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Saturday, November 24, 2018

विरोधियों को मदद करती सरकार


साहित्य, कला और संस्कृति को लेकर इस देश में बहुधा विवाद होते रहते हैं। कोई कार्यक्रम हो जाए तो विवाद, कोई कार्यक्रम टल जाए तो विवाद। कोई नियुक्ति हो जाए तो विवाद, कोई नियुक्ति ना हो पाए तो विवाद। किसी संस्थान में कोई अध्यक्ष चुन लिया जाए तो विवाद और ना चुना जाए तो विवाद। इन विवादों में ज्यादातर तर्क आरोप की शक्ल में सामने आते हैं। दो हजार चौदह में जब से नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तब से साहित्य-संस्कृति के विवादों में आरोपों को विचारधारा से भी जोड़ा जाने लगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा को बढ़ाने का आरोप लगना भी तेज हो गया। इसके पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने थे तब भी इस तरह की बात हुआ करती थी। अब तो हालत ये हो गई है कि कोई भी छोटा-मोटा विवाद भी हो तो उसमें प्रधानमंत्री को घसीट लिया जाता है। कोई कार्यक्रम चाहे किसी भी वजह से स्थगित हो उसकी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर डाल दी जाती है। बात इतने पर ही नहीं रुकती है, आरोप लगाने वाले इसको फासीवाद से जोड़ देते है। कोई इसको अघोषित इमरजेंसी बता देता है। मतलब हालात यह है कि जिसके मन में जिस तरह की बात आती है उसी तरह के आरोप लगा देता है, तथ्य, आधार और स्तर की परवाह किए बगैर।
जबकि साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र पर नजर डालें तो मौजूदा केंद्र सरकार बेहद उदार दिखाई देती है। अब अगर हम कृष्णा और सोनल मानसिंह के कार्यक्रम रद्द होने के मसले को ही देखें तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। इन लोगों के कार्यक्रम की आयोजक स्पिक मैके नाम की एक संस्था थी। ये संस्था सालों से भारतीय शास्त्रीय संगीत और कला के क्षेत्र में काम कर रही है। इस ताजा विवाद के बाद इस संस्था पर भी सवाल उठे। इनको केंद्र सरकार और इनके उपक्रमों से मिलनेवाली आर्थिक मदद को लेकर भी प्रश्न खड़े किए गए। कुछ लोगों की राय इस तरह की भी सामने आई कि इस पूरे विवाद में स्पिक मैके की परोक्ष भूमिका थी, लिहाजा केंद्र सरकार को उनको आर्थिक मदद देने पर पुनर्विचार करना चाहिए। इस विचार को संस्कृति मंत्रालय ने बिल्कुल तवज्जो नहीं दिया। बताया जा रहा है कि कुंभ के सिलसिले में कार्यक्रम करने के लिए इस संस्था को डेढ़ करोड़ से अधिक की राशि देने का फैसला किया गया है।संस्कृति मंत्रालय इतनी उदार है कि उनको अपने क्षेत्रीय सांस्कृति केंद्रों से ज्यादा भरोसा स्पिक मैके पर है। देशभर में सात क्षेत्रीय सांस्कृतिक कार्यलय हैं, संगीन नाटक अकादमी है, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र है, कई अन्य संस्थान हैं लेकिन निजी संस्थान स्पिक मैके पर ही संस्कृति मंत्रालय को भरोसा है। इस भरोसे की क्या वजह है वो साफ नहीं है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में भारतीय रूपंकर कला के इतने बेहतरीन कार्यक्रम आयोजित होते हैं और वो भी नियमित होते हैं लेकिन कला केंद्र से भी स्पिक मैके को तीन साल में एक करोड़ चालीस लाख रुपए दिए गए हैं। इतना ही नहीं बल्कि स्पिक मैके को कार्यक्रमों के आयोजन के लिए विभिन्न मंत्रालयों और सार्वजविक उपक्रमों से लाखों का अनुदान मिलता है। अगर मौजूदा सरकार बदले की भावना से काम करती या अगर इस सरकार की नीतियां अपनी विचारधारा से इतर विचारवालों को तंग करना होता तो इतनी उदारता से स्पिक मैके को अनुदान नहीं दिया जाता। स्पिक मैके के मंच पर तो मोदी सरकार से विरोध रखनेवाले कलाकारों को आमंत्रित किया ही जाता रहा है। दरअसल ये सरकार कलाकार को कलाकार की नजर से देखती है।
संस्कृति मंत्रालय तो इस मामले में बेहद उदार है। वो पहले भी साहित्यिक पत्रिका हंस के आयोजनों को आर्थिक मदद करती रही है जहां मंच पर घोषित मोदी विरोधी लोग बैठते थे और सरकार को कोसते थे। वो दृष्य कितना मनोहारी और समावेशी होता है जब वक्ता के पीछे बोर्ड पर लिखा होता है, संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से आयोजित, और वक्ता उस बोर्ड के आगे खड़े होकर नरेन्द्र मोदी और फासीवाद को कोसते हैं। देश में इमरजेंसी जैसे हालात को लेकर गरजते हैं। पर यह कितनी हास्यास्पद बात है कि संस्कृति मंत्रालय के आर्थिक सहयोग से सजे मंच पर खडे होकर आप कह रहे हैं कि देश में इमरजेंसी जैसे हालात हैं। दरअसल इस तरह के आरोप लगानेवालों को इमरजेंसी जैसे हालात का अंदाज ही नहीं होता है। अगर इमरजेंसी जैसे हालात होते तो सरकारी मदद वाले मंच से सरकार के विरोध के बोल नहीं गूंजते। इमरजेंसी के दौर में अनुदान देने के पहले मंच पर बैठनेवालों की सूची मांगी जाती थी। सूची से संतुष्ट होने के बाद ही धन जारी किया जाता था। सूचना के अधिकार के तहत संस्कृति मंत्रालय से प्रश्न पूछकर यह पता लगाया जा सकता है कि क्या कभी इस मंत्रालय ने वक्ताओं या मंच पर परफॉर्म करनेवाले कलाकारों के नाम को देखकर धन दिया। शुरुआत में तो संस्कृति मंत्रालय ने कई ऐसे कार्यक्रमों को आर्थिक मदद दी जिसमें धुर वामपंथी शामिल होते रहे हैं। मोदी सरकार पर इस तरह के आरोप लगानेवालों को संस्कृति मंत्रालय के कामकाज को देखना चाहिए।
संस्कृति मंत्रालय तो इतनी उदार है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और आमसभा के सदस्यों के चुनाव के समय भी सिर्फ अपनी राय ही दे पाई। आम सभा के सदस्यों ने तो सस्कृति मंत्रालय की राय को ठुकरा दिया। संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने मंत्रालय की तरफ से एक उम्मीदवार को नामित किया था और आमसभा से उनको वोट देने को कहा था लेकिन उस उम्मीदवार की हार हो गई। मंत्रालय ने कुछ नहीं किया, साहित्य अकादमी के कामकाज में किसी तरह की बाधा खड़ी नहीं की। अगर किसी तरह की असहिष्णुता होती तो यहां उसका असर तो दिखता। साहित्य अकादमी ही क्यों अगर हम संगीत नाटक अकादमी की बात करें तो वहां भी समावेशी माहौल है। संगीत नाटक अकादमी की जो समिति है उसमें कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर को इसी सरकार ने नामित किया। नक्सली होने का आरोप झेल रहे एक शख्स के रिश्तेदार को संगीत नाटक अकादमी ने पुरस्कृत किया। कहीं कोई विरोध या कहीं किसी तरह की हलचल तक नहीं हुई। इसी तरह से आरोप लगता है कि नियुक्तियों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इशारे पर नियुक्तियां होती हैं। यह भी मिथ्या आरोप है। ऐसे ऐस शख्सियतों को सरकार ने अहम जिम्मेदारी दी है जो घोषित तौर पर मोदी और संघ के विरोधी रहे हैं। इस स्तंभ में समय समय पर ऐसे लोगो के बारे में लिखा जाता रहा है, जिसको दोहराने का कोई अर्थ नहीं है।
असहिष्णु तो मोदी के पहले की सरकारें थीं। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि जब 2004 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा और कांग्रेस की अगुवाई में वामपंथियों के समर्थन से सरकार बनी तो साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में क्या हुआ था। 2005 में संगीत नाटक अकादमी के अद्यक्ष के पद से सोनल मानसिंह को बर्खास्त कर दिया गया था। यह पहली बार हुआ था कि राष्ट्रपति के आदेश से संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष को पद से हटाया गया। उस दौर के अखबारों को देखकर इस बात का सहज अंदाज लगाया जा सकता है कि सोनल मानसिंह को वामपंथी दलों के दबाव में हटाया गया था। इसी तरह से तत्कालीन सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष अनुपम खेर को हटा दिया गया था। तब पार्टी के पत्र पीपल्स डेमोक्रेसी में हरकिशन सिंह सुरजीत ने लेख लिखकर अनुपम खेर को हटाने की बात की थी और खेर को संघ का आदमी करार दिया था। इस तरह के कई वाकए उस दौर में हुए थे लेकिन तब की सरकार को किसी ने असहिष्णु नहीं कहा था। इस वक्त की यूपीए सरकार पर किसी कोने अंतरे से फासीवाद को बढ़ावा देने का आरोप नहीं लगाया गया था। जब आप कोई काम करें और उसके लिए आपको जिम्मेदार ना ठहराया जाए और जब आप वो काम ना करें तो उसके लिए आपको जिम्मेदार ठहराया जाए। यह किस तरह का मैनेजमेंट है इसको समझने की जरूरत है। दरअसल ये पूरा खेल अर्थ से जुड़ा है। जब तक अनुदान मिलता रहता है वामपंथ से जुड़े संगठन या उस विचारधारा के खुद को करीब माननेवाले खामोश रहते हैं और जहां आर्थिक मदद में कटौती होने की आशंका दिखाई देती है तो फासीवाद का शोर मचने लगता है ताकि सरकार पर दबाव बने और इस तरह के आरोपों से बचने के लिए आर्थिक मदद में कटौती नहीं हो सके। आजाद भारत की ये इकलौती और पहली सरकार है जो उन संगठनों को मदद करती है जिसके मंच पर से उसके सबसे बड़े नेता की व्यक्तिगत और वैचारिक दोनों आलोचना की जाती है।

Saturday, November 17, 2018

राजनीति का औजार बनती कला


साहित्य और कला को राजनीति का औजार नहीं बनाया जाना चाहिए लेकिन हमारे देश में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। हमारे यहां साहित्य और कला को दशकों से राजनीति के औजार के तौर इस्तेमाल किया जाता रहा है। होता यह है कि जब किसी राजनीतिक दल की साख छीजती है तो उसको किसी सहारे की जरूरत होती है तो वो साहित्य कला की ओर देखने लगता है। साहित्य और कला से मजबूत सहारा और क्या हो सकता है? इससे साख कायम होती है। इसके सैकड़ों उदाहरण हिंदी साहित्य और भारतीय कला जगत में मौजूद हैं जब कला को राजनीति औजार के तौर परर इस्तेमाल किया गया। हाल ही में संगीत से जुड़े एक और मसले पर जमकर राजनीति हुई। कर्नाटक संगीत के गायक टी एम कृष्णा इस राजनीति के औजार बने या उन्होंने इस राजनीति को आगे बढ़ाने में मदद की इसपर बात करना बहुत आवश्यक है। आवश्यक यह भी है कि कला के नाम पर अपनी राजनीति करनेवालों से सवाल पूछे जाएं।
दरअसल ये पूरा मामला दिल्ली में एक आयोजन से जुड़ा है। दिल्ली के इस आयोजन में टी एम कृष्णा के साथ सोनल मानसिंह का भी कार्यक्रम तय और विज्ञापित किया गया था। इस कार्यक्रम की आयोजक स्पिक मैके नाम की संस्था थी और प्रायोजक एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया था। जब ये कार्यक्रम विज्ञापित हुआ तो इसको लेकर सोशल मीडिया पर विमानन मंत्रालय की आलोचना शुरू हो गई। आलोचना का आधार यह था कि मोदी विरोधी को एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया कैसे प्रोयजित कर रही है। इस आलोचना को वाम दलों से सहानुभूति रखने या खुद को उस विचारधारा के करीब पानेवाले लोगों ने दक्षिणपंथी ट्रोल का हमला करार दिया। विरोध करने का हक सबको है, उसको ट्रोल कह देना अन्यायपूर्ण है। यह सब चल ही रहा था कि एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने इस कार्यक्रम से अपना हाथ खींच लिया।
एयरपोर्ट अथॉरिटी के इस कदम के बाद अभिव्यक्ति की आजादी के चंद झंडाबरदारों को इसमें एक अवसर नजर आया। अवसर अपनी राजनीति चमकाने का, अवसर अपने राजनीतिक आकाओं को राजनीति की जमीन और औजार देने का। अब जिस तरह के ट्वीट को लेकर इन लोगों ने कार्यक्रम के विरोधियों को दक्षिणपंथी ट्रोल करार दिया था उससे ज्यादा आक्रामक तरीके से सरकार पर कुछ लोगों ने हमले करने शुरू कर दिए पर मैं अपने इस लेख में उनको वामपंथी ट्रोल नहीं कहूंगा। क्योंकि संवाद में या लेखन में शब्दों के चयन में बहुत सावधान रहने की जरूरत होती है। शब्द लेखक की मानसिकता को उजागर करते चलते हैं। इस पूरे मसले पर स्तंभकार रामचंद्र गुहा भी अति उत्साह में ऐसे शब्दों का प्रयोग कर बैठे जो उनके इतिहासकार होने के दावे पर ही प्रश्नचिन्ह लगा गया। रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में यह लिखा दिया कि कृष्णा को दिल्ली में गाने से रोकना असभ्य दुनिया का परिचायक है। रामचंद्र गुहा के ट्वीटर हैंडल पर उन्होंने अपने परिचय में खुद को लोकतंत्र का इतिहासकार बताया है। अब वो कैसे इतिहासकार हैं इसको उनके उपरोक्त शब्दों के चयन से समझा जा सकता है। एक कार्यक्रम के रद्द होने से दुनिया को असभ्य करार देना अतिवाद है। आगे भी अपने उस लेख में गुहा ने कृष्णा को अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर महान संगीतज्ञ करार दिया है। हो सकता है कृष्णा उतने ही महान हों, जितना राम गुहा उनको साबित करने में लगे हैं। लेकिन मुझे याद है कि कुछ अरसा पहले कृष्णा ने एक पत्रिका में महान गायिका सुबुलक्ष्मी के बारे में एक लेख लिखा था। उस लेख में कृष्णा ने लक्ष्मी के बारे में अनर्गल, आधारहीन बातें की थीं और उनपर घटिया व्यक्तिगत लांछन भी लगाए थे। कृष्णा ने वो लेख तब लिखा था जब सुबुलक्ष्मी का निधन हो चुका था और आरोपों पर सफाई देनेवाला कोई था नहीं।
गुहा को कृष्णा महान कलाकार लगते हैं, इसी तरह कुछ लोगों को कृष्णा की महानता पर तब शक हुआ था जब वो मुंबई हमले के गुनहगार आतंकवादी अजमल कसाब के मानवाधिकार को लेकर चिंतित हुए थे। दरअसल गुहा जैसे इतिहासकार लगातार अपना गोलपोस्ट बदलते रहते हैं, जब जैसी बहे बयार, पीठ तब वैसी कीजिए के सिद्धांत पर चलते रहते हैं। इस वजह से प्रचुर मात्रा में लेखन करने के बावजूद उनको एक इतिहासकार के रूप में मान्यता मिलना शेष है। अब भी स्थापित इतिहासकार गुहा को कोशकार ही कहते हैं। साख के लिए शब्दों के चयन में सावधान रहना बेहद आवश्यक है।
कृष्णा का मोदी विरोध जगजाहिर है, वो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के खिलाफ भी लगातार बोलते लिखते रहे हैं। उनकी प्राथमिकताएं भी जगजाहिर हैं। अब अगर उनकी इस विचारधारा के आधार पर उनका कार्यक्रम स्थगित किया जाता तो चंद महीने पहले राजस्थान में उनका कार्यक्रम कैसे हो पाता। वहां भी तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और प्रायोजक भी संभवत: सरकार ही थी। हिंदी में तमाम ऐसी प्रत्रिकाएं छपती हैं जिनमें भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकारों के बड़े बड़े विज्ञापन होते हैं और उसके संपादकीय में मोदी सरकार की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। संस्कृति मंत्रालय ने कई ऐसे कार्यक्रमों को प्रोयजित किया है और उनको आर्थिक मदद दी है, जहां मंच से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जमकर आलोचना की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश को बांटने वाला संगठन तक करार दिया गया। अगर सरकार किसी कार्यक्रम को इस आधार पर रोकती तो इस तरह के आयोजनों को या इन पत्रिकाओं को कोई आर्थिक मदद नहीं मिल पाती। कृष्णा का कार्यक्रम राजस्थान में नहीं हो पाता।दूसरी बात यह कि दिल्ली का कार्यक्रम सिर्फ कृष्णा का नहीं था, इसमें अन्य कलाकार भी थे। उसमें से एक कलाकार सोनल मानसिंह भी थीं जिनको कि मोदी सरकार ने राज्यसभा में मनोनीत किया है।
स्पिक मैके के कार्यक्रम के रद्द होने में दिल्ली की केजरीवाल सरकार को एक अवसर नजर आया। ये अवसर भी राजनीति का भी था और अपनी सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार के तौर पर स्थापित करने का भी। आनन फानन में यह तय किया गया कि कृष्णा का कार्यक्रम उसी तिथि को दिल्ली में आयोजित किया जाएगा जिस तिथि का कार्यक्रम रद्द हुआ। उसके बड़े बड़े विज्ञापन छपे और कार्यक्रम को आवाम की आवाज का नाम दिया गया। विज्ञापनों में कृष्णा की तस्वीर के साथ दिल्ली के उपमुख्यमंत्री की भी बड़ी सी तस्वीर छपी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी जनता से इस कार्यक्रम में आने का अपील की। लेकिन इसमें भी राजनीति हो गई क्योंकि दिल्ली सरकार ने सिर्फ कृष्णा को आमंत्रित किया और सोनल मानसिंह और अन्य कलाकारों को छोड़ दिया। क्या सोनल और अन्य कलाकारों ने कोई गुनाह किया था। या कला भी अब राजनीति के खांचे में बंटकर प्रदर्शित की जाएगी। कला के राजनीति का पिछलग्गू बनने का यही सबसे बड़ा नुकसान दिखाई देता है।
इस मसले पर जो राजनीति हो रही है उसमें देश के प्रधानमंत्री तक को घसीट लिया गया है। दरअसल चार राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और चंद महीनों के बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं। अब आने वाले दिनों में इस तरह के मसलों को और हवा देकर मौजूदा मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश होगी। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जिस तरह से असहिष्णुता के मुद्दे पर पुरसाकर वापसी का अभियान चालाया गया था, उसी की तर्ज पर कुछ करने की कोशिश होगी। इस बात के पुख्ता संकेत एक डेढ़ साल पहले से मिलने शुरू हो गए, जब दिल्ली में एक खास विचारधारा के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का जमावड़ा हुआ था और ये घोषणा की गई थी कि पूरे देशभर में गोष्ठियों और कार्यक्रम किए जाएंगे ताकि कथित तौर पर सांप्रदायिक शक्तियों को मात दी जा सके। जुटान के नाम से दिल्ली में आयोजित इस गोष्ठी में जिस तरह के भाषण इत्यादि हुए थे उसने भी उनके इरादे साफ कर दिए थे।दरअसल अगर हम देखें तो वामपंथी विचारधारा के लेखक हमेशा से ये काम करते रहे हैं। लेखक संगठनों की भमिका उनकी स्थापना के बाद से इस तरह से बदलती चली गई कि वो अपने राजनीतिक दलों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह से काम करने लगे। साहित्यिक लेखन भी राजनीति दलों की उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाने लगा। हिंदी कविता इस तरह से नारेबाजी की शक्ल में लिखी जाने लगी कि पाठक उससे दूर होने लगे। मशहूर अमेरिकी कवि गिंसबर्ग ने कहा भी था कि कविता कभी भी पार्टी लाइन को अभिव्यक्त करने का माध्यम नहीं हो सकती है। रात को सोते समय जब कोई शख्स अपनी निजी सोच को सार्वजनिक करने के बारे में सोचता है तो कविता आकार लेने लगती है। अमूमन कवि से अपेक्षा भी यही की जाती है। लेकिन ज्यादातर हिंदी कविता इसके उलट पार्टी लाइन पर चलती रही और पाठकों से दूर होती चली गई। कला को राजनीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल करनेवालों को चिन्हित करना जनता को बताना बेहद आवष्यक है।      

Monday, November 12, 2018

किताबों से राजनीति की प्रवृत्ति


शशि थरूर, समकालीन राजनीति का एक ऐसा नेता जिनका विवाद के साथ चोली दामन का साथ है।कई बार विवाद हो जाता है,जबकि बहुधा वो विवादों को आमंत्रित करते हैं। पिछले दिनों उनकी किताब द पैराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर आई थी जो नरेन्द्र मोदी पर केंद्रित है। पैराडॉक्सिकल का शाब्दिक अर्थ तो मिथ्याभासी होता है परंतु इस पुस्तक में पैराडॉक्सिकल को परोक्ष रूप से एक विशेषण की तरह केंद्र में रखा गया है जिसका अर्थ होता है लोक-विरुद्ध। इस विशेषण को व्याख्यायित और स्थापित करने के लिए शशि ने तर्क जुटाए और उसको किताब की शक्ल दे दी। अपनी इस किताब में थरूर ने अंग्रेजी के इस शब्द को इस तरह से इस्तेमाल किया जिससे कि ये पुस्तक और उसका शीर्षक दोनों उनकी और उनकी पार्टी कांग्रेस की राजनीति के लिए फायदेमंद हो और पार्टी में उनका भी कद बढ़े। इस पुस्तक के विमोचन पर जिस तरह से नेताओं का जमावड़ा लगा था वो भी इस बात को पुष्ट भी करता है। विमोचन के मौके पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर पूर्व केंद्री मंत्री चिदंबरम, अरुण शौरी ने प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा किया था। जमकर राजनीतिक बयानबाजी हुई थी। शशि का अंग्रेजी भाषा ज्ञान बहुत जबरदस्त है और वो अपनी इस प्रतिभा का उपयोग बहुधा ट्वीटर पर करते भी रहते हैं। उस भाषा ज्ञान का दर्शन यहां भी पाठकों को होता है।
किताब से सियासत की बात इस वजह से भी पुष्ट होती है कि थरूर अब नेहरू पर लिखी अपनी पुरानी किताब को भी राजनीति के औजार के तौर पर इस्तेमान करने जा रहे हैं। डेढ़ दशक पहले 2003 में थरूर ने जवाहरलाल नेहरू पर एक किताब लिखी थी, नेहरू, द इंवेन्शन ऑफ इंडिया। अब इस पुस्तक के नए संस्करण का विमोचन कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी 13 नवंबर को करेंगी। स्टैच्यू ऑफ यूनिटि को लेकर सरदार पटेल और उनके योगदान की पूरे देश में जमकर चर्चा हो रही है। ऐसे माहौल में नेहरू पर पंद्रह वर्ष पूर्व लिखी और प्रकाशित पुस्तक का विमोचन समारोह करना और उसमें सोनिया गांधी का आना साफ तौर पर एक राजनीति का संकेत कर रहा है। पुस्तक प्रकाशन जगत में इस तरह की कोई परंपरा नहीं रही है कि किसी किताब के नए संस्करण को समारोहपूर्वक जारी किया जाए। जिस तरह से शशि की किताब द पैराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर में नेताओं का जमावड़ा लगा था उससे ये अंदाज लगाया जा सकता है कि नेहरू वाली किताब के विमोचन में भी विपक्षी दलों के नेताओं का जुटान होगा। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के बीच यहां राजनीतिक भाषण से इंकार नहीं किया जा सकता है। इस तरह की राजनीति अमेरिका में जमकर होती रही है, वहां चुनाव के पहले नेताओं को केंद्र में रखकर पुस्तकें लिखी जाती रही हैं और फिर उसके आधार पर पक्ष और विपक्ष में माहौल बनाया जाता है। हमारे देश के लिए यह एक नई प्रवृत्ति है जिसमें ये देखना दिलचस्प होगा कि इसका असर चुनावी राजनीति पर कितना गहरा होता है।   


Saturday, November 10, 2018

हिंदी साहित्य जगत में सन्नाटा



इन दिनों समकालीन हिंदी साहित्य में सन्नाटा पसरा हुआ है। ना कोई रचनात्मक स्पंदन, ना ही किसी प्रकार का कोई साहित्यिक वाद-विवाद, ना ही किसी लेख आदि से विचारोत्तेजक माहौल, ना ही की साहित्यिक आंदोलन खड़ा हो पा रहा है। इस वर्ष कोई ऐसी कृति भी नहीं आई है जिसको लेकर साहित्य जगत में क्रिया-प्रतिक्रिया वाला माहौल हो। हिंदी साहित्य के फॉर्मूलाबद्ध जुमले में कहें तो नई जमीन तोड़ती कोई रचना भी इन दिनों नहीं आई है। कोई साहित्यिक फतवेबाजी भी सुनने को नहीं मिल रहा है। साहित्य जगत में व्याप्त इस सन्नाटे की कई वजहें हो सकती हैं। कुछ लेखकों की खामोशी से तो ये लगता है कि वो दम साधे 2019 में होनेवाले लोकसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन इस श्रेणी में तो वही लेखक आते हैं जो बहुत सोच समझकर, शतरंज की तरह अपनी चाल चलते हैं। इस कोष्ठक के लेखक इंतजार कर रहे हैं कि सरकार बदले तो उस हिसाब से लेखन प्रारंभ करें। इसके अलावा जो दो तीन वजहें मुझे समझ में आ रही हैं उनमें से पहली वजह लघु पत्रिकाओं के चरित्र का बदल जाना है। 
हिंदी साहित्य के परिदश्य को वैचारिक उतेजना प्रदान करने में इन लघु पत्रिकाओं का बड़ा योगदान रहा है। हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन की शुरूआत 1957 में ङुई थी, ऐसा माना जाता है, जब बनारस से विष्णुचंद्र शर्मा ने कवि पत्रिका का संपादन शुरू किया था। उसके बाद तो व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरोध में ढेर सारी लघु पत्रिकाएं निकलीं। इसके पहले भी हिंदी साहित्य में साहित्यिक पत्रिकाओं का एक समृद्ध इतिहास मौजूद है लेकिन कवि पत्रिका के प्रकाशन के बाद जिस तरह से लघु पत्रिका आंदोलन के नाम से इस तरह की पत्रिकाओ का प्रकाशन शुरू हुआ उसने साहित्यिक परिदृश्य को जीवंत बनाए रखा। लंबे समय तक लघु पत्रिकाएं निकलती रही लेकिन बाद में वो अपनी राह से भटक गईं। आज लघु पत्रिका आंदोलन अरना चरित्र ही नहीं बल्कि स्वरूप भी खो चुका है। जब लघु पत्रिका आंदोलन की शुरूआत हुई थी तो ये उपक्रम अव्यावसायिक था लेकिन ये जो भटकाव आया उसने इन पत्रिकाओं को घोर व्यावसायिक बना दिया। ज्ञानरंजन के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका पहल को अगर देखें तो शुरूआती अंकों में पहल की जो प्रतिबद्धता थी वो बाद के अंकों में छीजती चली गई। बाद के अंकों में पहल में खूब विज्ञापन छपने लगे थे जिससे पत्रिका का खर्चा ते निकल ही जाता था, उनके कर्ताधर्ताओं को लाभ भी होने का अंदाज लगाया जाता था। इस मामले में राजेन्द्र यादव ने ईमानदारी बरती और उन्होंने जब हंस पत्रिका का पुर्प्रकाशन शुरू किया तो उसके अव्यावसायिक होने की घोषणा या दावा नहीं किया। वो हंस को कंपनी की तरह चलाते रहे और उसके लाभ हानि की चिंता भी करते रहे। इसी तरह से अखिलेश के संपादन में निकलने वाली पत्रिका तद्भव एक बेहतरीन और स्तरीय साहित्यक पत्रिका है लेकिन उसमें जितने विज्ञापन होते हैं उससे ये प्रतीत होता है कि पत्रिका का बैलेंस सीट हमेशा मुनाफा ही दिखाता होगा।
अब लघु पत्रिकाओं ने अपना चाल चरित्र और चेहरा तीनों बदल लिया है। लघु के नाम को भी छोड़ दिया है। अब तो साहित्यिक गोष्ठियों से लेकर व्यक्तिगत बातचीत में भी लघु शब्द का प्रयोग नहीं होता है। साहित्य छापने वाली इन पत्रिकाओँ को अब मोटे तौर पर तीन श्रेणी में विभाजित किया जा सकता है। अध्यापकीय, सांस्थानिक और व्यक्तिगत। व्यक्तिगत श्रेणी में वैसी पत्रिकाएं आती हैं जो ज्यादातर किसी ना किसी लेखक पर विशेषांक निकालती हैं। बड़े लेखकों को विशेषांक निकालकर संपादक अपना हित साधता है, उसको साहित्य से कुछ लेना देना नहीं होता है। इस काम के लिए किसी साहित्यिक दृष्टि की आवश्यकता भी नहीं होती है, बस आपको कुछ लेखकों को जानना आवश्यक होता है जिससे तय लेखक पर लेख लिखवाए जा सकें और हित साधक अंक प्रकाशित हो सके। इस तरह की पत्रिका से वैसे लेख की अपेक्षा करना व्यर्थ हो जिससे साहित्य जगत में किसी तरह का विमर्श खड़ा हो सके।
पत्रिका की दूसरी श्रेणी है अध्यापकीय। इस तरह की पत्रिकाएं रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स के यहां रजिस्टर्ड होती हैं और उनके पास भारत सरकार से जारी किया जानेवाला एक विशेष नंबर जिसको आई एस एस एन नंबर कहते हैं वो भी होता है। इस तरह की पत्रिकाओं में ज्यादातर लेख हिंदी के अध्यापकों के छपते हैं जो अध्ययन-अनुशीलन टाइप से लिखा जाता है। यह विशुद्ध कारोबार है। इसमें संपादक अध्यापकों से पैसे लेकर उनके लेख छापते हैं। आरएनआई से रजिस्टर्ड और आईएसएसएन नंबर वाली इन पत्रिकाओं में लेख छपने से अध्यापकों को प्रमोशन आदि में लाभ मिलता है। यह एक कारोबार की तरह फल फूल रहा है जिससे संपादक के अलावा देशभर के ज्यादातर अध्यापक लाभान्वित होते हैं। यह कुटीर उद्योग की तरह विकसित हो गया है। जहां जहां कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं वहां वहां इस तरह की एक पत्रिका का प्रकाशन आपको अवश्य मिलेगा। इन व्यावसायिक पत्रिकाओ से भी किसी प्रकार के वैचारिक उद्वेलन की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। बच गई सांस्थानिक पत्रिकाएं जो ज्यादातर सरकारी या अर्धसरकारी अकादमियों या संस्थाओं से निकलती है। इस तरह की पत्रिकाओं की अपनी सीमाएं होती हैं, मंत्रियों से लेकर विभागीय अध्यक्षों के संदेशों के साथ पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। किसी भी तरह की कोई विवादास्पद रचना इसमें छप नहीं सकती हैं। इल तरह की पत्रिकाओं को निकालनेवाले ज्यादतर संपादक पत्रिका की साज सज्जा से लेकर उसके प्रस्तुतिकरण पर ध्यान देते है। उसमें भी कभी कभार गलतियों हो जाती हैं। जैसे विदेश मंत्रालय के एक उपक्रम से निकलनेवाली पत्रिका में विभागीय मंत्री सुषमा स्वराज का नाम सुषमा स्वराज्य छप गया था। पत्रिका के संपादन स जुड़े शख्स का दावा है कि मंत्रालय ने मैटर सीधे प्रेस में भेज दिया था जिससे ये चूक हुई। इस तरह से माहौल में जो पत्रिकाएं निकलती हों उनसे रचनात्मक उत्कृष्टता की अपेक्षा व्यर्थ है।
लघु पत्रिकाओं के खत्म होने या उसके चरित्र और स्वरूप बदल जाने के अलावा हिंदी साहित्य में रचनात्मक सन्नाटे की जो वजह मेरी समझ में आती है वो है अच्छी कृतियों को अच्छी और खराब कृतियों को खराब कहने के साहस का अभाव। अब वो जमाना बिल्कुल नहीं रहा कि किसी कृति को आप खराब कहें। हिंदी में प्रकाशित हो रही सभी कृतियां बेहतरीन होती हैं, अपनी तरह की अनूठी होती हैं, उस तरह की रचना पहले कभी नहीं आई हुई होती हैं, आदि आदि। ये अतिशयोक्ति नहीं है बल्कि साहित्यिक पत्रिकाओं से लेकर सोशल मीडिया और फेसबुक पर आपको इस तरह की टिप्पणियां बहुतायत में दिख जाएंगीं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि पाठक साहित्य से दूर होने लगे। प्रशंसात्मक समीक्षाएं या टिप्पणियां पढ़कर आम पाठक कोई कृति खरीद तो लेता है लेकिन पढ़ने के बाद जब वो खुद को ठगा हुआ महसूस करता है तो साहित्यिक समीक्षाओं और टिप्पणियों से उसका भरोसा उठ जाता है। मेरा यह मानना है कि जब किसी लेखक की ज्यादा तारीफ होने लगती है तो उसकी रचनात्मकता छीजने लगती है।। ऐसे दर्जनों उदाहरण साहित्य में हैं, लगभग दर्जनभर कहानीकार तो हैं ही जिनकी कहानियां 1990 के बाद के वर्षों में हंस में छपकर चर्चित और प्रशंसित हुई थी। इतनी प्रशंसित हुई कि अब वो लेखक कहां हैं इसका पता कर पाना मुश्किल हो गया है।
साहित्यिक परिदृश्य में सन्नाटे की एक अन्य वजह जो मुझ समझ में आती है वह है स्थापित लेखकों का ना लिखना। यहां यह पूछने का मन करता है कि हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश की आखिरी कहानी कब प्रकाशित हुई थी। लंबी कहानी को उपन्यास की श्रेणी में रखकर साहित्य अकादमी ने उनको पुरस्कृत किया लेकिन उसके बाद उनका कौन सा उपन्यास आया ये साहित्य जगत जानना चाहता है। अब वो देश विदेश के साहित्यिक कार्यक्रमों में मंच से साहित्य पर ज्ञान देते हैं। क्रांतिकारी कवि आलोक धन्वा हिंदी के बड़े कवि माने जाते हैं लेकिन उनकी आखिरी कविता कब प्रकाशित हुई। अरुण कमल भी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि हैं लेकिन उनके लिखने की रफ्तार भी अपेक्षाकृत कम है। यह भी नहीं है कि इनकी अवस्था वो हो गई है कि ये लिख नहीं पाएं। दरअसल स्थापित लेखकों की निरंतरता बेहद आवश्यक है।
हिंदी साहित्य में राजेन्द्र यादव के जाने से बाद से सार्वजनिक बुद्धिजीवी की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है। अशोक वाजपेयी से उम्मीद थी लेकिन वो वामपंथ के चंगुल में इस कदर फंस गए हैं कि उनका वक्तव्य राजनीतिक होता है, साहित्यिक सवालों से भी जब वो मुठभेड़ करते हैं तो उसमें भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से राजनीति ले आते हैं। लेखक संघों की तो बात करना ही व्यर्थ है। साहित्य जगत में व्याप्त इस सन्नाटे को अगर जल्द नहीं तोड़ा गया तो इसका असर बहुत गहरा होगा।

Saturday, November 3, 2018

सांस्कृतिक मंच से सियासत


हाल ही में भारतीय जन नाट्य संघ यानि इप्टा का प्लैटिनम जुबली समारोह पटना में मनाया गया। हर संस्था अपनी स्थापना के महत्वपूर्ण पड़ावों पर समारोहों का आयोजन करती है। भारतीय जन नाट्य संघ ने भी किया। आजादी के पहले स्थापित इस संस्था का उद्देश्य नाटकों के माध्यम से सांस्कृतिक जागरण फैलाना था। ये संस्था शुरू से ही वामपंथी विचारकों द्वारा स्थापित थी और कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक ईकाई के रूप में काम करती रही है। इसी स्थापना के संकेत प्रगतिशील लेखक संघ की 1936 में हुई बैठक में ही मिलने लगे थे और सात साल बाद स्थापना हो गई। आजादी मिलने के बाद भारतीय जन नाट्य संघ ने अपने नाटकों के माध्यम से जमकर वामपंथी विचारधारा का प्रचार किया, लेखन और मंचन दोनों में। वामपंथी और कांग्रेसी सरकारों की छत्रछाया में ये संगठऩ खूब फले फूले भी, लेकिन जब वामपंथी विचारधारा धीरे-धीरे एक्सपोज होने लगी तो इस तरह के संगठनों की ताकत भी कम होती चली गई। ये संगठन अपने मातृ संगठनों के लिए काम करते रहे। प्रगतिशील लेखक संघ से लेकर जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे संगठन किसी भी फैसले के लिए अपने राजनीतिक आका का मुंह जोहते रहे। उनके निर्देशों के पालन में साहित्य और संस्कृति को ढाल बनाकर राजनीति करते रहे। इस तरह के सैकड़ों वाकए हैं जब इन संगठनों ने साहित्य कला और संस्कृति को ढाल बनाकर राजनीति की। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद असहिष्णुता की मुहिम हो या पुरस्कार वापसी का अभियान हो, इन सबके पीछे यही मानसिकता काम करती रही। ये उस सुविधापरक राजनीति का अंग है कि जिसके तहत वो लेखक जो अशोक वाजपेयी को कल्चरल माफिया और भारत भवन को अजायबघर कहते नहीं थकते थे वो सभी आज अशोक वाजपेयी और रजा फाउंडेशन के झंडे तले एकजुट नजर आते हैं। यह उसी सुविधाजनक राजनीति का हिस्सा है जो एम एफ हुसैन पर हमले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखता है और दूसरी तरफ तस्लीमा नसरीन पर हमला होता है तो खामोशी छा जाती है। इस तरह के इतने उदाहरण हैं कि एक पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। संस्कृति के नाम पर राजनीति करना कोई इनसे सीखे।
हम बात कर रहे थे पटना में आयोजित जन नाट्य संघ के समारोह की जिसमें एक बार फिर से जमकर राजनीति हुई। नाटकों की आड़ में राजनीति का ये बेहतर नमूना है। इसके उद्घाटन सत्र में मंच पर बैठे वक्ताओं की सूची से ही पता चल जाता है कि आयोजकों की मंशा क्या रही होगी। शबाना आजामी, एम के रैना. जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और गुजरात के विधायक जिग्नेश मेवाणी। शबाना आजमी, एम के रैना की बात तो समझ में आती है कि वो रंगकर्म से जुड़े हुए लोग हैं। कन्हैया ने भी ये बताया कि वो बचपन में अपने गांव में इप्टा में सक्रिय थे । उन्होंने स्वीकार किया कि वो अपने गांव में इप्टा में सक्रिय न होते तो उनमें ये चेतना भी न आयी होती। उन्होंने आगे स्वीकार किया वो जो 'आज़ादी ' का गाना गाते हैं वो भी इप्टा  का ही है।  उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि इस वक्त देश में बहुत सारे ऐसे स्टैंडअप कॉमेडियन हैं जो इप्टा जैसे किसी संगठन से नहीं जुड़े हैं लेकिन उनके कंटेंट उतने प्रगतिशील हैं। उन्होंने ऐसे लोगों को साथ जोड़ने की वकालत भी की। वो उस तरह के स्टैंड अप कॉमेडियंस की बात कर रहे थे जो मंच पर खड़े होकर नरेन्द्र मोदी का मजाक उड़ाते हैं। प्रगतिशीलता की पहली शर्त ही नरेन्द्र मोदी की आलोचना या उनका मजाक उड़ाना है। ये ठीक भी है क्योंकि कन्हैया कुमार तो राजनीति कर रहे हैं और उनके इरादे बिहार के बेगूसराय लोकसभा चुनाव से निर्वाचित होने की भी है। उसके लिए वो तैयारी भी कर रहे हैं। एक चतुर राजनेता की तरह वो इप्टा के मंच का इस्तेमाल भी करते हैं। उनको मालूम है कि सूबे की राजधानी में आयोजन हो और उसमें मौजूदा केंद्रीय हुकूमत पर हमला बोला जाए तो मीडिया में जगह मिलेगी ही।
अगर ये मान भी लिया जाए कि कन्हैया का रंगकर्म से कोई लेना देना है लेकिन यह मानना मुश्किल है कि जिग्नेश मेवाणी का नाटक से कोई लेना देना है। जिग्नेश गुजरात से निर्दलीय विधायक हैं जिनको कांग्रेस का समर्थन है। जिग्नेश ने इप्टा के मंच से राजनीतिक भाषण दिया और कहा कि संगठन को सिर्फ लाल और नीले रंग की चिंता नहीं करनी चाहिए बल्कि सभी रंगों का ख्याल रखना चाहिए। रंगों की बात इस वजह से चली कि शबाना ने अपने भाषण में भी रंग से बात शुरू की थी। शबाना ने कहा था कि जब वो छोटी थी तो अपने पिता कैफ़ी आज़मी साहब उनको मदनपुरा के मज़दूरों के रैली में ले जाते थे। जब दुनिया में आँखे खोलीं तो सबसे पहले   लाल रंग ही देखी। उनका मानना है कि लाल रंग लोगों को जोड़ने के काम आता है। उन्होंने लाल रंग की महत्ता स्थापित करने के बाद कहा कि आज लड़ाई धर्म और मज़हब की नहीं बल्कि विचारधारा की है। उन्होंने बेहद चतुराई के साथ कहा कि वो एक महिला हैं, बेटी हैं, पत्नी हैं, फिल्म अभिनेत्री हैंसामाजिक कार्यकर्ता हैंऔर एक मुस्लिम भी हैं। जोर देकर कहा कि मुस्लिम शब्द आते ही उनकी सारी पहचान गौण हो जाती हैं और सिर्फ मुस्लिम के तौर पर पहचान बच जाती है। अब हमें इश बात पर विचार करना चाहिए कि ये भाषण एक सांस्कृतिक संगठन के मंच से हो रहा था। शबाना आजामी प्रकारांतर से राजनीति कर रही थी जिसको जिग्नेश मेवाणी जैसे नेता आगे बढ़ा रहे थे।
अगर हम देखें तो इप्टा के प्लैटिनम जुबली समारोह को राजनीति का मंच बना दिया गया। इस आयोजन का जिम्मा भारतीय जन नाट्य संघ की पटना ईकाई के जिम्मे था और इसके मुख्य पदाधिकारी लंबे समय तक राष्ट्रीय जनता दल के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के मुखिया रहे हैं। साफ है कि उनकी प्रतिबद्धता किस ओर है। इप्टा का ये आयोजन विपक्ष की राजनीति को मजबूत करने के लिए किया गया प्रतीत होता है। जिसमें अमूमन सभी वक्ताओं ने केंद्र सरकार की नीतियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। हद तो तब हो गई थी कि जब कांग्रेस के नेता शकील अहमद खान भी मंच पर पहुंचे और उन्होंने वहां से लगभग राजनीतिक भाषण दिया। कुछ लोगों का कहना है कि शकील अहमद खान ने कहा कि अब इस तरह के कार्यक्रम उन जगहों पर करने चाहिए जहां वक्ताओ की ऊंची आवाज को सुनने में दिक्कत ना हो।  दरअसल हुआ ये था कि आयोजन में मंचन और भाषण के दौरान तेज आवाज की वजह से पड़ोसियों को दिक्कत हो रही थी और पुलिस ने हस्तक्षेप की वजह से कार्यक्रम को मैदान से हटाकर हॉल में करना पड़ा था। वाम दलों के अलावा इस जुटान में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के नेता भी पहुंचे थे और मंचासीन भी हुए थे। इप्टा से ज्यादा ये समारोह विपक्षी दलों का सम्मेलन बन गया था।
बिहार की भूमि इस तरह की राजनीति को लेकर हमेशा से उर्वर रही है। पाठकों को याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी वामपंथियों ने इसी तरह से असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी का मुद्दा उठाया था। नीतीश कुमार की जीत के बाद उनमें से कइयों को पुरस्कृत भी किया गया। वामपंथियों की नीतीश कुमार से दिल्ली में मुलाकात भी हुई थी जिसमें ये तय किया गया था कि बुद्धिजीवियों के बीच नीतीश की छवि बनाने के लिए काम किया जाएगा। इस काम का टेंडर हो गया था,लेकिन ठेकेदारी शुरू हो पाती इसके पहले नीतीश कुमार ने ही महागठबंधन को छोड़ दिया। इसके बाद इस योजना पर पानी फिर गया। अब एक बार फिर से वामपंथियों ने अपने सांस्कृतिक संगठन के माध्यम से राजनीति की बिसात बिछानी शुरू कर दी है जिससे की लोसकभा चुनाव के पहले मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाया जा सके। वाम दलों का तो कांग्रेस के साथ बने रहने का इतिहास रहा है, उन्होंने तो इमरजेंसी तक का समर्थन किया था। इसका उनको इनाम भी मिला था और इंदिरा गांधी ने देश के कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े सरकारी, गैर सरकारी और स्वयत्त संगठनों की कमान वामपंथियों को सौंप दी थी। पिछले चार साढे चार सालों में ये व्यवस्था बाधित हुई जिसका सबसे बड़ा असर कम्युनिस्टों पर ही पड़ा। लोकसभा चुनाव में उनको संभावना नजर आ रही है कि किसी तरह से भारतीय जनता पार्टी हारे और वो लोग एक बार फिर से सांस्कृतिक सत्ता की मलाई खा सकें। इनको ये नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए जनता का भरोसा जीतना होता है।