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Saturday, February 16, 2019

वामपंथ के मंच पर अचूक कलावादी


इन दिनों पूरे देश में चुनाव का माहौल है। राजनीतिक सरगर्मियां तेज हैं। हर दल लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की जुगत में है। गठबंधन और महागठबंधन हो रहे हैं। किसी का साथ छूट रहा है तो किसी का हाथ थामा जा रहा है। एक दूसरे के वैचारिक विरोधी साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ताना-बाना रच रहे हैं। उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी मायावती और अखिलेश ने हाथ मिला लिया है। इसी चुनावी माहौल और सत्ता के लिए हो रहे गठबंधन के दौर में अचानक डाक से एक पुस्तिका प्राप्त हुई। यह पुस्तिका नए साल पर उपहार प्रति के तौर पर हिंदी के चर्चित कवि लेखक अशोक वाजपेयी की तरफ से भेजी गई थी। जब लिफाफा खोलकर पुस्तिका बाहर निकाली तो चौंका। इस महादेश के वैज्ञानिक विकास के लिए प्रगतिशील रचनाओं का मंच पहल पत्रिका की तरफ से प्रकाशित पहल पुस्तिका के कवर पर अशोक वाजपेयी की तस्वीर थी। हैरत से पुस्तिका को पलटा तो बैक कवर पर भी अशोक वाजपेयी की तस्वीर थी।इसके अलावा दोनों इनर कवर पर भी अशोक वाजपेयी की विभिन्न भंगिमाओं की तस्वीर थी। हैरत इस वजह से कि अशोक वाजपेयी पहल पत्रिका के कवर पर कैसे? प्रगतिशील रचनाओं की अनिवार्य पुस्तक होने का दावा करनेवाली इस पत्रिका में कलावादी और सौंदर्यवादी अशोक वाजपेयी कैसे? अशोक वाजपेयी का वामपंथ से विरोध जगजाहिर और पहल पत्रिका की वामपंथ से प्रतिबद्धता भी सबको पता है। मन में यह प्रश्न उठा कि ये गठबंधन कैसे हुआ? क्या राजनीति की तरह साहित्य में भी वैचारिक गठबंधन का दौर शुरू हो गया है।
हिंदी साहित्य जगत ने पहल के संपादक ज्ञानरंजन और अशोक वाजपेयी के बीच वैचारिक विरोध को वैयक्तिक विरोध के स्तर तक पहुंचते देखा है। किसी जमाने में पहल पत्रिका अलग अलग शहर में जाकर पहल सम्मान का आयोजन किया करती थी। करीब डेढ़ दशक पहले ऐसा ही एक आयोजन दिल्ली में भी हुआ था। दिल्ली में हुए पहल के उस आयोजन को लेकर विवाद उठा था। तब ज्ञानरंजन ने मुझसे एक टेलीविजन कार्यक्रम के दौरान अशोक वाजपेयी को काफी बुरा भला कहा था। अशोक वाजपेयी भी वामपंथ पर हमला करने का कोई मौका कभी चूकते नहीं थे। अपने स्तंभ में अशोक वाजपेयी बहुधा वामपंथियों पर तंज कसते थे। एक बार अपने स्तंभ में उन्होंने लिखा था- यो तो इन दिनों दिल्ली का पारा बहुंत ऊंचा चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि मई महीने में तापमान कभी इतना ऊंचा नहीं गया था जितना इस महीने जा चुका है। ऐसे उत्तप्त समय में हमारे प्रगतिशील और जनवादी मित्र तो निश्चय ही अपनी जगजाहिर प्रतिबद्धता के अनुरूप जनसंघर्ष में अपनी हिस्सेदारी तेज करने और कलावादी विचलन पर एक और वार करने की तैयारी कर रहे होंगे। लेकिन मुझ कुख्यात कलावादी को लगभग बेमौसम लेकिन लगातार कलाओं में ही ऊभ-चूभ करने का अवसर मिल रहा है।अपने इसी टिप्पणी के अंत में अशोक जी ने पूछा था- अपने अदम्य और अचूक कलावाद के चलते मैं उसके रसास्वादन में न डूबूं यह कैसे संभव है?’ अपनी इस टिप्पणी में अशोक वाजपेयी अपने को कुख्यात से लेकर अचूक कलावादी तक करार दे रहे हैं लेकिन वामपंथ के वैचारिक ध्वजवाहक ज्ञानरंजन अपनी पत्रिका में इस अचूक कलावादी को अवसर दे रहे हैं। क्या मौजूदा दौर की राजनीति की तरह कहीं कुख्यात कलावादीऔर धुर वामपंथी ने हाथ तो नहीं मिला लिया है। राजनीति में तो सत्ता के लिए बेमेल गठबंधन होते रहे हैं लेकिन साहित्य में किस सत्ता के लिए इस तरह के बेमेल वैचारिक गठबंधन हो रहे हैं ये शोध का विषय हो सकता है।
गठबंधन भी ऐसा कि प्रश्नकर्ता भी वही और उत्तर देनेवाले भी वही। यानि कि इस पुस्तिका में प्रश्न भी अशोक वाजपेयी के हैं और उत्तर भी उनके। इस तरह के आयोजन में उत्तर देनेवाले को असुविधाजनक प्रतिप्रश्नों को नहीं झेलना पड़ता है और अपने बनाए हुए प्रश्नों के आलोक में जितना बड़ा चाहें प्रवचननुमा उत्तर दे सकते हैं। ज्ञानरंजन ने यही अवसर अशोक जी को उपलब्ध करवाया। अशोक वाजपेयी मानते हैं कि यह थोड़ा अटपटा है कि इस दस्तावेज में प्रश्न भी मेरे हैं और उत्तर भी। कोशिश की है कि प्रश्न ऐसे हों जो किसी ना किसी रूप में मुझसे कभी ना कभी पूछे गये हैं या पूछे जाने चाहिए।ज्ञानरंजन को ये बात हिंदी जगत को स्पष्ट करनी चाहिए कि उन्होंने किस राग या फिर किस उद्देश्यपूर्ति के लिए अशोक वाजपेयी को ये अटपटा मौका दिया।
अपने एक प्रश्न के उत्तर में अशोक वाजपेयी ये कहते हैं कि लोकतंत्र को धर्म और जाति ने चांप रखा है। अशोक वाजपेयी बहुपठित व्यक्ति हैं। लगता है आशुतोष वार्ष्णेय की पुस्तक बैटल्स हॉफ वन, इंडियाज इंप्रोबेबल डेमोक्रैसीउनकी नजर से नहीं गुजरी। अपनी इस पुस्तक में आशुतोष ने इस बात को आंकड़ों और उद्धरणों से साबित किया है कि किस तरह से जाति और जातिगत राजनीतिक नेतृत्व ने लोकतंत्र को मजबूती प्रदान की है। जाति व्यववस्था एक सामाजिक दुर्गुण है इससे किसी को इंकार नहीं है लेकिन लोकतंत्र को चांपने जैसी जिस तरह की शब्दावली का अशोक वाजपेयी उपयोग करते हैं वो उनके जैसे वरिष्ठ और बहुपठित लेखक से अपेक्षित नहीं है। प्रश्नोत्तरी की इस पुस्तिका में कई जगह पर अशोक जी अज्ञानवश या जानबूझकर भारतीय ज्ञान परंपरा को नीचा दिखाने की कोशिश करते नजर आते हैं। एक जगह पर वो कहते हैं कि पूरे भारत में इस वक्त उनको एक भी धर्म विचारक नजर नहीं आता। विचार की धर्मों से विदाई हो चुकी है। अव्वल तो अशोक वाजपेयी को धर्म विचारक की परिभाषा स्पष्ट करनी चाहिए। हर जगह फतवानुमा उत्तर देकर निकल जाते हैं जिससे वो खुद ही सवालों के घेरे में आ जाते हैं। धर्म को लेकर इस वक्त इतना काम हो रहा है जिसपर विचार करने और उसको रेखांकित करने की आवश्यकता है। जब व्यक्ति बुजुर्ग होने लगता है तो वो अतीतजीवी हो जाता है। प्रश्नोत्तरी की इस पुस्तिका में अशोक वाजपेयी अतीतजीवी होने के दोष में जकड़े नजर आते हैं। पुराने जमाने में ये अच्छा था, पुराने जमाने में वो अच्छा था, पहले के पत्रकार इतने अच्छे होते थे, पहले इतने विचारक होते थे आदि आदि। पहले का सब अच्छा और अब सब बुरा। ये सरलीकरण और सामन्यीकरण है।
इस पुस्तिका में अशोक वाजपेयी इस वक्त के चालू मुहावरे भी उठाते हैं जैसे वो गोदी मीडिया जैसे चालू जुमले का प्रयोग करते हैं तो लगता है कि वो एजेंडा विशेष को बढ़ा रहे हैं। वो ये भी कहते हैं कि पिछले चार सालों में सुनियोजित ढंग से संस्कृति-संबंधी राष्ट्रीय संस्थानों का कद हैसियत और व्यापक प्रासंगिकता को घटाया गया है, इस समय हमारे लोकतंत्र के इतिहास में इन सांस्कृतिक संस्थानों के शिखर पर अपने क्षेत्र के सर्वथा अज्ञातकुलशील लगभग बौने लोग नियुक्त किए गए हैं जिनकी पात्रता उनकी संघ वफादारी पर आधारित है। पहले नारायण मेनन, यू आर अनंतमूर्ति, गिरीश कारनाड, नामवर सिंह, जगदीश स्वामीनाथन आदि को जब नियुक्त किया गया था तो उनमें से किसी को भी कांग्रेसी नहीं कहा जा सकता था। यहां तक तो अशोक जी ठीक थे लेकिन क्या वो इस बात की गारंटी ले सकते हैं कि इनमें से कोई वामपंथी नहीं था। शायद वो ये भूल गए कि इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समर्थन के एवज में कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े मसले वामपंथियों को आउटसोर्स कर दिए थे। जहां तक संघ वफादारी की बात है तो इस टिप्पणी में भी अशोक वाजपेयी अगर उदाहरण देते तो आगे बात हो सकती थी। इस पुस्तिका में परोक्ष रूप से अशोक वाजपेयी ने वामपंथियों को उदार दृष्टि वाली विचारधारा बताने का प्रयास किया है। प्रश्न है कहा जा रहा है कि संसार भर में उदार और वाम राजनीकि हाशिए पर ढकेल दी गई है एक अनुदार संसार बन रहा है। क्या यह उदार दृष्टि का पराभव है। दिलचस्प और मजेदार यह है कि अशोक वाजपेयी वामपंथ का बचाव करते हैं और कहते हैं कि यह पूरी तरह से सही नहीं है- हमार पड़ोस नेपाल और भूटान में वाम शक्तियां प्रखर हैं। अशोक जी यहां चीन का नाम लेना भूल गए या फिर चतुर सुजान की तरह चीन का नाम नहीं लिया क्योंकि चीन में उदारता तो है नहीं। अगर वो चीन का नाम लेते तो फिर वहां की तानाशाही व्यवस्थाओं का बचाव मुश्किल होता। पाठकों को अशोक वाजपेयी के इस प्रश्नोत्तर के बाद कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा कि ज्ञानरंजन ने उनपर पहल पुस्तिका क्यों निकाली। गैर-वामपंथी अगर वामपंथ का बचाव करेंगे तो संभव है कि कुछ लोग सुन लें। वैसे यह भी संभव है कि पहल जिस वैज्ञानिक विकास और प्रगतिशीलता की बात करता है उसका रास्ता पूंजीवाद से होकर जाता हो। पूंजी के सामने प्रगतिशीलता ने रास्ता बदल लिया हो।  

3 comments:

chandreshwar said...

'पहल' और अशोक वाजपेयी का अवसरवाद से पुराना नाता है | इनके गठबंधन में अजूबा जैसा कुछ भी नहीं है | आपके लेख में वैचारिक पैनापन की कमी है|

Madan Kashyap said...

कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ
जगत तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ।

Isht Deo Sankrityaayan said...

अच्छी टिप्पणी। वैसे इस गठबंधन का आरंभ आज़ादी के तुरंत बाद से ही गया था, राष्ट्रभाषा के मसले पर। इसी गठबंधन के तहत भारतीय संघ की राष्ट्रभाषा के तौर पर उर्दू की जगह हिंदी के समर्थन के लिए राहुल सांकृत्यायन को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से त्यागपत्र देना पड़ा था। हालांकि वाम के पूरे समर्थन के बावजूद उर्दू राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई, लेकिन हिंदी भी राष्ट्रभाषा की जगह केवल राजभाषा बनकर रह गई। याद करें, नेहरू के मंत्रिमंडल में मेनन भी थे और कांग्रेस अवड़ी अधिवेशन के बाद नेहरूजी देश भर में खेती का समाजीकरण करने पर तूल गए थे। तब कांग्रेस में ही चौधरी चरण सिंह और पूरा जनसंघ खुलकर विरोध में खड़ा हो गया। 75 में बस इतना हुआ कि यह गठबंधन खुलकर सामने आ गया। और जो बचा-खुचा था, वह अब आ रहा है। आप वाजपेयी के अच्छे दिनों का दौर ही देख लें। जितनी रेवड़ियाँ बांटने का इन्हें हक़ था, उसमें इन्होंने वाम के हिस्से का हमेशा पूरा खयाल रखा।