देश में जब जब भारतीय
जनता पार्टी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी है तब-तब उसपर शिक्षा और
संस्कृति के भगवाकरण के आरोप लगाए जाते रहे हैं। आरोप के साथ ये जरूर जोड़ा जाता
है कि ये भगवाकरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कहने पर होता है। पाठ्यक्रम और
स्कूली शिक्षा में बदलाव के आरोप भी आम रहे हैं। जब 2014 में नरेन्द्र मोदी के
नेतृत्व में केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी तो इन आरोपों की
फेहरिश्त में एक इल्जाम और जुड़ गया। वो आरोप था शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं
में दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों को बिठाने का यानि संस्थाओं को संघ से डुड़े
लोगों के हवाले करने का। 2014 में जब स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्री बनाया
गया था तो उनपर भी इस तरह के आरोप लगे थे। अपने उपर लगे आरोपों पर स्मृति ईरानी ने
संसद में उदाहरण समेत जोरदार तरीके से खंडन किया था और देश के सामने तथ्यों को
सामने रख दिया था। दरअसल शिक्षा और संस्कृति को लेकर किसी भी तरह के सकारात्मक
बदलाव को भी आरएसएस की चाल तक करार दिया जाता रहा है। मोदी सरकार के दौरान जब
शैक्षणिक और सांस्कृति संस्थानों पर नियुक्तियां शुरू हुईं तो वामपंथी विचारधारा
के लोगों को लगा कि इस क्षेत्र में उनका एकाधिकार खत्म होने लगा है तो वो और
ज्यादा हमलावर होते चले गए। इमरजेंसी के समर्थन के एवज में इंदिरा गांधी ने
शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को वामपंथी विचारधारा के लेखकों और कार्यकर्ताओं
को अनौपचारिक रूप से सौंप दिया था। शिक्षा और संस्कृति को वामपंथियों को सौंपने का
नतीजा यह रहा कि आज भारत में चिंतन परंपरा लगभग खत्म हो गई। इतिहासकारों ने नेहरू
का महिमामंडन शुरू किया और उसके एवज में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने अपने
अनुवाद परियोजना में सीपीएण के महासचिव नम्बूदरीपाद की कृतियों का अनुवाद प्रकाशित
किया। इसपर कभी हो हल्ला मचा हो, या पार्टी की विचारधारा को बढ़ाने के आरोप लगे
हों, याद नहीं आता। इतने लंबे समय से जारी इस एकाधिकार को 2014 में जब चुनौती
मिलने लगी तो विरोध स्वाभाविक था।
अगर हम वस्तुनिष्ठ होकर
विचार करें तो 2014 के बाद मोदी सरकार ने इन संस्थाओं में जिन लोगों की नियुक्ति
की उनकी मेधा और प्रतिभा पर किसी तरह का प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता है, चाहे
वो भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद में बी बी कुमार जी की नियुक्ति हो या
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में राम बहादुर राय और डॉ सच्चिदानंद जोशी की
नियुक्ति हो, संगीत नाटक अकादमी में बेहतरीन कलाकार शेखर सेन को जिम्मेदारी दी गई
हो या राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के चेयरमैन के तौर पर बल्देव भाई शर्मा की नियुक्ति।
इन सब लोंगों ने अपने अपने क्षेत्र में लंबी लकीर खींची। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास
में तो बल्देव भाई की अगुवाई में पूरे देश में पुस्तक संस्कृति के प्रोन्नयन के
लिए इतना काम हुआ जो पहले शायद ही हुआ हो। गांवों तक पुस्तक मेले का आयोजन से लेकर
संस्कृत के पुस्तकों का प्रकाशन तक हुआ। जहां इतनी सारी नियुक्तियां होती हैं वहां
एकाध अपवाद भी होते हैं। यहां भी हुए।
यह आरोप भी पूरी तरह से
गलत है कि आंख मूंदकूर सिर्फ उनकी ही नियुक्तियां की गईं जो भारतीय जनता पार्टी और
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा के लोग थे। कई नियुक्तियां तो ऐसे विद्वानों
की भी हुईं जो पूर्व में संघ और भारतीय जनता पार्टी के आलोचक रहे हैं। सरकार पर
जिस तरह के हमले विरोधी विचारधारा के लोगों ने किए उसका एक नुकसान यह हुआ कि नियुक्तियों
में सरकार धीमे चलने की नीति पर चलने लगी। अगर हम एक नजर डालें तो देख सकते हैं कि
संस्कृति मंत्रालय के अधीन कई ऐसी स्वायत्त संस्थाएं हैं जिनमें काफी समय बीत जाने
के बाद भी उनके प्रमुखों की और प्रशासकों की नियुक्ति नहीं हुई। ललित कला अकादमी
इसका उदाहरण है जहां लंबे समय तक प्रशासक से काम चलाया गया। मंत्रालय के संयुक्त
सचिव इसके कर्ताधर्ता रहे। इसकी गवर्निंग बॉडी को भारत सरकार ने भंग कर दिया और इस
संस्था की बेवसाइट के मुताबिक अब तक इसका गठन नहीं हो सका है। अभी हाल में वरिष्ठ
कलाकार उत्तम पचारने को इसका चेयरमैन नियुक्त किया गया है लेकिन अभी भी यहां
स्थायी सचिव की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। इसी तरह से अगर हम देखें तो सांस्कृतिक
स्त्रोत और प्रशिक्षण केंद्र, जिसे सीसीआरटी के नाम से जाना जाता है, में चेयरमैन
की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। सीसीआरटी का काम शिक्षा को संस्कृति से जोड़ने का
है। यह संस्कृति मंत्रालय संबद्ध एक स्वायत्त संस्था है। इस संस्था के बारे में उपलब्ध जानकारी है कि ‘केन्द्र का मुख्य सैद्धांतिक उद्देश्य बच्चों को सात्विक शिक्षा
प्रदान कर उनका भावात्मक व आध्यात्मिक विकास करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के
लिए सीसीआरटी संस्कृति पर आधारित शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करता है और उनमें
विचारों की स्पष्टता, स्वतन्त्रता, सहिष्णुता तथा संवेदनाओं का समावेश किया जाता है।‘ यह उद्देश्य तो संघ को अच्छा लग सकता है लेकिन एक वर्ष से
ज्यादा समय से यहां कोई अध्यक्ष नहीं हैं। इतने महत्वपूर्ण संस्था का अध्यक्ष ना
होना संस्कृति मंत्रालय के काम करने के तरीके पर प्रश्न खड़ा करता है और इस बात के
संकेत भी देता है कि संघ इन नियुक्तियों में दखल नहीं देता है। इसी तरह से
संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक और संस्था है राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, इसके
चेयरमैन रतन थियम का कार्यकाल 2017 में खत्म हो गया लेकिन अबतक किसी की नियुक्ति
नहीं हुई और संस्था बगैर अध्यक्ष के चल रही है। इस सूची में कई अन्य नाम और भी
हैं। देश में पुस्तकों और पुस्तक संस्कृति के उन्नयन के लिए बनाई गई संस्था राजा
राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष ब्रज किशोर शर्मा का कार्यकाल भी समाप्त
हो चुका है लेकिन उनकी जगह भी संस्कृति मंत्रालय ने किसी की नियुक्ति नहीं की है।
नतीजा यह हो रहा है कि वहां लगभग अराजकता है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के
दो ट्रस्टी फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी और पूर्व आईपीएस के अरविंद राव ने
महीनों पहले इस्तीफा दे दिया लेकिन उनकी जगह संस्कृति मंत्रालय ने किसी को नियुक्त
नहीं किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब पद संभाला था तो उन्होंने यह कहा था
कि यथास्थितिवाद उनको किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है लेकिन कई मंत्रालयों को देखकर
लगता है कि प्रधानमंत्री ने स्वयं वहां यथास्थितिवाद के देवताओं को स्थापित कर रखा
है।
अब अगर एक नजर भाषा के विकास के लिए बनाई गई संस्थाओं पर डालते
हैं तो वहां भी कई ऐसे संस्थान हैं जो बगैर अध्यक्ष या निदेशक के चल रहे हैं। हिंदी
को लेकर ये सरकार बहुत संवेदनशील रही है। इसको संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा
बनाने को लेकर भी सरकार ने इच्छाशक्ति दिखाई थी लेकिन केंद्रीय हिंदी निदेशालय में
सालों से नियमित निदेशक नहीं हैं। पहले राष्ट्रीय सिंधी भाषा संवर्धन परिषद के
निदेशक डॉ रवि टेकचंदानी इसका अतिरिक्त प्रभार संभाल रहे थे और अब वैज्ञानिक और
तकनीकी शब्दावली आयोग के चेयरमैन अवनीश कुमार इसको संभाल रहे हैं। इसमें एक और
दिलचस्प तथ्य है कि वो गणितज्ञ हैं लेकिन सरकार ने उनको वैज्ञानिक और तकनीकी
शब्दावली के अलावा हिंदी का जिम्मा भी सौंप रखा है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय में
स्थायी निदेशक की नियुक्ति नहीं होने से कई नुकसान हैं क्योंकि इस संस्था का
उद्देश्य हिंदी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करना, हिंदी भाषा के माध्यम से जन-जन
को जोड़ना और हिंदी को वैश्विक धरातल पर प्रतिष्ठित करना है। इसमें कई सालों से
निदेशक का नहीं होना सरकार की हिंदी को लेकर उदासीनता को दर्शाता है। इसी तरह से
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एक और स्वायत्त संस्था है राष्ट्रीय सिंधी भाषा
संवर्धन परिषद, उनके निदेशक का कार्यकाल भी खत्म हो गया है और उनको तीन महीने का
विस्तार दिया गया है। यह कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो इंगित करते हैं कि सरकार भाषा और
संस्कृति को लेकर कितनी गंभीर है। इसी वर्ष मार्च में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक से
में भाषा को लेकर महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास किया गया था जिसमें भारतीय भाषाओं के
संरक्षण और संवर्धन की आवश्यकता पर जोर दिया गया। भाषा
के संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकारों, नीति निर्धारकों और स्वयंसेवी संगठनों से
प्रयास करने की अपील की गई थी। संघ की अपील के बाद करीब तीन महीने तक ऐसा होना भी
ये दर्शाता है कि संघ का सरकार में कितना दखल है। संस्कृति मंत्री और शिक्षा
मंत्री को इस दिशा में व्यक्तिगत रुचि लेकर काम करना होगा ताकि इन संस्थाओं को
बदहाली से बचाया जा सके। और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि इन मंत्रियों को
यथास्थितिवाद के मकड़जाले को भी तोड़ना होगा।
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