राजेन्द्र यादव के जीवित रहते
साहित्यिक परिदृश्य जीवंत बना रहता था। वो अपनी पत्रिका हंस में या अन्यत्र भी
अपनी टिप्पणियों या अपने साक्षात्कार आदि के माध्यम से कुछ ऐसा कह जाते थे या कुछ
ऐसा लिख देते थे जिससे हिंदी जगत में बौद्धिक चहल-पहल बनी रहती थी। उनके निधन के
बाद हिंदी साहित्य जगत में जीवंतता और खिलंदड़ापन की कमी महसूस होती है। यादव जी
लगातार कुछ साहित्यिक शरारतें करते रहते थे, इन शरारतों से ज्यादातर विवाद होते
थे, उन विवादों की वजह से संवाद होता था, साहित्य के पाठकों को एक अलग किस्म का रस
और आनंद मिलता था। यादव जी तो हर वक्त इस फिराक में ही रहते थे कि कैसे कोई
साहित्यिक विवाद उठे, वो साथी लेखकों को उकसाते रहते थे, विवाद सुझाते भी रहते थे।
साहित्यिक पत्रिका ‘पाखी’ के संपादक
प्रेम भारद्वाज यदा-कदा अपने संपादकीय या अपने आयोजनों से हिंदी साहित्य के सन्नाटे
को तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं। कभी विभूति नारायण राय और मैत्रेयी पुष्पा की
अपनी पत्रिका के कवर पर हंसते हुए फोटो छापकर तो कभी किसी विषय विशेष पर दो ध्रुव
पर बैठे लेखकों को सामने लाकर माहौल को जीवंत बनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन
उनमें विवादों को खड़ा करने को लेकर राजेन्द्र यादव जैसी निरंतरता नहीं है। प्रेम
भारद्वाज विवाद तो खड़ा करते हैं पर थोड़ा हिचकते भी हैं, यादव जी की तरह बिंदास
होकर फ्रंट फुट पर नहीं खेलते हैं।
‘पाखी’ के अगस्त अंक
में हिंदी के वरिष्ठ आलोचक और गद्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी से एक लंबी बातचीत छपी है
जिसमें कथाकार अल्पना मिश्रा ने त्रिपाठी जी को घेर लिया। दरअसल दो हजार ग्यारह
में त्रिपाठी जी की पुस्तक ‘व्योमकेश
दरवेश’
प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक उन्होंने अपने गुरू आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की
जिंदगी को आधार बनाकर लिखी थी। पुस्तक प्रकाशन के बाद उसपर काफी चर्चा हुई और
ढेरों पुरस्कार प्राप्त हुए। ‘पाखी’ में प्रकाशित
बातचीत में प्रेम भारद्वाज ने विश्वनाथ त्रिपाठी से इस पुस्तक पर बात शुरू की और
उनके सामने द्विवेदी जी कुल गोत्र की रचनाकार अल्पना मिश्र को सामने कर दिया। अल्पना
मिश्र ने कहा कि जबसे ये पुस्तक आई है तो इसको आचार्च द्विवेदी की प्रामाणिक जीवनी
के तौर पर देखा या माना जा रहा है। अल्पना मिश्र ने त्रिपाठी जी की इस पुस्तक की
तथ्यात्मक भूलों की ओर इशारा करते हुए त्रिपाठी जी से उत्तर की अपेक्षा की। अल्पना
ने अपने प्रश्न में बताया कि त्रिपाठी जी ने द्विवेदी जी के गांव का नाम गलत लिखा,
आचार्य द्विवेदी की मां का नाम गलत लिखा। अल्पना ने एक और तथ्य सामने रखा कि द्विवेदी
जी की एक पुत्री का निधन लिवर सिरोसिस से हुआ जबकि त्रिपाठी जी ने तीनों पुत्रियों
की मौत की वजह इस बीमारी को बता दिया है। अल्पना मिश्र पूरी तैयारी के साथ आई थी
और उन्होंने एक के बाद एक तथ्यात्मक भूलों को गिनाना शुरू कर दिया। त्रिपाठी जी ने
अपनी पुस्तक में लिखा कि आचार्य जी की पत्नी दूसरी कक्षा तक पढ़ी हैं जो कि अल्पना
के मुताबिक गलत है। अब त्रिपाठी जी को कोई उत्तर सूझ नहीं रहा था, उन्होंने जो
बताया वो चौंकानेवाला था। उनके मुताबिक वो द्विवेदी जी के गांव गए वहां उन्हें एक
शख्स मिला जिसने खुद को आचार्य द्विवेदी का पौत्र बताया। उस व्यक्ति ने त्रिपाठी
जी को विश्वनाथ द्विवेदी पर प्रकाशित एक अभिनंदन ग्रंथ दिया। त्रिपाठी जी ने उस
व्यक्ति के कहे और उस अभिनंदन ग्रंथ को ब्रह्मसत्य मानते हुए ‘व्योमकेश दरवेश’ की रचना कर
डाली। प्रेम भारद्वाज ने उनसे यह भी जानने की कोशिश की कि जब इस पुस्तक को लिखने
में 15-17 साल लगे तो इतनी तथ्यात्मक भूले क्यों हैं? त्रिपाठी जी
इसका कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाए।
अल्पना मिश्र ने तो कहा कि उन्होंने ‘व्योमकेश दरवेश’ के बाद
त्रिपाठी जी से मिलने की कई कोशिशें की जो कामयाब नहीं हो पाईं। विश्वनाथ त्रिपाठी
ने इसको भी अजीब तरह से लिया और कहा कि ‘कहानीकारों की अपनी एक ऐंठ होती है।
मैं जानता हूं लोग कैसे मिलते हैं। जिसको मिलना होता है वो मिल ही लेते हैं।‘ त्रिपाठी जी
किताब भूलों से भरी है लेकिन फिर भी हिंदी साहित्य जगत के कई पुरोधाओं ने, खासकर
विश्वनाथ त्रिपाठी की विचारधारा के लोगों ने, इन सारी भूलों को नजरअंदाज करते हुए
ऐसा माहौल बनाया जैसे कोई अप्रतिम पुस्तक लिख दी गई हो। नामवर सिंह ने तो इस
पुस्तक को अपनी किताब ‘दूसरी
परंपरा की खोज’
से बेहतर बताया। अब सवाल यही से शुरू होते हैं। नामवर सिंह भी आचार्य द्विवेदी के
काफी करीबी थे, उन्हें ‘व्योमकेश
दरवेश’
की गलतियां क्यों नहीं दिखाई दीं। क्यों नहीं हिंदी के अन्य विद्वानों ने ‘व्योमकेश दरवेश’ पर उंगली उठाई।
इस स्तंभ में एक भयानक भूल की ओर 2014
में इशारा किया गया था। ‘व्योमकेश दरवेश’ के पहले संस्करण में पृष्ठ संख्या 214 पर यशपाल और साहित्य अकादमी विवाद
के संदर्भ में त्रिपाठी जी लिखते हैं – ‘यशपाल के विषय में विवाद हुआ ।कहते हैं
कि दिनकर ने आपत्ति दर्ज की कि ‘झूठा सच’ के लेखक ने किताब में जवाहरलाल नेहरू के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया है
।नेहरू भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ अकादमी के अध्यक्ष भी थे । नेहरू तक
बात पहुंची हो या ना पहुंची हो, द्विवेदी जी पर दिनकर की
धमकी का असर पड़ा होगा । भारत के सर्वाधिक लोकतांत्रिक नेता की अध्यक्षता और पंडित
हजारीप्रसाद द्विवेदी के संयोजकत्व में यह हुआ । अगर यह सच है तो अकादमी के
अध्यक्ष और हिंदी के संयोजक दोनों पर धब्बा है यह घटना और ‘मेरे
नगपति मेरे विशाल’ के लेखक को क्या कहा जाए जो ‘अपने समय का सूर्य होने’ की घोषणा करता है।‘ अब यहीं विश्वनाथ त्रिपाठी का दिनकर को लेकर पूर्वग्रह सामने आता है ।
जबकि यह पूरा प्रसंग ही इससे उलट है । डी एस राव की किताब ‘फाइव
डिकेड्स, अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ साहित्य अकादमी’ के पृष्ठ संख्या 197 पर लिखा है – एक्जीक्यूटिव
बोर्ड की बैठक में नेहरू ने जानना चाहा कि यशपाल के झूठा सच को अकादमी पुरस्कार
क्यों नहीं मिला तो हिंदी के संयोजक हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि उसमें नेहरू
जी को बुरा भला कहा गया है । नेहरू जी ने कहा कि पुरस्कार नहीं देने की ये कोई वजह
नहीं होनी चाहिए । इसपर द्विवेदी जी ने जवाब दिया कि सिर्फ वही एकमात्र कारण नहीं
था बल्कि और भी अन्य बेहतर किताबें पुरस्कार के लिए थी । अर्थात द्विवेदी जी ने
यशपाल को साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं दिया । कालांतर में यह बात सुननियोजित
तरीके से फैलाई गई कि इसके पीछे दिनकर थे लेकिन वो गलत तथ्य है । इस पूरे प्रसंग
से यह साबित होता है कि विश्वनाथ त्रिपाठी या तो स्मरण दोष के शिकार हो गए या
जानबूझकर दिनकर को बदनाम करने की साजिश के हिस्सा बने । अगर स्मरण दोष के शिकार
हुए होते तो यह नहीं कहते- ‘मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक
को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है’। यह दिनकर पर व्यक्तिगत प्रहार था।
दरअसल दिनकर अपने जीवन काल में लगातार वामपंथियों के निशाने पर रहे लेकिन चूंकि वो
इतने बड़े पाए के लेखक थे कि आयातित विचारधारा के लेखक उनकी रचनात्मकता को
प्रभावित नहीं कर सके। बाद मे जब व्योमकेश दरवेश का दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ तो
दिनकर के प्रसंग में त्रिपाठी जी ने सक्रियता दिखाई और मुझे
बताया गया है कि दिनकर का नाम और अपने समय का सूर्य वाली लाइन हटा दी गई है। अगर
ये पंक्तियां हटा दी गई हैं तो यह मान लेना चाहिए कि त्रिपाठी जी ने दुर्भावनावश
वो पंक्ति लिखी थी और तथ्य के सामने आने के बाद उसको हटा लेना उचित समझा।
‘व्योमकेश
दरवेश’
को लेकर जो शोर शराबा मचाया गया, उसको जिस तरह से प्रचारित किया गया, उसको जितने
पुरस्कार मिले वो सब अब सवालों के दायरे में है। हिंदी मे रचनाओं के पाठ और
पुनर्पाठ की बहुत चर्चा होती है, अब वक्त आ गया है कि त्रिपाठी जी की इस कृति का
पुनर्पाठ हो, भक्तिभाव की बजाए इस पुस्तक को तथ्यों की कसौटी पर फिर से कसा जाए। अगर
अल्पना जी के दिए गए तथ्य सही हैं तो त्रिपाठी जी को या फिर उस पुस्तक के प्रकाशक
को इन तथ्यों को सुधारने का उपक्रम किया जाना चाहिए क्योंकि इतिहास को बदल देना,
या उसके साथ छेड़छाड़ करना आनेवाली पीढ़ियों के साथ छल करना है। पाखी को इस सार्थक
चर्चा के आयोजन के लिए और चर्चा को दर्शन से हटाकर त्रिपाठी जी की पुस्तक पर लाकर
अल्पना मिश्र को आगे करने के लिए प्रेम भारद्वाज की तारीफ की जानी चाहिए।