इन दिनों समकालीन हिंदी
साहित्य में सन्नाटा पसरा हुआ है। ना कोई रचनात्मक स्पंदन, ना ही किसी प्रकार का
कोई साहित्यिक वाद-विवाद, ना ही किसी लेख आदि से विचारोत्तेजक माहौल, ना ही की
साहित्यिक आंदोलन खड़ा हो पा रहा है। इस वर्ष कोई ऐसी कृति भी नहीं आई है जिसको लेकर
साहित्य जगत में क्रिया-प्रतिक्रिया वाला माहौल हो। हिंदी साहित्य के फॉर्मूलाबद्ध
जुमले में कहें तो ‘नई जमीन तोड़ती’ कोई रचना भी इन दिनों नहीं आई है। कोई साहित्यिक
फतवेबाजी भी सुनने को नहीं मिल रहा है। साहित्य जगत में व्याप्त इस सन्नाटे की कई
वजहें हो सकती हैं। कुछ लेखकों की खामोशी से तो ये लगता है कि वो दम साधे 2019 में
होनेवाले लोकसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन इस श्रेणी में तो
वही लेखक आते हैं जो बहुत सोच समझकर, शतरंज की तरह अपनी चाल चलते हैं। इस कोष्ठक
के लेखक इंतजार कर रहे हैं कि सरकार बदले तो उस हिसाब से लेखन प्रारंभ करें। इसके
अलावा जो दो तीन वजहें मुझे समझ में आ रही हैं उनमें से पहली वजह लघु पत्रिकाओं के
चरित्र का बदल जाना है।
हिंदी साहित्य के परिदश्य को वैचारिक उतेजना प्रदान करने
में इन लघु पत्रिकाओं का बड़ा योगदान रहा है। हिंदी में लघु पत्रिका आंदोलन की
शुरूआत 1957 में ङुई थी, ऐसा माना जाता है, जब बनारस से विष्णुचंद्र शर्मा ने ‘कवि’ पत्रिका का संपादन
शुरू किया था। उसके बाद तो
व्यावसायिक पत्रिकाओं के विरोध में ढेर सारी लघु पत्रिकाएं निकलीं। इसके पहले भी
हिंदी साहित्य में साहित्यिक पत्रिकाओं का एक समृद्ध इतिहास मौजूद है लेकिन ‘कवि’ पत्रिका के प्रकाशन के
बाद जिस तरह से लघु पत्रिका आंदोलन के नाम से इस तरह की पत्रिकाओ का प्रकाशन शुरू
हुआ उसने साहित्यिक परिदृश्य को जीवंत बनाए रखा। लंबे समय तक लघु पत्रिकाएं निकलती
रही लेकिन बाद में वो अपनी राह से भटक गईं। आज लघु पत्रिका आंदोलन अरना चरित्र ही
नहीं बल्कि स्वरूप भी खो चुका है। जब लघु पत्रिका आंदोलन की शुरूआत हुई थी तो ये
उपक्रम अव्यावसायिक था लेकिन ये जो भटकाव आया उसने इन पत्रिकाओं को घोर व्यावसायिक
बना दिया। ज्ञानरंजन के संपादन में निकलनेवाली पत्रिका ‘पहल’ को अगर देखें तो
शुरूआती अंकों में ‘पहल’ की जो प्रतिबद्धता थी वो बाद के अंकों में छीजती
चली गई। बाद के अंकों में ‘पहल’ में खूब विज्ञापन छपने लगे थे जिससे पत्रिका का
खर्चा ते निकल ही जाता था, उनके कर्ताधर्ताओं को लाभ भी होने का अंदाज लगाया जाता
था। इस मामले में राजेन्द्र यादव ने ईमानदारी बरती और उन्होंने जब ‘हंस’ पत्रिका का
पुर्प्रकाशन शुरू किया तो उसके अव्यावसायिक होने की घोषणा या दावा नहीं किया। वो ‘हंस’ को कंपनी की तरह चलाते
रहे और उसके लाभ हानि की चिंता भी करते रहे। इसी तरह से अखिलेश के संपादन में
निकलने वाली पत्रिका ‘तद्भव’ एक बेहतरीन और स्तरीय साहित्यक पत्रिका है लेकिन
उसमें जितने विज्ञापन होते हैं उससे ये प्रतीत होता है कि पत्रिका का बैलेंस सीट
हमेशा मुनाफा ही दिखाता होगा।
अब लघु पत्रिकाओं ने
अपना चाल चरित्र और चेहरा तीनों बदल लिया है। लघु के नाम को भी छोड़ दिया है। अब
तो साहित्यिक गोष्ठियों से लेकर व्यक्तिगत बातचीत में भी लघु शब्द का प्रयोग नहीं
होता है। साहित्य छापने वाली इन पत्रिकाओँ को अब मोटे तौर पर तीन श्रेणी में
विभाजित किया जा सकता है। अध्यापकीय, सांस्थानिक और व्यक्तिगत। व्यक्तिगत श्रेणी
में वैसी पत्रिकाएं आती हैं जो ज्यादातर किसी ना किसी लेखक पर विशेषांक निकालती
हैं। बड़े लेखकों को विशेषांक निकालकर संपादक अपना हित साधता है, उसको साहित्य से
कुछ लेना देना नहीं होता है। इस काम के लिए किसी साहित्यिक दृष्टि की आवश्यकता भी
नहीं होती है, बस आपको कुछ लेखकों को जानना आवश्यक होता है जिससे तय लेखक पर लेख
लिखवाए जा सकें और हित साधक अंक प्रकाशित हो सके। इस तरह की पत्रिका से वैसे लेख
की अपेक्षा करना व्यर्थ हो जिससे साहित्य जगत में किसी तरह का विमर्श खड़ा हो सके।
पत्रिका की दूसरी
श्रेणी है अध्यापकीय। इस तरह की पत्रिकाएं रजिस्ट्रार ऑफ न्यूजपेपर्स के यहां
रजिस्टर्ड होती हैं और उनके पास भारत सरकार से जारी किया जानेवाला एक विशेष नंबर
जिसको आई एस एस एन नंबर कहते हैं वो भी होता है। इस तरह की पत्रिकाओं में ज्यादातर
लेख हिंदी के अध्यापकों के छपते हैं जो अध्ययन-अनुशीलन टाइप से लिखा
जाता है। यह विशुद्ध कारोबार है। इसमें संपादक अध्यापकों से पैसे लेकर उनके लेख
छापते हैं। आरएनआई से रजिस्टर्ड और आईएसएसएन नंबर वाली इन पत्रिकाओं में लेख छपने
से अध्यापकों को प्रमोशन आदि में लाभ मिलता है। यह एक कारोबार की तरह फल फूल रहा
है जिससे संपादक के अलावा देशभर के ज्यादातर अध्यापक लाभान्वित होते हैं। यह कुटीर उद्योग की तरह विकसित हो गया है। जहां जहां
कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं वहां वहां इस तरह की एक पत्रिका का प्रकाशन आपको अवश्य
मिलेगा। इन व्यावसायिक पत्रिकाओ से भी किसी प्रकार के वैचारिक उद्वेलन की अपेक्षा
नहीं की जा सकती है। बच गई सांस्थानिक पत्रिकाएं जो ज्यादातर सरकारी या अर्धसरकारी
अकादमियों या संस्थाओं से निकलती है। इस तरह की पत्रिकाओं की अपनी सीमाएं होती
हैं, मंत्रियों से लेकर विभागीय अध्यक्षों के संदेशों के साथ पत्रिकाएं प्रकाशित
होती हैं। किसी भी तरह की कोई विवादास्पद रचना इसमें छप नहीं सकती हैं। इल तरह की
पत्रिकाओं को निकालनेवाले ज्यादतर संपादक पत्रिका की साज सज्जा से लेकर उसके
प्रस्तुतिकरण पर ध्यान देते है। उसमें भी कभी कभार गलतियों हो जाती हैं। जैसे
विदेश मंत्रालय के एक उपक्रम से निकलनेवाली पत्रिका में विभागीय मंत्री सुषमा
स्वराज का नाम सुषमा स्वराज्य छप गया था। पत्रिका के संपादन स जुड़े शख्स का दावा
है कि मंत्रालय ने मैटर सीधे प्रेस में भेज दिया था जिससे ये चूक हुई। इस तरह से
माहौल में जो पत्रिकाएं निकलती हों उनसे रचनात्मक उत्कृष्टता की अपेक्षा व्यर्थ है।
लघु पत्रिकाओं के खत्म
होने या उसके चरित्र और स्वरूप बदल जाने के अलावा हिंदी साहित्य में रचनात्मक
सन्नाटे की जो वजह मेरी समझ में आती है वो है अच्छी कृतियों को अच्छी और खराब
कृतियों को खराब कहने के साहस का अभाव। अब वो जमाना बिल्कुल नहीं रहा कि किसी कृति
को आप खराब कहें। हिंदी में प्रकाशित हो रही सभी कृतियां बेहतरीन होती हैं, अपनी
तरह की अनूठी होती हैं, उस तरह की रचना पहले कभी नहीं आई हुई होती हैं, आदि आदि।
ये अतिशयोक्ति नहीं है बल्कि साहित्यिक पत्रिकाओं से लेकर सोशल मीडिया और फेसबुक
पर आपको इस तरह की टिप्पणियां बहुतायत में दिख जाएंगीं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि
पाठक साहित्य से दूर होने लगे। प्रशंसात्मक समीक्षाएं या टिप्पणियां पढ़कर आम पाठक
कोई कृति खरीद तो लेता है लेकिन पढ़ने के बाद जब वो खुद को ठगा हुआ महसूस करता है
तो साहित्यिक समीक्षाओं और टिप्पणियों से उसका भरोसा उठ जाता है। मेरा यह मानना है
कि जब किसी लेखक की ज्यादा तारीफ होने लगती है तो उसकी रचनात्मकता छीजने लगती है।।
ऐसे दर्जनों उदाहरण साहित्य में हैं, लगभग दर्जनभर कहानीकार तो हैं ही जिनकी
कहानियां 1990 के बाद के वर्षों में हंस में छपकर चर्चित और प्रशंसित हुई थी। इतनी
प्रशंसित हुई कि अब वो लेखक कहां हैं इसका पता कर पाना मुश्किल हो गया है।
साहित्यिक परिदृश्य में
सन्नाटे की एक अन्य वजह जो मुझ समझ में आती है वह है स्थापित लेखकों का ना लिखना।
यहां यह पूछने का मन करता है कि हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश की
आखिरी कहानी कब प्रकाशित हुई थी। लंबी कहानी को उपन्यास की श्रेणी में रखकर
साहित्य अकादमी ने उनको पुरस्कृत किया लेकिन उसके बाद उनका कौन सा उपन्यास आया ये
साहित्य जगत जानना चाहता है। अब वो देश विदेश के साहित्यिक कार्यक्रमों में मंच से
साहित्य पर ज्ञान देते हैं। क्रांतिकारी कवि आलोक धन्वा हिंदी के बड़े कवि माने
जाते हैं लेकिन उनकी आखिरी कविता कब प्रकाशित हुई। अरुण कमल भी साहित्य अकादमी
पुरस्कार प्राप्त कवि हैं लेकिन उनके लिखने की रफ्तार भी अपेक्षाकृत कम है। यह भी
नहीं है कि इनकी अवस्था वो हो गई है कि ये लिख नहीं पाएं। दरअसल स्थापित लेखकों की
निरंतरता बेहद आवश्यक है।
हिंदी साहित्य में
राजेन्द्र यादव के जाने से बाद से सार्वजनिक बुद्धिजीवी की कमी शिद्दत से महसूस की
जा रही है। अशोक वाजपेयी से उम्मीद थी लेकिन वो वामपंथ के चंगुल में इस कदर फंस गए
हैं कि उनका वक्तव्य राजनीतिक होता है, साहित्यिक सवालों से भी जब वो मुठभेड़ करते
हैं तो उसमें भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से राजनीति ले आते हैं। लेखक संघों की तो
बात करना ही व्यर्थ है। साहित्य जगत में व्याप्त इस सन्नाटे को अगर जल्द नहीं तोड़ा
गया तो इसका असर बहुत गहरा होगा।
4 comments:
बढ़िया लेख।
अनंतजी बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी है और विचारणीय मुद्दा उठाया है आपने हालात बहुत खराब हैं ।
समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर बेबाक टिप्पणी। लाजवाब। इसमें केवल लघु पत्रिकाओं और महारथी कलमकारों पर टिप्पणी की गई है।अभी बहुत सी दिशाएं बाकी हैं।मसलन,निजी संस्थानों द्वारा विदेशों में आयोजित सेमिनार, जिसमें अध्यापक अपने खर्चे से जाते हैं,क्योंकि उसमें परचा पढ़ने से उन्हें पदोन्नति में अंक
मिलते हैं। डेढ़ दो लाख वेतन पानेवाले अध्यापक हर साल अपने खर्चे से विदेश जाते हैं।आम के आम,गुठल के दाम!
अंततः आपको अशोक वाजपेयी ही से उम्मीद थी। मतलब इधर कुछ भी नहीं
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