भारत सरकार की एक संस्था है नेशनल फिल्म डेवलपमेंट
कॉर्पोरेशन (एनएफडीसी)। सूचना और प्रसारण मंत्रालय से संबद्ध इस संस्था की स्थापना
उसी वर्ष हुई जिस वर्ष देश में इमरजेंसी लगाई गई थी यानि 1975। ये संस्था पिछले
कुछ दिनों से गलत वजहों से चर्चा में है। तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति
ईरानी ने इस संस्था की चीफ नीना लाठ को भ्रष्टाचार के आरोप में हटा दिया था। बाद
में नीना कोर्ट चली गईं और मामला वहां विचाराधीन है। इस कार्रवाई के पहले भी इस
संस्था की गड़बड़ियों की खबरें आती रहती थी, कभी किसी फिल्म को वित्तीय सहायता
देने को लेकर तो कभी किसी छोटे मोटे आयोजन को लेकर। इसके पहले इस तरह की खबरें भी
आईं कि एनएफडीसी, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया और अन्य फिल्म से संबंधित
संस्थाओं को मिलाकर एक नई संस्था बना दिया जाएगा। चर्चा तो इस बात की भी है कि इस
बारे में कैबिनेट नोट भी तैयार हो गया था लेकिन चुनावी वर्ष होने की वजह से अब
शायद ही इस पर फैसला हो सके। वैसे यह प्रस्ताव बहुत कुछ मौजूदा सूचना और प्रसारण
मंत्री की सोच पर भी निर्भऱ करता है कि वो इसको कितना आगे बढ़ाना चाहते हैं। खैर
ये अलहदा मुद्दा है जो कि राज नीति के हिसाब से तय होगी। हम चर्चा इस बात पर
करेंगे कि नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन अपनी स्थापना के समय तय किए गए
उद्देश्यों की कसौटी पर कितना खड़ा उतर रहा है।एनएफडीसी की बेवसाइट पर इसके मिशन
और उद्देश्य दोनों प्रकाशित हैं। मिशन के बारे में लिखा है- एनएफडीसी का लक्ष्य
सिनेमा में उत्कृष्टता के लिए के लिए परिवेश निर्मित करना और इसकी विभिन्न भाषाओं
में बनी फिल्मों को सहायता और प्रोत्साहन देते हुए भारत की सांस्कृतिक विविधता को
बढ़ावा देना है। मिशन के अलावा बेवसाइट पर उद्देश्य भी लिखा हुआ है। इस संस्था के
मूल्यांकन के पहले इसके उद्देश्यों पर भी गौर करना आवश्यक है। उद्देश्य में
उल्लिखित है कि- कौशल का विकास और सभी भाषाओं में निर्माण व सह-निर्माण, पटकथा
लेखन का विकास और आवश्यकता आधारित कार्यशालाओं के जरिए भारतीय सिनेमा के विकास को
सहायता देना। इसके अलावा दो और उद्देश्य बताए गए हैं, पहला है भारत और विदेश में
सिनेमा के जरिए भारतीय संस्कृति को बढ़ावा देना और दूसरा एक चुस्त और लचीले संगठन
का निर्माण जो कि भारतीय फिल्म उद्योग की जरूरतों के प्रति क्रियाशील हो।
इससे भी एक दिलचस्प जानकारी इस संस्था की
बेवसाइट के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित है कि इसने पिछले कई वर्षों में भारत के कुछ सबसे
सम्मानित फिल्मकारों के साथ काम किया है जिसमें सत्यजीत रे, मीरा नायर, अपर्णा
सेन, श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, मृणाल सेन, रिचर्ड अटनबरो, अदूर गोपालकृष्णन
और केतन मेहता शामिल हैं। अब अगर हम इस सूची पर विचार करें तो इसमें मौजूदा दौर के
नए निर्देशक कोई नहीं नजर आता है। बेवसाइट की बैनर पर ‘अंग्रेजी में कहते
हैं’ का पोस्टर जरूर लगा है कि जोकि मई में रिलिज हुई
थी और इसके डायरेक्टर हरीश व्यास हैं। इसके अलावा जयदीप घोष की ‘माया बाजार’, प्रिया कृष्णस्वामी
की ‘गंगूबाई’ जैसी फिल्में भी
विज्ञापित हैं। इन फिल्मों के आधार पर अगर मिशन और उद्देश्य को देखते हैं तो एक
प्रश्न मन में खड़ा होता है कि इन फिल्मों ने किस तरह का कौशल विकास किया, फिल्मों
के माध्यम से कैसे भारतीय संस्कृति को मजबूत किया। पिछले कुछ वर्षों में जिन निर्देशकों
के नाम यहां विज्ञापित हैं उसके बाद से जिस तरह की फिल्मों का निर्माण करने में
एनएफडीसी सहायक रहा है उसने फिल्म संस्कृति को कैसे विकसित किया। संस्था की
स्थापना के 43 साल बाद अगर इस संस्था के सहयोग से कमजोर फिल्मों का निर्माण हो रहा
है तो ना तो ये संस्था अपने मिशन में ना ही इसके उद्देश्यों को हासिल करने में
कामयाब हो रही है। करदाताओं का पैसा किस तरह से उपयोग में लाया जा रहा है, इस बारे
में भी सरकार को विचार करने की जरूरत है। इस संस्था को फिल्म संस्कृति के विकास के
लिए, सिनेमा में उत्कृषटा के लिए परिवेश निर्मित करना था। फिल्मों से जुड़े लोगों
का मानना है कि ये संस्था अपने स्थापित उद्देश्यों से भटक गई है और अच्छी फिल्मों
के निर्माण के सहयोग से ज्यादा अब ये सरकार की विज्ञापन एजेंसी हो गई है। सरकार और
सार्वजनिक कंपनियों के प्रचार प्रसार में इसकी रुचि ज्यादा है।
पिछले कुछ सालों में एनएफडीसी ने क्या
उल्लेखनीय कार्य किया है ये भी ज्ञात नहीं हो पा रहा है। क्या इसने किसी ऐसी कहानी
का चुनाव किया या ऐसी फिल्म बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसको बनाने में
वॉलीवुड कामयाब नहीं हो पाया। ‘जाने भी दो यारो’ या ‘परिणति’ जैसी कौन सी फिल्म
एनएफडीसी के खाते में आई।एक जमाना था जब एनएफडीसी के कर्ताधर्ता उस तरह की
कहानियों को तलाशते थे जिसपर मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म नहीं बनाता था या नहबीं बना
पाता था। हिंदी के बेहतरीन कथाकार विजयदान देथा की कहानी पर फिल्म बनावाई गई थी।
क्या आज ऐसा सोचा भी जा रहा है या सोचा भी जा सकता है। लगता तो नहीं है। आज अगर
असमिया की फिल्म ‘विलेज रॉकस्टार’ नेशनल अवॉर्ड जीतती
है तो वो अपने बूते पर। कहानी की पहचान कर उसको रूपहले पर्द तक लाने में एनएफडीसी नाकाम
रही है। आज सिनेमा निर्माण में तकनीक की बेहद अहम भूमिका है। नए फिल्म निर्माताओं
को तकनीकी तौर पर समृद्ध करने के लिए एनएफडीसी कितनी कार्यशालाएं आयोजित करती है,
एनिमेशन के बदसते स्वरूप पर विशेषज्ञों के साथ कितने वर्कशॉप हुए। देश के किन हिस्सों,
किस किस भाषा के फिल्म निर्माताओं से संपर्क कर कौशल विकास के लिए प्रयास करती है
इसको भी बताया जाना चाहिए। एनएफडीसी से अंग्रेजी में एक पत्रिका निकालती थी-
सिनेमा इन इंडिया। सिनेमा प्रेमियों को उम्मीद थी कि अंग्रेजी के बाद ये पत्रिका
हिंदी और अन्य भाषाओं में निकलेगी लेकिन निकल रही पत्रिका भी बंद हो गई। कौन है
इसका जिम्मेदार। पत्रिका को बंद करने के पीछे की वजह को जानने का हक भारत की उस
जनता को है जिसके पैसे पर ये संस्था चल रही है।
सिनेमा में उत्कृष्टता के लिए परिवेश
निर्माण के लिए जरूरी होता है कि दर्शकों को सिनेमा से जोड़ा जाए। पिछले एक दशक
में पूरे देश में सिंगल थिएटर एक एक करके बंद हो गए या उसका स्वरूप बदल गया। मैं
बिहार के एक छोटे से शहर जमालपुर में पैदा हुआ और भागलपुर में पढ़ा। जमालपुर और
भागलपुर में जितने सिंगल थिएटर थे सब बंद हो गए एक दो को छोड़कर। जमालपुर के
अवंतिका सिनेमा हॉल में हमने दर्शकों की जो दीवनगी देखी है या भागलपुर के महादेव
टॉकीज में जिस तरह फिल्मों को लेकर छात्रों का हुजूम उमड़ता था वैसा दृश्य अब
सिर्फ संस्मरणों में ही है। क्या कभी एनएफडीसी ने इस ओर ध्यान दिया कि सिंगल थिएटर
के बंद होने से भारतीय सिनेमा को कितना नुकसान हो रहा है। क्या इस बारे में उन
इलाकों में जाकर कोई चर्चा आयोजित की गई, वहां के दर्शकों की राय ली गई। क्या कभी
इस बारे में सूचना और प्रसारण मंत्रालय को सलारह के रूप में कोई कार्ययोजना दी गई।
करोडों के बजट वाली इस संस्था के बारे में भारत सरकार को गंभीरता से विचार करना
चाहिए और सिनेमा के माध्यम से अगर भारतीय संस्कृति को मजबूत करना है तो इसकी चूलें
कसनी होंगी। राजनीति और व्यक्तिगत हित से ऊपर उठकर कठोर फैसले लेने होंगे ताकि करदाताओं की गाढ़ी कमाई का पैसा बर्बाद ना
हो।
एनएफडीसी अगर अपने स्थापित उद्देश्यों से
भटक गई है तो ये करदाताओं के साथ छल है। उनकी गाढ़ी कमाई को गलत जगह पर गलत तरीके
से खर्च करने का अपराध भी। जिसकी सर्वोच्च स्तर पर जांच होकर जिम्मेदारी तय होनी
चाहिए। पिछले कई सालों में इस संस्था के कामकाज को लेकर कई कमेटियों ने ऑडिट आदि
किया लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। या संभव है कि नतीजा नहीं निकलने दिया गया हो।
संभव है कि इसी गड़बड़झाले की वजह से नीति आयोग ने इस तरह की संस्थाओं को बंद करने
का प्रस्ताव किया हो। संस्था बंद होती है या नहीं ये तो सरकार तय करेगी लेकिन
फिल्मों के उत्कृष्ट परिवेश को बनाने के लिए और सिनेमा के माध्यम से भारतीय
संस्कृति को पूरी दुनिया के सामने पेश करना है तो इस निगम को अकर्मण्यता के दलदल
से बाहर निकालना होगा और गतिशील बनाना होगा। इसके लिए वहां के कर्ताधर्ताओं की
जिम्मेदारी तय करनी होगी क्योंकि अराजक स्वायत्तता लोकतंत्र में मंजूर नहीं होती
है।