साहित्य, कला और
संस्कृति को लेकर इस देश में बहुधा विवाद होते रहते हैं। कोई कार्यक्रम हो जाए तो
विवाद, कोई कार्यक्रम टल जाए तो विवाद। कोई नियुक्ति हो जाए तो विवाद, कोई
नियुक्ति ना हो पाए तो विवाद। किसी संस्थान में कोई अध्यक्ष चुन लिया जाए तो विवाद
और ना चुना जाए तो विवाद। इन विवादों में ज्यादातर तर्क आरोप की शक्ल में सामने
आते हैं। दो हजार चौदह में जब से नरेन्द्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने तब से
साहित्य-संस्कृति के विवादों में आरोपों को विचारधारा से भी जोड़ा जाने लगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडा को बढ़ाने का आरोप लगना भी तेज हो गया। इसके
पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने थे तब भी इस तरह की बात हुआ
करती थी। अब तो हालत ये हो गई है कि कोई भी छोटा-मोटा विवाद भी हो तो उसमें
प्रधानमंत्री को घसीट लिया जाता है। कोई कार्यक्रम चाहे किसी भी वजह से स्थगित हो
उसकी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री पर डाल दी जाती है। बात इतने पर ही नहीं रुकती है,
आरोप लगाने वाले इसको फासीवाद से जोड़ देते है। कोई इसको अघोषित इमरजेंसी बता देता
है। मतलब हालात यह है कि जिसके मन में जिस तरह की बात आती है उसी तरह के आरोप लगा
देता है, तथ्य, आधार और स्तर की परवाह किए बगैर।
जबकि साहित्य-संस्कृति
के क्षेत्र पर नजर डालें तो मौजूदा केंद्र सरकार बेहद उदार दिखाई देती है। अब अगर
हम कृष्णा और सोनल मानसिंह के कार्यक्रम रद्द होने के मसले को ही देखें तो स्थिति
स्पष्ट हो जाएगी। इन लोगों के कार्यक्रम की आयोजक स्पिक मैके नाम की एक संस्था थी।
ये संस्था सालों से भारतीय शास्त्रीय संगीत और कला के क्षेत्र में काम कर रही है। इस
ताजा विवाद के बाद इस संस्था पर भी सवाल उठे। इनको केंद्र सरकार और इनके उपक्रमों
से मिलनेवाली आर्थिक मदद को लेकर भी प्रश्न खड़े किए गए। कुछ लोगों की राय इस तरह
की भी सामने आई कि इस पूरे विवाद में स्पिक मैके की परोक्ष भूमिका थी, लिहाजा
केंद्र सरकार को उनको आर्थिक मदद देने पर पुनर्विचार करना चाहिए। इस विचार को
संस्कृति मंत्रालय ने बिल्कुल तवज्जो नहीं दिया। बताया जा रहा है कि कुंभ के
सिलसिले में कार्यक्रम करने के लिए इस संस्था को डेढ़ करोड़ से अधिक की राशि देने
का फैसला किया गया है।संस्कृति मंत्रालय इतनी उदार है कि उनको अपने क्षेत्रीय
सांस्कृति केंद्रों से ज्यादा भरोसा स्पिक मैके पर है। देशभर में सात क्षेत्रीय
सांस्कृतिक कार्यलय हैं, संगीन नाटक अकादमी है, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र
है, कई अन्य संस्थान हैं लेकिन निजी संस्थान स्पिक मैके पर ही संस्कृति मंत्रालय
को भरोसा है। इस भरोसे की क्या वजह है वो साफ नहीं है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला
केंद्र में भारतीय रूपंकर कला के इतने बेहतरीन कार्यक्रम आयोजित होते हैं और वो भी
नियमित होते हैं लेकिन कला केंद्र से भी स्पिक मैके को तीन साल में एक करोड़ चालीस
लाख रुपए दिए गए हैं। इतना ही नहीं बल्कि स्पिक मैके को कार्यक्रमों के आयोजन के
लिए विभिन्न मंत्रालयों और सार्वजविक उपक्रमों से लाखों का अनुदान मिलता है। अगर मौजूदा
सरकार बदले की भावना से काम करती या अगर इस सरकार की नीतियां अपनी विचारधारा से
इतर विचारवालों को तंग करना होता तो इतनी उदारता से स्पिक मैके को अनुदान नहीं
दिया जाता। स्पिक मैके के मंच पर तो मोदी सरकार से विरोध रखनेवाले कलाकारों को आमंत्रित
किया ही जाता रहा है। दरअसल ये सरकार कलाकार को कलाकार की नजर से देखती है।
संस्कृति मंत्रालय तो
इस मामले में बेहद उदार है। वो पहले भी साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के आयोजनों को आर्थिक
मदद करती रही है जहां मंच पर घोषित मोदी विरोधी लोग बैठते थे और सरकार को कोसते
थे। वो दृष्य कितना मनोहारी और समावेशी होता है जब वक्ता के पीछे बोर्ड पर लिखा
होता है, संस्कृति मंत्रालय के सहयोग से आयोजित, और वक्ता उस बोर्ड के आगे खड़े
होकर नरेन्द्र मोदी और फासीवाद को कोसते हैं। देश में इमरजेंसी जैसे हालात को लेकर
गरजते हैं। पर यह कितनी हास्यास्पद बात है कि संस्कृति मंत्रालय के आर्थिक सहयोग
से सजे मंच पर खडे होकर आप कह रहे हैं कि देश में इमरजेंसी जैसे हालात हैं। दरअसल
इस तरह के आरोप लगानेवालों को इमरजेंसी जैसे हालात का अंदाज ही नहीं होता है। अगर
इमरजेंसी जैसे हालात होते तो सरकारी मदद वाले मंच से सरकार के विरोध के बोल नहीं गूंजते।
इमरजेंसी के दौर में अनुदान देने के पहले मंच पर बैठनेवालों की सूची मांगी जाती
थी। सूची से संतुष्ट होने के बाद ही धन जारी किया जाता था। सूचना के अधिकार के तहत
संस्कृति मंत्रालय से प्रश्न पूछकर यह पता लगाया जा सकता है कि क्या कभी इस मंत्रालय
ने वक्ताओं या मंच पर परफॉर्म करनेवाले कलाकारों के नाम को देखकर धन दिया। शुरुआत
में तो संस्कृति मंत्रालय ने कई ऐसे कार्यक्रमों को आर्थिक मदद दी जिसमें धुर
वामपंथी शामिल होते रहे हैं। मोदी सरकार पर इस तरह के आरोप लगानेवालों को संस्कृति
मंत्रालय के कामकाज को देखना चाहिए।
संस्कृति मंत्रालय तो
इतनी उदार है कि साहित्य अकादमी के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और आमसभा के सदस्यों के
चुनाव के समय भी सिर्फ अपनी राय ही दे पाई। आम सभा के सदस्यों ने तो सस्कृति
मंत्रालय की राय को ठुकरा दिया। संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने मंत्रालय की
तरफ से एक उम्मीदवार को नामित किया था और आमसभा से उनको वोट देने को कहा था लेकिन
उस उम्मीदवार की हार हो गई। मंत्रालय ने कुछ नहीं किया, साहित्य अकादमी के कामकाज
में किसी तरह की बाधा खड़ी नहीं की। अगर किसी तरह की असहिष्णुता होती तो यहां उसका
असर तो दिखता। साहित्य अकादमी ही क्यों अगर हम संगीत नाटक अकादमी की बात करें तो
वहां भी समावेशी माहौल है। संगीत नाटक अकादमी की जो समिति है उसमें कम्युनिस्ट
पार्टी के कार्ड होल्डर को इसी सरकार ने नामित किया। नक्सली होने का आरोप झेल रहे
एक शख्स के रिश्तेदार को संगीत नाटक अकादमी ने पुरस्कृत किया। कहीं कोई विरोध या
कहीं किसी तरह की हलचल तक नहीं हुई। इसी तरह से आरोप लगता है कि नियुक्तियों में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इशारे पर नियुक्तियां होती हैं। यह भी मिथ्या आरोप है।
ऐसे ऐस शख्सियतों को सरकार ने अहम जिम्मेदारी दी है जो घोषित तौर पर मोदी और संघ
के विरोधी रहे हैं। इस स्तंभ में समय समय पर ऐसे लोगो के बारे में लिखा जाता रहा
है, जिसको दोहराने का कोई अर्थ नहीं है।
असहिष्णु तो मोदी के
पहले की सरकारें थीं। यहां यह याद दिलाना आवश्यक है कि जब 2004 के लोकसभा चुनाव
में भारतीय जनता पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा और कांग्रेस की अगुवाई में
वामपंथियों के समर्थन से सरकार बनी तो साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में क्या
हुआ था। 2005 में संगीत नाटक अकादमी के अद्यक्ष के पद से सोनल मानसिंह को बर्खास्त
कर दिया गया था। यह पहली बार हुआ था कि राष्ट्रपति के आदेश से संगीत नाटक अकादमी
के अध्यक्ष को पद से हटाया गया। उस दौर के अखबारों को देखकर इस बात का सहज अंदाज
लगाया जा सकता है कि सोनल मानसिंह को वामपंथी दलों के दबाव में हटाया गया था। इसी
तरह से तत्कालीन सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष अनुपम खेर को हटा दिया गया था। तब पार्टी
के पत्र पीपल्स डेमोक्रेसी में हरकिशन सिंह सुरजीत ने लेख लिखकर अनुपम खेर को
हटाने की बात की थी और खेर को संघ का आदमी करार दिया था। इस तरह के कई वाकए उस दौर
में हुए थे लेकिन तब की सरकार को किसी ने असहिष्णु नहीं कहा था। इस वक्त की यूपीए
सरकार पर किसी कोने अंतरे से फासीवाद को बढ़ावा देने का आरोप नहीं लगाया गया था। जब
आप कोई काम करें और उसके लिए आपको जिम्मेदार ना ठहराया जाए और जब आप वो काम ना
करें तो उसके लिए आपको जिम्मेदार ठहराया जाए। यह किस तरह का मैनेजमेंट है इसको
समझने की जरूरत है। दरअसल ये पूरा खेल अर्थ से जुड़ा है। जब तक अनुदान मिलता रहता
है वामपंथ से जुड़े संगठन या उस विचारधारा के खुद को करीब माननेवाले खामोश रहते
हैं और जहां आर्थिक मदद में कटौती होने की आशंका दिखाई देती है तो फासीवाद का शोर
मचने लगता है ताकि सरकार पर दबाव बने और इस तरह के आरोपों से बचने के लिए आर्थिक
मदद में कटौती नहीं हो सके। आजाद भारत की ये इकलौती और पहली सरकार है जो उन
संगठनों को मदद करती है जिसके मंच पर से उसके सबसे बड़े नेता की व्यक्तिगत और
वैचारिक दोनों आलोचना की जाती है।