तीन साल पहले की बात है,
कुमाऊं लिटरेचर फेस्टिवल में फिल्मों पर एक सत्र चल रहा था जिसमें फिल्मी
शख्सियतों पर पुस्तकें लिखनेवाले लेखक शामिल थे। राजेश खन्ना के जीवनीकार गौतम
चिंतामणि और यासिर उस्मान, शशि कपूर के जीवनीकार असीम छाबड़ा के अलावा अन्य लोग
थे। सत्र का संचालन फिल्म पत्रकार मयंक शेखर कर रहे थे। इस चर्चा के दौरान किसी
वक्ता ने ये कह दिया कि हिंदी में नायिकाएं अपने बूते पर फिल्मों को हिट नहीं करवा
पाती हैं। इस बयान के बाद वहां मौजूद श्रोताओं के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई और
श्रोताओं के हस्तक्षेप की वजह से चर्चा काफी गरम हो गई थी। मंच पर बैठे सभी वक्ता
बैकफुट पर आ गए थे। मंचासीन सभी वक्ता इस बात पर एकमत हो गए कि उनके कहने का आशय
ये था कि हिंदी फिल्मों के इतिहास में कोई महिला सुपरस्टार नहीं हुई जो अपने दम पर
फिल्म को लगातार हिट करवा सके। किसी तरह बात संभली थी लेकिन इसके बाद चर्चा इस पर
होने लगी थी कि बॉलीवुड नायक प्रधान क्यों है। क्यों नायिकाओं को नायकों से कम
पैसे मिलते हैं। क्यों नायकों से नायिकाओं के बारे में उनकी पसंद पूछी जाती है,
आदि आदि। यह बात उस वक्त होकर खत्म हो गई लेकिन उक्त वक्ता की टिप्पणी मन के किसी
कोने अंतरे में धंसी रह गई।
हाल ही में कई फिल्में
इस तरह की आईं है जिसमें नायिकाओं ने अपने बूते पर फिल्म को हिट करवाया। आलिया
भट्ट ने अपने अभिनय के बूते पर फिल्म ‘राजी’ को 100 करोड़ के क्लब
में शामिल करवा दिया। इस फिल्म में कोई स्टार नायक नहीं है, बावजूद इसके ये फिल्म
सुपर हिट रही। इससे तो एक और दिलचस्प बात जुड़ी है कि इस फिल्म का निर्देशन भी एक
महिला ने किया है, मेघना गुलजार। ‘राजी’ की रिलीज के चंद दिनों
बाद एक और फिल्म आई ‘वीरे द वेडिंग’। इस फिल्म ने भी दो
हफ्ते में करीब साठ करोड़ का बिजनेस किया है, जिसको बेहतर प्रदर्शन माना जा सकता
है। इसमें भी कोई स्टार नहीं है बल्कि चार नायिकाएं करीना कपूर खान, सोनम कपूर
आहूजा, शिखा और स्वरा
भास्कर है। हलांकि इस फिल्म में सफल होने के लिए तमाम तरह का मसाला डाला गया । फिल्म
में महिलाओं की बातचीत में गालियों की भरमार है, यौनिकता का प्रदर्शन है, स्वछंदता
की वकालत की गई है और इसको फेमिनिस्ट फिल्म कहकर प्रचारित भी किया गया। फेमिनिज्म की
आड़ में सेक्सुअलिटी से लेकर गाली गलौच को आधिनिक महिलाओं की जीवन शैली का हिस्सा
बताकर पेश किया गया है। दरअसल कुछ फिल्मकारों को लगता है कि गाली गलौच करके, फ्री
सेक्स की वकालत करके ही महिलाएं स्वतंत्र हो सकती हैं। फिल्म ‘वीरे द वेडिंग’ के कर्ताधर्ता इसी दोष
के शिकार हो गए। ऐसे फिल्मकारों को स्त्री स्वतंत्रता और स्वछंदता का भेद समझना
होगा। फिल्म अच्छी कमाई करने की राह पर भले ही अग्रसर दिखाई देती हो लेकिन इस
फिल्म का स्थायी महत्व होगा, इसमें संदेह है। हां, कमाई के लिहाज से इसको याद रखा
जा सकता है। फेमिनिज्म पर पूर्व में भी कई फिल्में बनीं जो भारतीय हिंदी सिनेमा
में आज भी याद की जा सकती हैं। स्मिता पाटिल और शबाना आजमी अभिनीत फिल्म ‘अर्थ’ में नारी स्वतंत्रता का
जो चित्रण है वो स्थायी है। फिल्म के क्लाइमैक्स पर शादीशुदा कुलभूषण खरबंदा अपनी
प्रेमिका स्मिता पाटिल को छोड़कर वापस अपनी पत्नी शबाना आजमी के पास पहुंचता है और
माफी मांगता है। शबाना आजामी उसको माफी देने से मना करती है और कहती है कि अगर मैं
किसी मर्द के साथ इतने दिन गुजारकर तुम्हारे पास वापस आती तो क्या मुझे माफ कर
देते। फिल्म यहां खत्म हो जाती है। स्त्री स्वतंत्रता का उत्स है इस फिल्म में। बगैर
किसी शोर शराबे के, बगैर किसी गाली गलौच के। उस फिल्म की नायिका जितनी बोल्ड और
बिंदास थी, ‘वीरे द वेडिंग’ में वो बात नहीं है। खैर
ये अलहदा मुद्दे हैं उसपर फिर कभी विस्तार से बात होगी।
फिलहाल हम बात कर रहे
हैं नायिका के केंद्रीय रोल में फिल्मों के सफल होने की। इसी तरह की एक फिल्म आई
थी ‘हिचकी’। ये फिल्म भी रानी
मुखर्जी ने अपने बूते पर सफल करवाई। ‘हिचकी’ फिल्म की नायिका ‘टूरेट सिंड्रोम’ से पीड़ित होती है जिसके बारे में
कम लोगों को पता था। ये एक न्यूरोसाइकेट्रिक समस्या है जो किसी को भी बचपन से ही
हो सकती है। इस फिल्म को भी पर्याप्त सफलता मिली। इसके पहले ‘मॉम’ फिल्म भी सफल रही। ऐसा नहीं है कि नायिका प्रधान
फिल्में पहले हिट नहीं होती रही हैं। नायिका प्रधान फिल्मों के हिट होने का एक
लंबा इतिहास है । फिल्म ‘मदर
इंडिया’ से लेकर फिल्म
‘लज्जा’ तक और फिर फिल्म ‘कहानी’ से से लकर ‘क्वीन’ तक। हर दौर में महिला प्रधान
फिल्में बनती रही हैं, लेकिन हाल के दिनों में महिला प्रधान फिल्मों के सफल होने
की संख्या बढ़ी है। समकालीन समय में हम ‘क्वीन’ को इस सफलता का प्रस्थान बिंदु मान सकते
हैं। 2014 में रिलीज हुई इस फिल्म ‘क्वीन’ में कंगना रनौट ने अपने अभिनय के बल
पर शानदार सफलता हासिल की थी। फिल्मी दुनिया के ट्रेड पंडितों के मुताबिक ‘क्वीन’ के निर्माण पर करीब 13 करोड़ रुपए खर्च हुए थे
और फिल्म ने सौ करोड़ से ज्यादा का बिजनेस किया था। इस तरह से देखें तो इस फिल्म
ने अपनी लागत के करीब नौ गुना ज्यादा रकम का बिजनेस किया। श्रीदेवी की फिल्म ‘मॉम’ भी सफल रही थी। उसने भी अपने लागत से कई गुणा
ज्यादा का बिजनेस किया था।
ऐसा
नहीं है कि इस दौर में सभी नायिका प्रधान फिल्म सुपरहिट ही रहीं। विद्या बालन की
फिल्म ‘बेगम जान’ जिसे मशहूर निर्देशक श्रीजित
मुखर्जी ने निर्देशित किया था वो ज्यादा बिजनेस नहीं कर पाई। उपलब्ध आंकड़ों के
मुताबिक करीब बीस करोड़ में बनी ये फिल्म तीस करोड़ का ही बिजनेस कर पाई। हलांकि
विद्या की ही एक और फिल्म ‘तुम्हारी
सुलु’ ने औसत बिजनेस
किया। बीस करोड़ की लागत से बनी फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 50 करोड़ का कारोबार किया।
दरअसल
स्त्रियों को लेकर वही फिल्में ज्यादा दर्शकों को अपनी ओर खींच रही हैं जिसमें
स्त्री पात्रों को लेकर ज्यादा जिम्मेदार किस्म की कथानक पर फिल्में बन रही हैं। हमारे
देश में 1991 में आर्थिक उदारीकरण के दौर और खुले बाजार की वजह से कई ऐसी फिल्में
आई जिनमें स्त्री चरित्रों का इस्तेमाल फिल्मकारों ने अपने व्यावसायिक हितों को
ध्यान में रखते हुए किया और खुलेपन के तर्क की ओट में नायिकाओं के कपड़े कम करते
चले गए। यह उन्नीस सौ सत्तर या उन्नीस सौ अस्सी के दौर की फिल्मों से अलग थी। ब्रिटिश
अभिनेत्री एमा थॉमसन का हॉलीवुड फिल्मों को लेकर एक मशहूर कथन है- ‘1980 या उस दौर के आसपास बनने वाली
फिल्में का नैतिक स्तर बिल्कुल शून्य था। मुनाफा ही उसका उद्देश्य था, जिसका सीधा
संबंध उन भूमिका से रहा है जो फिल्मों में नायिकाओं को दी जाती रही हैं। उस दौर
में स्त्री का मतलब या तो भोली भाली स्त्री या नायकों को अपने हाव-भाव से
लुभानेवाली नायिका।‘ इस
कथन के आलोक में हम हिंदी फिल्मों के 1990 से लेकर 2000 तक के दौर को देख सकते हैं
बल्कि दो चार साल आगे तक भी। लेकिन अब जब नए लेखकों का दौर आया है तो उन्होंने
हिंदी फिल्मों में भारतीय स्त्रियों की परंपरागत छवि को ध्वस्त करते हुए उसका एक
नया रूप गढ़ा है।इस नए रूप में कई बार विचलन भी देखने को मिलता है लेकिन वो
ज्यादातर यथार्थ के करीब होती हैं। जैसे अगर हम दो हजार ग्यारह में आई फिल्म ‘डर्टी पिक्चर’ को देखें, जो दक्षिण भारतीय फिल्मों
की नायिका सिल्क स्मिता की जिंदगी पर बनी थी, में तमाम मसालों और सेक्सी दृश्यों
की भरमार के के बावजूद यथार्थ बहुत ही खुरदरे रूप में मौजूद था। नायिका प्रधान
फिल्मों की सफलता इस ओर भी संकेत दे रही है कि अगर कहानी अच्छी हो, उस कहानी का
फिल्मांकन बेहतर हो तो वो सफल हो सकती है। यह भी प्रतीत होता है कि हिंदी दर्शकों
की रुचि का भी परिष्कार हो रहा है और अब वो यथार्थवादी फिल्मों को तुलनात्मक रूप
से ज्यादा पसंद करने लगा है। उदाहऱम के तौर पर अगर हम 2016 में रिलीज हुई फिल्म ‘पिंक’ का उदाहरण लें तो वो फिल्म अपनी कहानी और उसके
बेहतरीन चित्रण की वजह से दर्शकों को खूब पसंद आई। 23 करोड़ की लागत से बनी फिल्म
ने 100 करोड़ से ज्यादा बिजनेस किया। इस तरह की फिल्मों की सफलता से यह उम्मीद जगी
है कि अगर हिंदी फिल्मों में स्त्री पात्रों का चित्रण यथार्थपरक तरीके से किया
जाए तो वो समाज पर असर भी डालेंगी और कारोबार भी अच्छा करेगी।
1 comment:
उम्दा लेखा अनंत जी.. बहुत सारी ऐसी बातें आपने लिख डालीं हैं इस लेख में जिन पर आम तौर पर कोई ध्यान ही नहीं देता. मगर ये ज़रूरी होती हैं. यानी स्त्री विमर्श सिर्फ औरत के मर्द की तरह गाली गलौज कर देने से नहीं होता. या फिर स्त्री की आज़ादी का मतलब छोटे कपडे पहन कर कहीं भी नाचना गाना या शराब पी कर बेअदबी करना नहीं होता. गाली देना मर्द और औरत दोनों के ही लिए बराबर अशोभनीय है. वैसे ही जैसे बेअदबी करना.. फिल्मों में इस तरह एक वयवहार को कई बार इस तरह पेश किया जाता है जैसे ये बड़े फख्र की बात हो. माना कि क्या पहनना है और क्या नहीं पहनना वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला है. मगर जैसे हम शादी के मौके पर नाईट सूट पहन कर नहीं जाते या फिर ऑफिस में सिल्क की ज़रीदार साडी नहीं पहनते उसी तरह सड़क पर चलते वक़्त या पार्टी में जाने के लिए भी अलग अलग तरह की पोशाक होती है.. फिल्मों से हमारा समाज बहुत बड़े तौर पर प्रभावित रहता है. ये बता फिल्म बनाने वाले समझें तो बेहतर...
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