करीब तीन साल पहले की
बात रही होगी,हिंदी प्रकाशन जगत में एक जुमला बहुत तेजी से चला, ‘नई वाली हिंदी’। ‘नई वाली हिंदी’ की इस तरह से ब्रांडिंग
की गई जैसे हिंदी नई चाल में ढलने लगी हो। हिंद युग्म प्रकाशऩ ने इसको अपना टैग
लाइऩ बनाया। वहां से प्रकाशित होनेवाले उपन्यासों और कहानी संग्रहों को ‘नई वाली हिंदी’ की कृतियां कहकर
प्रचारित किया जाने लगा। सोशल मीडिया से लेकर साहित्य उत्सवों तक में इस ‘नई वाली हिंदी’ पर चर्चा शुरू हो गई। इसका
एक असर ये हुआ कि पाठकों को लगा कि ‘नई वाली हिंदी’ कुछ नयापन लेकर आई है। इस
बीच दैनिक जागरण बेस्टसेलर की सूची आई जिसमें इस ‘नई वाली हिंदी’ के कई लेखकों ने शीर्ष
पर जगह बनाई। जागरण की हर तिमाही प्रकाशित बेस्टसेलर की सूची में ‘नई वाली हिंदी’ के लेखकों ने लगातार
जगह बनाई। इस सूची में ‘नई वाली हिंदी’ के लेखकों के अलावा
नरेन्द्र कोहली, रमेश कुंतल मेघ, गुलजार, जावेद अख्तर, यतीन्द्र मिश्र जैसे लेखकों
ने भी जगह बनाई। लेकिन दैनिक जागरण बेस्टसेलर में ‘नई वाली हिंदी’ के लेखकों के लगातार
बने रहने से इसपर देशव्यापी चर्चा शुरू हो गई। जब चर्चा जोर पकड़ने लगी तो वो ‘नई वाली हिंदी’ के लेखकों की कृतियों
में अंग्रेजी के शब्दों के उपयोग पर चली गई, फिर एकाधिक बार इन कृतियों में रोमन
में लिखे वाक्यों को लेकर चर्चा हुई, कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक लेकिन ‘नई वाली हिंदी’ चर्चा में बनी रही। कुछ
लेखकों ने प्रेमचंद से लेकर हिंदी के अन्य लेखकों की कृतियों को उद्धृत करते हुए
ये बताया कि उन लोगों ने भी अपनी अपनी रचनाओं में अंग्रेजी के वाक्यों का प्रयोग
किया है जो देवनागरी में छपी रचनाओँ के मध्य है। कुछ लोगों ने कहा कि साहित्यिक
कृतियों में हिंदी को अपनी शुद्धता के साथ उपस्थित होना चाहिए तो कइयों ने भाषा को
लेकर इस तरह की बात को दुराग्रह माना। कुछ लोगों ने बोलचाल की भाषा को अपनाने की
वकालत करनी शुरू कर दी। बोलचाल की भाषा में हिंदी लिखने की बात भी नई नहीं है।
हिंदी के महत्वपूर्ण कवि भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता है- जिस तरह हम बोलते हैं
उस तरह तू लिख/और इसके बाद भी
हमसे बड़ा तू दिख। दशकों पहले भवानी बाबू जैसे कवि ने साहित्य में भी बोलचाल की
भाषा की वकालत की थी। यह बहस अब भी जारी है, जारी रहनी भी चाहिए। भाषा को लेकर
लगातार मंथन होने के अपने फायदे भी हैं। लेकिन इस ‘नई वाली हिंदी’ में ब्राडिंग के अलावा
भाषा के स्तर पर नया क्या था ये पाठकों के सामने आना शेष है।
भवानी बाबू बोलचाल की
भाषा को साहित्य की भाषा बनाने का आग्रह तो करते हैं लेकिन अगली पंक्ति में वो
इससे भी महत्वपूर्ण बात करते हैं जिसको रेखांकित किए जाने की जरूरत है। भवानी
प्रसाद मिश्र अपनी इसी कविता में इसी पंक्ति के बाद कहते हैं कि ‘चीज ऐसी दे कि जिसका
स्वाद सिर चढ़ जाए/बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए।‘ कहने का
मतलब यह है कि वो रचना की स्तरीयता और उसके उत्कृष्ट होने को लेकर भी कवियों और
लेखकों को ललकारते हैं। हमें इस ‘नई वाली
हिंदी’ के लेखकों
की रचनाओं पर विचार करने का वक्त आ गया है। ‘नई वाली हिंदी’ के लेखक सत्य व्यास की किताब ‘बनारस टॉकीज’ जबरदस्त
हिट रही, बिकी भी। सत्य व्यास को जमकर शोहरत मिली। बेस्टसेलर की सूची में भी इसने
लगातार अपना स्थान बनाए रखा है। अपनी इस किताब में सत्य व्यास ने बनारस हिंदी
विश्वविद्यालय को केंद्र में रखा और वहां की कहानी को बेहद दिलचस्प अंदाज में
पाठकों के सामने पेश किया। अब तो इस कृति पर फिल्म भी बन रही है। इसके बाद सत्य
व्यास का दूसरा उपन्यास आया, ‘दिल्ली
दरबार’। अपने इस
उपन्यास में लेखक ने दिल्ली विश्वविद्यालय और वहां के छात्र जीवन को केंद्र में
रखा। यह पुस्तक भी चर्चित हुई, लेकिन लोकप्रियता और बिक्री में ये ‘बनारस
टॉकीज’ को पार
नहीं कर सकी। हलांकि सत्य के इस उपन्यास में भी पठनीयता थी, भाषा का प्रवाह भी था
लेकिन विषयगत नवीनता नहीं थी। ‘बनारस
टॉकीज’ के बाद
निखिल सचान का उपन्यास ‘यूपी 65’ आया। निखिल
सचान की इसके पहले ‘नमक
स्वादानुसार’ और ‘जिंदगी आइस
पाइस’ के नाम से
दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी। निखिल का ये पहला उपन्यास था जिसमें बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के
आईआईटी के परिवेश में बुनी एक इंजीनियर के इश्क और शिक्षा व्यवस्था से उसके मोहभंग
की कहानी है। वही विश्वविद्यालय और वही छात्रों के बीच का जीवन। निखिल के
इस उपन्यास को सफलता मिली लेकिन अपेक्षाकृत कम। इसके बाद कई उत्साही युवाओं ने
युनिवर्सिटी कैंपस को लेकर उपन्यास लिखे। ऐसा नहीं है कि ‘नई वाली
हिंदी’ में सिर्फ
उपन्यास लिखे जाने लगे। इसमें कहानियां और व्यंग्य आदि भी लिखे गए। ‘नई वाली
हिंदी’ के एक और
ब्रांड अंबेसडर बने दिव्य प्रकाश दुबे। उनका कहानी संग्रह ‘मुसाफिर
कैफे’ खूब
चर्चित हुआ। उनकी और कृतियां ‘मसाला चाय’ और ‘टर्म्स एंड
कंडिशंस अप्लाई’ ने भी
जमकर चर्चा बटोरी, पाठकों का प्यार भी मिला। इसी समय ये दावा किया गया कि हिंदी
साहित्य में एक नई विधा का उदय हुआ है। ये दावा किया गया अजीत भारती के बैचलर व्यंग्य
संग्रह ‘बकर पुराण’ में। 2016
में प्रकाशित इस किताब में लेखक ने लिखा- ‘बकर साहित्य हिंदी साहित्य की एक नई विधा है जो सड़के के पास
की चाय दुकानों, गोलगप्पे के ठेलों, स्कूल कॉलेज के हॉस्टलों से होते हुए बैचलरों
के उस कमरे पर पहुंचता है जहां गालिब है, मोमिन है, ट्रॉटवस्की है, आंद्रे ब्रेतां
है और कास्मोपॉलिटन का पुराना-सा इशू भी है।‘ अब ‘बकर
साहित्य’ हिंदी
साहित्य की नई विधा के तौर पर स्थापित हो पाया या नहीं ये तो समय तय करेगा लेकिन
साहित्य की नई विधा स्थापित करने का दावा लप्रेक ने भी किया था जिसका हश्र हिंदी
जगत ने देख लिया। तीन-चार लेखकों से आगे नहीं बढ़ पाई वो कथित विधा।
‘नई वाली
हिंदी’ की
ब्रैंडिंग के बाहर के लेखक चेतन भगत और पंकज दूबे ने भी युनिवर्सिटी जीवन को
केंद्र में रखकर उपन्यास लिखे। पंकज दूबे को भी जो सफलता ‘लूजर कहीं
का’ में मिली
थी वैसी सफलता उनको बाद के उपन्यासों में नहीं मिल पाई। चेतन को भी नहीं। तो क्या
अब ये वक्त आ गया है कि ‘नई वाली
हिंदी’ के कई
लेखकों को ये समझना होगा कि पाठकों को भाषा के चमत्कार से बहुत देर और दूर तक
चमत्कृत नहीं किया जा सकता है। मुझे तो यही लगता है कि ‘नई वाली
हिंदी’ के लेखकों
को अब नए विषयों की तलाश करनी चाहिए। कॉलेज युनिवर्सिटी की किस्से बहुत हो गए। क्योंकि
इनसे अलग हटकर भी जिसने लिखा उनको सफलता मिली। अनु सिंह चौधरी ने इससे अलग हटकर ‘नीला
स्कार्फ’ और ‘मम्मा की
डायरी’ लिखी।
जिसे काफी सराहा गया। इसी तरह से भगवंत अनमोल ने ‘जिंदगी फिफ्टी फिफ्टी’ लिखी जिसको भी खूब पसंद किया गया। प्रियंका ओम की ‘मुझे
तुम्हारे जाने से नफरत है’ को भी
लोगों ने सराहा। ‘नई वाली
हिंदी’ के युवा
लेखकों के सामने अभी पूरी जिंदगी पड़ी है, हिंदी साहित्य जगत को उनसे बहुत
उम्मीदें हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य की उस जड़ता को तोडा जो किसी खास तरह की
यथार्थवादी रचनाओं को ही श्रेष्ठ मानती थी। उन्होंने हिंदी से उन पाठकों को भी
जोड़ा जो इन खास तरह की रचनाओं से उबकर साहित्य से विमुख होने लगे थे। एक योगदान
इनका और है कि इन्होंने हिंदी के कई प्रकाशकों को भी इस तरह की कृतियां छापने के
लिए उकसाया। इन्होंने अपनी सफलता से अपने आलोचकों का मुंह भी बंद किया जो इस नई
वाली हिंदी के लेखकों को खारिज करने के लिए उनको हल्की फुल्की पुस्तकें कहा करते
थे और ये भी तर्क देते थे कि इन पुस्तकों का स्थायी महत्व नहीं है। अब इनके सामने
यही चुनौती है कि वो कैसे अपने लेखन में विषय का विस्तार करते हैं, अपने अलग अलग
अनुभवों को कैसे कथानक में पिरोकर पाठकों के सामने पेश करते हैं। अगर वो ऐसा कर
पाते हैं तो फिर उनको साहित्य के केंद्र में स्थापित होने से कोई रोक नहीं सकेगा
लेकिन अगर वो अपने लेखन के दायरे का विस्तार नहीं कर पाएंगें तो बहुत संभव है उनकी
हालत भी अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के किरदार की तरह हो जाएगी जिसकी शुरुआत
तो होती है ‘दीवार’ और ‘त्रिशूल’ जैसी
फिल्मों से लेकिन अंत होता है ‘लाल बादशाह’ और ‘तूफान’ जैसी
फिल्मों से। अमिताभ को भी तो सफलता के लिए परदे पर अपनी छवि बदलनी ही पड़ी थी।
2 comments:
शुक्रिया ����, आपने हमेशा की तरह सुंदर लिखा है !
आपके लेख पढ़कर ही मैं आपसे जुड़ी थी !
बेहद शानदार लेख नई हिंदी के लेकर..
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