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Saturday, November 17, 2018

राजनीति का औजार बनती कला


साहित्य और कला को राजनीति का औजार नहीं बनाया जाना चाहिए लेकिन हमारे देश में स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है। हमारे यहां साहित्य और कला को दशकों से राजनीति के औजार के तौर इस्तेमाल किया जाता रहा है। होता यह है कि जब किसी राजनीतिक दल की साख छीजती है तो उसको किसी सहारे की जरूरत होती है तो वो साहित्य कला की ओर देखने लगता है। साहित्य और कला से मजबूत सहारा और क्या हो सकता है? इससे साख कायम होती है। इसके सैकड़ों उदाहरण हिंदी साहित्य और भारतीय कला जगत में मौजूद हैं जब कला को राजनीति औजार के तौर परर इस्तेमाल किया गया। हाल ही में संगीत से जुड़े एक और मसले पर जमकर राजनीति हुई। कर्नाटक संगीत के गायक टी एम कृष्णा इस राजनीति के औजार बने या उन्होंने इस राजनीति को आगे बढ़ाने में मदद की इसपर बात करना बहुत आवश्यक है। आवश्यक यह भी है कि कला के नाम पर अपनी राजनीति करनेवालों से सवाल पूछे जाएं।
दरअसल ये पूरा मामला दिल्ली में एक आयोजन से जुड़ा है। दिल्ली के इस आयोजन में टी एम कृष्णा के साथ सोनल मानसिंह का भी कार्यक्रम तय और विज्ञापित किया गया था। इस कार्यक्रम की आयोजक स्पिक मैके नाम की संस्था थी और प्रायोजक एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया था। जब ये कार्यक्रम विज्ञापित हुआ तो इसको लेकर सोशल मीडिया पर विमानन मंत्रालय की आलोचना शुरू हो गई। आलोचना का आधार यह था कि मोदी विरोधी को एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया कैसे प्रोयजित कर रही है। इस आलोचना को वाम दलों से सहानुभूति रखने या खुद को उस विचारधारा के करीब पानेवाले लोगों ने दक्षिणपंथी ट्रोल का हमला करार दिया। विरोध करने का हक सबको है, उसको ट्रोल कह देना अन्यायपूर्ण है। यह सब चल ही रहा था कि एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने इस कार्यक्रम से अपना हाथ खींच लिया।
एयरपोर्ट अथॉरिटी के इस कदम के बाद अभिव्यक्ति की आजादी के चंद झंडाबरदारों को इसमें एक अवसर नजर आया। अवसर अपनी राजनीति चमकाने का, अवसर अपने राजनीतिक आकाओं को राजनीति की जमीन और औजार देने का। अब जिस तरह के ट्वीट को लेकर इन लोगों ने कार्यक्रम के विरोधियों को दक्षिणपंथी ट्रोल करार दिया था उससे ज्यादा आक्रामक तरीके से सरकार पर कुछ लोगों ने हमले करने शुरू कर दिए पर मैं अपने इस लेख में उनको वामपंथी ट्रोल नहीं कहूंगा। क्योंकि संवाद में या लेखन में शब्दों के चयन में बहुत सावधान रहने की जरूरत होती है। शब्द लेखक की मानसिकता को उजागर करते चलते हैं। इस पूरे मसले पर स्तंभकार रामचंद्र गुहा भी अति उत्साह में ऐसे शब्दों का प्रयोग कर बैठे जो उनके इतिहासकार होने के दावे पर ही प्रश्नचिन्ह लगा गया। रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में यह लिखा दिया कि कृष्णा को दिल्ली में गाने से रोकना असभ्य दुनिया का परिचायक है। रामचंद्र गुहा के ट्वीटर हैंडल पर उन्होंने अपने परिचय में खुद को लोकतंत्र का इतिहासकार बताया है। अब वो कैसे इतिहासकार हैं इसको उनके उपरोक्त शब्दों के चयन से समझा जा सकता है। एक कार्यक्रम के रद्द होने से दुनिया को असभ्य करार देना अतिवाद है। आगे भी अपने उस लेख में गुहा ने कृष्णा को अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर महान संगीतज्ञ करार दिया है। हो सकता है कृष्णा उतने ही महान हों, जितना राम गुहा उनको साबित करने में लगे हैं। लेकिन मुझे याद है कि कुछ अरसा पहले कृष्णा ने एक पत्रिका में महान गायिका सुबुलक्ष्मी के बारे में एक लेख लिखा था। उस लेख में कृष्णा ने लक्ष्मी के बारे में अनर्गल, आधारहीन बातें की थीं और उनपर घटिया व्यक्तिगत लांछन भी लगाए थे। कृष्णा ने वो लेख तब लिखा था जब सुबुलक्ष्मी का निधन हो चुका था और आरोपों पर सफाई देनेवाला कोई था नहीं।
गुहा को कृष्णा महान कलाकार लगते हैं, इसी तरह कुछ लोगों को कृष्णा की महानता पर तब शक हुआ था जब वो मुंबई हमले के गुनहगार आतंकवादी अजमल कसाब के मानवाधिकार को लेकर चिंतित हुए थे। दरअसल गुहा जैसे इतिहासकार लगातार अपना गोलपोस्ट बदलते रहते हैं, जब जैसी बहे बयार, पीठ तब वैसी कीजिए के सिद्धांत पर चलते रहते हैं। इस वजह से प्रचुर मात्रा में लेखन करने के बावजूद उनको एक इतिहासकार के रूप में मान्यता मिलना शेष है। अब भी स्थापित इतिहासकार गुहा को कोशकार ही कहते हैं। साख के लिए शब्दों के चयन में सावधान रहना बेहद आवश्यक है।
कृष्णा का मोदी विरोध जगजाहिर है, वो राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के खिलाफ भी लगातार बोलते लिखते रहे हैं। उनकी प्राथमिकताएं भी जगजाहिर हैं। अब अगर उनकी इस विचारधारा के आधार पर उनका कार्यक्रम स्थगित किया जाता तो चंद महीने पहले राजस्थान में उनका कार्यक्रम कैसे हो पाता। वहां भी तो भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और प्रायोजक भी संभवत: सरकार ही थी। हिंदी में तमाम ऐसी प्रत्रिकाएं छपती हैं जिनमें भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकारों के बड़े बड़े विज्ञापन होते हैं और उसके संपादकीय में मोदी सरकार की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। संस्कृति मंत्रालय ने कई ऐसे कार्यक्रमों को प्रोयजित किया है और उनको आर्थिक मदद दी है, जहां मंच से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जमकर आलोचना की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देश को बांटने वाला संगठन तक करार दिया गया। अगर सरकार किसी कार्यक्रम को इस आधार पर रोकती तो इस तरह के आयोजनों को या इन पत्रिकाओं को कोई आर्थिक मदद नहीं मिल पाती। कृष्णा का कार्यक्रम राजस्थान में नहीं हो पाता।दूसरी बात यह कि दिल्ली का कार्यक्रम सिर्फ कृष्णा का नहीं था, इसमें अन्य कलाकार भी थे। उसमें से एक कलाकार सोनल मानसिंह भी थीं जिनको कि मोदी सरकार ने राज्यसभा में मनोनीत किया है।
स्पिक मैके के कार्यक्रम के रद्द होने में दिल्ली की केजरीवाल सरकार को एक अवसर नजर आया। ये अवसर भी राजनीति का भी था और अपनी सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार के तौर पर स्थापित करने का भी। आनन फानन में यह तय किया गया कि कृष्णा का कार्यक्रम उसी तिथि को दिल्ली में आयोजित किया जाएगा जिस तिथि का कार्यक्रम रद्द हुआ। उसके बड़े बड़े विज्ञापन छपे और कार्यक्रम को आवाम की आवाज का नाम दिया गया। विज्ञापनों में कृष्णा की तस्वीर के साथ दिल्ली के उपमुख्यमंत्री की भी बड़ी सी तस्वीर छपी। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी जनता से इस कार्यक्रम में आने का अपील की। लेकिन इसमें भी राजनीति हो गई क्योंकि दिल्ली सरकार ने सिर्फ कृष्णा को आमंत्रित किया और सोनल मानसिंह और अन्य कलाकारों को छोड़ दिया। क्या सोनल और अन्य कलाकारों ने कोई गुनाह किया था। या कला भी अब राजनीति के खांचे में बंटकर प्रदर्शित की जाएगी। कला के राजनीति का पिछलग्गू बनने का यही सबसे बड़ा नुकसान दिखाई देता है।
इस मसले पर जो राजनीति हो रही है उसमें देश के प्रधानमंत्री तक को घसीट लिया गया है। दरअसल चार राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं और चंद महीनों के बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं। अब आने वाले दिनों में इस तरह के मसलों को और हवा देकर मौजूदा मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश होगी। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले जिस तरह से असहिष्णुता के मुद्दे पर पुरसाकर वापसी का अभियान चालाया गया था, उसी की तर्ज पर कुछ करने की कोशिश होगी। इस बात के पुख्ता संकेत एक डेढ़ साल पहले से मिलने शुरू हो गए, जब दिल्ली में एक खास विचारधारा के लेखकों और संस्कृतिकर्मियों का जमावड़ा हुआ था और ये घोषणा की गई थी कि पूरे देशभर में गोष्ठियों और कार्यक्रम किए जाएंगे ताकि कथित तौर पर सांप्रदायिक शक्तियों को मात दी जा सके। जुटान के नाम से दिल्ली में आयोजित इस गोष्ठी में जिस तरह के भाषण इत्यादि हुए थे उसने भी उनके इरादे साफ कर दिए थे।दरअसल अगर हम देखें तो वामपंथी विचारधारा के लेखक हमेशा से ये काम करते रहे हैं। लेखक संगठनों की भमिका उनकी स्थापना के बाद से इस तरह से बदलती चली गई कि वो अपने राजनीतिक दलों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह से काम करने लगे। साहित्यिक लेखन भी राजनीति दलों की उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाने लगा। हिंदी कविता इस तरह से नारेबाजी की शक्ल में लिखी जाने लगी कि पाठक उससे दूर होने लगे। मशहूर अमेरिकी कवि गिंसबर्ग ने कहा भी था कि कविता कभी भी पार्टी लाइन को अभिव्यक्त करने का माध्यम नहीं हो सकती है। रात को सोते समय जब कोई शख्स अपनी निजी सोच को सार्वजनिक करने के बारे में सोचता है तो कविता आकार लेने लगती है। अमूमन कवि से अपेक्षा भी यही की जाती है। लेकिन ज्यादातर हिंदी कविता इसके उलट पार्टी लाइन पर चलती रही और पाठकों से दूर होती चली गई। कला को राजनीति के औजार के तौर पर इस्तेमाल करनेवालों को चिन्हित करना जनता को बताना बेहद आवष्यक है।      

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