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Saturday, February 16, 2019

कैबरे देखने की हसरत रह गई


भगवानदास मोरवाल अपने दौर के सबसे चर्चित उपन्यासकारों में से एक हैं। मेवात के नूंह कस्बे के एक गरीब परिवार में जन्मे मोरवाल आज से करीब चालीस साल पहले दिल्ली आए और यहीं के होकर रह गए। पिछले दिनों प्रकाशित उनका उपन्यास हालाला खासा चर्चित रहा थाअभी हाल ही में उनका उपन्यास सुर बंजारन प्रकाशित हुआ है जो पाठकों को खूब पसंद आ रहा है। उ्न्होंने मेरे साथ अपने अनुभवों को साझा किया। 

दिल्ली के बारे में सोचने पर मेरी स्मृतियों में आज से लगभग चालीस साल पुराने असंख्य रेखाचित्र उभर आते हैं। एकदम अल्हड़ खुली सड़कें, दिल्ली परिवहन निगम की बसें, हर इलाके के सिनेमाघरों में चलने वाली फिल्मों के बिजली के खम्बों पर लटके पोस्टर l उन्नीस सौ अस्सी के एकदम शुरूआती दिनों में जब इसी दिल्ली के नारायणा विहार आया तो सबसे आकर्षण का केंद्र होता था रिंग रोड पर बना उमा रेस्टोरेंट और लिंडा रेस्टोंरेंट जहां कैबरे डांस हुआ करते थे। जब तक मैं नारायणा रहा उमा रेस्टोरेंट में होने वाले कैबरे डांस को देखने की चाह बनी रही l मगर यह कभी पूरी नहीं हो पाईl यह वही नारायणा है जहाँ ठीक उसके सामने बसे केंट इलाके में अपने सैनिकों के लिए कभी खुले सिनेमा घर हुए करते थे l इन सिनेमा घरों में देखी गयी जनता हवलदार और उमराव जान  फिल्मों के दृश्य आज भी दिमाग में ताजा हैं
उन्हीं दिनों दिल्ली में साहित्यिक गोष्ठियों के अनेक केंद्र थे l मंडी हाउस एक तरफ़ जहाँ गंभीर नाटकों के मंचन के केंद्र के रूप में जाना जाता था, तो दूसरी तरफ़ पंजाबी के द्विअर्थी हास्य नाटकों के मंचनों के लिए भी प्रसिद्ध था। इनमें जीजा दी हाँ, साली दी ना, कुड़ी जवान, ते मुंडा परेशान  जैसे नाटक उस दौर में बड़े लोकप्रिय थे l साहित्यिक गोष्ठियों के अलावा उन दिनों दिल्ली में कुछ ठीहे भी होते थे, जहां लेखक बैठकी जमाते थे। इनमें कनाट प्लेस का मोहन सिंह प्लेस स्थित कॉफ़ी हाउस तो था ही, श्रीराम सेंटर की केंटीन भी थी, जहां लंबे समय तक एक पुस्तक की दुकान भी होती थी।इस दुकान पर तमाम लघु पत्रिकाएं मिला करती थीं जो साहित्य रसिकों के लिए आकर्षण का केंद्र होती थी। एक छोटा-सा ठीहा और होता थाब्रज मोहन की दुकान l मद्रास होटल के पीछे हिंदी के युवा कथाकार और जनवादी गीतकार ब्रज मोहन की फोटो स्टेट की इस दुकान पर हंसराज रहबर, कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह जैसे दिग्गज लेखख समेत अनेक नये-पुराने लेखक आते थे l प्रत्येक शनिवार को यहां अच्छा-ख़ासा जमघट लग जाता था, जो बाद में कॉफी हाउस तक पहुंचता था।
दिल्ली की कई प्रिय-अप्रिय घटनाओं का मैं गवाह रहा हूँ l मैंने 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों में इस दिल्ली को धधकते हुए देखा हैl चांदनी चौक की उन्मादी भीड़ द्वारा लूटी जानेवाली दुकानों और पालम इलाके में हुई हत्याओं ने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया था।  जिस मोहन सिंह प्लेस के कॉफ़ी हाउस में विष्णु प्रभाकर, भीष्म साहनी, रमाकांत, अरुण प्रकाश जैसे लेखकों की बहसें देखी हैं, वही कॉफ़ी हाउस आज लेखकों की बाट जोहता है l वही कॉफ़ी हाउस जिसकी आवारा मेज़-कुर्सियों पर गरमागरम चाय और कॉफ़ी के प्यालों की चुस्कियों ने न जाने कितनों को लेखक बनाया है, उसकी वीरानी अब देखी नहीं जातीl एक लेखक के तौर पर अगर दरियागंज के प्रकाशन की दुनिया का ज़िक्र न करूँ तो यह क़िस्सा-ए-दिल्ली अधूरी रह जाएगी l प्रकाशन की दुनिया में आज जो आकर्षण हिंदी के छोटे-बड़े, ख्यात-विख्यात लेखकों में राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन के प्रति है, वह ठीक चार दशक पूर्व भी था l कहने का आशय यह है कि दिल्ली समय के साथ बड़ी तेज़ी से अपना रंग बदलती रही है l आज बहुत से लेखक जो लेखक बनने का दम भरते हैं इसी दिल्ली ने बनाए हैं l ग़ालिब इस दिल्ली पर ऐसे ही न्योछावर नहीं रहता था l

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