हिंदी में उपन्यास अपेक्षाकृत नई विधा है। हिंदी
साहित्य में तो उपन्यास का जन्म ही आधुनिक काल में हुआ, बल्कि कह सकते हैं कि
विश्व की अन्य भाषाओं में भी उपन्यास का आगमन बहुत बाद में हुआ। मार्क्सवादी आलोचक
राल्फ फॉक्स ने अपनी मशहूर कृति ‘द नॉवेल एंड द पीपल’ में माना है कि उपन्यास का एक विधा के तौर पर
अविर्भाव यूरोपीय पुनर्जागरण के दौर या उसके फौरन बाद हुआ।‘ उपन्यास का आगमन हिंदी की जमीन पर बाद में हुआ
अवश्य लेकिन ये एक महत्वपूर्ण और मजबूत विधा के रूप में स्थापित हुई। हलांकि
मार्क्सवादी आलोचकों ने जब उपन्यास विधा पर विचार किया को तो वो भारतीय परंपरा पर
विचार करने से चूक गए। उपन्यास भारतीय प्राचीन कथा परंपरा का विकास है। संस्कृत के
‘हितोपदेश’ में इस विधा के बीज
देखे जा सकते हैं। यह बात तो अब विदेशी विद्वान भी स्वीकार करने लगे हैं कि ‘हितोपदेश’ की परंपरा में ही ‘अलिफ लैला’ या फिर ‘ईस्पस फेबिल्स’ लिखे
गए। उपन्यास को लेकर देश-दुनिया में बहुत सी परिभाषाएं गढ़ी गईं लेकिन अबतक
उपन्यास का फॉर्म निश्चित नहीं किया जा सका। हिंदी में ही देखें तो अबतक इसको लेकर
आलोचकों में मतैक्य का अभाव दिखता है। अज्ञेय ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य: एक
आधुनिक परिदृश्य’ में लिखा है ‘समकालीन
साहित्य-विधाओं में उपन्यास शायद सबसे अधिक विशिष्ट और महत्वपूर्ण है। यह भी इसकी
विशेषता है कि इसकी परिभाषा इतनी कठिन है। किसी ने कहा है कि उपन्यास की सबसे
अच्छी परिभाषा उपन्यास का इतिहास है। इस उक्ति में गहरा सत्य है।‘ अज्ञेय के अलावा भी कई हिंदी के आलोचकों ने कमोबेश
उपन्यास को लेकर इसी तरह के विचार प्रकट किए हैं। अगर हम पिछले तीन दशक में
प्रकाशित उपन्यासों पर नजर डाले तो अज्ञेय के उपरोक्त कथन की पुष्टि होती है। इस
कालवधि में सबसे पहले उन्नीस सौ तिरानवे में सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’
प्रकाशित हुआ जो करीब छह सौ पृष्ठों का था। सुरेन्द्र वर्मा का ये उपन्यास जबरदस्त
रूप से सफल रहा। इसके धड़ाधड़ कई संस्करण प्रकाशित हो गए। उस कृति पर उनको साहित्य
अकादमी का पुरस्कार भी मिल गया। उसके बाद तो हिंदी में मोटे उपन्यास लिखे जाने
लगे। उन्नीस सौ सत्तानवे में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास ‘चाक’ का प्रकाशन हुआ
जिसकी कथा भी चार सौ छत्तीस पृष्ठों में फैली थी। ‘चाक’ ने मैत्रेयी पुष्पा को ना केवल साहित्य में
नामवर बनाया बल्कि उन्हें एक उपन्यासकार के तौर पर स्थापित भी किया। ये उपन्यास भी
खूब बिका और पाठकों और आलोचकों को पसंद भी आया।भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘काला पहाड़’ उन्नीस सौ
निन्यानवे में आया जो चार सौ छियासठ पेज का है। उनका ही दूसरा उपन्यास पांच वर्षों
बाद प्रकाशित हुआ ‘बाबल तेरा देस में’। इस
उपन्यास की पृष्ठ संख्या चार सौ चौरासी है। भगवानदास मोरवाल के दूसरे उपन्यास के
पहले चित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘आवां’ का प्रकाशन दो हजार एक में हुआ जिसकी पृष्ठ
संख्या पांच सौ चौवालीस है। भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘काला पहाड़’ भी बेहद चर्चित हुआ
और चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘आवां’ ने भी खूब प्रशंसा बटोरी। दो हजार तीन में में अमरकान्त
का भी भारी भरकम उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में पांच सौ पैंतीस
पेज हैं। असगर वजाहत का उपन्यास ‘कैसी आग लगाई’ भी इसी दौर में प्रकाशित हुआ जो भी मोटे उपन्यास
की श्रेणी में ही था। ये कुछ नाम हैं जिससे ये पता चलता है कि वो दौर भारी भरकम
उपन्यासों का था। बाद में इनमें से ज्यादातर लेखकों के उपन्यासों के पृष्ठ संख्या
कम होते चले गए। चित्रा मुद्गल ने ‘आवां’ के बाद जो उपन्यास लिखा ‘गिलिगडु’ वो अपेक्षाकृत पतला
था, इसी तरह से असगर वजाहत का उपन्यास ‘पहर दोपहर’ आया वो भी अपने पूर्ववर्ती उपन्यास से आकार में
काफी छोटा था। भगवानदास मोरवाल के उपन्यासों की पृष्ठ संख्या भी कम होती चली गई। किसी
भी हिंदी के आलोचक ने इस ओर ध्यान दिया, ऐसा ज्ञात नहीं है। क्या वजह रही कि
उपन्यास मोटे हुए और फिर वो पतले होते चले गए।
जनवरी में दिल्ली में समाप्त हुए विश्व पुस्तक
मेले में मेरी नजर से कई उपन्यास गुजरे जो दो सौ से कम पृष्ठों के हैं। सोशल
मीडिया पर प्रशंसा बटोर रहा मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘मल्लिका’ एक सौ साठ पृष्ठों
का है। यह उपन्यास भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की प्रेमिका मल्लिका के जीवन पर आधारित
है। इस उपन्यास में कथा विस्तार की असीम संभवनाएं थीं लेकिन फिर भी इसको एक सौ साठ
पृष्ठों में समेट दिया गया लेकिन इसकी कथा पर
कोई फर्क पड़ा ऐसा नहीं है। इसी तरह युवा कथाकार कवि उमा शंकर चौधरी का पहला
उपन्यास ‘अंधेरा कोना’ विश्व पुस्तक मेला
में जारी किया गया। यह उपन्यास भी पौने दो सौ पृष्ठों का है। कथाकार प्रत्यक्षा का
उपन्यास ‘बारिशगर’ भी एक सौ छिहत्तर पेज
का है। अनु सिंह चौधरी का पहला उपन्यास आया है ‘भली
लड़कियां बुरी लड़कियां’ वो भी एक सौ छिहत्तर पेज का है। अब ज्यादातर
उपन्यास दो सौ पेज या उससे कम के आ रहे हैं। तीन साल पहले रत्नेश्वर सिंह का
चर्चित उपन्यास ‘रेखना मेरी जान’ का
प्रकाशन हुआ था वो भी एक सौ इकहत्तर पेज का था। पिछले दस सालों में ऐसा क्या हुआ
कि हिंदी के उपन्यासों की पृष्ठ संख्या घटकर आधी से भी कम हो गई। क्या पाठकों की
रुचि में बदलाव आया है? क्या बाजार का दबाव है? या फिर लेखकों का अनुभव सिमट गया है? इनपर विचार करना चाहिए।
उपन्यासकार भगनावदास मोरवाल को इसमें अलग ही वजह
नजर आती है। वो ये तो मानते हैं कि लेखकों के पास जैसे जैसे अनुभवों की जमीन सूखती
जाती है वैसे वैसे कथा विस्तार कम होता चला जाता है। वो जोर देकर यह भी कहते हैं
कि हिंदी के उपन्यासों की पृष्ठ संख्या कम होने के पीछे आलोचकों की काहिली भी है। उनका
तर्क है कि आलोचक अब मोटे उपन्यास पढ़ना नहीं चाहते हैं। अगर उनके सामने मोटे
उपन्यास आएंगें तो उनको विश्लेषण करने के लिए ज्यादा पढ़ना और मेहनत करना होगा, जो
हिंदी के आलोचक करना नहीं चाहते हैं तो उन्होंने परोक्ष रूप से मोटे उपन्यास का
शोर मचा दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि उपन्यासकार जब लिखने बैठने लगे तो उनके मन में
अपनी कृति के आकार को लेकर पहले से एक चौहद्दी खिंची रहने लगी। उपन्यासकार मोरवाल
दूर की कौड़ी लेकर आए हैं लेकिन ये कौड़ी दिलचस्प है। अगर इस बात में सचाई है तो
क्या ये माना जाए कि आलोचकों के दबाव में हिंदी के उपन्यासकार वांछित कथा विस्तार
में भी कांट-छांट कर देते हैं। हिंदी उपन्यासों के आकार छोटे होने की वजहों पर बात
करें तो मुझे इसके पीछे दो तीन कारण नजर आते हैं। पहला तो लेखक के अनुभव संसार का
छीजना या अनुभव भंडार का कम होना। लेखक अपने प्रत्यक्ष अनुभवों को संकलित करता
चलता है, एक ही घटना का प्रभाव अलग अलग लेखकों पर अलग अलग तरीके से पड़ता है। जब
वो लिखने बैठता है तो उसको ही पन्नों पर उतारता चलता है जिसकी वजह से एक घटना पर
आधारित होने की वजह से कृतियां अलग अलग रूप में आती हैं। दूसरा कि बाजार का दबाव
जिसमें प्रकाशकों का आग्रह भी शामिल है। यह बात अब सभी कह रहे हैं कि युवा पाठकों
के पास अब इतना समय नहीं है कि वो मोटे-मोटे उपन्यास पढ़ सकें तो बहुत संभव है कि
अब लेखक, पाठकों की इस रुचि का ध्यान रखते हुए पतले उपन्यास लिख रहे हों। लेकिन
अगर ऐसा है तो ये विधा के साथ न्याय नहीं है। रचनात्मकता अपना विस्तार या सीमा खुद
तय करती है, बाजार या पाठकों की रुचि उसको तय नहीं कर सकती है। विलियम फॉकनर ने
कहा था कि ‘वो जब कोई किताब लिखते हैं तो उसके पात्र खुद
खड़े हो जाते हैं और फिर वही तय करते हैं कि उनको कौन सा रूप मिलेगा और उनका अंजाम
क्या होगा।‘ अगर बाजार के दबाव में कोई कृति लिखी जा रही है
तो बहुत संभव है कि एक लंबे कालखंड़ के बाद उसकी प्रवृत्ति और प्रकृति दोनों बदल
जाए। कम पृष्ठ संख्या के उपन्यासों के प्रकाशन के पीछे प्रकाशकों की ये सोच हो
सकती है कि अगर पुस्तक कम पृष्ठों की होगी तो उसका मूल्य कम होगा और मूल्य कम होने
की वजह से उसकी बिक्री ज्यादा हो। हिंदी में उपन्यास पर बहुत कम काम हुआ है। लेखों
को एक जगह जमा कर आलोचना की पुस्तकें बना ली गई हैं, विचारधारा के ध्वजवाहकों ने
ऐसे लेखकों को आलोचक का तमगा भी दे दिया है लेकिन उपन्यासों पर, उसके बदलते फॉर्म
पर, उसके आकार-प्रकार पर, उपन्यासों की बदलती कथा प्रविधि
पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। अब वक्त आ गया है कि हिंदी में भी इस तरह
के विषयों पर अध्ययन, चिंतन, मनन और लेखन हो।
3 comments:
आपने अच्छे प्रश्न उठाए हैं। अगर लेखक आलोचक के श्रम को ध्यान में रख कर लिखेगा तो कृति के साथ न्याय नहीं करेगा। बाजार का और युवा पाठक का दबाव तो है, मगर यह भी रचनात्मकता को प्रभावित करता है।
बिल्कुल जायज आकलन
आपका विश्लेषण अच्छा है। लेकिन इस बात से सहमत होने का मन नहीं मानता कि बाजार के दबाव में युवा लेखकों की रचनात्मकता आकार में छोटी हो रही है ।
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