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Saturday, June 30, 2018

स्थापित उद्धेश्यों से भटकती संस्था

भारत सरकार की एक संस्था है नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (एनएफडीसी)। सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध इस संस्था की स्थापना उसी वर्ष हुई जिस वर्ष देश में इमरजेंसी लगाई गई थी यानि 1975। ये संस्था पिछले कुछ दिनों से गलत वजहों से चर्चा में है। तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने इस संस्था की चीफ नीना लाठ को भ्रष्टाचार के आरोप में हटा दिया था। बाद में नीना कोर्ट चली गईं और मामला वहां विचाराधीन है। इस कार्रवाई के पहले भी इस संस्था की गड़बड़ियों की खबरें आती रहती थी, कभी किसी फिल्म को वित्तीय सहायता देने को लेकर तो कभी किसी छोटे मोटे आयोजन को लेकर। इसके पहले इस तरह की खबरें भी आईं कि एनएफडीसी, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया और अन्य फिल्म से संबंधित संस्थाओं को मिलाकर एक नई संस्था बना दिया जाएगा। चर्चा तो इस बात की भी है कि इस बारे में कैबिनेट नोट भी तैयार हो गया था लेकिन चुनावी वर्ष होने की वजह से अब शायद ही इस पर फैसला हो सके। वैसे यह प्रस्ताव बहुत कुछ मौजूदा सूचना और प्रसारण मंत्री की सोच पर भी निर्भऱ करता है कि वो इसको कितना आगे बढ़ाना चाहते हैं। खैर ये अलहदा मुद्दा है जो कि राज नीति के हिसाब से तय होगी। हम चर्चा इस बात पर करेंगे कि नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन अपनी स्थापना के समय तय किए गए उद्देश्यों की कसौटी पर कितना खड़ा उतर रहा है।एनएफडीसी की बेवसाइट पर इसके मिशन और उद्देश्य दोनों प्रकाशित हैं। मिशन के बारे में लिखा है- एनएफडीसी का लक्ष्य सिनेमा में उत्कृष्टता के लिए के लिए परिवेश निर्मित करना और इसकी विभिन्न भाषाओं में बनी फिल्मों को सहायता और प्रोत्साहन देते हुए भारत की सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देना है। मिशन के अलावा बेवसाइट पर उद्देश्य भी लिखा हुआ है। इस संस्था के मूल्यांकन के पहले इसके उद्देश्यों पर भी गौर करना आवश्यक है। उद्देश्य में उल्लिखित है कि- कौशल का विकास और सभी भाषाओं में निर्माण व सह-निर्माण, पटकथा लेखन का विकास और आवश्यकता आधारित कार्यशालाओं के जरिए भारतीय सिनेमा के विकास को सहायता देना। इसके अलावा दो और उद्देश्य बताए गए हैं, पहला है भारत और विदेश में सिनेमा के जरिए भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देना और दूसरा एक चुस्त और लचीले संगठन का निर्माण जो कि भारतीय फिल्म उद्योग की जरूरतों के प्रति क्रियाशील हो।
इससे भी एक दिलचस्प जानकारी इस संस्था की बेवसाइट के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित है कि इसने पिछले कई वर्षों में भारत के कुछ सबसे सम्मानित फिल्मकारों के साथ काम किया है जिसमें सत्यजीत रे, मीरा नायर, अपर्णा सेन, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, मृणाल सेन, रिचर्ड अटनबरो, अदूर गोपालकृष्णन और केतन मेहता शामिल हैं। अब अगर हम इस सूची पर विचार करें तो इसमें मौजूदा दौर के नए निर्देशक कोई नहीं नजर आता है। बेवसाइट की बैनर पर अंग्रेजी में कहते हैं का पोस्टर जरूर लगा है कि जोकि मई में रिलिज हुई थी और इसके डायरेक्टर हरीश व्यास हैं। इसके अलावा जयदीप घोष की माया बाजार, प्रिया कृष्णस्वामी की गंगूबाई जैसी फिल्में भी विज्ञापित हैं। इन फिल्मों के आधार पर अगर मिशन और उद्देश्य को देखते हैं तो एक प्रश्न मन में खड़ा होता है कि इन फिल्मों ने किस तरह का कौशल विकास किया, फिल्मों के माध्यम से कैसे भारतीय संस्कृति को मजबूत किया। पिछले कुछ वर्षों में जिन निर्देशकों के नाम यहां विज्ञापित हैं उसके बाद से जिस तरह की फिल्मों का निर्माण करने में एनएफडीसी सहायक रहा है उसने फिल्म संस्कृति को कैसे विकसित किया। संस्था की स्थापना के 43 साल बाद अगर इस संस्था के सहयोग से कमजोर फिल्मों का निर्माण हो रहा है तो ना तो ये संस्था अपने मिशन में ना ही इसके उद्देश्यों को हासिल करने में कामयाब हो रही है। करदाताओं का पैसा किस तरह से उपयोग में लाया जा रहा है, इस बारे में भी सरकार को विचार करने की जरूरत है। इस संस्था को फिल्म संस्कृति के विकास के लिए, सिनेमा में उत्कृषटा के लिए परिवेश निर्मित करना था। फिल्मों से जुड़े लोगों का मानना है कि ये संस्था अपने स्थापित उद्देश्यों से भटक गई है और अच्छी फिल्मों के निर्माण के सहयोग से ज्यादा अब ये सरकार की विज्ञापन एजेंसी हो गई है। सरकार और सार्वजनिक कंपनियों के प्रचार प्रसार में इसकी रुचि ज्यादा है।
पिछले कुछ सालों में एनएफडीसी ने क्या उल्लेखनीय कार्य किया है ये भी ज्ञात नहीं हो पा रहा है। क्या इसने किसी ऐसी कहानी का चुनाव किया या ऐसी फिल्म बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसको बनाने में वॉलीवुड कामयाब नहीं हो पाया। जाने भी दो यारो या परिणति जैसी कौन सी फिल्म एनएफडीसी के खाते में आई।एक जमाना था जब एनएफडीसी के कर्ताधर्ता उस तरह की कहानियों को तलाशते थे जिसपर मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म नहीं बनाता था या नहबीं बना पाता था। हिंदी के बेहतरीन कथाकार विजयदान देथा की कहानी पर फिल्म बनावाई गई थी। क्या आज ऐसा सोचा भी जा रहा है या सोचा भी जा सकता है। लगता तो नहीं है। आज अगर असमिया की फिल्म विलेज रॉकस्टार नेशनल अवॉर्ड जीतती है तो वो अपने बूते पर। कहानी की पहचान कर उसको रूपहले पर्द तक लाने में एनएफडीसी नाकाम रही है। आज सिनेमा निर्माण में तकनीक की बेहद अहम भूमिका है। नए फिल्म निर्माताओं को तकनीकी तौर पर समृद्ध करने के लिए एनएफडीसी कितनी कार्यशालाएं आयोजित करती है, एनिमेशन के बदसते स्वरूप पर विशेषज्ञों के साथ कितने वर्कशॉप हुए। देश के किन हिस्सों, किस किस भाषा के फिल्म निर्माताओं से संपर्क कर कौशल विकास के लिए प्रयास करती है इसको भी बताया जाना चाहिए। एनएफडीसी से अंग्रेजी में एक पत्रिका निकालती थी- सिनेमा इन इंडिया। सिनेमा प्रेमियों को उम्मीद थी कि अंग्रेजी के बाद ये पत्रिका हिंदी और अन्य भाषाओं में निकलेगी लेकिन निकल रही पत्रिका भी बंद हो गई। कौन है इसका जिम्मेदार। पत्रिका को बंद करने के पीछे की वजह को जानने का हक भारत की उस जनता को है जिसके पैसे पर ये संस्था चल रही है।
सिनेमा में उत्कृष्टता के लिए परिवेश निर्माण के लिए जरूरी होता है कि दर्शकों को सिनेमा से जोड़ा जाए। पिछले एक दशक में पूरे देश में सिंगल थिएटर एक एक करके बंद हो गए या उसका स्वरूप बदल गया। मैं बिहार के एक छोटे से शहर जमालपुर में पैदा हुआ और भागलपुर में पढ़ा। जमालपुर और भागलपुर में जितने सिंगल थिएटर थे सब बंद हो गए एक दो को छोड़कर। जमालपुर के अवंतिका सिनेमा हॉल में हमने दर्शकों की जो दीवनगी देखी है या भागलपुर के महादेव टॉकीज में जिस तरह फिल्मों को लेकर छात्रों का हुजूम उमड़ता था वैसा दृश्य अब सिर्फ संस्मरणों में ही है। क्या कभी एनएफडीसी ने इस ओर ध्यान दिया कि सिंगल थिएटर के बंद होने से भारतीय सिनेमा को कितना नुकसान हो रहा है। क्या इस बारे में उन इलाकों में जाकर कोई चर्चा आयोजित की गई, वहां के दर्शकों की राय ली गई। क्या कभी इस बारे में सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सलारह के रूप में कोई कार्ययोजना दी गई। करोडों के बजट वाली इस संस्था के बारे में भारत सरकार को गंभीरता से विचार करना चाहिए और सिनेमा के माध्यम से अगर भारतीय संस्कृति को मजबूत करना है तो इसकी चूलें कसनी होंगी। राजनीति और व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर कठोर फैसले लेने होंगे  ताकि करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा बर्बाद ना हो।
एनएफडीसी अगर अपने स्थापित उद्देश्यों से भटक गई है तो ये करदाताओं के साथ छल है। उनकी गाढ़ी कमाई को गलत जगह पर गलत तरीके से खर्च करने का अपराध भी। जिसकी सर्वोच्च स्तर पर जांच होकर जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। पिछले कई सालों में इस संस्था के कामकाज को लेकर कई कमेटियों ने ऑडिट आदि किया लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। या संभव है कि नतीजा नहीं निकलने दिया गया हो। संभव है कि इसी गड़बड़झाले की वजह से नीति आयोग ने इस तरह की संस्थाओं को बंद करने का प्रस्ताव किया हो। संस्था बंद होती है या नहीं ये तो सरकार तय करेगी लेकिन फिल्मों के उत्कृष्ट परिवेश को बनाने के लिए और सिनेमा के माध्यम से भारतीय संस्कृति को पूरी दुनिया के सामने पेश करना है तो इस निगम को अकर्मण्यता के दलदल से बाहर निकालना होगा और गतिशील बनाना होगा। इसके लिए वहां के कर्ताधर्ताओं की जिम्मेदारी तय करनी होगी क्योंकि अराजक स्वायत्तता लोकतंत्र में मंजूर नहीं होती है। 

Friday, June 29, 2018

लेखन का ज्वांइट वेंचर


बेस्टसेलर लेखक अमीश ने अपनी नई किताब, सुहैलदेव और बहराइच का महासंग्राम का एलान किया था। इस किताब के बारे में बात करते हुए अमीश ने एक चौकानेवाली जानकारी साझा की। उन्होंने बताया कि विकास सिंह उनके सहलेखक हैं। पुस्तक का जो कवर जारी किया गया था उसमें भी अमीश के साथ छोटे आकार में सहलेखक के रूप में विकास सिंह का नाम छपा है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि अमीश किसी के साथ मिलकर किताब लिख रहे हैं। रचनात्मक लेखन में यह नए तरह के ट्रेंड की शुरुआत है। अमीश के मुताबिक उन्होंने भारतीय गाथाएं श्रृंखला के लिए अलग अलग लेखकों को सहलेखक के तौर पर रखा है। इस योजना में अमीश सहलेखक के साथ आइडिया साझा करते हैं,सहलेखक उस आइडिया और विषय से संबंधित शोध अमीश की सोच के हिसाब से किताब लिखता है। जब किताब तैयार हो जाती है तो अमीश उसको देखते हैं और भाषा और कथ्य में अपने लेखन के स्टाइल के हिसाब से बदलाव कर फाइनल करते हैं। सुहैलदेव और बहराइच का महासंग्राम भी इसी तरह से लिखा गया है। अमीश का कहना है कि इस तरह से लिखकर वो हर छह महीने पर अपनी किताब पाठकों के लिए प्रस्तुत कर सकेंगे। भारतीय प्रकाशन जगत के लिए यह एक नया ट्रेंड है जहां लेखक अपनी सोच को अमली जामा पहनाने के लिए एक सहलेखक रखता है। बातचीत में अमीश ने बताया कि किताब पूरी तरह से उनकी होगी, पाठकों को कहीं से ये नहीं लगेगा किसी और ने इसका लेखन किया है। सहलेखक के होने से यह सहूलियत होगी कि मूल लेखक विषय के रिसर्च और पहले ड्राफ्ट की मेहनत से बच जाएगा और अपना अधिक समय आइडिएशन और नए प्लॉट की तलाश में लगा सकेगा।
भारत के लिए यह ट्रेंड भले ही नया हो लेकिन विदेशों में इससे मिलता जुलता प्रयोग काफी सफल रहा है। मशहूर अपराध कथा लेखक जेम्स पैटरसन तो इसको और भी व्याप्क रूप से अपने लेखन के साथ जोड़ते हैं। अपने उपन्यास प्राइवेट की सीरीज के लिए पैटरसन ने कई देशों में सहलेखक रखा वहां की स्थानीय कहानी को अपने स्टाइल में लिखा जा सके। 2014 में जेम्स पैटरसन को जब मुबंई को केंद्र में रखकर अपना उपन्यास लिखना था तो उन्होंने अश्विन सांघी को अपना सहलेखक रखा था। जेम्स पैटरसन सहलेखक को कहानी लेकर आने को कहते हैं और फिर उसको अपने स्टाइल में लिखने की सलाह देते हैं या फिर उस कहानी में सुधार करते हैं। अभी हाल ही में जेम्स पैटरसन ने अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के साथ मिलकर एक उपन्यास लिखा, द मिसिंग प्रेसिंडेंट। इसमें भी साइबर अटैक,आतंकवादी हमले को विषय बनाया गया है। यह उपन्यास जबरदस्त हिट रही है। हिंदी में लेखन का ये ज्वाइंट वेंचर अगर चल पड़ा तो स्थिति बेहद दिलचस्प होगी और संभव है कि अमीश जैसे लेखकों की पुस्तकें धड़ाधड़ बाजार में आएं।   

Saturday, June 23, 2018

साहित्य में उठाने गिराने का खेल


पिछले दिनों एक छोटे से साहित्यिक जमावड़े में बात नई वाली हिंदी से शुरू हुई, जिसमें उन कृतियों पर लंबी बात हुई, फिर अन्य प्रकाशनों से प्रकाशित होनेवाले छोटे-छोटे उपन्यासों पर चर्चा चल निकली। वहां से होते होते साहित्य के तथाकथित मुख्यधारा के लेखन पर बात होने लगी। सबके अपने अपने विचार थे, ज्यादातर के कृतियों पर कम लेखकों पर ज्यादा। बातों से ऐसा लग रहा था कि अब साहित्य से जुड़े ज्यादातर लोग किसी भी लेखक पर अपनी राय एकाध कहानी या एक उपन्यास पढ़कर बना रहे हैं। राय भी ऐसी कि या तो एकदम से खारिज या एकदम से प्रेमचंद से तुलना। उस दिन वहां हो रही बातचीत से एक बात समझ में आई कि हिंदी में आलोचना पर इन दिनों क्यों इतने सवाल उठ रहे हैं। क्यों फेसबुक पर होनेवाली साहित्यिक चर्चाओं में हर कोई आलोचना पर प्रश्नवाण चलाता नजर आता है। आलोचना को कठघरे में खड़ा करनेवाले ज्यादातर लोग अपने मन की नहीं होते देख उत्तेजित हो जाते हैं और उसी उत्तेजना में पहले आलोचक और फिर आलोचना विधा को ही खारिज करने के उपक्रम में जुट जाते हैं। राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक सत्यानंद निरुपम ने उस दिन बहुत महत्वपूर्ण बात कही जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। निरुपम ने कहा कि आज लोग पढ़ते ही नहीं हैं, अपनी साहित्यिक विरासत के बारे में जानने की कोशिश ही नहीं करते हैं। खुद या उनके मित्र जो कर देते हैं उसको वो सबसे महत्वपूर्ण मान लेते हैं। इस वजह से इस तरह के बयान आते हैं कि साहित्य में पहली बार, साहित्य में ऐतिहासिक काम आदि आदि। सत्यानंद निरुपम की बात में एक वाक्य मैं भी जोड़ना चाहता हूं कि आज के ज्यादातर लेखक खासतौर पर नए और युवा लेखक अज्ञानता के अपने ढिंढोरे को सार्वजनिक रूप से पीटते भी हैं। यह चिंता की बात है। साहित्य से जुडे लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति का घोर ह्रास हुआ है। गूगल बाबा का भी इसमें योगदान है। अब हर हाथ में मोबाइल और उसमें इंटरनेट कनेक्शन की वजह से गूगल पर साहित्य के बारे में उपलब्ध जानकारी तक पहुंचना आसान हो गया है। लेकिन आलोचना के मैदान में उतरने के लिए या किसी कृति पर टिप्पणी करने के लिए गूगल पर्याप्त आधार नहीं दे पाता है। गूगलीय ज्ञान के आधार पर फेसबुक पर जिस तरह का साहित्यिक विमर्श होता है वह हास्यास्पद होता है। फेसबुक पर चलनेवाले इस गूगलीय साहित्यिक विमर्श को हास्यास्पद कहकर छोड़ा नहीं जाना चाहिए। खासकर तब जब साहित्य की अपेक्षाकृत नई पीढ़ी इसका शिकार हो रही है। यह बेहद चिंता की बात है। चिंता इस वजह से कि यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। कई लेखक तो अज्ञानता में हिंदी में नई विधा की शुरुआत आदि की बात तक करने लग जाते हैं जो उनकी नासमझी की ओर इशारा करता है।
अब अगर हम चिंतनीय प्रवृत्ति के बढ़ने के कारणों की पड़ताल करते हैं तो दो तीन बातें समझ में आती हैं। पहली तो ये कि फेसबुक पर लेखकों ने अपनी अपनी बस्ती बसा और बना ली है। इस बस्ती में रहनेवाले लेखक या साहित्यिक रुचि के मित्रगण एक दूसरे की तारीफ में प्राणपन से लग जाते हैं। यहां तक तो ठीक था कि मित्र की तारीफ करें लेकिन तारीफ के लिए बेहद उदार शब्दावली का उपयोग टिप्पणी करनेवाले से ज्यादा कृतिकार को नुकसान पहुंचा देता है। अब अगर किसी की कृति की तुलना प्रेमचंद से या मंटो से होने लगे और उसका कोई आधार या तर्क प्रस्तुत ना किया जाए तो उसको गंभीरता से नहीं लिया जाता है बल्कु उसका मजाक ही बनता है। फेसबुक पर तारीफ करनेवाले बस्तीबद्ध लेखक आलोचना की शब्दावली का भी इस्तेमाल करने लगते हैं और तर्क नहीं दे पाते तो फिर वो तारीफ नहीं ढ़िढोरा की तरह बजता हुआ प्रतीत होता है।
अगर हम देखें तो नहीं पढ़ना या कम पढ़ना एक बड़ी समस्या के तौर पर साहित्य में उपस्थित हो गया है। समस्या तब और बड़ी हो जाती है जब कम पढ़ा और बड़ा बयान दिया जाता है। फेसबुक पर इन दिनों मंटो और राजकमल चौधरी को लेकर इसी तरह की एक बहस चलाने की कोशिश की जा रही है। किसी भी लेखक के बारे में यह कह देना बहुत आसान होता है कि फलां का मूल्यांकन होना अभी शेष है। राजकमल चौधरी हिंदी के बड़े लेखक हैं लेकिन क्या ये जरूरी है कि उनके बड़प्पन को उछालने के लिए मंटो को छोटा साबित करें। सवाल तो यह भी उठता है कि फेसबुक पर बीस पंक्तियों की कैजुअल टिप्पणी से राजकमल चौधरी की रचनात्मकता स्थापित हो जाएगी? क्या नामवर सिंह को कठघरे में खड़ा करके राजकमल चौधरी का मूल्यांकन हो जाएगा? राजकमल चौधरी की रचनात्मकता को अगर नई पीढ़ी के सामने लाना है तो पूर्व की गलतियों को रेखांकित करते हुए छाती कूटने से बेहतर है कि आप उनके लेखन पर गंभीरता से लिखें और नए पाठकों को उसके बारे में बताएं। फेसबुकिया टिप्पणी और पूर्व की गलतियों को रेखांकित करते हुए सिर्फ चंद लाइक्स और कुछ तारीफ भरी टिप्पणी मिलेगी जिससे राजकमल का महत्व किसी भी तरह से रेखांकित नहीं होगा।
पहले यह काम कुछ आलोचक करते थे जो आलोचना के नाम पर लेखकों को
उठाने गिराने का खेल खेलते थे। किसी को साहित्य से दाखिल खारिज करने की सुपारी लेते थे। एक खास विचारधारा के आलोचक सिंडिकेट की तरह काम करते थे जो अपने विरोधियों को साहित्य की दुनिया से बाहर कर देने के लिए तमाम तरह के दंद फंद करते थे। हर दौर में ऐसे कुछ आलोचक हुए लेकिन हर दौर में वैसे भी आलोचक हुए जिन्होंने बहुत गंभीरता के साथ आलोचना कर्म और आलोचक धर्म का निर्वाह किया। कुछ वर्षों पूर्व विजय मोहन सिंह का एक इंटरव्यू याद आ रहा है जिसमें उन्होंने उपन्यास राग दरबारी को लेकर कहा था कि - राग दरबारी तो घटिया उपन्यास है । मैं उसे हिंदी के पचास उपन्यासों की सूची में भी नहीं रखूंगा । पता नहीं राग दरबारीकहां से आ जाता है ? वह तीन कौड़ी का उपन्यास है । हरिशंकर परसाईं की तमाम चीजें राग दरबारी से ज्यादा अच्छी हैं । वह व्यंग्य बोध भी श्रीलाल शुक्ल में नहीं है जो परसाईं में है । उनके पासंग के बराबर नहीं है श्रीलाल शुक्ल और उनकी सारी रचनाएं।लेकिन अपने इस इंटरव्यू में विजय मोहन सिंह ये नहीं बता पाए थे कि राग दरबारी क्यों और कैसे घटिया और तीन कौड़ी का उपन्यास है। विजय मोहन सिंह ने अपने उसी इंटरव्यू में बाबा नागार्जुन की तुलना भी काका हाथरसी से कर दी थी। दंभ के साथ ये भी कहा था कि चूंकि केदार जी को ये बात बुरी लगी थी इसलिए उन्होंने वो टिप्पणी वापस ले ली थी।   
राग दरबारी को खारिज तो गोपाल राय जी ने भी किया था जब उन्होंने लिखा था- व्यंग्य के लिए कथा का उपयोग लाभदायक होता है पर उसके लिए उपन्यास का ढांचा भारी पड़ता है। उपन्यास में व्यंग्य का उपयोग उसके प्रभाव को धारदार बनाता है पर पूरे उपन्यास को व्यंग्य के ढांचे में फिट करना रचनाशीलता के लिए घातक होता है । व्यंग्यकार की सीमा यह होती है कि वह चित्रणीय विषय के साथ अपने को एकाकार नहीं कर पाता है । वह सृष्टा से अधिक आलोचक बन जाता है । सृष्टा अपने विषय से अनुभूति के स्तर पर जुड़ा होता है जबकि व्यंग्यकार जिस वस्तु पर व्यंग्य करता है उसके प्रति निर्मम होता है ।गोपाल राय ने अपनी स्थापना के समर्थन में एक आधार प्रस्तुत किया था, तर्क दिए थे। सहमति-असहमति अलग चीज है। दोनों तरह के आलोचक हर दौर मे रहे हैं। लेकिन जिस तरह से विजय मोहन सिंह ने राग दरबारी को घटिया बताया या जिस तरह से राजकमल चौधरी को लेकर दूसरे साहित्यकारों पर कीचड़ उछाले जा रहे हैं या जिस तरह से नई वाली हिंदी के लेखकों को खारिज किया जा रहा है वो गंभीर चिंतन की मांग करता है । किसी के भी लेखन को खारिज करना बहुत आसान है लेकिन तर्कों के साथ खारिज करना बेहद मुश्किल है क्योंकि उसके लिए आपको अपने अध्ययन का दायारा बढ़ाना पड़ता है, अपने पूर्वग्रह को अलग रखकर वस्तुनिष्ठता के साथ बात करनी होती है। क्या इसके लिए हिंदी साहित्य के फेसबुक वीर तैयार है ? अगर ऐसा हो सकता है तो साहित्य का भी भला होगा और लेखकों का भी। भला इस तरह से कि टिप्पणीकारों की साख बढ़ेगी और सकारात्मक विमर्श की राह खुलेगी जिससे हिंदी साहित्य समृद्ध होगा।  



Saturday, June 16, 2018

नईवाली हिंदी की चुनौतियां


करीब तीन साल पहले की बात रही होगी,हिंदी प्रकाशन जगत में एक जुमला बहुत तेजी से चला, नई वाली हिंदीनई वाली हिंदी की इस तरह से ब्रांडिंग की गई जैसे हिंदी नई चाल में ढलने लगी हो। हिंद युग्म प्रकाशऩ ने इसको अपना टैग लाइऩ बनाया। वहां से प्रकाशित होनेवाले उपन्यासों और कहानी संग्रहों को नई वाली हिंदी की कृतियां कहकर प्रचारित किया जाने लगा। सोशल मीडिया से लेकर साहित्य उत्सवों तक में इस नई वाली हिंदी पर चर्चा शुरू हो गई। इसका एक असर ये हुआ कि पाठकों को लगा कि नई वाली हिंदी कुछ नयापन लेकर आई है। इस बीच दैनिक जागरण बेस्टसेलर की सूची आई जिसमें इस नई वाली हिंदी के कई लेखकों ने शीर्ष पर जगह बनाई। जागरण की हर तिमाही प्रकाशित बेस्टसेलर की सूची में नई वाली हिंदी के लेखकों ने लगातार जगह बनाई। इस सूची में नई वाली हिंदी के लेखकों के अलावा नरेन्द्र कोहली, रमेश कुंतल मेघ, गुलजार, जावेद अख्तर, यतीन्द्र मिश्र जैसे लेखकों ने भी जगह बनाई। लेकिन दैनिक जागरण बेस्टसेलर में नई वाली हिंदी के लेखकों के लगातार बने रहने से इसपर देशव्यापी चर्चा शुरू हो गई। जब चर्चा जोर पकड़ने लगी तो वो नई वाली हिंदी के लेखकों की कृतियों में अंग्रेजी के शब्दों के उपयोग पर चली गई, फिर एकाधिक बार इन कृतियों में रोमन में लिखे वाक्यों को लेकर चर्चा हुई, कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक लेकिन नई वाली हिंदी चर्चा में बनी रही। कुछ लेखकों ने प्रेमचंद से लेकर हिंदी के अन्य लेखकों की कृतियों को उद्धृत करते हुए ये बताया कि उन लोगों ने भी अपनी अपनी रचनाओं में अंग्रेजी के वाक्यों का प्रयोग किया है जो देवनागरी में छपी रचनाओँ के मध्य है। कुछ लोगों ने कहा कि साहित्यिक कृतियों में हिंदी को अपनी शुद्धता के साथ उपस्थित होना चाहिए तो कइयों ने भाषा को लेकर इस तरह की बात को दुराग्रह माना। कुछ लोगों ने बोलचाल की भाषा को अपनाने की वकालत करनी शुरू कर दी। बोलचाल की भाषा में हिंदी लिखने की बात भी नई नहीं है। हिंदी के महत्वपूर्ण कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है- जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख/और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख। दशकों पहले भवानी बाबू जैसे कवि ने साहित्य में भी बोलचाल की भाषा की वकालत की थी। यह बहस अब भी जारी है, जारी रहनी भी चाहिए। भाषा को लेकर लगातार मंथन होने के अपने फायदे भी हैं। लेकिन इस नई वाली हिंदी में ब्राडिंग के अलावा भाषा के स्तर पर नया क्या था ये पाठकों के सामने आना शेष है।
भवानी बाबू बोलचाल की भाषा को साहित्य की भाषा बनाने का आग्रह तो करते हैं लेकिन अगली पंक्ति में वो इससे भी महत्वपूर्ण बात करते हैं जिसको रेखांकित किए जाने की जरूरत है। भवानी प्रसाद मिश्र अपनी इसी कविता में इसी पंक्ति के बाद कहते हैं कि चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए/बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए। कहने का मतलब यह है कि वो रचना की स्तरीयता और उसके उत्कृष्ट होने को लेकर भी कवियों और लेखकों को ललकारते हैं। हमें इस नई वाली हिंदी के लेखकों की रचनाओं पर विचार करने का वक्त आ गया है। नई वाली हिंदी के लेखक सत्य व्यास की किताब बनारस टॉकीज जबरदस्त हिट रही, बिकी भी। सत्य व्यास को जमकर शोहरत मिली। बेस्टसेलर की सूची में भी इसने लगातार अपना स्थान बनाए रखा है। अपनी इस किताब में सत्य व्यास ने बनारस हिंदी विश्वविद्यालय को केंद्र में रखा और वहां की कहानी को बेहद दिलचस्प अंदाज में पाठकों के सामने पेश किया। अब तो इस कृति पर फिल्म भी बन रही है। इसके बाद सत्य व्यास का दूसरा उपन्यास आया, दिल्ली दरबार। अपने इस उपन्यास में लेखक ने दिल्ली विश्वविद्यालय और वहां के छात्र जीवन को केंद्र में रखा। यह पुस्तक भी चर्चित हुई, लेकिन लोकप्रियता और बिक्री में ये बनारस टॉकीज को पार नहीं कर सकी। हलांकि सत्य के इस उपन्यास में भी पठनीयता थी, भाषा का प्रवाह भी था लेकिन विषयगत नवीनता नहीं थी। बनारस टॉकीज के बाद निखिल सचान का उपन्यास यूपी 65 आया। निखिल सचान की इसके पहले नमक स्वादानुसार और जिंदगी आइस पाइस के नाम से दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी। निखिल का ये पहला उपन्यास था जिसमें बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के आईआईटी के परिवेश में बुनी एक इंजीनियर के इश्क और शिक्षा व्यवस्था से उसके मोहभंग की कहानी है। वही विश्वविद्यालय और वही छात्रों के बीच का जीवन। निखिल के इस उपन्यास को सफलता मिली लेकिन अपेक्षाकृत कम। इसके बाद कई उत्साही युवाओं ने युनिवर्सिटी कैंपस को लेकर उपन्यास लिखे। ऐसा नहीं है कि नई वाली हिंदी में सिर्फ उपन्यास लिखे जाने लगे। इसमें कहानियां और व्यंग्य आदि भी लिखे गए। नई वाली हिंदी के एक और ब्रांड अंबेसडर बने दिव्य प्रकाश दुबे। उनका कहानी संग्रह मुसाफिर कैफे खूब चर्चित हुआ। उनकी और कृतियां मसाला चाय और टर्म्स एंड कंडिशंस अप्लाई ने भी जमकर चर्चा बटोरी, पाठकों का प्यार भी मिला। इसी समय ये दावा किया गया कि हिंदी साहित्य में एक नई विधा का उदय हुआ है। ये दावा किया गया अजीत भारती के बैचलर व्यंग्य संग्रह बकर पुराण में। 2016 में प्रकाशित इस किताब में लेखक ने लिखा- बकर साहित्य हिंदी साहित्य की एक नई विधा है जो सड़के के पास की चाय दुकानों, गोलगप्पे के ठेलों, स्कूल कॉलेज के हॉस्टलों से होते हुए बैचलरों के उस कमरे पर पहुंचता है जहां गालिब है, मोमिन है, ट्रॉटवस्की है, आंद्रे ब्रेतां है और कास्मोपॉलिटन का पुराना-सा इशू भी है। अब बकर साहित्य हिंदी साहित्य की नई विधा के तौर पर स्थापित हो पाया या नहीं ये तो समय तय करेगा लेकिन साहित्य की नई विधा स्थापित करने का दावा लप्रेक ने भी किया था जिसका हश्र हिंदी जगत ने देख लिया। तीन-चार लेखकों से आगे नहीं बढ़ पाई वो कथित विधा।  
नई वाली हिंदी की ब्रैंडिंग के बाहर के लेखक चेतन भगत और पंकज दूबे ने भी युनिवर्सिटी जीवन को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखे। पंकज दूबे को भी जो सफलता लूजर कहीं कामें मिली थी वैसी सफलता उनको बाद के उपन्यासों में नहीं मिल पाई। चेतन को भी नहीं। तो क्या अब ये वक्त आ गया है कि नई वाली हिंदी के कई लेखकों को ये समझना होगा कि पाठकों को भाषा के चमत्कार से बहुत देर और दूर तक चमत्कृत नहीं किया जा सकता है। मुझे तो यही लगता है कि नई वाली हिंदी के लेखकों को अब नए विषयों की तलाश करनी चाहिए। कॉलेज युनिवर्सिटी की किस्से बहुत हो गए। क्योंकि इनसे अलग हटकर भी जिसने लिखा उनको सफलता मिली। अनु सिंह चौधरी ने इससे अलग हटकर नीला स्कार्फ और मम्मा की डायरी लिखी। जिसे काफी सराहा गया। इसी तरह से भगवंत अनमोल ने जिंदगी फिफ्टी फिफ्टी लिखी जिसको भी खूब पसंद किया गया। प्रियंका ओम की मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है को भी लोगों ने सराहा। नई वाली हिंदी के युवा लेखकों के सामने अभी पूरी जिंदगी पड़ी है, हिंदी साहित्य जगत को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य की उस जड़ता को तोडा जो किसी खास तरह की यथार्थवादी रचनाओं को ही श्रेष्ठ मानती थी। उन्होंने हिंदी से उन पाठकों को भी जोड़ा जो इन खास तरह की रचनाओं से उबकर साहित्य से विमुख होने लगे थे। एक योगदान इनका और है कि इन्होंने हिंदी के कई प्रकाशकों को भी इस तरह की कृतियां छापने के लिए उकसाया। इन्होंने अपनी सफलता से अपने आलोचकों का मुंह भी बंद किया जो इस नई वाली हिंदी के लेखकों को खारिज करने के लिए उनको हल्की फुल्की पुस्तकें कहा करते थे और ये भी तर्क देते थे कि इन पुस्तकों का स्थायी महत्व नहीं है। अब इनके सामने यही चुनौती है कि वो कैसे अपने लेखन में विषय का विस्तार करते हैं, अपने अलग अलग अनुभवों को कैसे कथानक में पिरोकर पाठकों के सामने पेश करते हैं। अगर वो ऐसा कर पाते हैं तो फिर उनको साहित्य के केंद्र में स्थापित होने से कोई रोक नहीं सकेगा लेकिन अगर वो अपने लेखन के दायरे का विस्तार नहीं कर पाएंगें तो बहुत संभव है उनकी हालत भी अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के किरदार की तरह हो जाएगी जिसकी शुरुआत तो होती है दीवार और त्रिशूल जैसी फिल्मों से लेकिन अंत होता है लाल बादशाह और तूफान जैसी फिल्मों से। अमिताभ को भी तो सफलता के लिए परदे पर अपनी छवि बदलनी ही पड़ी थी।

Saturday, June 9, 2018

सफल होती नायिका प्रधान फिल्में


तीन साल पहले की बात है, कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में फिल्मों पर एक सत्र चल रहा था जिसमें फिल्मी शख्सियतों पर पुस्तकें लिखनेवाले लेखक शामिल थे। राजेश खन्ना के जीवनीकार गौतम चिंतामणि और यासिर उस्मान, शशि कपूर के जीवनीकार असीम छाबड़ा के अलावा अन्य लोग थे। सत्र का संचालन फिल्म पत्रकार मयंक शेखर कर रहे थे। इस चर्चा के दौरान किसी वक्ता ने ये कह दिया कि हिंदी में नायिकाएं अपने बूते पर फिल्मों को हिट नहीं करवा पाती हैं। इस बयान के बाद वहां मौजूद श्रोताओं के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई और श्रोताओं के हस्तक्षेप की वजह से चर्चा काफी गरम हो गई थी। मंच पर बैठे सभी वक्ता बैकफुट पर आ गए थे। मंचासीन सभी वक्ता इस बात पर एकमत हो गए कि उनके कहने का आशय ये था कि हिंदी फिल्मों के इतिहास में कोई महिला सुपरस्टार नहीं हुई जो अपने दम पर फिल्म को लगातार हिट करवा सके। किसी तरह बात संभली थी लेकिन इसके बाद चर्चा इस पर होने लगी थी कि बॉलीवुड नायक प्रधान क्यों है। क्यों नायिकाओं को नायकों से कम पैसे मिलते हैं। क्यों नायकों से नायिकाओं के बारे में उनकी पसंद पूछी जाती है, आदि आदि। यह बात उस वक्त होकर खत्म हो गई लेकिन उक्त वक्ता की टिप्पणी मन के किसी कोने अंतरे में धंसी रह गई।
हाल ही में कई फिल्में इस तरह की आईं है जिसमें नायिकाओं ने अपने बूते पर फिल्म को हिट करवाया। आलिया भट्ट ने अपने अभिनय के बूते पर फिल्म राजी को 100 करोड़ के क्लब में शामिल करवा दिया। इस फिल्म में कोई स्टार नायक नहीं है, बावजूद इसके ये फिल्म सुपर हिट रही। इससे तो एक और दिलचस्प बात जुड़ी है कि इस फिल्म का निर्देशन भी एक महिला ने किया है, मेघना गुलजार। राजी की रिलीज के चंद दिनों बाद एक और फिल्म आई वीरे द वेडिंग। इस फिल्म ने भी दो हफ्ते में करीब साठ करोड़ का बिजनेस किया है, जिसको बेहतर प्रदर्शन माना जा सकता है। इसमें भी कोई स्टार नहीं है बल्कि चार नायिकाएं करीना कपूर खान, सोनम कपूर आहूजा, शिखा और स्वरा भास्कर है। हलांकि इस फिल्म में सफल होने के लिए तमाम तरह का मसाला डाला गया । फिल्म में महिलाओं की बातचीत में गालियों की भरमार है, यौनिकता का प्रदर्शन है, स्वछंदता की वकालत की गई है और इसको फेमिनिस्ट फिल्म कहकर प्रचारित भी किया गया। फेमिनिज्म की आड़ में सेक्सुअलिटी से लेकर गाली गलौच को आधिनिक महिलाओं की जीवन शैली का हिस्सा बताकर पेश किया गया है। दरअसल कुछ फिल्मकारों को लगता है कि गाली गलौच करके, फ्री सेक्स की वकालत करके ही महिलाएं स्वतंत्र हो सकती हैं। फिल्म  वीरे द वेडिंग के कर्ताधर्ता इसी दोष के शिकार हो गए। ऐसे फिल्मकारों को स्त्री स्वतंत्रता और स्वछंदता का भेद समझना होगा। फिल्म अच्छी कमाई करने की राह पर भले ही अग्रसर दिखाई देती हो लेकिन इस फिल्म का स्थायी महत्व होगा, इसमें संदेह है। हां, कमाई के लिहाज से इसको याद रखा जा सकता है। फेमिनिज्म पर पूर्व में भी कई फिल्में बनीं जो भारतीय हिंदी सिनेमा में आज भी याद की जा सकती हैं। स्मिता पाटिल और शबाना आजमी अभिनीत फिल्म अर्थ में नारी स्वतंत्रता का जो चित्रण है वो स्थायी है। फिल्म के क्लाइमैक्स पर शादीशुदा कुलभूषण खरबंदा अपनी प्रेमिका स्मिता पाटिल को छोड़कर वापस अपनी पत्नी शबाना आजमी के पास पहुंचता है और माफी मांगता है। शबाना आजामी उसको माफी देने से मना करती है और कहती है कि अगर मैं किसी मर्द के साथ इतने दिन गुजारकर तुम्हारे पास वापस आती तो क्या मुझे माफ कर देते। फिल्म यहां खत्म हो जाती है। स्त्री स्वतंत्रता का उत्स है इस फिल्म में। बगैर किसी शोर शराबे के, बगैर किसी गाली गलौच के। उस फिल्म की नायिका जितनी बोल्ड और बिंदास थी, वीरे द वेडिंग में वो बात नहीं है। खैर ये अलहदा मुद्दे हैं उसपर फिर कभी विस्तार से बात होगी।
फिलहाल हम बात कर रहे हैं नायिका के केंद्रीय रोल में फिल्मों के सफल होने की। इसी तरह की एक फिल्म आई थी हिचकी। ये फिल्म भी रानी मुखर्जी ने अपने बूते पर सफल करवाई। हिचकी फिल्म की नायिका टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित होती है जिसके बारे में कम लोगों को पता था। ये एक न्यूरोसाइकेट्रिक समस्या है जो किसी को भी बचपन से ही हो सकती है। इस फिल्म को भी पर्याप्त सफलता मिली। इसके पहले मॉम फिल्म भी सफल रही। ऐसा नहीं है कि नायिका प्रधान फिल्में पहले हिट नहीं होती रही हैं। नायिका प्रधान फिल्मों के हिट होने का एक लंबा इतिहास है । फिल्म मदर इंडिया से लेकर फिल्म लज्जा तक और फिर फिल्म कहानी से से लकर क्वीन तक। हर दौर में महिला प्रधान फिल्में बनती रही हैं, लेकिन हाल के दिनों में महिला प्रधान फिल्मों के सफल होने की संख्या बढ़ी है। समकालीन समय में हम क्वीन को इस सफलता का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं। 2014 में रिलीज हुई इस फिल्म क्वीन में कंगना रनौट ने अपने अभिनय के बल पर शानदार सफलता हासिल की थी। फिल्मी दुनिया के ट्रेड पंडितों के मुताबिक क्वीन के निर्माण पर करीब 13 करोड़ रुपए खर्च हुए थे और फिल्म ने सौ करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था। इस तरह से देखें तो इस फिल्म ने अपनी लागत के करीब नौ गुना ज्यादा रकम का बिजनेस किया। श्रीदेवी की फिल्म मॉम भी सफल रही थी। उसने भी अपने लागत से कई गुणा ज्यादा का बिजनेस किया था।
ऐसा नहीं है कि इस दौर में सभी नायिका प्रधान फिल्म सुपरहिट ही रहीं। विद्या बालन की फिल्म बेगम जान जिसे मशहूर निर्देशक श्रीजित मुखर्जी ने निर्देशित किया था वो ज्यादा बिजनेस नहीं कर पाई। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक करीब बीस करोड़ में बनी ये फिल्म तीस करोड़ का ही बिजनेस कर पाई। हलांकि विद्या की ही एक और फिल्म तुम्हारी सुलु ने औसत बिजनेस किया। बीस करोड़ की लागत से बनी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 50 करोड़ का कारोबार किया।
दरअसल स्त्रियों को लेकर वही फिल्में ज्यादा दर्शकों को अपनी ओर खींच रही हैं जिसमें स्त्री पात्रों को लेकर ज्यादा जिम्मेदार किस्म की कथानक पर फिल्में बन रही हैं। हमारे देश में 1991 में आर्थिक उदारीकरण के दौर और खुले बाजार की वजह से कई ऐसी फिल्में आई जिनमें स्त्री चरित्रों का इस्तेमाल फिल्मकारों ने अपने व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते हुए किया और खुलेपन के तर्क की ओट में नायिकाओं के कपड़े कम करते चले गए। यह उन्नीस सौ सत्तर या उन्नीस सौ अस्सी के दौर की फिल्मों से अलग थी। ब्रिटिश अभिनेत्री एमा थॉमसन का हॉलीवुड फिल्मों को लेकर एक मशहूर कथन है- 1980 या उस दौर के आसपास बनने वाली फिल्में का नैतिक स्तर बिल्कुल शून्य था। मुनाफा ही उसका उद्देश्य था, जिसका सीधा संबंध उन भूमिका से रहा है जो फिल्मों में नायिकाओं को दी जाती रही हैं। उस दौर में स्त्री का मतलब या तो भोली भाली स्त्री या नायकों को अपने हाव-भाव से लुभानेवाली नायिका। इस कथन के आलोक में हम हिंदी फिल्मों के 1990 से लेकर 2000 तक के दौर को देख सकते हैं बल्कि दो चार साल आगे तक भी। लेकिन अब जब नए लेखकों का दौर आया है तो उन्होंने हिंदी फिल्मों में भारतीय स्त्रियों की परंपरागत छवि को ध्वस्त करते हुए उसका एक नया रूप गढ़ा है।इस नए रूप में कई बार विचलन भी देखने को मिलता है लेकिन वो ज्यादातर यथार्थ के करीब होती हैं। जैसे अगर हम दो हजार ग्यारह में आई फिल्म डर्टी पिक्चर को देखें, जो दक्षिण भारतीय फिल्मों की नायिका सिल्क स्मिता की जिंदगी पर बनी थी, में तमाम मसालों और सेक्सी दृश्यों की भरमार के के बावजूद यथार्थ बहुत ही खुरदरे रूप में मौजूद था। नायिका प्रधान फिल्मों की सफलता इस ओर भी संकेत दे रही है कि अगर कहानी अच्छी हो, उस कहानी का फिल्मांकन बेहतर हो तो वो सफल हो सकती है। यह भी प्रतीत होता है कि हिंदी दर्शकों की रुचि का भी परिष्कार हो रहा है और अब वो यथार्थवादी फिल्मों को तुलनात्मक रूप से ज्यादा पसंद करने लगा है। उदाहऱम के तौर पर अगर हम 2016 में रिलीज हुई फिल्म पिंक का उदाहरण लें तो वो फिल्म अपनी कहानी और उसके बेहतरीन चित्रण की वजह से दर्शकों को खूब पसंद आई। 23 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ने 100 करोड़ से ज्यादा बिजनेस किया। इस तरह की फिल्मों की सफलता से यह उम्मीद जगी है कि अगर हिंदी फिल्मों में स्त्री पात्रों का चित्रण यथार्थपरक तरीके से किया जाए तो वो समाज पर असर भी डालेंगी और कारोबार भी अच्छा करेगी।

Saturday, June 2, 2018

संस्कृति को लेकर उदासीन सरकार


देश में जब जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी है तब-तब उसपर शिक्षा और संस्कृति के भगवाकरण के आरोप लगाए जाते रहे हैं। आरोप के साथ ये जरूर जोड़ा जाता है कि ये भगवाकरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कहने पर होता है। पाठ्यक्रम और स्कूली शिक्षा में बदलाव के आरोप भी आम रहे हैं। जब 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी तो इन आरोपों की फेहरिश्त में एक इल्जाम और जुड़ गया। वो आरोप था शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों को बिठाने का यानि संस्थाओं को संघ से डुड़े लोगों के हवाले करने का। 2014 में जब स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्री बनाया गया था तो उनपर भी इस तरह के आरोप लगे थे। अपने उपर लगे आरोपों पर स्मृति ईरानी ने संसद में उदाहरण समेत जोरदार तरीके से खंडन किया था और देश के सामने तथ्यों को सामने रख दिया था। दरअसल शिक्षा और संस्कृति को लेकर किसी भी तरह के सकारात्मक बदलाव को भी आरएसएस की चाल तक करार दिया जाता रहा है। मोदी सरकार के दौरान जब शैक्षणिक और सांस्कृति संस्थानों पर नियुक्तियां शुरू हुईं तो वामपंथी विचारधारा के लोगों को लगा कि इस क्षेत्र में उनका एकाधिकार खत्म होने लगा है तो वो और ज्यादा हमलावर होते चले गए। इमरजेंसी के समर्थन के एवज में इंदिरा गांधी ने शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को वामपंथी विचारधारा के लेखकों और कार्यकर्ताओं को अनौपचारिक रूप से सौंप दिया था। शिक्षा और संस्कृति को वामपंथियों को सौंपने का नतीजा यह रहा कि आज भारत में चिंतन परंपरा लगभग खत्म हो गई। इतिहासकारों ने नेहरू का महिमामंडन शुरू किया और उसके एवज में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने अपने अनुवाद परियोजना में सीपीएण के महासचिव नम्बूदरीपाद की कृतियों का अनुवाद प्रकाशित किया। इसपर कभी हो हल्ला मचा हो, या पार्टी की विचारधारा को बढ़ाने के आरोप लगे हों, याद नहीं आता। इतने लंबे समय से जारी इस एकाधिकार को 2014 में जब चुनौती मिलने लगी तो विरोध स्वाभाविक था।
अगर हम वस्तुनिष्ठ होकर विचार करें तो 2014 के बाद मोदी सरकार ने इन संस्थाओं में जिन लोगों की नियुक्ति की उनकी मेधा और प्रतिभा पर किसी तरह का प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है, चाहे वो भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद में बी बी कुमार जी की नियुक्ति हो या इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में राम बहादुर राय और डॉ सच्चिदानंद जोशी की नियुक्ति हो, संगीत नाटक अकादमी में बेहतरीन कलाकार शेखर सेन को जिम्मेदारी दी गई हो या राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के चेयरमैन के तौर पर बल्देव भाई शर्मा की नियुक्ति। इन सब लोंगों ने अपने अपने क्षेत्र में लंबी लकीर खींची। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास में तो बल्देव भाई की अगुवाई में पूरे देश में पुस्तक संस्कृति के प्रोन्नयन के लिए इतना काम हुआ जो पहले शायद ही हुआ हो। गांवों तक पुस्तक मेले का आयोजन से लेकर संस्कृत के पुस्तकों का प्रकाशन तक हुआ। जहां इतनी सारी नियुक्तियां होती हैं वहां एकाध अपवाद भी होते हैं। यहां भी हुए।
यह आरोप भी पूरी तरह से गलत है कि आंख मूंदकूर सिर्फ उनकी ही नियुक्तियां की गईं जो भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के लोग थे। कई नियुक्तियां तो ऐसे विद्वानों की भी हुईं जो पूर्व में संघ और भारतीय जनता पार्टी के आलोचक रहे हैं। सरकार पर जिस तरह के हमले विरोधी विचारधारा के लोगों ने किए उसका एक नुकसान यह हुआ कि नियुक्तियों में सरकार धीमे चलने की नीति पर चलने लगी। अगर हम एक नजर डालें तो देख सकते हैं कि संस्कृति मंत्रालय के अधीन कई ऐसी स्वायत्त संस्थाएं हैं जिनमें काफी समय बीत जाने के बाद भी उनके प्रमुखों की और प्रशासकों की नियुक्ति नहीं हुई। ललित कला अकादमी इसका उदाहरण है जहां लंबे समय तक प्रशासक से काम चलाया गया। मंत्रालय के संयुक्त सचिव इसके कर्ताधर्ता रहे। इसकी गवर्निंग बॉडी को भारत सरकार ने भंग कर दिया और इस संस्था की बेवसाइट के मुताबिक अब तक इसका गठन नहीं हो सका है। अभी हाल में वरिष्ठ कलाकार उत्तम पचारने को इसका चेयरमैन नियुक्त किया गया है लेकिन अभी भी यहां स्थायी सचिव की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। इसी तरह से अगर हम देखें तो सांस्कृतिक स्त्रोत और प्रशिक्षण केंद्र, जिसे सीसीआरटी के नाम से जाना जाता है, में चेयरमैन की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। सीसीआरटी का काम शिक्षा को संस्कृति से जोड़ने का है। यह संस्कृति मंत्रालय संबद्ध एक स्वायत्त संस्था है। इस संस्था के बारे में उपलब्ध जानकारी है कि केन्द्र का मुख्य सैद्धांतिक उद्देश्य बच्चों को सात्विक शिक्षा प्रदान कर उनका भावात्मक व आध्यात्मिक विकास करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सीसीआरटी संस्कृति पर आधारित शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करता है और उनमें विचारों की स्पष्टता, स्वतन्त्रता, सहिष्णुता तथा संवेदनाओं का समावेश किया जाता है।यह उद्देश्य तो संघ को अच्छा लग सकता है लेकिन एक वर्ष से ज्यादा समय से यहां कोई अध्यक्ष नहीं हैं। इतने महत्वपूर्ण संस्था का अध्यक्ष ना होना संस्कृति मंत्रालय के काम करने के तरीके पर प्रश्न खड़ा करता है और इस बात के संकेत भी देता है कि संघ इन नियुक्तियों में दखल नहीं देता है। इसी तरह से संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक और संस्था है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, इसके चेयरमैन रतन थियम का कार्यकाल 2017 में खत्म हो गया लेकिन अबतक किसी की नियुक्ति नहीं हुई और संस्था बगैर अध्यक्ष के चल रही है। इस सूची में कई अन्य नाम और भी हैं। देश में पुस्तकों और पुस्तक संस्कृति के उन्नयन के लिए बनाई गई संस्था राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष ब्रज किशोर शर्मा का कार्यकाल भी समाप्त हो चुका है लेकिन उनकी जगह भी संस्कृति मंत्रालय ने किसी की नियुक्ति नहीं की है। नतीजा यह हो रहा है कि वहां लगभग अराजकता है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के दो ट्रस्टी फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी और पूर्व आईपीएस के अरविंद राव ने महीनों पहले इस्तीफा दे दिया लेकिन उनकी जगह संस्कृति मंत्रालय ने किसी को नियुक्त नहीं किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पद संभाला था तो उन्होंने यह कहा था कि यथास्थितिवाद उनको किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है लेकिन कई मंत्रालयों को देखकर लगता है कि प्रधानमंत्री ने स्वयं वहां यथास्थितिवाद के देवताओं को स्थापित कर रखा है।
अब अगर एक नजर भाषा के विकास के लिए बनाई गई संस्थाओं पर डालते हैं तो वहां भी कई ऐसे संस्थान हैं जो बगैर अध्यक्ष या निदेशक के चल रहे हैं। हिंदी को लेकर ये सरकार बहुत संवेदनशील रही है। इसको संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर भी सरकार ने इच्छाशक्ति दिखाई थी लेकिन केंद्रीय हिंदी निदेशालय में सालों से नियमित निदेशक नहीं हैं। पहले राष्ट्रीय सिंधी भाषा संवर्धन परिषद के निदेशक डॉ रवि टेकचंदानी इसका अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे थे और अब वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग के चेयरमैन अवनीश कुमार इसको संभाल रहे हैं। इसमें एक और दिलचस्प तथ्य है कि वो गणितज्ञ हैं लेकिन सरकार ने उनको वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के अलावा हिंदी का जिम्मा भी सौंप रखा है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय में स्थायी निदेशक की नियुक्ति नहीं होने से कई नुकसान हैं क्योंकि इस संस्था का उद्देश्य हिंदी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करना, हिंदी भाषा के माध्यम से जन-जन को जोड़ना और हिंदी को वैश्विक धरातल पर प्रतिष्ठित करना है। इसमें कई सालों से निदेशक का नहीं होना सरकार की हिंदी को लेकर उदासीनता को दर्शाता है। इसी तरह से मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक और स्वायत्त संस्था है राष्ट्रीय सिंधी भाषा संवर्धन परिषद, उनके निदेशक का कार्यकाल भी खत्म हो गया है और उनको तीन महीने का विस्तार दिया गया है। यह कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो इंगित करते हैं कि सरकार भाषा और संस्कृति को लेकर कितनी गंभीर है। इसी वर्ष मार्च में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक से में भाषा को लेकर महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया गया था जिसमें भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता पर जोर दिया गया। भाषा के संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकारों, नीति निर्धारकों और स्वयंसेवी संगठनों से प्रयास करने की अपील की गई थी। संघ की अपील के बाद करीब तीन महीने तक ऐसा होना भी ये दर्शाता है कि संघ का सरकार में कितना दखल है। संस्कृति मंत्री और शिक्षा मंत्री को इस दिशा में व्यक्तिगत रुचि लेकर काम करना होगा ताकि इन संस्थाओं को बदहाली से बचाया जा सके। और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि इन मंत्रियों को यथास्थितिवाद के मकड़जाले को भी तोड़ना होगा।