन का एक प्रतिनिधि राज्य स्तरीय बैठक में होना चाहिए लेकिन
कितने होते हैं। बहुधा नहीं होते हैं। अंग्रेजी की किताबों की स्तरीयता को लेकर कई
बार पूर्व में भी सवाल उठे हैं। कट-पेस्ट के दौर में पुस्तकें बहुत आसानी से तैयार
हो जाती है, पुस्तक खरीद समिति क पास उसकी स्तरीयता को जांचने का कोई मैकेनिज्म
होता है क्या ? दरअसल सस्कृति
मंत्रालय के अंतर्गत चलनेवाली कई स्वायत्त संस्थाओं के काम-काज को लेकर काफी सवाल
उठते रहे हैं। इनमें से ज्यादातर के साथ बजट की उपयोगिता को लेकर एक एमओयू भी है,
उसपर संबंधित संस्थाओं की सहमति भी है, लेकिन हकीकत में तस्वीर कुछ अलग होती है। यह
अकारण नहीं है कि पुस्तकों की खरीद पर भारी भरकम रकम खर्च हो रही है लेकिन पुस्तक
संस्कृति का ह्रास हो रहा है। पुस्तक संस्कृति के विकास, उसके उन्नयन के लिए
राष्ट्रीय पुस्तकालय नीति का होना आवश्यक है। राजा राममोहन राय फाउंडेशन के
उद्देश्यों में ये शामिल भी है। इस नीति को बदलते वक्त के साथ अपडेट करना होगा,
पाठकों की रुचि का ध्यान रखना होगा। पुस्तकों की गुणवत्ता और उसकी सरकारी खरीद के
लिए बेहद सख्त नियम बनाने होंगे। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन जैसी
संस्थाओं की जबावदेही संस्कृति मंत्रालय पर है। क्या संस्कृति मंत्रालय से ये
उम्मीद की जा सकती है कि वो देश में पुस्तकालयों की वर्तमान हालात पर ध्यान देगी? जितनी जल्दी, उतना
बेहतर।