हाल ही में भारतीय जन नाट्य संघ यानि इप्टा का
प्लैटिनम जुबली समारोह पटना में मनाया गया। हर संस्था अपनी स्थापना के महत्वपूर्ण
पड़ावों पर समारोहों का आयोजन करती है। भारतीय जन नाट्य संघ ने भी किया। आजादी के
पहले स्थापित इस संस्था का उद्देश्य नाटकों के माध्यम से सांस्कृतिक जागरण फैलाना
था। ये संस्था शुरू से ही वामपंथी विचारकों द्वारा स्थापित थी और कम्युनिस्ट
पार्टी की सांस्कृतिक ईकाई के रूप में काम करती रही है। इसी स्थापना के संकेत
प्रगतिशील लेखक संघ की 1936 में हुई बैठक में ही मिलने लगे थे और सात साल बाद
स्थापना हो गई। आजादी मिलने के बाद भारतीय जन नाट्य संघ ने अपने नाटकों के माध्यम
से जमकर वामपंथी विचारधारा का प्रचार किया, लेखन और मंचन दोनों में। वामपंथी और
कांग्रेसी सरकारों की छत्रछाया में ये संगठऩ खूब फले फूले भी, लेकिन जब वामपंथी
विचारधारा धीरे-धीरे एक्सपोज होने लगी तो इस तरह के संगठनों की ताकत भी कम होती
चली गई। ये संगठन अपने मातृ संगठनों के लिए काम करते रहे। प्रगतिशील लेखक संघ से
लेकर जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे संगठन किसी भी फैसले के लिए अपने
राजनीतिक आका का मुंह जोहते रहे। उनके निर्देशों के पालन में साहित्य और संस्कृति को
ढाल बनाकर राजनीति करते रहे। इस तरह के सैकड़ों वाकए हैं जब इन संगठनों ने साहित्य
कला और संस्कृति को ढाल बनाकर राजनीति की। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद असहिष्णुता
की मुहिम हो या पुरस्कार वापसी का अभियान हो, इन सबके पीछे यही मानसिकता काम करती
रही। ये उस सुविधापरक राजनीति का अंग है कि जिसके तहत वो लेखक जो अशोक वाजपेयी को
कल्चरल माफिया और भारत भवन को अजायबघर कहते नहीं थकते थे वो सभी आज अशोक वाजपेयी
और रजा फाउंडेशन के झंडे तले एकजुट नजर आते हैं। यह उसी सुविधाजनक राजनीति का
हिस्सा है जो एम एफ हुसैन पर हमले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़कर देखता है
और दूसरी तरफ तस्लीमा नसरीन पर हमला होता है तो खामोशी छा जाती है। इस तरह के इतने
उदाहरण हैं कि एक पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। संस्कृति के नाम पर राजनीति करना
कोई इनसे सीखे।
हम बात कर रहे थे पटना में आयोजित जन नाट्य संघ
के समारोह की जिसमें एक बार फिर से जमकर राजनीति हुई। नाटकों की आड़ में राजनीति
का ये बेहतर नमूना है। इसके उद्घाटन सत्र में मंच पर बैठे वक्ताओं की सूची से ही
पता चल जाता है कि आयोजकों की मंशा क्या रही होगी। शबाना आजामी, एम के रैना.
जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और गुजरात के विधायक
जिग्नेश मेवाणी। शबाना आजमी, एम के रैना की बात तो समझ में आती है कि वो रंगकर्म
से जुड़े हुए लोग हैं। कन्हैया ने भी ये बताया कि वो बचपन में अपने गांव में इप्टा
में सक्रिय थे । उन्होंने स्वीकार किया कि वो अपने गांव में इप्टा में सक्रिय न होते तो उनमें ये चेतना भी न आयी
होती। उन्होंने आगे स्वीकार किया वो जो 'आज़ादी ' का गाना गाते हैं वो भी इप्टा का ही है। उन्होंने इस बात पर
भी जोर दिया कि इस वक्त देश में बहुत
सारे ऐसे स्टैंडअप कॉमेडियन हैं जो इप्टा जैसे किसी संगठन से नहीं जुड़े हैं लेकिन
उनके कंटेंट उतने प्रगतिशील हैं। उन्होंने ऐसे लोगों को साथ जोड़ने की वकालत भी की।
वो उस तरह के स्टैंड अप कॉमेडियंस की बात कर रहे थे जो मंच पर खड़े होकर नरेन्द्र
मोदी का मजाक उड़ाते हैं। प्रगतिशीलता की पहली शर्त ही नरेन्द्र मोदी की आलोचना या
उनका मजाक उड़ाना है। ये ठीक भी है क्योंकि कन्हैया कुमार तो राजनीति कर रहे हैं
और उनके इरादे बिहार के बेगूसराय लोकसभा चुनाव से निर्वाचित होने की भी है। उसके
लिए वो तैयारी भी कर रहे हैं। एक चतुर राजनेता की तरह वो इप्टा के मंच का इस्तेमाल
भी करते हैं। उनको मालूम है कि सूबे की राजधानी में आयोजन हो और उसमें मौजूदा
केंद्रीय हुकूमत पर हमला बोला जाए तो मीडिया में जगह मिलेगी ही।
अगर ये मान भी लिया जाए कि कन्हैया का रंगकर्म से
कोई लेना देना है लेकिन यह मानना मुश्किल है कि जिग्नेश मेवाणी का नाटक से कोई
लेना देना है। जिग्नेश गुजरात से निर्दलीय विधायक हैं जिनको कांग्रेस का समर्थन
है। जिग्नेश ने इप्टा के मंच से राजनीतिक भाषण दिया और कहा कि संगठन को सिर्फ लाल
और नीले रंग की चिंता नहीं करनी चाहिए बल्कि सभी रंगों का ख्याल रखना चाहिए। रंगों
की बात इस वजह से चली कि शबाना ने अपने भाषण में भी रंग से बात शुरू की थी। शबाना
ने कहा था कि जब वो छोटी थी तो अपने पिता कैफ़ी आज़मी साहब उनको मदनपुरा के मज़दूरों
के रैली में ले जाते थे। जब दुनिया में आँखे खोलीं तो सबसे पहले लाल रंग ही देखी। उनका मानना है कि लाल रंग लोगों
को जोड़ने के काम आता है। उन्होंने लाल रंग की महत्ता स्थापित करने के बाद कहा कि आज
लड़ाई धर्म और मज़हब की नहीं बल्कि विचारधारा की है। उन्होंने बेहद चतुराई के साथ
कहा कि वो एक महिला हैं, बेटी हैं, पत्नी हैं, फिल्म अभिनेत्री हैं, सामाजिक कार्यकर्ता हैं, और एक मुस्लिम भी हैं। जोर देकर कहा कि मुस्लिम
शब्द आते ही उनकी सारी पहचान गौण हो जाती हैं और सिर्फ
मुस्लिम के तौर पर पहचान बच जाती है। अब हमें इश बात
पर विचार करना चाहिए कि ये भाषण एक सांस्कृतिक संगठन के मंच से हो रहा था। शबाना
आजामी प्रकारांतर से राजनीति कर रही थी जिसको जिग्नेश मेवाणी जैसे नेता आगे बढ़ा
रहे थे।
अगर हम देखें तो इप्टा के प्लैटिनम जुबली समारोह को
राजनीति का मंच बना दिया गया। इस आयोजन का जिम्मा भारतीय जन नाट्य संघ की पटना
ईकाई के जिम्मे था और इसके मुख्य पदाधिकारी लंबे समय तक राष्ट्रीय जनता दल के
सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के मुखिया रहे हैं। साफ है कि उनकी प्रतिबद्धता किस ओर है। इप्टा
का ये आयोजन विपक्ष की राजनीति को मजबूत करने के लिए किया गया प्रतीत होता है। जिसमें
अमूमन सभी वक्ताओं ने केंद्र सरकार की नीतियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश
की। हद तो तब हो गई थी कि जब कांग्रेस के नेता शकील अहमद खान भी मंच पर पहुंचे और
उन्होंने वहां से लगभग राजनीतिक भाषण दिया। कुछ लोगों का कहना है कि शकील अहमद खान
ने कहा कि अब इस तरह के कार्यक्रम उन जगहों पर करने चाहिए जहां वक्ताओ की ऊंची
आवाज को सुनने में दिक्कत ना हो। दरअसल
हुआ ये था कि आयोजन में मंचन और भाषण के दौरान तेज आवाज की वजह से पड़ोसियों को
दिक्कत हो रही थी और पुलिस ने हस्तक्षेप की वजह से कार्यक्रम को मैदान से हटाकर
हॉल में करना पड़ा था। वाम दलों के अलावा इस जुटान में राष्ट्रीय जनता दल और
कांग्रेस के नेता भी पहुंचे थे और मंचासीन भी हुए थे। इप्टा से ज्यादा ये समारोह
विपक्षी दलों का सम्मेलन बन गया था।
बिहार की भूमि इस तरह की राजनीति को लेकर हमेशा से
उर्वर रही है। पाठकों को याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी वामपंथियों
ने इसी तरह से असहिष्णुता और पुरस्कार वापसी का मुद्दा उठाया था। नीतीश कुमार की
जीत के बाद उनमें से कइयों को पुरस्कृत भी किया गया। वामपंथियों की नीतीश कुमार से
दिल्ली में मुलाकात भी हुई थी जिसमें ये तय किया गया था कि बुद्धिजीवियों के बीच नीतीश
की छवि बनाने के लिए काम किया जाएगा। इस काम का टेंडर हो गया था,लेकिन ठेकेदारी
शुरू हो पाती इसके पहले नीतीश कुमार ने ही महागठबंधन को छोड़ दिया। इसके बाद इस
योजना पर पानी फिर गया। अब एक बार फिर से वामपंथियों ने अपने सांस्कृतिक संगठन के
माध्यम से राजनीति की बिसात बिछानी शुरू कर दी है जिससे की लोसकभा चुनाव के पहले
मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाया जा सके। वाम दलों का तो कांग्रेस के साथ बने रहने
का इतिहास रहा है, उन्होंने तो इमरजेंसी तक का समर्थन किया था। इसका उनको इनाम भी
मिला था और इंदिरा गांधी ने देश के कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े सरकारी, गैर
सरकारी और स्वयत्त संगठनों की कमान वामपंथियों को सौंप दी थी। पिछले चार साढे चार
सालों में ये व्यवस्था बाधित हुई जिसका सबसे बड़ा असर कम्युनिस्टों पर ही पड़ा। लोकसभा
चुनाव में उनको संभावना नजर आ रही है कि किसी तरह से भारतीय जनता पार्टी हारे और
वो लोग एक बार फिर से सांस्कृतिक सत्ता की मलाई खा सकें। इनको ये नहीं भूलना चाहिए
कि इसके लिए जनता का भरोसा जीतना होता है।
1 comment:
कुछ लोग पत्रकारिता छोड़ कर मोदी गान में लगे हैं। खुद सियासत करते हैं और दूसरों को नसीहत देते हैं। इप्टा विचार है ये कौन नहीं जानता। जो विचार समानता और भाईचारा और देश के विभिन्न रंगों को खुद में समेटे आंदोलन है। जो लोग कठुआ रेप को झुठलाते हैं और सत्ता के पक्ष में बलात्कार जैसी जघन्य घटना को सही ठहराते हैं वे किस मुंह से ये बात करते हैं। अनंत जी पत्रकारिता के कुछ मूल्य बचे रहने दीजिए। शर्मशार मत कीजिये। पहले ही आपलोगों की करनी से पत्रकारिता शर्मशार हुई है। निवेदिता की टिप्पणी।
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